Saturday, June 3, 2023

विश्‍व साइकिल दिवस: अनूठी है यह 'साइकिल' और इसकी सवारी


आज जब सड़क पर अपनी गाड़ी से गुजरता हूं और किसी साइकिल सवार को पास से गुजरते देखता हूं तो अपनी गाड़ी जरा स्‍लो कर उसके लिए रास्‍ता बना देता हूं. मुझे वे दिन याद आ जाते हैं जब साइकिल चलाया करता था और किसी गाड़ी को राह देने के फेर में ब्रेक लगाने के बाद फिर साइकिल चलाने के लिए पूरी ताकत लगानी पड़ती थी. यह आदत मुझ में तब से आ गई है जब बाइक चलानी सीखी थी. बाइक से कार तक की यात्रा तो हुई मगर साइकिल की सवारी आज भी जेहन में सुहानी याद की तरह बसी हुई है. हममें से कई के जीवन में साइकिल आज भी बनी हुई लेकिन अब सेहत की फिक्र लिए वजन घटाने और फिट बनने के उपक्रम के रूप में.

यही वजह है कि हर साल 3 जून को साइकिल दिवस मनाने की शुरुआत की गई. ज्‍यादा दिन नहीं हुए हैं, इस दिन को मनाने की शुरुआत 2018 में हुई है और वजह भी वहीं है, लोगों को अपनी सेहत व पर्यावरण के प्रति सजग करना. विश्व साइकिल दिवस 2023 की थीम है, ‘सतत भविष्य के लिए एक साथ सवारी’ Riding Together for a Sustainable Future. एक साथ साइकिल की सवारी, जब यह वाक्‍य पढ़ा और लिख रहा हूं तो कल्‍पना में जाने कितनी छवियां तैर गई हैं जब साथ-साथ साइकिल चलाई गई थी. स्‍कूल के दिनों में दोस्‍तों के समूह के साथ साइकिल की रोमाचंक यात्राएं तो कभी मौजी मन के साथ अकेले में घंटी की ट्रीन-ट्रीन बजाते हुए की गई साइकिल की सवारी याद हो आई. अपने कपड़ों पर दाग मंजूर मगर साइकिल पर निशान भी मंजूर नहीं. चैन चढ़ाने का हुनर. फिल्‍मों के वे दृश्‍य याद हो आए जब नायक-नायिकाओं ने साइकिल की सवारी की, गीत गाएं. जाने कितनी यादें.

फिर धीरे-धीरे सुविधाएं बदली और साइकिल की भूमिका भी. तब साइकिल के कुछ प्रकार थे. आज साइकिल कई-कई प्रकार और डिजाइन में उपलब्‍ध है. बड़े समाज के लिए साइकिल आज भी आजीविका उपार्जन का सहायक साधन है और लगभग उतना ही बड़ा समाज है जिसके लिए साइकिल सेहत पाने का साधन. इस तरह समाज का एक और बंटवारा हुआ है.

लेकिन आज जब हम विश्‍व साइकिल दिवस पर भविष्‍य की बात कर रहे हैं तो मुझे एक दूसरी ‘साइकिल’ की याद आ रही है. यह ‘साइकिल’ है इकतारा प्रकाशन भोपाल की बाल पत्रिका. बच्‍चों को इसका परिचय देते हुए इसके बारे में क्या खूब कहा गया है, ये साइकिल भी तुम्हारी साइकिल की ही तरह है. इसमें भी दो पहिए हैं. एक में अपने आसपास की हवा है जिसमें हम साँस लेते हैं. उसमें धूल है, धुंआ है और मोगरे की खुशबू भी है. दूसरे पहिए में चिड़िया के पंखों से टकराकर लौटी हवा है. इसमें उड़ानें हैं, सपने हैं. यह तुम्हारी भाषा में बोलती है. तुम्हारी भाषा जानती है. इसमें तुम्हारे ठीक पास की अनदेखी दुनिया की कहानी है. जो बार-बार हमारे घर की घंटियां बजाती है मगर अनजान रहती है. ठीक वैसे जैसे जागने से पहले एक लड़का पेपर फेंक जाता है, चुपचाप. साइकिल जागी हुई तथा चुपचाप दोनों, दुनिया की पड़ताल करती है.

