वहां कोई तुम्हारा अपना रहा करता था
खूब गुजारते थे वक्त
उसके पहलू में।
उसी का आंचल सुख देता था
उसी का सत
मिटाता था भूख।
उसी के आश्रय में खेल,
उसी के साये में चैन।
तुम भूल गए।
फिर वो दरख्त भी कहां रहा
जो याद दिलाता।
वो दिन क्या गुजरे
फूल खिलना बंद हो गए
नहीं मिलती छांव
न रस ही मिलता
किसी को तुमसे।
वो पेड़ क्या सूखा
सूख गया तुम्हारा साया।
गांव किनारे की ही नहीं,
नदी तो भीतर की भी सूखी है।
खरी कहो
क्या छई छप्पा छई
के बिना तुम
सचमुच सुखी हो ?
Saturday, May 21, 2016
Saturday, February 27, 2016
मप्र के 42 फीसदी बच्चे बौने, आखिर खाते क्या हैं?
आपने एक प्रख्यात हेल्थ ड्रिंक का टीवी विज्ञापन देखा होगा जिसमें
बच्चे पूछते हैं कि उनका साथी साथ इत्तू सा था, इतनी जल्दी इतना लंबा कैसा हो गया? आखिर खाता क्या
है? ऐसे विज्ञापनों
ने बच्चों और उनके माता-पिता में लंबाई को लेकर प्रतिस्पर्धा और हीनता का बोध
जगाया लेकिन क्या आपको पता है कि कुपोषण मप्र के बच्चों को दुर्बल
और कमजोर ही
नहीं बना रहा बल्कि यह उनके नाटे रहने का कारण भी है। ताजा आंकड़े बताते हैं कि
कुपोषण के कारण राज्य के 42 प्रतिशत बच्चे
नाटे रह जाते हैं। मप्र के बच्चे पूरी तरह स्वस्थ्य नहीं हैं क्योंकि जन्म के दो
दिन के अंदर 82 फीसदी बच्चों को
डॉक्टरों से उपचार नहीं मिलता। उन्हें पोषण आहार नहीं मिलता। इस कारण 60 फीसदी बच्चों
में खून की कमी है और इन शारीरिक दुर्बलताओं के कारण बच्चे पढ़ाई में कमजोर रह
जाते हैं। इस तरह कुपोषण के कारण बच्चों का कम शारीरिक और मानसिक विकास अंततः
प्रदेश की विकास दर को भी प्रभावित कर रहा है। मप्र के नाटे बच्चों को देख कर
बार-बार पूछा जाना चाहिए कि आखिर ये खाते क्या हैं? ताकि सरकार और समाज ध्यान दे कि हमारे प्रदेश के
बच्चे खा क्या रहे हैं?
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2015-16 का प्रतिवेदन कई
खुलासे करता है। इन आंकड़ों को जानने के बाद कुपोषण के प्रति अधिक व्यापक रूप से
सोचने की आवश्यकता महसूस होती है। यदि कुपोषण को बच्चों के कम वजन या कमजोरी के
रूप में ही देखा जाता है तो अब यह समझना होगा कि बच्चों का कद न बढ़ना और उनका
नाटा रह जाना भी कुपोषण का ही दुष्परिणाम है। यह सर्वे बताता है कि राज्य में 100 में से 40 बच्चे आज भी
कुपोषण से ग्रस्त हैं। 13 राज्यों और 2 केन्द्र शासित
प्रदेशों के लिए जारी एनएचएफएस 4 के आंकड़ों के अनुसार मप्र में 5 साल से कम उम्र
के 40 फीसदी से ज्यादा
बच्चों का विकास ठीक से नहीं हो पाता है यानि उनकी ऊँचाई और वजन सामान्य से कम रह
जाता है। जबकि 5 साल से कम उम्र
के 42.8 फीसदी बच्चों का
वजन सामान्य से कम (अंडरवेट) होता है। सामान्य से कम वजन वाले बच्चों की प्रतिशतता
के आंकड़े 35 फीसदी से कम
होकर 25.8 फीसदी पर आ गए
हैं लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानदण्डों के अनुसार यह संख्या अब भी बहुत
ज्यादा है।
यहां ध्यान दे सरकार:
जन्म के बाद बच्चों की मृत्यु रोकने के लिए जन्म के तुरंत
बाद प्रसव के पहले और बाद में सही उपचार आवश्यक है। खासतौर पर तब, जब बड़ी संख्या में बच्चे गांवों एवं आदिवासी इलाकों में
रहते हैं। इन बच्चों को आंगनवाड़ी, स्वास्थ्य सेवाएं एवं पोषण सुविधाएं सीमित मात्रा में
