Wednesday, August 30, 2023

शैलेंद्र: प्रगतिशील चेतना का स्‍वर यानी हमारा हीरामन

1975 में एक फिल्‍म आई थी ‘दीवार’. कल्‍ट क्‍लासिक कही जाने वाली इस फिल्‍म के एक डायलॉग पर खूब तालियां बजती थी. डायलॉग है, ‘मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता’. सलीम-जावेद ने यह डायलॉग किस प्रेरणा से लिखा यह तो नहीं पता लेकिन इस फिल्‍म से 26-27 साल पहले एक युवा ने राजकपूर से कहा था, ‘मैं पैसों के लिए नहीं लिखता हूं…’ आज के ग्‍लोबलाइजेशन के इस युग में जब सारी ही चीजें पैसों के इर्दगिर्द रची-बुनी जा रही हैं तब अचरज होता है कि एक युवा फिल्‍म इंडस्‍ट्री में प्रवेश के द्वार को यूं बंद कर रहा था. तब भी राजकपूर को यही महसूस हुआ था.

लेकिन उस युवा के इसी अंदाज ने राजकपूर को कायल बना दिया और जब इस युवा ने फिल्‍म जगत में आना स्‍वीकार किया तो जैसे लोकप्रियता उनकी बांट जोह रहा थी. मैं पैसे के लिए नहीं लिखता कहने के पीछे की ताकत सिद्धांत की ताकत थी. एक प्रतिबद्धता थी. ऐसी प्रतिबद्धता जो जीवन की सबसे बड़ी बाजी तक कायम रही. अभिन्‍न मित्रों तथा वितरकों की सलाह, दबाव और असहयोग को नजर अंदाज करके साहित्यिक कृति ‘मारे गए गुलफाम’ के प्रति संवेदनशील बने रहना इसी प्रतिबद्धता के कारण संभव हो पाया था. खुद खत्‍म हो गए मगर साहित्‍य की आत्‍मा को ठेस पहुंचाना गवारा नहीं हुआ.

यह अद्भुत शख्‍स थे कवि-गीतकार शैलेंद्र. ‘बरसात’, ‘आवारा’, ‘बूट पॉलिश’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘सीमा’, ‘दो बीघा जमीन’, ‘गाइड’, ‘जंगली’, ‘बंदिनी’, ‘चोरी चोरी’, ‘दूर गगन की छांव में’, ‘जागते रहो’, ‘मधुमती’, ‘संगम’ तथा ‘मेरा नाम जोकर’ आदि जैसी फिल्‍मों के गीतकार शैलेंद्र. ‘तीसरी कसम’ के निर्माता शैलेंद्र. राजकपूर के ‘पुश्किन’ और फणीश्‍वरनाथ रेणु के ‘कविराज’ शंकर शैलेंद्र. जिन्‍होंने लिखा था, ‘सबकुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’. जिन्‍हें होशियार बनाने के लिए, मुनाफे कमाने के लिए सलाहें दी गई, मिन्‍नतें की गईं, दबाव बनाया गया, साथ छोड़ दिया गया मगर वे सबकुछ सह गए. गौर से देखा जाए तो शैलेंद्र के जीवन के तमाम रंगों में संवेदशीलता का रंग सबसे ज्‍यादा चमकीला, चटकदार और प्रभावी है. ‘मारे गए गुलफाम’ या कि ‘तीसरी कसम’ में हीरामन तो राजकपूर बने थे लेकिन इस कथा के दो हीरामन और हैं, कथा लिखने वाले फणीश्‍वरनाथ रेणु और इसे पर्दे पर उतारने वाले शैलेंद्र. हीरे से मन वाले रेणु, शैलेंद्र और राजकपूर.

मूलरूप से बिहार के निवासी केसरीलाल दास फौज में थे. जब वे रावलपिंडी में पदस्थ थे तब 30 अगस्त 1923 को बेटे का जन्‍म हुआ. नाम रखा गया शंकरलाल दास. शंकरलाल केसरीलाल दास. शंकरलाल की शिक्षा-दीक्षा मथुरा में हुई थी. स्कूली जीवन से ही कविताएं लिखने लगे तो उपनाम रखा शैलेंद्र. बाद में कवि का नाम हो गया शंकर शैलेंद्र. 1940 में रेलवे में नौकरी के सिलसिले में मुंबई आए. 1942 के अगस्त क्रांति में शामिल हुए और जेल भी गए. वे इंडियन नेशनल थिएटर शरीक हो गए और जेल गए. जेल से बाहर आने के बाद वे रेलवे में नौकरी करने लगे और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जुड़ गए. इप्‍टा के ही एक काव्य-पाठ कार्यक्रम में 1947 में राज कपूर ने शैलेंद्र को काव्य-पाठ करते सुना तो उनके मुरीद हो गए. राजकपूर ने फिल्‍म ‘आग’ के लिए गीत लिखने को आमंत्रित किया तो शैलेंद्र ने स्‍वाभिमान से कहा, मैं पैसों के लिए नहीं लिखता हूं.

यह पूरी कथा इसलिए बताई गई है कि बचपन से ही कविताएं लिखने वाले शैलेंद्र के मुंबई आगमन, भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने और इप्‍टा से जुड़ने और लिखने-पढ़ने ने एक ऐसे रचानाकार को गढ़ा जो जितना संवेदनशील था, उसका स्‍वर उतना ही प्रगतिशील था. शैलेंद्र हिंदी फिल्‍म जगत के सर्वाधिक प्रगतिशील गीतकारों में शुमार होते हैं. सहज काव्‍य उनके लेखन को लोकप्रिय बनाता है और वंचितों की फिक्र उन्‍हें लोकवादी. फिल्‍म ‘बरसात’ से शुरू हुआ गीतों का कारवां 1951 में जब ‘आवारा’ तक पहुंचा तो इसके शीर्षक गीत में शैलेंद्र का यही रूप नुमायां हुआ. इसमें शैलेंद्र ने लिखा: ‘आवारा हूं, गर्दिश में हूं, आसमान का तारा हूं’. ऐसे गीतों की सूची लंबी है. जैसे, ‘श्री 420’ का गीत ‘दिल का हाल सुने दिलवाला’, फिल्म ‘बूट पॉलिश’ का गीत ‘नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?’ आदि, आदि.

वे अन्न-अनाज उगाते

वे ऊंचे महल उठाते

कोयले-लोहे-सोने से

धरती पर स्वर्ग बसाते

वे पेट सभी का भरते

पर खुद भूखों मरते हैं.

यह कविता शैलेंद्र की प्रगतिशीलता का आईना है. जैसे भगत सिंह को संबोधित करती कविता, ‘भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की/ देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फांसी की/ यदि जनता की बात करोगे तुम गद्दार कहाओगे/ बंब-संब की छोड़ो, भाषण दोगे, पकड़े जाओगे.’

‘तू जिंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यकीन कर/ अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर’ जैसे गीत को कैसे भूला जा सकता है? बुझे मन को हौसला देने में इस गीत का कोई मुकाबला नहीं है. इसे जनगीत की तरह गाया जाता है. ऐसा ही एक गीत है जो नारा बन गया है. रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल को ताकत देने के लिए शैलेंद्र ने लिखा था:

हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है

मत करो बहाने संकट है, मुद्रा प्रसार इन्फ्लेशन है

इन बनियों और लुटेरों को क्या सरकारी कन्सेशन है?

बंगले मत झांको, दो जवाब, क्या यही स्वराज तुम्हारा है

मत समझो हमको याद नहीं, हैं जून छियालिस की घातें

जब काले गोरे बनियों में चलती थी सौदे की बातें

रह गयी गुलामी बरकरार, हम समझे अब छुटकारा है.


1974 के आंदोलन में रेणु ने ‘हड़ताल’ शब्द की जगह ‘संघर्ष’ शब्द कर दिया और यह नारा वंचितों की लड़ाई का उद्घोष बन गया. संषर्घ की घोषणा करने वाले शैलेंद्र ने ही लिखा है:

किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार

किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार

किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार

जीना इसी का नाम है.

हमारे पसंद के कई गीत है जिनकी सूची लंबी है. इन्‍हीं गीतों में से तीन को फिल्मफेयर पुरस्कार मिला. 1958 में ‘यहूदी’ के गीत ‘ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सुरूर’, 1959 में ‘अनाड़ी’ के गीत ‘सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी’ तथा 1968 में ‘ब्रह्मचारी’ के गीत ‘तुम गाओ मैं सो जाऊं’ के लिए. आखिरी अवार्ड प्राप्‍त करने के लिए शैलेंद्र ज‍ीवित नहीं थे. यही पुरस्‍कार क्‍यों वे तो अपनी प्रतीक कृति ‘तीसरी कसम’ की सफलता को देखने के लिए भी जीवित नहीं रहे.

‘तीसरी कसम’ से जुड़ाव की कथा भी सरल रेखा सी है. बासु भट्टाचार्य से मिली ‘पांच लंबी कहानियां’ नामक पुस्‍तक में छपी रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पढ़ कर इतने प्रभावित हुए कि उसपर फिल्‍म बनाने का फैसला कर लिया. राजकपूर भी कथा सुन कर उछल पड़े लेकिन फिर चिंता जताई, कविराज, फिल्‍म निर्माण आपका क्षेत्र नहीं. आप गीत ही लिखो. शैलेंद्र कहां मानने वाले थे? अड़ गए, दर्द की यह कविता तो रजत पट पर उतारेंगे ही. जब मित्र की जिद थी तो राजकपूर ने भी मात्र एक रुपए में फिल्‍म करनी स्‍वीकार की. राजकपूर ही क्‍यों ‘तीसरी कसम’ फिल्म के निर्माण से जुड़े बासु भट्टाचार्य (निर्देशक), नवेंदु घोष (पटकथा-लेखक), बासु चटर्जी एवं बाबूराम इशारा (सहायक निर्देशक) ने भी अपने स्‍तर पर सहयोग किया. सबकुछ ठीक चल रहा था. खुद रेणु ने लिखा है कि फिल्‍म ठीक वैसी बन रही थी जैसी उन्‍होंने अपनी कहानी में कल्‍पना की थी. लेकिन बात अंत पर आ कर टिक गई. राजकपूर सहित तमाम वितरकों का मानना था कि अंत सुखद होना चाहिए. दुखांत से फिल्‍म चलेगी नहीं. शैलेंद्र इतने संवेदनशील कि कहानी की एक-एक पंक्ति को हूबहू रील में उतार देने का हर जतन कर रहे थे, उन्हें लेखक की मूल कृति में बदलाव कैसे स्‍वीकार होता? उन्‍होंने इंकार कर दिया. रेणु बुलाए गए. विशेषज्ञों की सभा हुई. शैलेंद्र यह कहते हुए बाहर चले गए कि मुझे बदलाव मंजूर नहीं. लेखक खुद तय करे. सुखांत अंत सुनाया गया. रेणु को वह अंत कैसे पसंद आता? नहीं कह कर वे बाहर चले आए. दोनों मित्र बाहर मिले और अपने एकमत होने पर खुश हुए.

मगर यह दुखांत फिल्‍म का ही नहीं शैलेंद्र का दुखांत भी साबित हुआ. राजकपूर अपने मित्र को वणिक बुद्धि में नहीं ढाल पाए. एक-एक कर यूनिट के सदस्‍य दूर होते गए. अंत में रह गए शैलेंद्र और ‘तीसरी कसम’. सोचा था फिल्‍म ढ़ाई-तीन लाख में बनेगी लेकिन बजट 22 लाख तक पहुंच गया. शैलेंद्र अपनी कृति के साथ अकेले थे. वितरकों ने हाथ खींच लिए तो बड़ी मुश्किल से फिल्‍म रिलीज हो पाई. बकाया मांगने वालों ने कोर्ट का वारंट ले रखा था सो शैलेंद्र अपनी फिल्‍म के प्रीमियर पर भी नहीं जा सके. पहली बार फिल्‍म को दर्शक ही नहीं मिले लेकिन फिल्‍म के शानदार बनने की तारीफ हुई.

ऐसी तारीफ कि खुद रेणु ने अपने मित्र को पत्र में लिखा था, ‘तस्वीर मुकम्मल हो गई और भगवान की दया से ऐसी बनी है कि वर्षों तक लोग इसे याद रखेंगे. अपने मुंह अपनी तारीफ नहीं- कोई भी व्यक्ति यही कहेगा. ‘सजनवां बैरी हो गए हमार’ तो ऐसा बन गया है कि पुराने ‘देवदास’ के ‘बालम आय बसो मेरे मन में’ की तरह युगों तक गाया जाएगा. मैं ही नहीं- कई लोग ऐसे हैं जो इस गीत को सुनकर आंसू मुश्किल से रोक पाते हैं.’

ऐसी बनी थी ‘तीसरी कसम’ लेकिन इसकी सफलता देखने के लिए शैलेंद्र नहीं रहे. 29 सितंबर को उन्होंने रेणु को फिल्म के रिलीज होने की सूचना दी. 14 दिसंबर 1966 को महज 43 वर्ष के शैलेंद्र नहीं रहे. शैलेंद्र के गुजर जाने के बाद ‘तीसरी कसम’ देश भर में प्रदर्शित हुई और लोकप्रिय भी. फिल्‍म को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला लेकिन यह सब देखने के लिए शैलेंद्र नहीं थे. वे जिन्‍होंने सबकुछ सीखा केवल व्‍यापार नहीं सीखा.

शैलेंद्र के असमय गुजर जाने का आघात रेणु के लिए इतना बड़ा था कि वे तीन साल कुछ लिख नहीं पाए. वे मानते थे कि न वे कहानी लिखते, न शैलेंद्र फिल्‍म बनाते और न उनकी असमय मौत होती. उन्होंने लिखा है कि शैलेन्द्र को शराब या कर्ज ने नहीं मारा, बल्कि वह एक ‘धर्मयुद्ध’ में लड़ता हुआ शहीद हो गया. उन्हें लगता था ‘तीसरी कसम’ के चक्कर में ही उनकी मृत्यु हुई, इसलिए उसके जिम्मेदार वही हैं. सोचने को बहुत कुछ है. जैसे शैलेंद्र या रेणु फिल्‍म का अंत बदलने को तैयार हो जाते. या फिल्‍म ग्रामीण परिवेश के हूबहू फिल्‍मांकन की शर्त को कुछ कर कम कर बजट घटा दिया जाता. वितरक तैयार हो जाते. ऐसा नहीं है कि राजकपूर से लेकर अन्‍य मित्रों ने शैलेंद्र की सहायात नहीं कि लेकिन तमाम सहायता के बाद भी कुछ कम पड़ गया. यह जो कम पड़ा यह तो फिल्‍म इंडस्‍ट्री में हमेशा से कम था लेकिन शैलेंद्र में कूट-कूट कर भरा हुआ था. संवेदनशीलता की पराकाष्‍ठा तक रचनात्‍मक आग्रह. ‘तीसरी कसम’ के निर्माण में आई तमाम बाधाओं के बाद भी हमारे हीरामन शैलेंद्र ने अपनी संवेदनशीलता, अपनी प्रतिबद्धता और अपनी प्रगतिशीलता के साथ किसी तरह का समझौता करने की कोई कसम नहीं खाई.