कितनी सुंदर बात है कि यह ‘साइकिल’ बच्‍चों से जागी और चुप दोनों तरह की दुनिया की बात करती है. मोबाइल के संसार में कैद बच्‍चों को कल्‍पना के आकाश में ले जाती है. पत्रिका का रंग-रूप, संयोजन, सामग्री इतनी प्रभावी कि बच्‍चे तो ठीक बड़े भी इसे एकबार हाथ में ले लें तो पूरी पढ़े बिना रखते नहीं है. सामग्री की विशिष्‍ट के बारे में क्‍या ही कहा जा सकता है? इस बारे में वरिष्‍ठ साहित्‍यकार कवि, उपन्यासकार, कथाकार विनोद कुमार शुक्ल का यह कहना ही काफी है: साहित्य इत्यादि की पत्रिकाओं में मैंने अब तक जो लिखा पाठकों को सोचकर नहीं लिखा. जो लिख सकता था वही लिखा. इसे कौन पढ़ेगा? या कोई पढ़ेगा! के सुनसान में यह लिखा हुआ छोड़ देता था. साइकिल में यह सोचकर लिखता हूं कि बच्चे पढ़ेंगे. ‘साइकिल’ ने मुझे इस उम्र में पास और दूर के बच्चों तक पहुंचने में मदद की.

इस साइकिल की अपनी दुनिया है. अपने रंग है. इसका हैंडल बच्‍चों का सर्जन और रचनात्‍मकता के आमसान की ओर ले जाता है. इसकी यात्रा करते हुए आनंद की घंटियां बजती हैं. इसकी पुर्जे-पुर्जे में मनभावन संग बसता है. यह बच्‍चों के विकास मार्ग को न अवरूद्ध करती है और किसी दिशा में मोड़ती है. वास्‍तव में यह पंख फैलाती है और एक सुहानी उड़ान के लिए आमंत्रित व तैयार करती है.

अधिक गहराई की बात करूं तो कक्षा 4 से 8 तक के बच्‍चों को ध्‍यान में रखकर प्रकाशित की जा रही यह पत्रिका बच्‍चों को भाषा का अभ्‍यास करवाती है. भाषा के नए रंग-रूप, नए मुहावरों से परिचित करवाती है. यह दायरों को बांधती नहीं, तोड़ती है. यहां कविता अपने भाव में हैं, छंद और तुकबंदी के विन्‍यास में सिमटी नहीं हैं. तय करना मुश्किल होता है कि चित्र अधिक प्रभावी या लेखन और अंत में हम पाते हैं कि दोनों लाजवाब. यानी तो है न साथ-साथ विकास का दृष्टिकोण?

‘साइकिल’ और ऐसी ही कई बेजोड़ पुस्‍तकें तैयार कर रहे इकतारा के सुशील शुक्‍ला और चंदन यादव की यह राय मायने रखती है कि ‘साइकिल’ में हमारी कोशिश रहती है कि उसकी सामग्री बच्चों को एक पाठक के रूप में तैयार कर सके. पढ़ने के प्रति उनकी रुचि जागे. इसके लिए कई चीजें जरूरी हैं मसलन, विविधता से भरी सामग्री मसलन, उसकी प्रस्तुति सामग्री की प्रस्तुति पाठक को आकर्षित करती है कि नहीं? जिस भाषा में सामग्री पेश की जाती है वह पुरानी धूल खाई भाषा तो नहीं है? वह आज की और बोलचाल की भाषा है कि नहीं? उसमें जीवन झलकता है कि नहीं या वह सिर्फ किताबी भाषा है.

बेहद कल्पनाशील, सवाली और जिज्ञासु बच्‍चों और उनके आसपास फैली दुनिया के बीच बने एक पुल का नाम है ‘साइकिल’ जहां से वे अपनी तरह से, अपनी भाषा और अपने रंग में दुनिया को देखते हैं. ‘साइकिल’ के जरिए वे ऐसी जगह पर पहुंचते हैं जहां बराबरी से बात की जाती है, जहां सीमा रेखाएं नहीं खींची जाती बल्कि कल्पनाओं में एक पंख और जोड़ दिया जाता है. बच्चों को रट्टू तोता बनाए रखने की मुहिम पर प्रहार है यह ‘साइकिल’.

और जब इकतारा कहता है कि ‘साइकिल’ बच्‍चों को अनुयायी, संकीर्ण और कूपमंडूक बनाए रखने के चक्र के खिलाफ एक जुगनू बराबर प्रस्ताव है तो हम पाते हैं यह जुगनू भर नहीं है, भोर की किरण है और इसका उजास सब बच्‍चों तक पहुंचना चाहिए. विश्‍व साइकिल दिवस पर इस ‘साइकिल’ की ट्रिन-ट्रिन भी सुनिए, अपना भविष्‍य बेहतर बनाने के लिए सृजन संसार साथ-साथ सवारी के लिए बुला रहा है.

(न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग)