मुकुल शिवपुत्र का साक्षात्कार //
पंडित मुकुल शिवपुत्र- गान मनीषी पं. कुमार गंधर्व के ज्येष्ठ पुत्र। यह यायावर कलाकार पिछले दिनों चर्चा में रहा। पहले भोपाल में बदहाली में मिले। शासन ने ख्याल गुरूकुल प्रारम्भ किया लेकिन इस फक्कड़ कलाकार को वह सब रास न आया। िफर एक दिन नशा मुक्ति केन्द्र को छोड़ कूच कर गए। बाद में ग्वालियर में मिले लेकिन वहाँ कहा कि भोपाल में और शासन के बंधन में मन नहीं लगता। इसी पूरी प्रक्रिया के दौरान एक सुबह मुकुलजी से तवील मुलाकात हो गई। इसी के कुछ अंश:-
उनका परिचय इतना भर नहीं है। कुमारजी की ख्याति का ही खयाल और ध्मार गायक हैं मुकुल शिवपुत्र। मिजाज से कलाकारों का चिरपरिचित फक्कड़पन पहली ही मुलाकात में नजर आ जाता है। मुकुलजी से मिलना, बतियाना ऐसा लगता है जैसे संगीत सरोवर में गोते लगा रहे हैं। तबीयत सूफयाना है तो यह तय नहीं कि मुकुलजी एकदम खुल कर ही मिलेंगे। हो सकता है आप घंटों बैठे रहे और सारे जहाँ की बातें हो मगर यह विरला गायक कोई तान तक न छेड़े। संभव है बीच संवाद में अचानक कोई तान सहज बहती चली आए और हमें आनंद में भिगोते हुए निकल जाए। मन न हो तो वे बात भी न करें और भाव हो तो घंटों संगीत और अपने अनुभवों के बारे में बतिया सकते हैं। वे बात करते हैं तो लगता है कि बोलते चले जाएँ और हम अभिभूत से वाचिक परम्परा का अंग बनते हुए संगीत के मर्म को जानते रहें।
कुमारजी ने शुरू किया संगीत विधाओं का अंर्त संवाद /
बकौल मुकुलजी खयाल, ठुमरी, ध्रुपद आदि संगीत की अलग-अलग विधाएँ हैं। इन्हें खानों में बाँटना ठीक नहीं है। ठुमरी की ही तरह खयाल गायकी भी परम्परागत है। ऐसा कैसे हो सकता है कि एक विधा को तो हम जाने और दूसरी से दूरी बना कर रखें। खयाल केन्द्र में जो भी शिष्य आएगा उसे ठुमरी, ध्रुपद, ध्ामार आदि से वंचित नहीं रखा जाएगा। एक घराने की परम्परा को गाएँ और दूसरे के महत्व को नजरअंदाज करें, यह कैसे संभव है? यह तो ऐसे होगा कि हम हिन्दी बोलने वाले को कहे कि वह मराठी न सीखे। सभी घरानों के संगीतकारों और गायकों को अपने दायरे तोड़ कर अंर्त संवाद करना चाहिए। इससे तुलनात्मक अध्ययन का सम्भावना बनी रहती है। कुमार गंधर्वजी ने इसी अंर्त संवाद की शुरुआत की थी। वे ग्वालियर घराने के थे लेकिन उन्होंने रामपुर, जयपुर सहित सभी घरानों की खूबियों को जाना था। ऐसा करने वाले वे पहले कलाकार थे, क्योंकि तब तक रेडियो सहित तमाम उपकरणों का ऐसा विकास नहीं हुआ था। बचपन में बाबा (कुमारजी) ने हर घराने की गायन शैली का उसके वैशिष्ट्य के साथ करवाया था। बाबा ने अपने कमरे में जयपुर घराने के सिद्ध गायक अलादिया खाँ साहब का फोटो लगा रखा था। यह उनके कमरे में लगा किसी गायक का एकमात्र फोटो था।
वाचिक परम्परा का रहना जरूरी/
