Wednesday, August 30, 2023

शैलेंद्र: प्रगतिशील चेतना का स्‍वर यानी हमारा हीरामन

1975 में एक फिल्‍म आई थी ‘दीवार’. कल्‍ट क्‍लासिक कही जाने वाली इस फिल्‍म के एक डायलॉग पर खूब तालियां बजती थी. डायलॉग है, ‘मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता’. सलीम-जावेद ने यह डायलॉग किस प्रेरणा से लिखा यह तो नहीं पता लेकिन इस फिल्‍म से 26-27 साल पहले एक युवा ने राजकपूर से कहा था, ‘मैं पैसों के लिए नहीं लिखता हूं…’ आज के ग्‍लोबलाइजेशन के इस युग में जब सारी ही चीजें पैसों के इर्दगिर्द रची-बुनी जा रही हैं तब अचरज होता है कि एक युवा फिल्‍म इंडस्‍ट्री में प्रवेश के द्वार को यूं बंद कर रहा था. तब भी राजकपूर को यही महसूस हुआ था.

लेकिन उस युवा के इसी अंदाज ने राजकपूर को कायल बना दिया और जब इस युवा ने फिल्‍म जगत में आना स्‍वीकार किया तो जैसे लोकप्रियता उनकी बांट जोह रहा थी. मैं पैसे के लिए नहीं लिखता कहने के पीछे की ताकत सिद्धांत की ताकत थी. एक प्रतिबद्धता थी. ऐसी प्रतिबद्धता जो जीवन की सबसे बड़ी बाजी तक कायम रही. अभिन्‍न मित्रों तथा वितरकों की सलाह, दबाव और असहयोग को नजर अंदाज करके साहित्यिक कृति ‘मारे गए गुलफाम’ के प्रति संवेदनशील बने रहना इसी प्रतिबद्धता के कारण संभव हो पाया था. खुद खत्‍म हो गए मगर साहित्‍य की आत्‍मा को ठेस पहुंचाना गवारा नहीं हुआ.

यह अद्भुत शख्‍स थे कवि-गीतकार शैलेंद्र. ‘बरसात’, ‘आवारा’, ‘बूट पॉलिश’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘सीमा’, ‘दो बीघा जमीन’, ‘गाइड’, ‘जंगली’, ‘बंदिनी’, ‘चोरी चोरी’, ‘दूर गगन की छांव में’, ‘जागते रहो’, ‘मधुमती’, ‘संगम’ तथा ‘मेरा नाम जोकर’ आदि जैसी फिल्‍मों के गीतकार शैलेंद्र. ‘तीसरी कसम’ के निर्माता शैलेंद्र. राजकपूर के ‘पुश्किन’ और फणीश्‍वरनाथ रेणु के ‘कविराज’ शंकर शैलेंद्र. जिन्‍होंने लिखा था, ‘सबकुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’. जिन्‍हें होशियार बनाने के लिए, मुनाफे कमाने के लिए सलाहें दी गई, मिन्‍नतें की गईं, दबाव बनाया गया, साथ छोड़ दिया गया मगर वे सबकुछ सह गए. गौर से देखा जाए तो शैलेंद्र के जीवन के तमाम रंगों में संवेदशीलता का रंग सबसे ज्‍यादा चमकीला, चटकदार और प्रभावी है. ‘मारे गए गुलफाम’ या कि ‘तीसरी कसम’ में हीरामन तो राजकपूर बने थे लेकिन इस कथा के दो हीरामन और हैं, कथा लिखने वाले फणीश्‍वरनाथ रेणु और इसे पर्दे पर उतारने वाले शैलेंद्र. हीरे से मन वाले रेणु, शैलेंद्र और राजकपूर.

मूलरूप से बिहार के निवासी केसरीलाल दास फौज में थे. जब वे रावलपिंडी में पदस्थ थे तब 30 अगस्त 1923 को बेटे का जन्‍म हुआ. नाम रखा गया शंकरलाल दास. शंकरलाल केसरीलाल दास. शंकरलाल की शिक्षा-दीक्षा मथुरा में हुई थी. स्कूली जीवन से ही कविताएं लिखने लगे तो उपनाम रखा शैलेंद्र. बाद में कवि का नाम हो गया शंकर शैलेंद्र. 1940 में रेलवे में नौकरी के सिलसिले में मुंबई आए. 1942 के अगस्त क्रांति में शामिल हुए और जेल भी गए. वे इंडियन नेशनल थिएटर शरीक हो गए और जेल गए. जेल से बाहर आने के बाद वे रेलवे में नौकरी करने लगे और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जुड़ गए. इप्‍टा के ही एक काव्य-पाठ कार्यक्रम में 1947 में राज कपूर ने शैलेंद्र को काव्य-पाठ करते सुना तो उनके मुरीद हो गए. राजकपूर ने फिल्‍म ‘आग’ के लिए गीत लिखने को आमंत्रित किया तो शैलेंद्र ने स्‍वाभिमान से कहा, मैं पैसों के लिए नहीं लिखता हूं.

यह पूरी कथा इसलिए बताई गई है कि बचपन से ही कविताएं लिखने वाले शैलेंद्र के मुंबई आगमन, भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने और इप्‍टा से जुड़ने और लिखने-पढ़ने ने एक ऐसे रचानाकार को गढ़ा जो जितना संवेदनशील था, उसका स्‍वर उतना ही प्रगतिशील था. शैलेंद्र हिंदी फिल्‍म जगत के सर्वाधिक प्रगतिशील गीतकारों में शुमार होते हैं. सहज काव्‍य उनके लेखन को लोकप्रिय बनाता है और वंचितों की फिक्र उन्‍हें लोकवादी. फिल्‍म ‘बरसात’ से शुरू हुआ गीतों का कारवां 1951 में जब ‘आवारा’ तक पहुंचा तो इसके शीर्षक गीत में शैलेंद्र का यही रूप नुमायां हुआ. इसमें शैलेंद्र ने लिखा: ‘आवारा हूं, गर्दिश में हूं, आसमान का तारा हूं’. ऐसे गीतों की सूची लंबी है. जैसे, ‘श्री 420’ का गीत ‘दिल का हाल सुने दिलवाला’, फिल्म ‘बूट पॉलिश’ का गीत ‘नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?’ आदि, आदि.

वे अन्न-अनाज उगाते

वे ऊंचे महल उठाते

कोयले-लोहे-सोने से

धरती पर स्वर्ग बसाते

वे पेट सभी का भरते

पर खुद भूखों मरते हैं.