यह भी तय है कि फिल्‍मों में नहीं आते तब भी शैलेंद्र प्रगतिशील रचनाकार होते. लेकिन तब फिल्‍म जगत को वे गीत नहीं मिलते जो शैलेंद्र ने लिखे हैं और जिनकी वजह से हिंदी सिनेमा प्रगतिशील कहलाने का गर्व कर सकता है. बाद में यह भी हुआ कि शैलेंद्र की जाति उजागर हुई. वे हिंदी सिनेमा के दलित गीतकार कहलाए. रैदास के बाद सबसे प्रमुख दलित चेतना का लेखक. वे न लिखते तो कैसे महसूस होता कि किसी की मुस्‍कुराहटों पर निसार होना ही जीवन है. कैसे पता चलता कि हम उस देश के वासी हैं जहां हमने गैरों को भी अपनाना सीखा, मतलब के लिए अंधे बनकर रोटी को नहीं पूजा हमने. हम जीने की तमन्‍ना और मरने के इरादे को कैसे जान पाते?  शैलेंद्र के जन्म को 100 बरस पूरे हो चुके हैं. उनके होने ने हमें मायने दिए हैं. हम उनके लिखे में सुख पाते हैं. और ‘तीसरी कसम’ को देख मन बरबस भीग जाता है, हीरामन के कारण भी और अपने हीरे जैसे मन के शैलेंद्र की याद में भी. जैसा कि बाबा नागार्जुन ने शैलेंद्र को श्रंद्धाजलि अर्पित करते हुए लिखा है:

गीतों के जादूगर का मैं छंदों से तर्पण करता हूं

सच बतलाऊं तुम प्रतिभा के ज्योतिपुंज थे, छाया क्या थी

भलीभांति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी

जहां कहीं भी अंतर मन से, ऋतुओं की सरगम सुनते थे

ताज़े कोमल शब्दों से तुम रेशम की जाली बुनते थे

जन मन जब हुलसित होता था, वह थिरकन भी पढ़ते थे तुम

साथी थे, मजदूर पुत्र थे, झंडा लेकर बढ़ते थे तुम

युग की अनुगूँजित पीड़ा ही घोर घन घटा-सी गहराई

प्रिय भाई शैलेंद्र, तुम्हारी पंक्ति-पंक्ति नभ में लहराई

तिकड़म अलग रही मुसकाती, ओह, तुम्हारे पास न आई

फिल्म जगत की जटिल विषमता, आखिर तुमको रास न आई

ओ जन जन के सजग चितेरे, जब जब याद तुम्हारी आती

आंखें हो उठती हैं गीली, फटने-सी लगती है छाती.


(न्‍यूज 18 पर 30 अगस्‍त 2023 को प्रकाशित) 

Saturday, August 26, 2023

दादी-पिता बोले- हमने अंग्रेजों का नमक खाया है तुम क्रांतिकारी न बनो... तो इस एक्टर ने घर ही छोड़ दिया

सिर्फ एक डायलॉग या एक किरदार के किसी अभिनेता के संपूर्ण कार्य पर भारी होने का उदाहरण देना हो तो जो नाम याद आते हैं उनमें प्रमुख नाम होगा एके हंगल और फिल्‍म ‘शोले’ में रहीम चाचा के उनके किरदार का. ‘शोले’ का एक संवाद ‘इतना सन्‍नाटा क्‍यों है भाई’ हमारे जीवन का मुहावरा बन गया है. फिल्‍मों में चरित्र अभिनेता के रूप में लोकप्रिय एके हंगल के 98 बरस के जीवन में कई उतार चढ़ाव आए. देश के स्‍वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए, जेल भी गए. लंबे समय तक थिएटर किया. 50 बरस की उम्र में फिल्‍मों में आए और 97 वर्ष की उम्र व्‍हील चेयर पर रैंप वॉक किया और मृत्‍यु के कुछ माह पहले एनीमेशन फिल्‍म के लिए आवाज दी. एके हंगल का जीवन एक ऐसे हरफनमौल इंसान का जीवन है जिसने परिवार के दबाव के बावजूद अंग्रेजों की नौकरी नहीं की बल्कि घर छोड़ कर भाग जाना मुनासिब समझा. भगत सिंह के बड़े प्रशंसक एके हंगल पर जब शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे द्वारा प्रतिबंध लगाया गया तो आर्थिक रूप से बड़ा नुकसान झेलने के बाद भी वे अपने निर्णय पर अडिग रहे. उन्‍होंने इस प्रतिबंध पर प्रतिक्रिया में कहा था कि बाल ठाकरे नेता बड़े हैं तो हम भी स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं.

26 अगस्‍त उन्‍हीं जुझारू और प्रतिबद्ध कलाकार एके हंगल की पुण्‍यतिथि है. उनका पूरा नाम अवतार किशन हंगल है. उनका जन्‍म  फरवरी 1914 को सियालकोट (पाकिस्तान) में हुआ था. हालांकि, एक इंटरव्‍यू में उन्होंने बताया था कि जब किसी कार्य से जन्‍म तारीख पूछी गई थी तो उन्‍हें पता ही नहीं थी. फिर बातचीत में आजादी के दिन 15 अगस्‍त का ख्‍याल आया और यही उनकी जन्‍म तारीख मान ली गई. उनके बेटे विजय हंगल बताते हैं कि तब से एके हंगल का जन्‍मदिन 15 अगस्‍त को मनाया जाने लगा था. एके हंगल की उम्र 4-5 वर्ष थी तब मां का देहांत हो गया था. उसके बाद पिता बालक अवतार को ननिहाल से अपने पास पेशावर ले आए थे. एके हंगल ने अपने साक्षात्‍कारों और आत्‍मकथा ‘मैं एक हरफनमौला’ (वाणी प्रकाशन) में अपने जीवन तथा उसके उतार-चढ़ावों पर विस्‍तार से बात की है. बचपन में आजादी के संघर्ष का जिक्र करते हुए वे मामा जलियांवाला बाग की मिट्टी घर ले आए थे. उस वक्‍त घर में चलने वाली आजादी के संघर्ष की बातों का बालमन पर असर हुआ. फिर जब सीमांत गांधी कहे गए खान अब्दुल गफ्फार खान के लाल कुर्ती आंदोलन हुआ तो किशोरवय के एके हंगल भी उसमें शामिल हो गए. गौरतलब है कि पठान समुदाय के खान अब्‍दुल गफ्फार खान ने खुदाई खिदमतगार नामक संगठन बना कर लाल कुर्ती पहनने का आंदोलन चलाया था. यह गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन का हिस्‍सा था.

एके हंगल ने बचपन की एक और घटना का जिक्र करते हुए बताया है कि 23 अप्रैल 1930 को पेशावर के किस्सा-ख्वानी बाजार में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ हुए कई भारतीय एकत्रित हुए थे. इस आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेज सरकार ने गढ़वाल रेजिमेंट को भेजा. ब्रिटिश अधिकारियों ने गोली चलाने का आदेश दिया तो रेजिमेंट के प्रमुख चंदर सिंह गढ़वाली ने निहत्‍थे देशवासियों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया. यह ब्रिटिश सरकार को नागवार गुजरा. गढ़वाली रेजीमेंट के बदले ब्रिटिश सैनिकों ने मासूम आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाईं. कई लोग मारे गए. आक्रोशित लोगों ने ब्रिटिश सैनिकों पर पत्‍थर फेंके. किशोर उम्र के एके हंगल भी इन लोगों में शामिल थें. उन्‍हें गोली नहीं लगी लेकिन ब्रिटिश सैनिकों की क्रूरता के शिकार हुए निहत्‍थे लोगों के खून के छींटें उन पर गिरे. बाद में उनका रूझान कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ हो गया जिसके कारण उन्‍हें पाक में जेल में भी रहना पड़ा.

उनके दादा और पिता ब्रिटिश शासन में सरकारी नौकरी में ऊंचे पदों पर थे. वे बताते हैं कि पढ़ाई पूरी होने के बाद उनके पिता युवा एके हंगल को लेकर अपने ब्रिटिश अधिकारी के पास ले गए. पिता ने आग्रह किया कि अंग्रेज अफसर बेटे की सरकारी नौकरी के लिए सिफारिश कर दे. अंग्रेज अफसर ने आवेदन पत्र पर लिखा, ‘रिकमंडेड इफ ही इज एज गुड एज हिज फादर’. अंग्रेजों के लिए अच्‍छा बनना उन्‍हें रास नहीं आया. दादी और पिता ने बहुत समझाने का प्रयास किया लेकिन एके हंगल नहीं माने. जब दादी ने यह कहते हुए दबाव डाला कि हमने इस सरकार का नमक खाया है तुम क्रांतिकारी न बनो तो एके हंगल ने पेशावर छोड़ दिया. वे घर से भाग कर अपनी बहन के यहां दिल्‍ली आ गए. एके हंगल ने ब्रिटिश नौकरी के बदले सिलाई सीखी. उन्‍हें कपड़ों की सूट की इंग्लिश कटिंग में मास्‍टरी हो गई थी. एक इंटरव्‍यू में उन्‍होंने बताया था कि महात्‍मा गांधी और गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर के निकटतम सहयोगी सीएफ एंड्रयूज के सूट भी एके हंगल ने सीले थे. एके हंगल को भी अच्‍छे कपड़े पहनने का शौक पूरे जीवन रहा. अपनी आत्‍मकथा में उन्‍होंने बताया कि एक कार्यक्रम में उनकी महिला प्रशंसक इस बात से खफा हो गई थी कि फिल्‍मों में अपनी छवि के अनुसार एके हंगल धोती कुर्ता पहन कर नहीं सूट पहन कर चले गए थे.

क्रांतिकारी तथा कम्‍युनिस्‍ट विचारों के कारण एके हंगल को जेल भी जाना पड़ा. फिर जब वे बंटवारे के बाद 1949 में भारत आ गए तो इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़ गए. एके हंगल की अभिनय यात्रा इप्‍टा के माध्‍यम से बलराज साहनी और कैफ़ी आज़मी के साथ शुरू हुई.

जब प्रख्‍यात निर्माता-निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने एके हंगल को नाटक में अभिनय करते देखा तो उन्हें फिल्मों में काम करने का न्यौता दिया. तथ्‍य बताते हैं कि एके हंगल ने पहली फिल्‍म राजकपूर अभिनीत ‘तीसरी कसम’ साइन की थी मगर जब फिल्‍म रिलीज हुई तो पता चला कि राजकपूर के बड़े भाई के उनके रोल पर कैंची चल गई थी. 50 साल की उम्र में फिल्‍मों में कॅरियर की शुरुआत कर रहे यह किसी भी कलाकार के लिए दिल तोड़ने जैसी बात ही है. हालांकि, पहली फिल्‍म ‘शागिर्द’ जब 1967 में रिलीज हुई तो एके हंगल छा गए. उसके बाद अपने फिल्मी कॅरियर में एके हंगल ने तकरीबन 225 फिल्मों में राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, संजीव कुमार, धर्मेंद्र जैसे कलाकारों के साथ काम किया और बेहतर इंसान की छवि बनाई.

1936 से 1965 तक मंच पर अभिनय तथा 1966 से 2005 तक हिंदी फिल्मों में चरित्र अभिनेता के रूप में दिखाई दिए एके हंगल ने फरवरी 2011 को मुंबई में फैशन डिजाइनर रियाज गंजी के लिए व्हीलचेयर में रैंप वॉक किया था. उन्‍होंने मई 2012 में टीवी सीरियल ‘मधुबाला – एक इश्क एक जूनून’ में अतिथि भूमिका निभाई और वर्ष 2012 की शुरुआत में एनीमेशन फिल्म ‘कृष्ण और कंस’ में राजा उग्रसेन के चरित्र को अपनी आवाज दी. उम्र के सौ बरस के करीब पहुंचने तक एके हंगल शारीरिक और आर्थिक परेशानियों से घिर गए थे.

असल में, जीवन भर चरित्र भूमिकाएं निभाने के कारण एके हंगल कभी भी बहुत समृद्ध नहीं हो पाए. यहां तक कि जब उनके घर आयकर विभाग का छापा हुआ तो जांच दल यह जानकार चौंक गया था कि इतना बड़ा कलाकार किराए के मकान में रहता है. उनके घर से आय से अधिक सम्‍पत्ति तो दूर बेहतर जीवन जीने लायक पैसा भी नहीं मिला था. फिर जब वे अपना पुश्‍तैनी घर देखने पाकिस्तान गए तो वहां उन्‍हें पाकिस्तान दिवस समारोह में आमंत्रित किया और वे कार्यक्रम में शामिल हो गए. यह शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को नागवार गुजरा उन्‍होंने एके हंगल को ‘देशद्रोही’ करार देते हुए उनकी फिल्‍मों के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया. उनकी फिल्में महाराष्ट्र और आसपास के टॉकीज से हटा दी गईं. उन्‍हें काम मिलना बंद हो गया. इसके बाद भी वे झुके नहीं बल्कि जवाब दिया कि वे देशद्रोही नहीं बल्कि एक स्वतंत्रता सेनानी हैं. करीब दो साल के बहिष्कार के बाद प्रतिबंध हटाया गया लेकिन तब तक एके हंगल का बतौर कलाकार काफी नुकसान हो चुका था. उम्र बढ़ने के साथ काम मिलना बंद हुआ और फिर एक समय ऐसा आया जब इलाज के लिए भी पैसा नहीं था तब बॉलीवुड ने सहायता की पेशकश की थी. हमेशा अपने विचार और काम के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध रहे अभिनेता एके हंगल ने 26 अगस्त, 2012 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

विचारों से वे कम्‍युनिस्‍ट थे तथा उम्र भर इस विचारधारों के अनुयायी बने रहे. वे गलत के खिलाफ आवाज जरूर उठाते थे. जब टेलर हुआ करते थे तो बंबई में ‘टेलरिंग वर्कर्स यूनियन’ का गठन किया और टेलर समुदाय के कठिनाइयों पर लड़ाई लड़ी. संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन की शुरुआत हुई तो वे भी इस आंदोलन का हिस्सा बने. गोवा मुक्ति के आंदोलन में भी उनकी भागीदारी थी.

जबकि फिल्‍मों में उन्‍होंने ऐसे चरित्रों को जीवंत किया जो हमारे आसपास के लगते हैं. ऐसे अच्‍छे और सच्‍चे चरित्र जिन पर सबको विश्‍वास और आस्‍था होती है. अपनी इस छवि पर खुद एके हंगल ने एक बार टिप्‍पणी की थी कि पर्दे पर उनका चरित्र यदि पिस्‍तोल पकड़ कर खड़ा हो जाए तो भी दर्शक उस चरित्र को बुरा चरित्र नहीं मानेंगे. उन्‍होंने अपने अभिनय से यह विश्‍वास हासिल किया था. यह विडंबना है कि उनके जैसे चरित्र अभिनेता का उत्‍तरार्द्ध संकटग्रस्‍त गुजरा.

(न्‍यूज 18 पर 26 अगस्‍त 2023 को प्रकाशित) 

Friday, August 18, 2023

गुलजार: उघड़ने, सीने ही में उम्र कट गई सारी

जन्‍मदिन मुबारक हो गुलजार साहब…

जन्‍मदिन तो एक बहाना है वरना गुलजार साहब को याद करने के लिए एक फिल्‍म, एक गाना, एक किस्‍सा, एक त्रिवेणी, एक कविता, एक शेर या यूं कहिए एक पंक्ति ही काफी है. जाने कितने संवाद हैं, जाने कितने गाने हैं, जाने कितनी पंक्तियां हैं जो हमें याद रह गई हैं. कितने अफसाने हैं जो हमें अपने लगते हैं, कितना सुरीला लिखा गया है कि शब्‍द किसी राग से बजते हैं. पहले पहल तो अहसास नहीं होता लेकिन जब गुजर जाते हैं, जब सुन चुके होते हैं, जब पढ़ चुके होते हैं तो रेशम के धागे से लगी चोट की तरह शब्‍द, भाव ठहरे रह जाते हैं, एक कसक के साथ. ऐसा लिखा, ऐसा बनाया, ऐसा कहा कहीं भी देखें, पढ़ें, सुनें तो समझ लीजिए उसे गुलजार का स्‍पर्श हुआ है. छू कर जैसे सोना बना देने का हुनर होता है वैसे ही.

18 अगस्‍त गुलजार का जन्‍मदिन है. 90 बरस की ओर कदम बढ़ा चुके गुलजार का लेखन बच्‍चों से लेकर बुजुर्गों तक के मन को छूता है. उनके लेखन के प्रभाव का विस्‍तार आसमान जैसा है, हर जगह कहीं न कहीं ठहरा, बसा और खिला हुआ आसमान. उनके चाहने वालों को मालूम है कि विभाजन की त्रासदी झेलने वाला यह लेखक गुलजार कहलाने के पहले संपूर्ण सिंह कालरा थे. बाद में जब गुलजार नाम अपनाया तो उनके रचे से हम गुलजार होते गए और वे संपूर्ण. उनका जन्‍म 18 अगस्त 1936 को झेलम जिले के दीना में हुआ था जो आज पाकिस्तान में है. गुलजार अपने पिता की दूसरी पत्नी की इकलौती संतान हैं. बचपन में ही मां का देहांत हो गया था. विभाजन हुआ तो उनका परिवार पंजाब के अमृतसर में आ गया और गुलजार मुंबई. गैरेज में बतौर मैकेनिक काम करना और शौकिया लिखना उनका काम था. फिर मशहूर निर्देशक बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी और हेमंत कुमार के सहायक के रूप में काम करने ने जीवन की दिशा बदल दी. बिमल राय को वह पिता की तरह मानते थे और उनके अंतिम समय में वैसी ही सेवा भी की. 

1963 में आई फिल्म ‘बंदिनी’ का ख्‍यात गीत ‘मोरा गोरा रंग लइले’ गुलजार का फिल्‍मों के लिए लिखा गया पहला गीत था. 1968 में उन्होंने फिल्म ‘आशीर्वाद’ के संवाद लिखने के साथ ही संवाद लेखन आरंभ किया। निर्देशक के रूप में उनकी पहली फिल्म 1971 में आई ‘मेरे अपने’ थी। ‘अंगूर’, ‘आंधी’, ‘मौसम’, ‘खुशबू’, ‘लिबास’, ‘इजाजत’, ‘माचिस’ जैसी फिल्में उनके निर्देशन में बनी हैं। ‘चौरस रात’, ‘जानम’, ‘एक बूंद चांद’, ‘रावी पार’, ‘यार जुलाहे’, ‘पुखराज’, ‘रात पश्मीने की’, ‘रात, चांद और मैं’, ‘खराशें’ आदि किताबों में गुलजार को पढ़ा जा सकता है. इस सृजन यात्रा पर पद्मभूषण,साहित्य अकादमी, दादा साहेब फाल्के अवार्ड, नेशनल फिल्म अवार्ड, ग्रैमी अवॉर्ड तथा ‘जय हो’ गीत के लिए ऑस्‍कर जैसे अवार्ड गुलजार के हिस्‍से में आए हैं.

ये सारी बातें तो वे हैं जो कहीं भी लिखी, पढ़ी जा सकती है. असल में गुलजार तो अपने हर पाठक, हर श्रोता, हर दर्शक के लिए ‘पुखराज’ हैं. पश्‍मीना रात का पुखराज चांद. बिमल राय से लेकर विशाल भारद्वाज तक गुलजार की अपनी यात्रा है और हम सब इसके सहयात्री लेकिन हर दौर में गुलजार अपने समकालीनों से कुछ अलग रहे, इतने खास जैसे आसमान में इंद्रधनुष. इस बात को ख्‍यात अभिनेत्री शबाना आजमी के एक अनुभव से समझा सकता है. गीतकार जावेद अख्‍तर पर किताब ‘जादूनामा’ के विमोचन तथा अन्‍य मौकों पर वे यह अनुभव बता चुकी हैं. शबाना ने बताया था कि वे एक धुन पर अटक गई थीं. उन्‍होंने अलग-अजग गुलजार और जावेद अख्तर से कहा कि वे इस धुन पर कुछ रोमांटिक लिख दें. दोनों ने ही लगभग एक मिनट में उस धुन पर रचना लिखी. दोनों का अंदाज एक दम जुदा था. गुलजार ने लिखा:

‘आजा रे पिया मोरे, पिया मोरे आ, कासे कहूं पिया रे, मोरा लागे ना जिया’. 

जबकि जावेद अख्‍तर ने लिखा,

‘जा तोसे नहीं बोलूं, ओ जा रे, जा रे, तू न मेरा सनम, तू न मेरा पिया.’

यह अंदाज ही गुलजार को सबसे जुदां करता है. गुलजार के लिखे में चांद, प्रकृति, रात सबकुछ ऐसे हैं जैसे किसी ने कभी सोचा नहीं. ऐसे ही मैंने सोचा कि शायर गुलजार जब खुदा से बात करता है तो क्‍या बात करता होगा? तब मुझे ‘रात पश्‍मीने की’ में खुदा को संबोधित कुछ नज्‍म मिलीं, कुछ त्रिवेणी भी. हमारा अध्‍यात्‍म उस परम सत्‍ता से एकाकार होने का ही लक्ष्‍य देता है, हमारी सूफी परंपरा उसकी इबादत का अनूठा अंदाज है और ऐसे ही गुलजार खुदा के बारे में जब लिखते हैं तो कभी उसकी इबादत सा लगता है कभी खुदा से ऐसा नाता लगता है जिसे उलाहना, तंज, चुनौती दी जा सकती है. जैसे गुलजार लिखते हैं:

पढ़ा लिखा अगर होता खुदा अपना

मै जितनी भी जबाने जानता हूं

वो सारी आजमाई है

खुदा ने एक भी समझी नहीं अब तक

ना वो गर्दन हिलाता है, न हुंकार ही भरता है

कुछ ऐसा सोचकर शायद फरिश्तों ही से पढवा दे

कभी चांद की तख्ती पे लिख देता शेर गालिब का

धो देता है या कुतर के फांक जाता है

पढ़ा लिखा अगर होता खुदा अपना

न होती गुफ्तगू तो कम से कम

चिठ्ठी का आना जाना तो लगा रहता.

वह सर्वोच्‍च सत्‍ता कौन है, कौन है जिसके इशारे पर कायनात चलती है, वह है भी या केवल एक ख्‍याल है, इस सवाल पर गुलजार कुछ यूं कहते हैं:

बुरा लगा तो होगा ऐ खुदा तुझे,

दुआ में जब,

जम्हाई ले रहा था मैं-

दुआ के इस अमल से थक गया हूं मैं!

मैं जब से देख सुन रहा हूं,

तब से याद है मुझे,

खुदा जला बुझा रहा है रात दिन,

खुदा के हाथ मैं है सब बुरा भला-

दुआ करो!

अजीब सा अमल है ये

ये एक फर्ज़ी गुफ़्तगू

और एकतर्फा – एक ऐसे शख्‍स से,

ख्‍याल जिसकी शक्ल है

ख्‍याल ही सबूत है.

जो ख्‍याल है वह सच में है. यही है और बिना आवाज किए दीवार से पीठ लगाए बैठा है:

मैं दीवार की इस जानिब हूं

इस जानिब तो धूप भी है, हरियाली भी

ओस भी गिरती है पत्तों पर,

आ जाए तो आलसी कोहरा,

शाख पे बैठा घंटों ऊंघता रहता है

बारिश लंबी तारों पर नटनी की तरह थिरकती,

आंख से गुम हो जाती है,

जो मौसम आता है, सारे रस देता है!