संगीत परम्पराओं और थाती को सहेजने के लिए ज्ञान को लिपिबद्ध करना कितना जरूरी है? इस सवाल के जवाब में मुकुलजी ने कहा कि वाचिक परम्परा खत्म नहीं होती। जो ज्ञान वाचिक में रहा वह अब तक बचा हुआ है, क्योंकि जो मस्तिष्क में लिख गया, वह कभी खत्म नहीं होगा। रामचरित मानस ही ले लीजिए। उसकी चौपाइयाँ याद है तो क्या फर्क पड़ता है कि उन्हें लिखा गया है या नहीं। यदि किसी ज्ञान को वाचिक परम्परा ने नहीं सहेजा तो िफर चाहे कितनी किताबें लिख लो, उसे बचाया नहीं जा सकेगा। असल वह है जो मस्तिष्क को प्रभावित करे।
पहली सभा 51 वर्ष की उम्र में! /
संगीत साधना माँगता है। आज की पीढ़ी सब कुछ जल्दी चाहती है। ऐसे में रियलिटी शो क्या वास्तविक प्रतिभा को सामने ला पाते हैं, पूछने पर मुकुलजी ने बताया कि जयपुर घराने के सिद्ध गायक अलादिया खाँ साहब ने लयकारी और स्वरकारी का अद्भुत समन्वय किया था। उन्हीं के कारण जयपुर की गायकी में राग व ताल का सुंदर मेल मिलता है। अलादिया खाँ साहब ने कई बड़े शागिर्द तैयार किए, लेकिन उनकी पहली महिफल मुंबई में तब हुई थी, जब वे 51 वर्ष के थे। आज माता-पिता कहते हैं कि बच्चा 13 साल का हो गया, उसे मंच नहीं मिला। बाहर नहीं निकलेगा तो सपोर्ट कैसे मिलेगा, जबकि बाबा कहा करते थे कि बाहर निकलने पर सपोर्ट नहीं विरोध्ा मिलेगा बाहर कौन सहयोग करने के लिए तैयार बैठा है। पहले खुद को तैयार करो िफर मंच की चाह करो।
संगीत साधना के लिए चाहिए निष्ठा /
मुकुलजी के मुताबिक संगीत सीखने की प्राथमिक जरूरत निष्ठा है। यह निष्ठा जो कुछ सीख रहे हैं और जो गुरू सीखा रहे हैं, उनके प्रति होना चाहिए। चाहे प्रतिभा, निरीक्षण और परीक्षण की क्षमता, स्मृति की प्रखरता, सुक्ष्म परिक्षण का कौशल, मीठा गला जैसी अनिवार्य योग्यता नहीं होगी तो भी निष्ठा के बल पर संगीत साधना की जा सकती है। संगीत सीखने की ललक ही बड़ी बात है। ऐसे ही थे उस्ताद रजब अली साहब। देवास के दरबार गायक रजब अली साहब तो अलादिया खाँ साहब की रियाज सुन-सुन कर ही गायक बन गए थे। इसी कारण वे अपने घराने का परिचय सुन्नी घराने के रूप में देते थे।
गुरू शिष्य परम्परा ही मूल /
यह कहना गलत है कि गुरू शिष्य परम्परा खत्म हो रही है। मुकुलजी कहते हैं कि यह परम्परा हमारी संस्कृति का मूल है। माँ-बच्चों का रिश्ता इस परम्परा की शुरूआत है। गुरू वह ही नहीं है जो कुछ ज्ञान दे, बल्कि वह भी गुरू है जो मार्ग दिखाता है। गायन प्रतिभा है तो पहले जो सभी नकल ही करते हैं, अच्छा गुरू उस प्रतिभा को पहचान राह दिखा देता है। मियां तानसेन तो जंगली पशुओं की आवाज की नकल किया करते थे। एक दिन गुरू हरिदास शिष्यों के साथ जंगल से गुजर रहे थे तो तानसेन ने शेर की आवाज निकाल कर उन्हें डरा दिया। पहली बार तो स्वामी हरिदास भयभीत हो गए, लेकिन दूसरी बार पहचान गए कि यह शेर की आवाज नहीं है। जंगल में मिले गुरू ने ही तानसेन को राह दिखाई। आज ऐसे ही गुरू की जरूरत है।
Friday, November 6, 2009
Tuesday, November 3, 2009
मैं, तुम्हारे आंगन का पेड़ हूं ...