उपलब्ध हो पाती हैं। स्तनपान एवं अर्द्ध ठोस आहार पाने वाले दो साल से कम उम्र के
बच्चों की प्रतिशतता यानी पर्सेंटाइल 6.6 फीसदी है। ऐसे में बाल मृत्यु और कुपोषण से बचाव के लिए
गांवों में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य और पोषण सुविधाएं पहुंचाना आवश्यक है।
आंकड़ें बताते हैं कि राज्य के 50 फीसदी बच्चों को
निवारणीय रोगों की रोकथाम के लिए पर्याप्त टीकाकरण तक उपलब्ध नहीं हो पाता है। 2014 में राज्य सरकार
ने मिशन इन्द्र धनुष आरंभ किया है। उम्मीद है कि अगले सर्वेक्षण में आंकड़ों में
सुधार होगा। प्रसवपूर्व देखभाल, नवजात शिशुओं के
स्वास्थ्य एवं जीवित रहने तथा कुपोषण से लड़ने के लिए आवश्यक है। राज्य सरकार को
इस ओर ध्यान देना होगा।
गणित में होगा कमजोर
बच्चों के स्वास्थ्य का उनके भावी जीवन में भी बड़ा असर
देखा गया है। अध्ययनों में बताया गया है कि अस्वस्थ्य या कुपोषित बच्चा अपने जीवन
में आगे चल कर कई अन्य बीमारियों से परेशान होता है। इतना ही नहीं, यह कमजोरी उसकी शिक्षा
को भी प्रभावित करती है। बचपन में यदि कोई गेंद पकड़ने या फेंकने जैसा काम ठीक से
नहीं कर पाता तो माना जाना चाहिए कि आगे चल कर वह गणित में कमजोर होगा। स्टेवांगर
यूनिवर्सिटी के नार्वेजियन रीडिंग सेंटर के प्रमुख शोधकर्ता प्रोफेसर एलिन रेइकेरस
ने इस अध्ययन के आधार पर दावा किया कि दो साल के बच्चों के पेशी कौशल (मोटर स्किल)
और गणितीय कौशल के बीच रिश्ता होता है। पेशी कौशल किसी खास कार्य के लिए शरीर की
मांसपेशियों की होने वाली सटीक गतिविधि को कहते हैं।
मप्र के बच्चे शिक्षा में पहले ही कमजोर
नेशनल अचीवमेंट सर्वे (नास) में शिक्षा के मामले में प्रदेश
दूसरे राज्यों की तुलना में तीन पायदान फिसला है। कक्षा तीन के बच्चों पर किए गए
सर्वे में भाषा के मामले में मप्र 25वें से 28वें नंबर पर आ गया है। वहीं गणित में 23वें नंबर पर है।
भाषा का स्तर जानने के लिए सर्वे के तीन आधार रखे गए थे। सर्वे शब्दों को सुनकर
समझने, पढ़कर समझने और
लिखकर बताने व समझने के बिंदुओं पर किया गया। सर्वे बताता है कि मप्र के बच्चे
सुनकर समझने के मामले में 62 प्रतिशत तक
शिक्षित हैं, जबकि राष्ट्रीय
औसत 65 प्रतिशत है। यदि
लिखने व लिखे शब्दों को पहचानने की बात करें तो मप्र के बच्चे 83 प्रतिशत पर हैं, जबकि देश का औसत 86 प्रतिशत है।
पढ़कर समझने के मामले में मध्यप्रदेश के बच्चे देश में 28वें नंबर पर हैं।
यह 52 प्रतिशत है और
यही सबसे खराब स्थिति है। राष्ट्रीय औसत 59 प्रतिशत है।
गणित के मामले में दस बिंदुओं पर सर्वे किया गया। संख्या को
जोडने के मामले में मध्यप्रदेश के बच्चे देश में 21वें नंबर पर हैं, जो राष्ट्रीय औसत 69 प्रतिशत से पीछे
हैं। घटाने के मामले में मध्यप्रदेश के बच्चे सबसे बेहतर हैं। राष्ट्रीय औसत 65 प्रतिशत है, जबकि मप्र का औसत
68 है। गुणा करने पर
मप्र देश में 28वें नंबर पर है।
देश का औसत 63 प्रतिशत है, जबकि मप्र 59 प्रतिशत पर है।
आंकड़े जो चिंता बढ़ाते हैं
- 5 साल से कम उम्र के प्रत्येक 100 में से 40 से ज्यादा बच्चों का विकास ठीक से नहीं हो रहा।
- 5 साल से कम उम्र के 100 में से 40 बच्चों का वजन सामान्य से कम है।
- पांच साल से कम उम्र के 60 फीसदी से ज्यादा बच्चों में खून की कमी है।
- केवल 55 प्रतिशत बच्चों का ही सम्पूर्ण टीकाकरण होता है।
Sunday, February 7, 2016
मप्र के विकास की अधूरी कहानी : असफल हो गई शिव 'राज' की सामाजिक नीतियां
हमें गर्व होता है कि राज्य सरकार ने मप्र को विकास की
पटरी पर दौड़ाने के सारे जतन किए है। इसी का परिणाम है कि बीते नौ सालों में हमारा
सकल राज्य घरेलू उत्पाद 5.3 से बढ़ कर 11.1 प्रतिशत हो गया। कृषि और संबंधित क्षेत्र की विकास दर 7 से बढ़ कर 23.3 प्रतिशत हो गई। प्रति
व्यक्ति आय भी 3.1 से बढ़ कर 9.6 प्रतिशत हुई। लेकिन, साहब, विकास की इस गाथा का एक दूसरा चेहरा भी है।
यह चेहरा इस उजली इबारत से अधिक स्याह और निराशाजनक है। तथ्य बताते हैं कि मप्र
में नवजात मृत्यु दर 54 है जबकि देश में यह दर 40 है। प्रदेश में मातृ मृत्यु दर
221 है जबकि राष्ट्रीय औसत 167 है। प्रदेश में 3 साल से कम उम्र के 57.9 बच्चे
कुपोषित हैं। देश में यह संख्या 40.4 प्रतिशत ही है। प्रदेश की विकास की रोशनी को
झुठलाती ये तस्वीर इसलिए है क्योंकि सामाजिक क्षेत्र में प्रदेश सरकार की प्रमुख
नीतियां अपना लक्ष्य पाने में चूक गई हैं।
आपको याद होगा सन् 2000 में भारत सहित 189 देशों ने वादा
किया था कि वे अपने निवासियों को गरीबी से मुक्ति दिलाएंगे। उन्हें बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता
और पेयजल का हक देंगे। इस आशय के आठ संकल्प सहस्राब्दी विकास लक्ष्य यानी मिलेनियम
डेवलपमेंट गोल के रूप में जाने गए। तय किया गया था कि 2015 तक इन लक्ष्यों को पा
लिया जाएगा। लेकिन यूनिसेफ और एनपीएफपी की मप्र राज्य एमडीजी रिपोर्ट 2014-15
बताती है कि मप्र अपनी जनता को गरीबी, अशिक्षा, खराब स्वास्थ्य स्थिति, महिलाओें के लिए प्रतिकूल
वातावरण को दूर करने के अपने वादे से चूक गया। खास बात यह है कि राज्यों के लिए
ये लक्ष्य यहां की सरकार ने ही तय किए थे, लेकिन सरकार के
पास ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं है जिसके द्वारा वह अपनी नीतियों की सफलता और
उपलब्धियों का आकलन कर सके।
आर्थिक तरक्की का विरोधाभास
वर्ष 2013-14 में मप्र की सकल राज्य घरेलू उत्पाद वृद्धि
दर 11.1 प्रतिशत थी। यह देश में सबसे अधिक वृद्धि में से एक है लेकिन जहां देश में
गरीबों की संख्या में 1993-94 से 2011-12 के बीच 23.4 प्रतिशत की गिरावट हुई वहीं
मप्र में यह दर मात्र 13 प्रतिशत रही। सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में भी ऐसा ही
हुआ। यह मप्र की तरक्की की गाथा का विरोधाभास है।
ये करें उपाय
रिपोर्ट में सुझाया गया है कि इस अंतर को कम करने के लिए
राज्य को अपने सामाजिक क्षेत्र का बजट कम से कम 30 प्रतिशत तक बढ़ाना होगा। 12
जिलों में इस बजट को कम से कम दोगुना करना होगा, ताकि एमडीजी लक्ष्यों को हासिल किया जा सके। ये जिले हैं – डिंडोरी,
सीधी, सिंगरौली, पन्ना,
उमरिया, सतना, शहडोल,
आलीराजपुर, अनूपपुर, दमोह,
श्योपुर और मंडला।
क्या कहती है रिपोर्ट
भूख और गरीबी का खात्मा
मप्र में गरीबी में तो गिरावट आई है लेकिन हम एमडीजी लक्ष्य
पाने में पीछे ही रहे। गरीबी रेखा के आंकड़े बताते हैं गरीबों में कुछ तो बहुत
गरीब हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की स्थिति में सुधार के लिए बेहतर
नीतियों की आवश्यकता है। पोषण में सुधार के मामले में एमडीजी लक्ष्य और 2015-16