लेकिन इस कच्ची दीवार की दूसरी जानिब,

क्यों ऐसा सन्नाटा है

कौन है जो आवाज नहीं करता लेकिन-

दीवार से टेक लगाए बैठा रहता है.

अक्‍सर यह सवाल उठता है कि जब सबका खैरख्‍वाह वह ऊपर वाला है तो क्‍यों आसमान फटता है, क्‍यों आता है जलजला? क्‍यों जो अच्‍छा माना जाता है वह उठाता है तकलीफें, क्यों दानव लूटते है हर तरह के मजे? क्‍यों बुलाई सिर उठा कर चलती है हर दफे और क्‍यों अच्‍छाई को होना पड़ता है परेशान हर बार? सवाल कई हैं. जैसे यह सवाल:

पिछली बार मिला था जब मैं

एक भयानक जंग में कुछ मसरूफ थे तुम

नए नए हथियारों की रौनक से काफ़ी खुश लगते थे

इससे पहले अन्तुला में

भूख से मरते बच्चों की लाशें दफ़्नाते देखा था

और इक बार.. एक और मुल्क में जलजला देखा

कुछ शहरों के शहर गिरा के दूसरी जानिब लौट रहे थे

तुम को फलक से आते भी देखा था मैंने

आस पास के सय्यारों पर धूल उड़ाते

कूद फलांग के दूसरी दुनियाओं की गर्दिश

तोड़ ताड़ के गैलेक्सीज के महवर तुम

जब भी जमीं पर आते हो

भोंचाल चलाते और समंदर खौलाते हो

बड़े ‘इरैटिक’ से लगते हो

काएनात में कैसे लोगों की सोहबत में रहते हो तुम?

शायर खुदा को चुनौती भी देता है और सलाह भी. सलाह की बाजी पलट कर देखो शायद खुदा को बंदे की खुदी को तोड़ने का हुनर आ जाए:

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाजी देखी मैंने –

काले घर में सूरज रख के,

तुमने शायद सोचा था,

मेरे सब मोहरे पिट जाएंगे,

मैंने एक चिराग जला कर,

अपना रस्ता खोल लिया

तुमने एक समंदर हाथ में लेकर, मुझ पर ढेल दिया

मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी

काल चला तुमने, और मेरी जानिब देखा

मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया

मेरी खुदी को तुम ने चंद चमत्कारों से मारना चाहा

मेरे इक प्यादे ने तेरा चांद का मोहरा मार लिया-

मौत की शह देकर तुमने समझा था अब तो मात हुई

मैंने जिस्म का खोल उतार के सौंप दिया और रूह बचा ली

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाजी.

और गुलजार की त्रिवेणी में भी खुदा एक खास रूप में मिलता है.

उम्र के खेल में इक तरफ़ा है ये रस्सा कशी

इक सिर मुझ को दिया होता तो इक बात भी थी.

मुझ से तगड़ा भी है और सामने आता भी नहीं.


जमीं भी उसकी, जमीं की ये नेमतें उसकी

ये सब उसी का है, घर भी, ये घर के बंदे भी.

खुदा से कहिए, कभी वो भी अपने घर आए!

और यह त्रिवेणी जिसमें गुलजार ने जिंदगी की कश्‍मकश को लिख दिया है. यह हर उस शख्‍स का बयान है जैसे जिसकी पूरी उम्र उघड़ने और उघड़े को ढंकने में गुजरी है, गुजर रही है:

अजीब कपड़ा दिया है मुझे सिलाने को

कि तूल खींचूं अगर, अरज छूट जाता है

उघड़ने, सीने ही में उम्र कट गई सारी.

(न्‍यूज 18 पर 18 अगस्‍त 2023 को प्रकाशित) 

Tuesday, August 15, 2023

उस्‍ताद अमीर खां: रियाज छूट जाता था इसलिए नहीं करते थे कार्यक्रमों के लिए यात्राएं

 गुंचे तेरी ज़िंदगी पे दिल हिलता है 

सिर्फ एक तबस्सुम के लिए खिलता है

गुंचे ने कहा कि इस चमन में बाबा

ये एक तबस्सुम भी किसे मिलता है.

फिल्‍म्‍स डिवीजन द्वारा बनाई गई अपनी बायोपिक में उस्‍ताद अमीर खां साहब यही एक शेयर पढ़ते हैं और मानो कहते हैं, तमाम संघर्षों के बाद भी मैं खुश हूं. वे अमीर खां साहब जिनके पहले तक हिंदुस्‍तानी संगीत की एक खास गायन शैली तराना अर्थहीन थी. संगीत विद्वान पं. विष्‍णु नारायण भातखंडे ने भी तराना को अर्थहीन ही करार दिया था. मगर दस सालों के शोध के बाद उस्‍तार अमीर खां ने तराना को अर्थ दिया. उन्‍होंने बताया कि अमीर खुसरो द्वारा इजाद किया गया तराना अर्थहीन नहीं बल्कि वह एक तरह का जप है और इस कारण मूल्‍यवान है. इसलिए उन्‍होंने तराने में कम शब्‍द रख कर उनका जप अधिक रखा और इस तरह वे अध्‍यात्‍म में एकाकार होते रहे. पंडित निखिल मुखर्जी को दिए साक्षात्कार में उस्‍ताद अमीर खां ने कहा था पहले गायक शब्‍द पर अधिक बल देते थे जबकि भाव को महत्‍व कम देते थे. जबकि अमीर खां साहब के गायन में स्‍वर्गिक भाव का अहसास होता है.

शब्‍द से भाव की संगीत यात्रा करवाने वाले उस्‍ताद गायक अमीर खां की 15 अगस्त को जयंती है. उनका जन्‍म 15 अगस्त, 1912 को हुआ था. उनके पिता शाहमीर खान भिंडी बाजार घराने के सारंगी वादक थे, जो इंदौर के होलकर राजघराने में बजाया करते थे. उनके दादा चंगे ख़ान तो बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में गायक थे. 1921 में अमीर अली की मां का देहांत हो गया था जब वे केवल नौ वर्ष के थे. अमीर और उनका छोटे भाई बशीर को पिता ने सारंगी की शिक्षा देनी आरंभ की. जल्द ही पिता को महसूस हुआ कि अमीर का रुझान वादन से ज़्यादा गायन की तरफ है. इसलिए उन्होंने अमीर अली को गायन की तालीम देने लगे.

बालक अमीर के उत्‍साद अमीर खां बनने के पीछे दर्द और अपमान की दास्‍तानें हैं. डॉ. इब्राहिम अलद की पुस्‍तक में बचपन की एक अपमानभरी घटना का उल्‍लेख अमीर खां के बाल मित्र सितार वादक रामनाथ श्रीवास्‍तव ने किया है. वे बताते हैं कि पिता का व्‍यवहार उस जमाने के उस्‍तादों की तरह ही बेहद कड़क होता था. एकबार पिता ने सांरगी बजाने के दौरान किसी गलती पर नन्‍हे अमीर की गर्दन पर डिब्‍बा दे मारा था. इससे दुखी अमीर ने गायक की राह पकड़ ली. वे छिपछिप कर रियास किया करते थे. इसमें छोटे भाई बशीर की सारंगी पर संगत मिला करती थी.

बचपन में ही एक घटना और हुई. इंदौर के प्रसिद्ध हार्मोनियम वादक बापराव अग्निहोत्री ने लिखा है कि एक बार इंदौर के गफूर बजरिया मोहल्‍ले में उस्‍ताद नसीरूद्दीन खां डागर का कार्यक्रम हुआ. वहां अमीर खां ने ‘मेरुदंड’ नामक ग्रंथ देखा. वे उसे लेकर पढ़ने लगे तो उस्‍ताद नसीरूद्दीन ने यह कहते हुए ग्रंथ छीन लिया कि यह बच्‍चों के काम का नहीं है. बालक अमीर इतने आहत हुए कि तय कर लिया उच्‍च श्रेणी के गायक बन कर ही दम लेंगे. बालसखा रामनाथ श्रीवास्‍तव से ‘मेरुदंड’ ग्रंथ लाने को कहा. रामनाथ ने भी दोस्‍त के भाव को समझा और कुछ ही दिनों में ‘मेरुदंड’ की कॉपी हाथ से लिख कर अमीर खां को दे दी.

अपमान की ऐसी ही एक घटना का उल्‍लेख कला मर्मज्ञ प्रभु जोशी ने अपने आलेख में किया है. वे लिखते हैं कि उस्ताद अमीर खां की प्रतिभा को अस्वीकार का आरंभ तो उसी समय हो गया था, जब वे शास्त्रीय संगीत के एक दक्ष गायक बनने के स्वप्न से भरे हुए थे और रायगढ़ दरबार में एक युवतर गायक की तरह अपनी अप्रतिम प्रतिभा के बलबूते संगीत-संसार में एक सर्वमान्य जगह बनाने में लगे हुए थे. एक बार उनके आश्रयदाता ने उन्हें मिर्जापुर में सम्पन्न होने वाली एक भव्य-संगीत सभा में प्रतिभागी की बतौर भेजा, ताकि वे वहां जाकर अपनी गायकी की एक प्रभावकारी उपस्थिति दर्ज करवा के लौटें. लेकिन, उन्होंने जैसे ही अपना गायन शुरू किया रसिकों के बीच से उनके विरोध के स्वर उठने लगे. यह विरोध जल्द ही शोरगुल में बदल गयस. उस संगीत-सभा में प्रसिद्ध गायक इनायत खां, फैयाज खां और केशरबाई भी मौजूद थे. इन वरिष्ठ गायकों की बात भी श्रोताओं ने सुनी नहीं. इस घटना से हुए अपमान-बोध ने युवा गायक अमीर खां के मन में ‘अमीर‘ बनने के दृढ़ संकल्प से साथ दिया. वे जानते थे, एक गायक की ‘सम्पन्नता’, उसके ‘स्वर’ के साथ ही साथ ‘कठिन साधना’ भी है. नतीजतन, वे अपने गृह नगर इंदौर लौट आए.

उसने स्वर-साधना को अपना अवलम्ब बनाया, और ऐसी साधना ने एक दिन उसको उसकी इच्छा के निकट लाकर छोड़ दिया. शायद इसी की वजह रही कि बाद में, जब अमीर खां साहब देश के सर्वोत्कृष्ट गायकों की कतार में खड़े हो गये तो बड़े-बड़े आमंत्रणों और प्रस्तावों को वे बस इसलिए अस्वीकार कर दिया करते थे कि ‘वहां आने-जाने में उनकी ‘रियाज‘ का बहुत ज्‍यादा नुकसान हो जाएगा. प्रभु जोशी सच ही लिखते हैं कि कुल मिला कर यह रियाज के अखण्डता की बात ही थी. बहारहाल, अमीर खां साहब का सर्वस्व रियाज पर ही एकाग्र हो गया था. भारतीय शास्त्रीय संगीत के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा गायक हुआ होगा, जिसके लिए ‘रियाज‘ इतना बड़ा अभीष्ट बन गया हो. उनके बारे में एक दफा उनके शिष्य रमेश नाडकर्णी ने जो एक बात अपनी भेंट में कही थी, वह यहां याद आ रही है कि ‘मौन में भी कांपता रहता था, खां साहब का कंठ. जैसे स्वर अपनी समस्त श्रुतियों के साथ वहां अखंड आवाजाही कर रहा है.’

फिल्म संगीत में भी उस्ताद अमीर खां का योगदान उल्लेखनीय है. ‘बैजू बावरा’, ‘शबाब’, ‘झनक झनक पायल बाजे’, ‘रागिनी’, और ‘गूंज उठी शहनाई’ जैसी फि‍ल्मों के लिए उन्होंने अपना स्वरदान किया. एक इंटरव्‍यू में उन्‍होंने कहा था कि दूसरे संगीतकारों की तरह उन्‍होंने कभी फिल्‍मों में गाने से परहेज नहीं किया.  संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये उस्ताद अमीर खां को 1967 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. फिर 13 जनवरी 1974 का वह दिन जिसने एक कार दुर्घटना ने शास्त्रीय संगीत के इस महान गायक को हमसे छीन लिया है. हालांकि, संगीत में उन्‍होंने आसमान सा कद अर्जित किया लेकिन उनका पारिवारिक जीवन संतोषप्रद नहीं रहा. अलग-अलग कारणों से उन्‍हें चार बार शादियां करनी पड़ीं. उनके दो बेटे भी हुए लेकिन दोनों में से किसी ने भी भी संगीत की अपनी विरासत को आगे नहीं बढ़ाया. उनका एक बेटा इंजीनियर हुआ था भारत के बाहर बस गया जबकि दूसरा बेटा हैदर अली फिल्‍मी दुनिया में अभिनेता शाहबाज खान के नाम से चर्चित हुआ.

इंटरनेट पर उपलब्‍ध उस्ताद अमीर खां साहब के इंटरव्‍यू या गायन को सुन कर एक ही बात से सहमति होती है कि वे एक गायक नहीं, एक पूरे घराने की तरह मौजूद हैं, जिसमें उनके कई-कई शिष्य हैं, जो गा-गा कर अपने गुरु का ऋण उतार रहे हैं.

(न्‍यूज 18 पर 15 अगस्‍त 2023 को प्रकाशित) 

Monday, August 14, 2023

मैडम कामा: तिरंगे में राष्‍ट्रीय एकता का भाव और विदेश में भारत की आजादी का घोष

15 अगस्‍त करीब है. 15 अगस्‍त यानी हमारे देश की आजादी का दिन. वह दिन जब लाखों स्‍वतंत्रता सेनानियों का स्‍वप्‍न साकार हुआ था. वह क्षण जब भारत माता गुलामियों की बेडि़यों से मुक्‍त हुई थी. मुक्ति का वह पल जिसे देखने का स्‍वप्‍न लिए लाखों क्रांतिकारी, स्‍वतंत्रता संग्रामी सेनानी ताउम्र संघर्ष करते रहे. वह पल जिसे देखना सबसे बड़ा लक्ष्‍य था और हजारों सेनानियों ने इस लक्ष्‍य को पाने के लिए अपने जीवन की आहूति दे दी. ऐसी ही थी मैडम भीकाजी रूस्‍तम कामा. 13 अगस्‍त उनके देहांत की तारीख है मगर उनकी मृत्‍यु के 11 साल बाद 15 अगस्‍त को देश ने वह पल देखा जिसके लिए मैडम भीकाजी कामा ने जीवन समर्पित किया. वे वही महिला हैं जिन्‍होंने देश की आजादी का स्‍वप्‍न लिए पहली बार तिरंगा फहराया और विदेशों में भारत की गुलामी की सच्‍चाई बता कर भारत के पक्ष में जनमत बनाने का बेहद महत्‍वपूर्ण कार्य किया. उनकी पुण्‍यतिथि उनके जीवन और पहले तिरंगे को फहराने की गाथा जानने का दिन है.