यह कविता शैलेंद्र की प्रगतिशीलता का आईना है. जैसे भगत सिंह को संबोधित करती कविता, ‘भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की/ देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फांसी की/ यदि जनता की बात करोगे तुम गद्दार कहाओगे/ बंब-संब की छोड़ो, भाषण दोगे, पकड़े जाओगे.’

‘तू जिंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यकीन कर/ अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर’ जैसे गीत को कैसे भूला जा सकता है? बुझे मन को हौसला देने में इस गीत का कोई मुकाबला नहीं है. इसे जनगीत की तरह गाया जाता है. ऐसा ही एक गीत है जो नारा बन गया है. रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल को ताकत देने के लिए शैलेंद्र ने लिखा था:

हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है

मत करो बहाने संकट है, मुद्रा प्रसार इन्फ्लेशन है

इन बनियों और लुटेरों को क्या सरकारी कन्सेशन है?

बंगले मत झांको, दो जवाब, क्या यही स्वराज तुम्हारा है

मत समझो हमको याद नहीं, हैं जून छियालिस की घातें

जब काले गोरे बनियों में चलती थी सौदे की बातें

रह गयी गुलामी बरकरार, हम समझे अब छुटकारा है.


1974 के आंदोलन में रेणु ने ‘हड़ताल’ शब्द की जगह ‘संघर्ष’ शब्द कर दिया और यह नारा वंचितों की लड़ाई का उद्घोष बन गया. संषर्घ की घोषणा करने वाले शैलेंद्र ने ही लिखा है:

किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार

किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार

किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार

जीना इसी का नाम है.

हमारे पसंद के कई गीत है जिनकी सूची लंबी है. इन्‍हीं गीतों में से तीन को फिल्मफेयर पुरस्कार मिला. 1958 में ‘यहूदी’ के गीत ‘ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सुरूर’, 1959 में ‘अनाड़ी’ के गीत ‘सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी’ तथा 1968 में ‘ब्रह्मचारी’ के गीत ‘तुम गाओ मैं सो जाऊं’ के लिए. आखिरी अवार्ड प्राप्‍त करने के लिए शैलेंद्र ज‍ीवित नहीं थे. यही पुरस्‍कार क्‍यों वे तो अपनी प्रतीक कृति ‘तीसरी कसम’ की सफलता को देखने के लिए भी जीवित नहीं रहे.

‘तीसरी कसम’ से जुड़ाव की कथा भी सरल रेखा सी है. बासु भट्टाचार्य से मिली ‘पांच लंबी कहानियां’ नामक पुस्‍तक में छपी रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पढ़ कर इतने प्रभावित हुए कि उसपर फिल्‍म बनाने का फैसला कर लिया. राजकपूर भी कथा सुन कर उछल पड़े लेकिन फिर चिंता जताई, कविराज, फिल्‍म निर्माण आपका क्षेत्र नहीं. आप गीत ही लिखो. शैलेंद्र कहां मानने वाले थे? अड़ गए, दर्द की यह कविता तो रजत पट पर उतारेंगे ही. जब मित्र की जिद थी तो राजकपूर ने भी मात्र एक रुपए में फिल्‍म करनी स्‍वीकार की. राजकपूर ही क्‍यों ‘तीसरी कसम’ फिल्म के निर्माण से जुड़े बासु भट्टाचार्य (निर्देशक), नवेंदु घोष (पटकथा-लेखक), बासु चटर्जी एवं बाबूराम इशारा (सहायक निर्देशक) ने भी अपने स्‍तर पर सहयोग किया. सबकुछ ठीक चल रहा था. खुद रेणु ने लिखा है कि फिल्‍म ठीक वैसी बन रही थी जैसी उन्‍होंने अपनी कहानी में कल्‍पना की थी. लेकिन बात अंत पर आ कर टिक गई. राजकपूर सहित तमाम वितरकों का मानना था कि अंत सुखद होना चाहिए. दुखांत से फिल्‍म चलेगी नहीं. शैलेंद्र इतने संवेदनशील कि कहानी की एक-एक पंक्ति को हूबहू रील में उतार देने का हर जतन कर रहे थे, उन्हें लेखक की मूल कृति में बदलाव कैसे स्‍वीकार होता? उन्‍होंने इंकार कर दिया. रेणु बुलाए गए. विशेषज्ञों की सभा हुई. शैलेंद्र यह कहते हुए बाहर चले गए कि मुझे बदलाव मंजूर नहीं. लेखक खुद तय करे. सुखांत अंत सुनाया गया. रेणु को वह अंत कैसे पसंद आता? नहीं कह कर वे बाहर चले आए. दोनों मित्र बाहर मिले और अपने एकमत होने पर खुश हुए.

मगर यह दुखांत फिल्‍म का ही नहीं शैलेंद्र का दुखांत भी साबित हुआ. राजकपूर अपने मित्र को वणिक बुद्धि में नहीं ढाल पाए. एक-एक कर यूनिट के सदस्‍य दूर होते गए. अंत में रह गए शैलेंद्र और ‘तीसरी कसम’. सोचा था फिल्‍म ढ़ाई-तीन लाख में बनेगी लेकिन बजट 22 लाख तक पहुंच गया. शैलेंद्र अपनी कृति के साथ अकेले थे. वितरकों ने हाथ खींच लिए तो बड़ी मुश्किल से फिल्‍म रिलीज हो पाई. बकाया मांगने वालों ने कोर्ट का वारंट ले रखा था सो शैलेंद्र अपनी फिल्‍म के प्रीमियर पर भी नहीं जा सके. पहली बार फिल्‍म को दर्शक ही नहीं मिले लेकिन फिल्‍म के शानदार बनने की तारीफ हुई.

ऐसी तारीफ कि खुद रेणु ने अपने मित्र को पत्र में लिखा था, ‘तस्वीर मुकम्मल हो गई और भगवान की दया से ऐसी बनी है कि वर्षों तक लोग इसे याद रखेंगे. अपने मुंह अपनी तारीफ नहीं- कोई भी व्यक्ति यही कहेगा. ‘सजनवां बैरी हो गए हमार’ तो ऐसा बन गया है कि पुराने ‘देवदास’ के ‘बालम आय बसो मेरे मन में’ की तरह युगों तक गाया जाएगा. मैं ही नहीं- कई लोग ऐसे हैं जो इस गीत को सुनकर आंसू मुश्किल से रोक पाते हैं.’

ऐसी बनी थी ‘तीसरी कसम’ लेकिन इसकी सफलता देखने के लिए शैलेंद्र नहीं रहे. 29 सितंबर को उन्होंने रेणु को फिल्म के रिलीज होने की सूचना दी. 14 दिसंबर 1966 को महज 43 वर्ष के शैलेंद्र नहीं रहे. शैलेंद्र के गुजर जाने के बाद ‘तीसरी कसम’ देश भर में प्रदर्शित हुई और लोकप्रिय भी. फिल्‍म को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला लेकिन यह सब देखने के लिए शैलेंद्र नहीं थे. वे जिन्‍होंने सबकुछ सीखा केवल व्‍यापार नहीं सीखा.

शैलेंद्र के असमय गुजर जाने का आघात रेणु के लिए इतना बड़ा था कि वे तीन साल कुछ लिख नहीं पाए. वे मानते थे कि न वे कहानी लिखते, न शैलेंद्र फिल्‍म बनाते और न उनकी असमय मौत होती. उन्होंने लिखा है कि शैलेन्द्र को शराब या कर्ज ने नहीं मारा, बल्कि वह एक ‘धर्मयुद्ध’ में लड़ता हुआ शहीद हो गया. उन्हें लगता था ‘तीसरी कसम’ के चक्कर में ही उनकी मृत्यु हुई, इसलिए उसके जिम्मेदार वही हैं. सोचने को बहुत कुछ है. जैसे शैलेंद्र या रेणु फिल्‍म का अंत बदलने को तैयार हो जाते. या फिल्‍म ग्रामीण परिवेश के हूबहू फिल्‍मांकन की शर्त को कुछ कर कम कर बजट घटा दिया जाता. वितरक तैयार हो जाते. ऐसा नहीं है कि राजकपूर से लेकर अन्‍य मित्रों ने शैलेंद्र की सहायात नहीं कि लेकिन तमाम सहायता के बाद भी कुछ कम पड़ गया. यह जो कम पड़ा यह तो फिल्‍म इंडस्‍ट्री में हमेशा से कम था लेकिन शैलेंद्र में कूट-कूट कर भरा हुआ था. संवेदनशीलता की पराकाष्‍ठा तक रचनात्‍मक आग्रह. ‘तीसरी कसम’ के निर्माण में आई तमाम बाधाओं के बाद भी हमारे हीरामन शैलेंद्र ने अपनी संवेदनशीलता, अपनी प्रतिबद्धता और अपनी प्रगतिशीलता के साथ किसी तरह का समझौता करने की कोई कसम नहीं खाई.

यह भी तय है कि फिल्‍मों में नहीं आते तब भी शैलेंद्र प्रगतिशील रचनाकार होते. लेकिन तब फिल्‍म जगत को वे गीत नहीं मिलते जो शैलेंद्र ने लिखे हैं और जिनकी वजह से हिंदी सिनेमा प्रगतिशील कहलाने का गर्व कर सकता है. बाद में यह भी हुआ कि शैलेंद्र की जाति उजागर हुई. वे हिंदी सिनेमा के दलित गीतकार कहलाए. रैदास के बाद सबसे प्रमुख दलित चेतना का लेखक. वे न लिखते तो कैसे महसूस होता कि किसी की मुस्‍कुराहटों पर निसार होना ही जीवन है. कैसे पता चलता कि हम उस देश के वासी हैं जहां हमने गैरों को भी अपनाना सीखा, मतलब के लिए अंधे बनकर रोटी को नहीं पूजा हमने. हम जीने की तमन्‍ना और मरने के इरादे को कैसे जान पाते?  शैलेंद्र के जन्म को 100 बरस पूरे हो चुके हैं. उनके होने ने हमें मायने दिए हैं. हम उनके लिखे में सुख पाते हैं. और ‘तीसरी कसम’ को देख मन बरबस भीग जाता है, हीरामन के कारण भी और अपने हीरे जैसे मन के शैलेंद्र की याद में भी. जैसा कि बाबा नागार्जुन ने शैलेंद्र को श्रंद्धाजलि अर्पित करते हुए लिखा है:

गीतों के जादूगर का मैं छंदों से तर्पण करता हूं

सच बतलाऊं तुम प्रतिभा के ज्योतिपुंज थे, छाया क्या थी

भलीभांति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी

जहां कहीं भी अंतर मन से, ऋतुओं की सरगम सुनते थे

ताज़े कोमल शब्दों से तुम रेशम की जाली बुनते थे

जन मन जब हुलसित होता था, वह थिरकन भी पढ़ते थे तुम

साथी थे, मजदूर पुत्र थे, झंडा लेकर बढ़ते थे तुम

युग की अनुगूँजित पीड़ा ही घोर घन घटा-सी गहराई

प्रिय भाई शैलेंद्र, तुम्हारी पंक्ति-पंक्ति नभ में लहराई

तिकड़म अलग रही मुसकाती, ओह, तुम्हारे पास न आई

फिल्म जगत की जटिल विषमता, आखिर तुमको रास न आई

ओ जन जन के सजग चितेरे, जब जब याद तुम्हारी आती

आंखें हो उठती हैं गीली, फटने-सी लगती है छाती.


(न्‍यूज 18 पर 30 अगस्‍त 2023 को प्रकाशित) 

Saturday, August 26, 2023

दादी-पिता बोले- हमने अंग्रेजों का नमक खाया है तुम क्रांतिकारी न बनो... तो इस एक्टर ने घर ही छोड़ दिया

सिर्फ एक डायलॉग या एक किरदार के किसी अभिनेता के संपूर्ण कार्य पर भारी होने का उदाहरण देना हो तो जो नाम याद आते हैं उनमें प्रमुख नाम होगा एके हंगल और फिल्‍म ‘शोले’ में रहीम चाचा के उनके किरदार का. ‘शोले’ का एक संवाद ‘इतना सन्‍नाटा क्‍यों है भाई’ हमारे जीवन का मुहावरा बन गया है. फिल्‍मों में चरित्र अभिनेता के रूप में लोकप्रिय एके हंगल के 98 बरस के जीवन में कई उतार चढ़ाव आए. देश के स्‍वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए, जेल भी गए. लंबे समय तक थिएटर किया. 50 बरस की उम्र में फिल्‍मों में आए और 97 वर्ष की उम्र व्‍हील चेयर पर रैंप वॉक किया और मृत्‍यु के कुछ माह पहले एनीमेशन फिल्‍म के लिए आवाज दी. एके हंगल का जीवन एक ऐसे हरफनमौल इंसान का जीवन है जिसने परिवार के दबाव के बावजूद अंग्रेजों की नौकरी नहीं की बल्कि घर छोड़ कर भाग जाना मुनासिब समझा. भगत सिंह के बड़े प्रशंसक एके हंगल पर जब शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे द्वारा प्रतिबंध लगाया गया तो आर्थिक रूप से बड़ा नुकसान झेलने के बाद भी वे अपने निर्णय पर अडिग रहे. उन्‍होंने इस प्रतिबंध पर प्रतिक्रिया में कहा था कि बाल ठाकरे नेता बड़े हैं तो हम भी स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं.

26 अगस्‍त उन्‍हीं जुझारू और प्रतिबद्ध कलाकार एके हंगल की पुण्‍यतिथि है. उनका पूरा नाम अवतार किशन हंगल है. उनका जन्‍म  फरवरी 1914 को सियालकोट (पाकिस्तान) में हुआ था. हालांकि, एक इंटरव्‍यू में उन्होंने बताया था कि जब किसी कार्य से जन्‍म तारीख पूछी गई थी तो उन्‍हें पता ही नहीं थी. फिर बातचीत में आजादी के दिन 15 अगस्‍त का ख्‍याल आया और यही उनकी जन्‍म तारीख मान ली गई. उनके बेटे विजय हंगल बताते हैं कि तब से एके हंगल का जन्‍मदिन 15 अगस्‍त को मनाया जाने लगा था. एके हंगल की उम्र 4-5 वर्ष थी तब मां का देहांत हो गया था. उसके बाद पिता बालक अवतार को ननिहाल से अपने पास पेशावर ले आए थे. एके हंगल ने अपने साक्षात्‍कारों और आत्‍मकथा ‘मैं एक हरफनमौला’ (वाणी प्रकाशन) में अपने जीवन तथा उसके उतार-चढ़ावों पर विस्‍तार से बात की है. बचपन में आजादी के संघर्ष का जिक्र करते हुए वे मामा जलियांवाला बाग की मिट्टी घर ले आए थे. उस वक्‍त घर में चलने वाली आजादी के संघर्ष की बातों का बालमन पर असर हुआ. फिर जब सीमांत गांधी कहे गए खान अब्दुल गफ्फार खान के लाल कुर्ती आंदोलन हुआ तो किशोरवय के एके हंगल भी उसमें शामिल हो गए. गौरतलब है कि पठान समुदाय के खान अब्‍दुल गफ्फार खान ने खुदाई खिदमतगार नामक संगठन बना कर लाल कुर्ती पहनने का आंदोलन चलाया था. यह गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन का हिस्‍सा था.

एके हंगल ने बचपन की एक और घटना का जिक्र करते हुए बताया है कि 23 अप्रैल 1930 को पेशावर के किस्सा-ख्वानी बाजार में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ हुए कई भारतीय एकत्रित हुए थे. इस आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेज सरकार ने गढ़वाल रेजिमेंट को भेजा. ब्रिटिश अधिकारियों ने गोली चलाने का आदेश दिया तो रेजिमेंट के प्रमुख चंदर सिंह गढ़वाली ने निहत्‍थे देशवासियों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया. यह ब्रिटिश सरकार को नागवार गुजरा. गढ़वाली रेजीमेंट के बदले ब्रिटिश सैनिकों ने मासूम आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाईं. कई लोग मारे गए. आक्रोशित लोगों ने ब्रिटिश सैनिकों पर पत्‍थर फेंके. किशोर उम्र के एके हंगल भी इन लोगों में शामिल थें. उन्‍हें गोली नहीं लगी लेकिन ब्रिटिश सैनिकों की क्रूरता के शिकार हुए निहत्‍थे लोगों के खून के छींटें उन पर गिरे. बाद में उनका रूझान कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ हो गया जिसके कारण उन्‍हें पाक में जेल में भी रहना पड़ा.

उनके दादा और पिता ब्रिटिश शासन में सरकारी नौकरी में ऊंचे पदों पर थे. वे बताते हैं कि पढ़ाई पूरी होने के बाद उनके पिता युवा एके हंगल को लेकर अपने ब्रिटिश अधिकारी के पास ले गए. पिता ने आग्रह किया कि अंग्रेज अफसर बेटे की सरकारी नौकरी के लिए सिफारिश कर दे. अंग्रेज अफसर ने आवेदन पत्र पर लिखा, ‘रिकमंडेड इफ ही इज एज गुड एज हिज फादर’. अंग्रेजों के लिए अच्‍छा बनना उन्‍हें रास नहीं आया. दादी और पिता ने बहुत समझाने का प्रयास किया लेकिन एके हंगल नहीं माने. जब दादी ने यह कहते हुए दबाव डाला कि हमने इस सरकार का नमक खाया है तुम क्रांतिकारी न बनो तो एके हंगल ने पेशावर छोड़ दिया. वे घर से भाग कर अपनी बहन के यहां दिल्‍ली आ गए. एके हंगल ने ब्रिटिश नौकरी के बदले सिलाई सीखी. उन्‍हें कपड़ों की सूट की इंग्लिश कटिंग में मास्‍टरी हो गई थी. एक इंटरव्‍यू में उन्‍होंने बताया था कि महात्‍मा गांधी और गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर के निकटतम सहयोगी सीएफ एंड्रयूज के सूट भी एके हंगल ने सीले थे. एके हंगल को भी अच्‍छे कपड़े पहनने का शौक पूरे जीवन रहा. अपनी आत्‍मकथा में उन्‍होंने बताया कि एक कार्यक्रम में उनकी महिला प्रशंसक इस बात से खफा हो गई थी कि फिल्‍मों में अपनी छवि के अनुसार एके हंगल धोती कुर्ता पहन कर नहीं सूट पहन कर चले गए थे.

क्रांतिकारी तथा कम्‍युनिस्‍ट विचारों के कारण एके हंगल को जेल भी जाना पड़ा. फिर जब वे बंटवारे के बाद 1949 में भारत आ गए तो इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़ गए. एके हंगल की अभिनय यात्रा इप्‍टा के माध्‍यम से बलराज साहनी और कैफ़ी आज़मी के साथ शुरू हुई.

जब प्रख्‍यात निर्माता-निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने एके हंगल को नाटक में अभिनय करते देखा तो उन्हें फिल्मों में काम करने का न्यौता दिया. तथ्‍य बताते हैं कि एके हंगल ने पहली फिल्‍म राजकपूर अभिनीत ‘तीसरी कसम’ साइन की थी मगर जब फिल्‍म रिलीज हुई तो पता चला कि राजकपूर के बड़े भाई के उनके रोल पर कैंची चल गई थी. 50 साल की उम्र में फिल्‍मों में कॅरियर की शुरुआत कर रहे यह किसी भी कलाकार के लिए दिल तोड़ने जैसी बात ही है. हालांकि, पहली फिल्‍म ‘शागिर्द’ जब 1967 में रिलीज हुई तो एके हंगल छा गए. उसके बाद अपने फिल्मी कॅरियर में एके हंगल ने तकरीबन 225 फिल्मों में राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, संजीव कुमार, धर्मेंद्र जैसे कलाकारों के साथ काम किया और बेहतर इंसान की छवि बनाई.