की आकलित उपलब्धि में 13 फीसदी का अंतर है। मप्र ने अपने विकास के लिए कृषि और
इससे जुड़े क्षेत्र में सार्वजनिक वितरण के सहयोग वाली वृद्धि उन्मुख रणनीति का
चयन किया है। कृषि आधारित विकास और मनरेगा गरीबी खत्म करने की प्रमुख रणनीति है।
बच्चों में कुपोषण खत्म करने में नीतियां असफल हुई हैं।
सभी को प्राथमिक शिक्षा
एमडीजी 2 में तय किया गया था कि 6-14 वर्ष तक के सभी बच्चों
को शिक्षा का हक दिया जाएगा। मप्र इस आसान लक्ष्य को भी प्राप्त नहीं कर सका है।
नेट नामांकन 95 प्रतिशत के शीर्ष को छू कर कुछ गिर गया। मप्र में बच्चों के स्कूल
में बने रहने की दर 75 फीसदी से अधिक नहीं हो सकी। यह दर बच्चों की स्कूल में
बने रहने की स्थिति को इंगित करती है। 15 से 24 साल के युवाओं में साक्ष्ारता दर
बहुत कम गति से आगे बढ़ी। इन आंकड़ों को देखते हुए साफ था कि मप्र 100 फीसदी साक्षरता
के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता था। मप्र में शिक्षकों की भारी कमी और असंतुलित
वितरण के कारण मप्र में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार संभव नहीं हुआ।
लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण
2007-08 में जेंडर बजट लागू करने वाला मप्र देश का पहला
राज्य है। तब से लेकर अब तक केवल इतना हुआ कि 2013-14 तक जेंडर बजट बनाने वाले
विभागों की संख्या 13 से बढ़ कर 25 हुई लेकिन इस तरक्की के सिवाय बाकी सभी
क्षेत्रों में मप्र पिछड़ा ही है। जैसे, बाल लिंगानुपात, प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं में
लिंग समानता सूचकांक, गैर कृषि क्षेत्रों में महिला
कर्मचारियों की संख्या इस दौरान घटी ही है। राज्य में जेंडर बजट की निगरानी के
लिए प्रभावी तंत्र का भी अभाव है।
बाल मृत्यु दर में कमी
बाल मृत्यु दर में कमी लाने के लक्ष्य के सारे संकेतकों
में मप्र पीछे ही दिखाई दे रहा है। पांच वर्ष से कम उम्र की मृत्यु दर और नवजात
मृत्यु दर में गिरावट हुई है, लेकिन
गिरावट की दर काफी कम है। इन दोनों ही संकेतकों में प्रदर्शन देखें तो विशेष ध्यान
देने वाले राज्यों में मप्र दूसरा सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला राज्य है।
2012-13 के आंकड़ों के अनुसार पूरे देश की बाल मृत्यु में से 10.5 प्रतिशत बाल मृत्यु मप्र में होती है। पांच वर्ष से कम उम्र की मृत्यु
दर तथा नवजात मृत्यु दर का लैंगिक व क्षेत्रीय विश्लेषण बताता है कि मप्र के
ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों की तुलना में बालिका मृत्यु दर अधिक है।
पर्यावरण सुधार
मप्र में वनों का प्रतिशत घटा है हालांकि पिछले कुछ वर्षों
में स्थितियां सुधरी हैं। कई योजनाओं के बाद भी मप्र में ठोस ईंधन जैसे कोयले और
लकड़ी का उपयोग करने वाले परिवारों का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से अधिक है। परिसर
में जलस्रोत और नल जल पाने वाले परिवारों का प्रतिशत 2001 से 2011 की अवधि में घटा
है। 2015 में भी प्रदेश में करीब 70 प्रतिशत परिवारों को उपयुक्त स्वच्छता
सुविधा उपलब्ध नहीं है। देश के शहरी क्षेत्रों में झुग्गियों की संख्या घट रही
है जबकि मप्र में बढ़ रही है।
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