मैं, तुम्हारे आंगन का पेड़ हूं। कैसे हो? आजकल बहुत मसरूफ रहते हो शायद, इसीलिए न कभी अपनी कहते हो और न कभी हमारी सुनते हो। मान लेता हूं कि सबकुछ ठीक होगा लेकिन यह मानने का मन नहीं कर रहा। आजकल तुम आते-जाते बड़ी चिंता में दिखलाई देते हो? सुना है, राशन और दफ्तर की चिंता के साथ तुम्हें बदलता मौसम भी परेशान करता है।
कल ही तो तुम अपने मित्र से कह रहे थे कि ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने के उपाय होने चाहिए। मुझे तो बड़ी हंसी आई तुम पर। तुम अब भी नादान ही रहे, बचपन की तरह! दुनिया बचाने की चिंता कर रहे हो अपने आँगन-मोहल्ले को भुलाए बैठे हो! अब ऐसे क्या देख रहे हो, जैसे मैंने कोई अजूबी बात कह दी हो।
तुम्हें अपने घर-आंगन की खबर ही कहां है? तुम तो यह भी भूल गए कि परसों नुक्कड़ के उस पेड़ को काट दिया गया जिसकी इमलियाँ तुम रोज अपने जेब में भर कर ले जाते थे और उन्हीं के कारण स्कूल में कई दोस्त बने थे तुम्हारे। हां, सड़क बनाने के लिए उस पेड़ को काट दिया। फुर्सत मिले तो देखना, कल तक जहां हरियाली थी आज खाली आसमान नजर आएगा। पिछले साल मुझे भी तो काट डाला था न, घर की छत बढ़ाने के लिए। तुम्हीं बताओ, अब बच्चों को झूले डालने के लिए कहां मिलती हैं हमारी शाखाएं जैसी तुम्हें मिलती थीं।
तुम धरती बचाने की फिक्र करते हो और उन कारणों को भूल जाते हो जिनके कारण धरती का अस्तित्व खतरे में पड़ा। तुम्हीं तो खेतों में रासायनिक खाद का ढेर लगाते हो, जहरीले कीटनाशक डालते हो, वायु को प्रदूषित करते हो, पानी को बर्बाद करते हो, जंगल उजाड़ते हो और वन्य प्राणियों को खत्म करते हो। अब बताओ, ऐसे क्या पृथ्वी बची रहेगी? ऐसे क्या तुम बचे रहोगे?
तुम जानते हो, 3 हजार कागज बनाने के लिए एक पेड़ को काटा जाता है। एक टन कागज की बर्बादी रोक कर तुम 17 पेड़ों को कटने से बचा सकते हो। अपने घर को रोशन करने के लिए 41 सौ किलोवॉट बिजली बच सकती है और 26 हजार गैलन पानी बचाया जा सकता है।
तुम्हारे आंगन में पेड़ होंगे तो उन पर गौरेया घोंसला बनाएंगी...झूले डालने को शाखाएँ बची रहेंगी...फल बचे रहेंगे...और तुम्हारे बच्चों का बचपन बचा रहेगा, संस्कृति बची रहेगी और पोषित होती रहेंगी परंपराएं जो पेड़ के साये में पल्लवित होती हैं। पेड़ बचे रहेंगे तो बची रहेगी पृथ्वी...तुम सुन रहे हो ना?
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