1936 से 1965 तक मंच पर अभिनय तथा 1966 से 2005 तक हिंदी फिल्मों में चरित्र अभिनेता के रूप में दिखाई दिए एके हंगल ने फरवरी 2011 को मुंबई में फैशन डिजाइनर रियाज गंजी के लिए व्हीलचेयर में रैंप वॉक किया था. उन्‍होंने मई 2012 में टीवी सीरियल ‘मधुबाला – एक इश्क एक जूनून’ में अतिथि भूमिका निभाई और वर्ष 2012 की शुरुआत में एनीमेशन फिल्म ‘कृष्ण और कंस’ में राजा उग्रसेन के चरित्र को अपनी आवाज दी. उम्र के सौ बरस के करीब पहुंचने तक एके हंगल शारीरिक और आर्थिक परेशानियों से घिर गए थे.

असल में, जीवन भर चरित्र भूमिकाएं निभाने के कारण एके हंगल कभी भी बहुत समृद्ध नहीं हो पाए. यहां तक कि जब उनके घर आयकर विभाग का छापा हुआ तो जांच दल यह जानकार चौंक गया था कि इतना बड़ा कलाकार किराए के मकान में रहता है. उनके घर से आय से अधिक सम्‍पत्ति तो दूर बेहतर जीवन जीने लायक पैसा भी नहीं मिला था. फिर जब वे अपना पुश्‍तैनी घर देखने पाकिस्तान गए तो वहां उन्‍हें पाकिस्तान दिवस समारोह में आमंत्रित किया और वे कार्यक्रम में शामिल हो गए. यह शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को नागवार गुजरा उन्‍होंने एके हंगल को ‘देशद्रोही’ करार देते हुए उनकी फिल्‍मों के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया. उनकी फिल्में महाराष्ट्र और आसपास के टॉकीज से हटा दी गईं. उन्‍हें काम मिलना बंद हो गया. इसके बाद भी वे झुके नहीं बल्कि जवाब दिया कि वे देशद्रोही नहीं बल्कि एक स्वतंत्रता सेनानी हैं. करीब दो साल के बहिष्कार के बाद प्रतिबंध हटाया गया लेकिन तब तक एके हंगल का बतौर कलाकार काफी नुकसान हो चुका था. उम्र बढ़ने के साथ काम मिलना बंद हुआ और फिर एक समय ऐसा आया जब इलाज के लिए भी पैसा नहीं था तब बॉलीवुड ने सहायता की पेशकश की थी. हमेशा अपने विचार और काम के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध रहे अभिनेता एके हंगल ने 26 अगस्त, 2012 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

विचारों से वे कम्‍युनिस्‍ट थे तथा उम्र भर इस विचारधारों के अनुयायी बने रहे. वे गलत के खिलाफ आवाज जरूर उठाते थे. जब टेलर हुआ करते थे तो बंबई में ‘टेलरिंग वर्कर्स यूनियन’ का गठन किया और टेलर समुदाय के कठिनाइयों पर लड़ाई लड़ी. संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन की शुरुआत हुई तो वे भी इस आंदोलन का हिस्सा बने. गोवा मुक्ति के आंदोलन में भी उनकी भागीदारी थी.

जबकि फिल्‍मों में उन्‍होंने ऐसे चरित्रों को जीवंत किया जो हमारे आसपास के लगते हैं. ऐसे अच्‍छे और सच्‍चे चरित्र जिन पर सबको विश्‍वास और आस्‍था होती है. अपनी इस छवि पर खुद एके हंगल ने एक बार टिप्‍पणी की थी कि पर्दे पर उनका चरित्र यदि पिस्‍तोल पकड़ कर खड़ा हो जाए तो भी दर्शक उस चरित्र को बुरा चरित्र नहीं मानेंगे. उन्‍होंने अपने अभिनय से यह विश्‍वास हासिल किया था. यह विडंबना है कि उनके जैसे चरित्र अभिनेता का उत्‍तरार्द्ध संकटग्रस्‍त गुजरा.

(न्‍यूज 18 पर 26 अगस्‍त 2023 को प्रकाशित) 

Friday, August 18, 2023

गुलजार: उघड़ने, सीने ही में उम्र कट गई सारी

जन्‍मदिन मुबारक हो गुलजार साहब…

जन्‍मदिन तो एक बहाना है वरना गुलजार साहब को याद करने के लिए एक फिल्‍म, एक गाना, एक किस्‍सा, एक त्रिवेणी, एक कविता, एक शेर या यूं कहिए एक पंक्ति ही काफी है. जाने कितने संवाद हैं, जाने कितने गाने हैं, जाने कितनी पंक्तियां हैं जो हमें याद रह गई हैं. कितने अफसाने हैं जो हमें अपने लगते हैं, कितना सुरीला लिखा गया है कि शब्‍द किसी राग से बजते हैं. पहले पहल तो अहसास नहीं होता लेकिन जब गुजर जाते हैं, जब सुन चुके होते हैं, जब पढ़ चुके होते हैं तो रेशम के धागे से लगी चोट की तरह शब्‍द, भाव ठहरे रह जाते हैं, एक कसक के साथ. ऐसा लिखा, ऐसा बनाया, ऐसा कहा कहीं भी देखें, पढ़ें, सुनें तो समझ लीजिए उसे गुलजार का स्‍पर्श हुआ है. छू कर जैसे सोना बना देने का हुनर होता है वैसे ही.

18 अगस्‍त गुलजार का जन्‍मदिन है. 90 बरस की ओर कदम बढ़ा चुके गुलजार का लेखन बच्‍चों से लेकर बुजुर्गों तक के मन को छूता है. उनके लेखन के प्रभाव का विस्‍तार आसमान जैसा है, हर जगह कहीं न कहीं ठहरा, बसा और खिला हुआ आसमान. उनके चाहने वालों को मालूम है कि विभाजन की त्रासदी झेलने वाला यह लेखक गुलजार कहलाने के पहले संपूर्ण सिंह कालरा थे. बाद में जब गुलजार नाम अपनाया तो उनके रचे से हम गुलजार होते गए और वे संपूर्ण. उनका जन्‍म 18 अगस्त 1936 को झेलम जिले के दीना में हुआ था जो आज पाकिस्तान में है. गुलजार अपने पिता की दूसरी पत्नी की इकलौती संतान हैं. बचपन में ही मां का देहांत हो गया था. विभाजन हुआ तो उनका परिवार पंजाब के अमृतसर में आ गया और गुलजार मुंबई. गैरेज में बतौर मैकेनिक काम करना और शौकिया लिखना उनका काम था. फिर मशहूर निर्देशक बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी और हेमंत कुमार के सहायक के रूप में काम करने ने जीवन की दिशा बदल दी. बिमल राय को वह पिता की तरह मानते थे और उनके अंतिम समय में वैसी ही सेवा भी की. 

1963 में आई फिल्म ‘बंदिनी’ का ख्‍यात गीत ‘मोरा गोरा रंग लइले’ गुलजार का फिल्‍मों के लिए लिखा गया पहला गीत था. 1968 में उन्होंने फिल्म ‘आशीर्वाद’ के संवाद लिखने के साथ ही संवाद लेखन आरंभ किया। निर्देशक के रूप में उनकी पहली फिल्म 1971 में आई ‘मेरे अपने’ थी। ‘अंगूर’, ‘आंधी’, ‘मौसम’, ‘खुशबू’, ‘लिबास’, ‘इजाजत’, ‘माचिस’ जैसी फिल्में उनके निर्देशन में बनी हैं। ‘चौरस रात’, ‘जानम’, ‘एक बूंद चांद’, ‘रावी पार’, ‘यार जुलाहे’, ‘पुखराज’, ‘रात पश्मीने की’, ‘रात, चांद और मैं’, ‘खराशें’ आदि किताबों में गुलजार को पढ़ा जा सकता है. इस सृजन यात्रा पर पद्मभूषण,साहित्य अकादमी, दादा साहेब फाल्के अवार्ड, नेशनल फिल्म अवार्ड, ग्रैमी अवॉर्ड तथा ‘जय हो’ गीत के लिए ऑस्‍कर जैसे अवार्ड गुलजार के हिस्‍से में आए हैं.

ये सारी बातें तो वे हैं जो कहीं भी लिखी, पढ़ी जा सकती है. असल में गुलजार तो अपने हर पाठक, हर श्रोता, हर दर्शक के लिए ‘पुखराज’ हैं. पश्‍मीना रात का पुखराज चांद. बिमल राय से लेकर विशाल भारद्वाज तक गुलजार की अपनी यात्रा है और हम सब इसके सहयात्री लेकिन हर दौर में गुलजार अपने समकालीनों से कुछ अलग रहे, इतने खास जैसे आसमान में इंद्रधनुष. इस बात को ख्‍यात अभिनेत्री शबाना आजमी के एक अनुभव से समझा सकता है. गीतकार जावेद अख्‍तर पर किताब ‘जादूनामा’ के विमोचन तथा अन्‍य मौकों पर वे यह अनुभव बता चुकी हैं. शबाना ने बताया था कि वे एक धुन पर अटक गई थीं. उन्‍होंने अलग-अजग गुलजार और जावेद अख्तर से कहा कि वे इस धुन पर कुछ रोमांटिक लिख दें. दोनों ने ही लगभग एक मिनट में उस धुन पर रचना लिखी. दोनों का अंदाज एक दम जुदा था. गुलजार ने लिखा:

‘आजा रे पिया मोरे, पिया मोरे आ, कासे कहूं पिया रे, मोरा लागे ना जिया’. 

जबकि जावेद अख्‍तर ने लिखा,

‘जा तोसे नहीं बोलूं, ओ जा रे, जा रे, तू न मेरा सनम, तू न मेरा पिया.’

यह अंदाज ही गुलजार को सबसे जुदां करता है. गुलजार के लिखे में चांद, प्रकृति, रात सबकुछ ऐसे हैं जैसे किसी ने कभी सोचा नहीं. ऐसे ही मैंने सोचा कि शायर गुलजार जब खुदा से बात करता है तो क्‍या बात करता होगा? तब मुझे ‘रात पश्‍मीने की’ में खुदा को संबोधित कुछ नज्‍म मिलीं, कुछ त्रिवेणी भी. हमारा अध्‍यात्‍म उस परम सत्‍ता से एकाकार होने का ही लक्ष्‍य देता है, हमारी सूफी परंपरा उसकी इबादत का अनूठा अंदाज है और ऐसे ही गुलजार खुदा के बारे में जब लिखते हैं तो कभी उसकी इबादत सा लगता है कभी खुदा से ऐसा नाता लगता है जिसे उलाहना, तंज, चुनौती दी जा सकती है. जैसे गुलजार लिखते हैं:

पढ़ा लिखा अगर होता खुदा अपना

मै जितनी भी जबाने जानता हूं

वो सारी आजमाई है

खुदा ने एक भी समझी नहीं अब तक

ना वो गर्दन हिलाता है, न हुंकार ही भरता है

कुछ ऐसा सोचकर शायद फरिश्तों ही से पढवा दे

कभी चांद की तख्ती पे लिख देता शेर गालिब का

धो देता है या कुतर के फांक जाता है

पढ़ा लिखा अगर होता खुदा अपना

न होती गुफ्तगू तो कम से कम

चिठ्ठी का आना जाना तो लगा रहता.

वह सर्वोच्‍च सत्‍ता कौन है, कौन है जिसके इशारे पर कायनात चलती है, वह है भी या केवल एक ख्‍याल है, इस सवाल पर गुलजार कुछ यूं कहते हैं:

बुरा लगा तो होगा ऐ खुदा तुझे,

दुआ में जब,

जम्हाई ले रहा था मैं-

दुआ के इस अमल से थक गया हूं मैं!

मैं जब से देख सुन रहा हूं,

तब से याद है मुझे,

खुदा जला बुझा रहा है रात दिन,

खुदा के हाथ मैं है सब बुरा भला-

दुआ करो!

अजीब सा अमल है ये

ये एक फर्ज़ी गुफ़्तगू

और एकतर्फा – एक ऐसे शख्‍स से,

ख्‍याल जिसकी शक्ल है

ख्‍याल ही सबूत है.

जो ख्‍याल है वह सच में है. यही है और बिना आवाज किए दीवार से पीठ लगाए बैठा है:

मैं दीवार की इस जानिब हूं

इस जानिब तो धूप भी है, हरियाली भी

ओस भी गिरती है पत्तों पर,

आ जाए तो आलसी कोहरा,

शाख पे बैठा घंटों ऊंघता रहता है

बारिश लंबी तारों पर नटनी की तरह थिरकती,

आंख से गुम हो जाती है,

जो मौसम आता है, सारे रस देता है!

लेकिन इस कच्ची दीवार की दूसरी जानिब,

क्यों ऐसा सन्नाटा है

कौन है जो आवाज नहीं करता लेकिन-

दीवार से टेक लगाए बैठा रहता है.

अक्‍सर यह सवाल उठता है कि जब सबका खैरख्‍वाह वह ऊपर वाला है तो क्‍यों आसमान फटता है, क्‍यों आता है जलजला? क्‍यों जो अच्‍छा माना जाता है वह उठाता है तकलीफें, क्यों दानव लूटते है हर तरह के मजे? क्‍यों बुलाई सिर उठा कर चलती है हर दफे और क्‍यों अच्‍छाई को होना पड़ता है परेशान हर बार? सवाल कई हैं. जैसे यह सवाल:

पिछली बार मिला था जब मैं

एक भयानक जंग में कुछ मसरूफ थे तुम

नए नए हथियारों की रौनक से काफ़ी खुश लगते थे

इससे पहले अन्तुला में

भूख से मरते बच्चों की लाशें दफ़्नाते देखा था

और इक बार.. एक और मुल्क में जलजला देखा

कुछ शहरों के शहर गिरा के दूसरी जानिब लौट रहे थे

तुम को फलक से आते भी देखा था मैंने

आस पास के सय्यारों पर धूल उड़ाते

कूद फलांग के दूसरी दुनियाओं की गर्दिश

तोड़ ताड़ के गैलेक्सीज के महवर तुम

जब भी जमीं पर आते हो

भोंचाल चलाते और समंदर खौलाते हो

बड़े ‘इरैटिक’ से लगते हो

काएनात में कैसे लोगों की सोहबत में रहते हो तुम?

शायर खुदा को चुनौती भी देता है और सलाह भी. सलाह की बाजी पलट कर देखो शायद खुदा को बंदे की खुदी को तोड़ने का हुनर आ जाए:

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाजी देखी मैंने –

काले घर में सूरज रख के,

तुमने शायद सोचा था,

मेरे सब मोहरे पिट जाएंगे,

मैंने एक चिराग जला कर,

अपना रस्ता खोल लिया

तुमने एक समंदर हाथ में लेकर, मुझ पर ढेल दिया

मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी

काल चला तुमने, और मेरी जानिब देखा

मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया

मेरी खुदी को तुम ने चंद चमत्कारों से मारना चाहा

मेरे इक प्यादे ने तेरा चांद का मोहरा मार लिया-

मौत की शह देकर तुमने समझा था अब तो मात हुई

मैंने जिस्म का खोल उतार के सौंप दिया और रूह बचा ली

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाजी.

और गुलजार की त्रिवेणी में भी खुदा एक खास रूप में मिलता है.

उम्र के खेल में इक तरफ़ा है ये रस्सा कशी

इक सिर मुझ को दिया होता तो इक बात भी थी.

मुझ से तगड़ा भी है और सामने आता भी नहीं.


जमीं भी उसकी, जमीं की ये नेमतें उसकी

ये सब उसी का है, घर भी, ये घर के बंदे भी.

खुदा से कहिए, कभी वो भी अपने घर आए!

और यह त्रिवेणी जिसमें गुलजार ने जिंदगी की कश्‍मकश को लिख दिया है. यह हर उस शख्‍स का बयान है जैसे जिसकी पूरी उम्र उघड़ने और उघड़े को ढंकने में गुजरी है, गुजर रही है:

अजीब कपड़ा दिया है मुझे सिलाने को

कि तूल खींचूं अगर, अरज छूट जाता है

उघड़ने, सीने ही में उम्र कट गई सारी.

(न्‍यूज 18 पर 18 अगस्‍त 2023 को प्रकाशित) 

Tuesday, August 15, 2023

उस्‍ताद अमीर खां: रियाज छूट जाता था इसलिए नहीं करते थे कार्यक्रमों के लिए यात्राएं

 गुंचे तेरी ज़िंदगी पे दिल हिलता है 

सिर्फ एक तबस्सुम के लिए खिलता है

गुंचे ने कहा कि इस चमन में बाबा

ये एक तबस्सुम भी किसे मिलता है.

फिल्‍म्‍स डिवीजन द्वारा बनाई गई अपनी बायोपिक में उस्‍ताद अमीर खां साहब यही एक शेयर पढ़ते हैं और मानो कहते हैं, तमाम संघर्षों के बाद भी मैं खुश हूं. वे अमीर खां साहब जिनके पहले तक हिंदुस्‍तानी संगीत की एक खास गायन शैली तराना अर्थहीन थी. संगीत विद्वान पं. विष्‍णु नारायण भातखंडे ने भी तराना को अर्थहीन ही करार दिया था. मगर दस सालों के शोध के बाद उस्‍तार अमीर खां ने तराना को अर्थ दिया. उन्‍होंने बताया कि अमीर खुसरो द्वारा इजाद किया गया तराना अर्थहीन नहीं बल्कि वह एक तरह का जप है और इस कारण मूल्‍यवान है. इसलिए उन्‍होंने तराने में कम शब्‍द रख कर उनका जप अधिक रखा और इस तरह वे अध्‍यात्‍म में एकाकार होते रहे. पंडित निखिल मुखर्जी को दिए साक्षात्कार में उस्‍ताद अमीर खां ने कहा था पहले गायक शब्‍द पर अधिक बल देते थे जबकि भाव को महत्‍व कम देते थे. जबकि अमीर खां साहब के गायन में स्‍वर्गिक भाव का अहसास होता है.

शब्‍द से भाव की संगीत यात्रा करवाने वाले उस्‍ताद गायक अमीर खां की 15 अगस्त को जयंती है. उनका जन्‍म 15 अगस्त, 1912 को हुआ था. उनके पिता शाहमीर खान भिंडी बाजार घराने के सारंगी वादक थे, जो इंदौर के होलकर राजघराने में बजाया करते थे. उनके दादा चंगे ख़ान तो बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में गायक थे. 1921 में अमीर अली की मां का देहांत हो गया था जब वे केवल नौ वर्ष के थे. अमीर और उनका छोटे भाई बशीर को पिता ने सारंगी की शिक्षा देनी आरंभ की. जल्द ही पिता को महसूस हुआ कि अमीर का रुझान वादन से ज़्यादा गायन की तरफ है. इसलिए उन्होंने अमीर अली को गायन की तालीम देने लगे.

बालक अमीर के उत्‍साद अमीर खां बनने के पीछे दर्द और अपमान की दास्‍तानें हैं. डॉ. इब्राहिम अलद की पुस्‍तक में बचपन की एक अपमानभरी घटना का उल्‍लेख अमीर खां के बाल मित्र सितार वादक रामनाथ श्रीवास्‍तव ने किया है. वे बताते हैं कि पिता का व्‍यवहार उस जमाने के उस्‍तादों की तरह ही बेहद कड़क होता था. एकबार पिता ने सांरगी बजाने के दौरान किसी गलती पर नन्‍हे अमीर की गर्दन पर डिब्‍बा दे मारा था. इससे दुखी अमीर ने गायक की राह पकड़ ली. वे छिपछिप कर रियास किया करते थे. इसमें छोटे भाई बशीर की सारंगी पर संगत मिला करती थी.

बचपन में ही एक घटना और हुई. इंदौर के प्रसिद्ध हार्मोनियम वादक बापराव अग्निहोत्री ने लिखा है कि एक बार इंदौर के गफूर बजरिया मोहल्‍ले में उस्‍ताद नसीरूद्दीन खां डागर का कार्यक्रम हुआ. वहां अमीर खां ने ‘मेरुदंड’ नामक ग्रंथ देखा. वे उसे लेकर पढ़ने लगे तो उस्‍ताद नसीरूद्दीन ने यह कहते हुए ग्रंथ छीन लिया कि यह बच्‍चों के काम का नहीं है. बालक अमीर इतने आहत हुए कि तय कर लिया उच्‍च श्रेणी के गायक बन कर ही दम लेंगे. बालसखा रामनाथ श्रीवास्‍तव से ‘मेरुदंड’ ग्रंथ लाने को कहा. रामनाथ ने भी दोस्‍त के भाव को समझा और कुछ ही दिनों में ‘मेरुदंड’ की कॉपी हाथ से लिख कर अमीर खां को दे दी.

अपमान की ऐसी ही एक घटना का उल्‍लेख कला मर्मज्ञ प्रभु जोशी ने अपने आलेख में किया है. वे लिखते हैं कि उस्ताद अमीर खां की प्रतिभा को अस्वीकार का आरंभ तो उसी समय हो गया था, जब वे शास्त्रीय संगीत के एक दक्ष गायक बनने के स्वप्न से भरे हुए थे और रायगढ़ दरबार में एक युवतर गायक की तरह अपनी अप्रतिम प्रतिभा के बलबूते संगीत-संसार में एक सर्वमान्य जगह बनाने में लगे हुए थे. एक बार उनके आश्रयदाता ने उन्हें मिर्जापुर में सम्पन्न होने वाली एक भव्य-संगीत सभा में प्रतिभागी की बतौर भेजा, ताकि वे वहां जाकर अपनी गायकी की एक प्रभावकारी उपस्थिति दर्ज करवा के लौटें. लेकिन, उन्होंने जैसे ही अपना गायन शुरू किया रसिकों के बीच से उनके विरोध के स्वर उठने लगे. यह विरोध जल्द ही शोरगुल में बदल गयस. उस संगीत-सभा में प्रसिद्ध गायक इनायत खां, फैयाज खां और केशरबाई भी मौजूद थे. इन वरिष्ठ गायकों की बात भी श्रोताओं ने सुनी नहीं. इस घटना से हुए अपमान-बोध ने युवा गायक अमीर खां के मन में ‘अमीर‘ बनने के दृढ़ संकल्प से साथ दिया. वे जानते थे, एक गायक की ‘सम्पन्नता’, उसके ‘स्वर’ के साथ ही साथ ‘कठिन साधना’ भी है. नतीजतन, वे अपने गृह नगर इंदौर लौट आए.

उसने स्वर-साधना को अपना अवलम्ब बनाया, और ऐसी साधना ने एक दिन उसको उसकी इच्छा के निकट लाकर छोड़ दिया. शायद इसी की वजह रही कि बाद में, जब अमीर खां साहब देश के सर्वोत्कृष्ट गायकों की कतार में खड़े हो गये तो बड़े-बड़े आमंत्रणों और प्रस्तावों को वे बस इसलिए अस्वीकार कर दिया करते थे कि ‘वहां आने-जाने में उनकी ‘रियाज‘ का बहुत ज्‍यादा नुकसान हो जाएगा. प्रभु जोशी सच ही लिखते हैं कि कुल मिला कर यह रियाज के अखण्डता की बात ही थी. बहारहाल, अमीर खां साहब का सर्वस्व रियाज पर ही एकाग्र हो गया था. भारतीय शास्त्रीय संगीत के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा गायक हुआ होगा, जिसके लिए ‘रियाज‘ इतना बड़ा अभीष्ट बन गया हो. उनके बारे में एक दफा उनके शिष्य रमेश नाडकर्णी ने जो एक बात अपनी भेंट में कही थी, वह यहां याद आ रही है कि ‘मौन में भी कांपता रहता था, खां साहब का कंठ. जैसे स्वर अपनी समस्त श्रुतियों के साथ वहां अखंड आवाजाही कर रहा है.’

फिल्म संगीत में भी उस्ताद अमीर खां का योगदान उल्लेखनीय है. ‘बैजू बावरा’, ‘शबाब’, ‘झनक झनक पायल बाजे’, ‘रागिनी’, और ‘गूंज उठी शहनाई’ जैसी फि‍ल्मों के लिए उन्होंने अपना स्वरदान किया. एक इंटरव्‍यू में उन्‍होंने कहा था कि दूसरे संगीतकारों की तरह उन्‍होंने कभी फिल्‍मों में गाने से परहेज नहीं किया.  संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये उस्ताद अमीर खां को 1967 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. फिर 13 जनवरी 1974 का वह दिन जिसने एक कार दुर्घटना ने शास्त्रीय संगीत के इस महान गायक को हमसे छीन लिया है. हालांकि, संगीत में उन्‍होंने आसमान सा कद अर्जित किया लेकिन उनका पारिवारिक जीवन संतोषप्रद नहीं रहा. अलग-अलग कारणों से उन्‍हें चार बार शादियां करनी पड़ीं. उनके दो बेटे भी हुए लेकिन दोनों में से किसी ने भी भी संगीत की अपनी विरासत को आगे नहीं बढ़ाया. उनका एक बेटा इंजीनियर हुआ था भारत के बाहर बस गया जबकि दूसरा बेटा हैदर अली फिल्‍मी दुनिया में अभिनेता शाहबाज खान के नाम से चर्चित हुआ.

इंटरनेट पर उपलब्‍ध उस्ताद अमीर खां साहब के इंटरव्‍यू या गायन को सुन कर एक ही बात से सहमति होती है कि वे एक गायक नहीं, एक पूरे घराने की तरह मौजूद हैं, जिसमें उनके कई-कई शिष्य हैं, जो गा-गा कर अपने गुरु का ऋण उतार रहे हैं.

(न्‍यूज 18 पर 15 अगस्‍त 2023 को प्रकाशित)