मुंबई निवासी एक पारसी परिवार सोहराब जी के घर में 24 सितंबर 1861 को जन्‍मी बालिका का नाम भीकाजी रखा गया था.. बचपन में भीकाजी को मुन्‍नी कह का पुकारा जाता था और बाद में वे पूरी दुनिया में भारत की स्‍वतंत्रता की उद्घोषक बनी तो मैडम कामा कहलाईं. वे बचपन से ही कुशाग्र थीं और स्‍वतंत्रता आंदोलन में रूचि लेती थीं. देशभक्ति की उनकी बातें तथा क्रियाकलापों से भयभीत हो कर उनके पिता ने 3 अगस्त 1885 को उनका विवाह मुंबई के प्रसिद्ध वकील रुस्तम जी कामा से कर दिया. पिता ने सोचा था कि विवाह के बाद भीकाजी का मानस बदल जाएगा और वे ब्रिटिश सरकार विरोधी गतिविधियों से दूर हो जाएंगी. मगर वैवाहिक जीवन में तो कुछ और लिखा था. भीकाजी देश की मुक्ति के स्‍वप्‍न देख रही थीं ज‍बकि उनके पति वकील रुस्तम जी कामा उनसे एकदम उलट विचार व स्वभाव वाले व्यक्ति थे. वे ब्रिटिश सरकार के प्रति गहरी आस्था रखते थे. पति-पत्नी के विचार व दृष्टिकोण एकदम विपरीत थे. एक था अंग्रेजों का कट्टर समर्थक व दूसरा उनका तगड़ा विरोधी. विचारों का अंतर दोनों के दांपत्‍य में कांटें बिछाने लगा लेकिन मैडम कामा ने किसी तरह का समझौता नहीं किया बल्कि वे अधिक गंभीरता से ब्रिटिस सरकार विरोधी गतिविधियों में हिस्‍सा लेने लगीं.

वर्ष 1896 में मुंबई में प्‍लेग ने हजारों लोगों को अपनी चपेट में ले लिया. भीकाजी कामा भी पीडि़तों की सेवा में जुट गईं. जाहिर है, बीमारों की सेवा करते करते वे भी प्‍लेग की चपेट में आनी थी. ऐसा हुआ और उनकी तबियत बिगड़ी और फिर मित्रों की सलाह और दबाव पर वे उपचार करवाने यूरोप गईं. उनका यूरोप जाना उपचार के लिए था मगर देश स्‍वतंत्रता की गतिविधियों वहां भी कम नहीं हुईं. उन्‍होंने यूरोपीय देशों में भारत की गुलामी की हकीकत उजागर करनी शुरू की.

अगस्त 1907 में मैडम कामा को पता चला कि जर्मनी स्थित स्टुटगार्ट में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन का आयोजन हो रहा है. सम्‍मेलन में विभिन्न देशों के हजारों प्रतिनिधि भाग ले रहे थे. भीकाजी को पूरी दुनिया के सामने पराधीन भारत की वास्‍तविक स्थिति को उजागर करने तथा देश की मुक्ति के लिए विश्व जनमत जुटाने का यह बेहतर अवसर प्रतीत हुआ. वे सम्‍मेलन में पहुंची और भारतीय परिधान साड़ी पहन कर जब वे मंच पर पहुंची तो उनके व्‍यक्तित्‍व की आभा से मंच दमक उठा. ‘मैडम कामा’ पुस्‍तक में लिखा है कि इस सम्‍मेलन में मैडम कामा ने कहा कि मां भारती के शिशु अंग्रेजों के अत्याचार व अपमान तले रौंदे जा रहे हैं. जो असहाय नीचे ही नीचे धंसते जा रहे हैं, उन्हें स्वराज्य की सुखद स्थिति की ओर बढ़ाओ. आगे बढ़ो! हम भारत के लिए और भारत भारतीयों के लिए यही हमारा ध्येय सूत्र है.

वे यूरोप के साथ ही दुनिया के अनेक देशों में पहुंचती और भारत की स्‍वतंत्रता के लिए पहल करती. वे जहां भी भाषण देती देशवासियों को संगठित होकर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रहीं। उनका संदेश था- ‘जाति का प्रश्न हमारी राह में नहीं आना चाहिए। हम सब भारतीय एक ही परिवार के हैं।’ वह चाहती थी कि भारतीयों में भाईचारे की भावना प्रबल होकर एकता स्थापित हो. वह चेतावनी देती थीं कि अंग्रेजों द्वारा दिया गया कोई भी काम या पद, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, कतई स्वीकार न किया जाए. उन्होंने आह्वान किया कि लोग अपने संसाधनों के सहारे ही जीना सीखें. अपने वाणिज्य, व्यापार, उद्योग, कला में भारतीयता को प्रोत्साहन देते हुए हर चीज को पूर्णतया भारतीय बना कर छोड़ें.

मैडम भीकाजी कामा ने अपने क्रांतिकारी विचारों को प्रचारित करने के लिए ‘वंदेमातरम्’ तथा ‘तलवार’ नामक पत्रों का सहारा लिया. उनके इन कार्यों को सम्‍मान देते हुए सहयोगी उन्हें ‘भारतीय क्रांति की माता’ मानते थे; जबकि अंग्रेज उन्हें कुख्यात महिला, खतरनाक क्रांतिकारी, अराजकतावादी क्रांतिकारी, ब्रिटिश विरोधी कहा करते थे. इतने परिश्रम और शारीरिक कष्‍ट के चलते वे बीमार रहने लगी. उनकी इच्‍छा थी कि वे अंतिम समय देश में व्‍यतीत करें. लेकिन ब्रिटिश सरकार तो उनसे भयभीत थी. अंग्रेज सरकार से अनुमति मिलती तभी वे भारत में प्रवेश कर सकती थीं. लंबी कानूनी व प्रशासनिक लड़ाई के बाद ब्रिटिश सरकार ने अनुमति दी लेकिन इस शर्त के साथ कि वे आजादी के संघर्ष में अब भाग नहीं लेंगी तथा क्रांतिकारियों से कोई संपर्क नहीं रखेंगी. मैडम कामा ने यह शर्त मानने से इंकार कर दिया मगर शुभचिंतकों ने आग्रह तथा दबाव डालकर उन्‍हें शर्त मानने को मजबूर कर दिया. वे कष्‍टप्रद समुद्री यात्रा कर वे अपने जन्मस्थल मुंबई पहुंची. बंदरगाह से उन्‍हें सीधे अस्पताल ले जाया गया. अस्पताल में करीब आठ मा‍ह उनका इलाज चला और लेकिन तमाम उपचार उन्‍हें बचा नहीं सके और 13 अगस्त 1936 को उनका देहांत हो गया.

भारत की स्‍वतंत्रता का स्‍वप्‍न पाले जीने वाली मैडम कामा ने पूरी दुनिया में जहां मौका मिला वहां भारत की स्‍वतंत्रता के लिए सहयोग का आह्वान किया. ऐसा ही एक दिन 22 अगस्त 1907 भी था जब जर्मनी में हुई इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांफ्रेंस में भीकाजी काम ने भारतीय स्वतंत्रता के ध्वज को फहरया था. यह भारत का ध्‍वज भी तिरंगा था लेकिन हमारे वर्तमान राष्‍ट्र ध्वज तिरंगे से जरा भिन्‍न था. संदर्भ बताते हैं कि भीकाजी द्वारा लहराए गए तिरंगे झंडे में तीन रंग हरा, पीला और लाल थे जो इस्लाम, हिंदुत्व और बौद्ध मत को प्रदर्शित कर रहे थे. ध्‍वज के बीच में देवनागरी लिपि में ‘वंदे मातरम्’ लिखा हुआ था. इस तरह मैडम कामा ने ख्‍याल रखा था कि ध्‍वज में देश की विभिन्न संस्‍कृतियों और धर्मों का प्रतिनिधित्‍व हो.

जर्मनी के स्टुटगार्ड में हुए ‘अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद सम्मेलन’ में मैडम कामा ने यह तिरंगा झण्डा फहराते हुए अपील की थी:

यह भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज है. इसका जन्म हो चुका है. हिन्दुस्तान के युवा वीर सपूतों के रक्त से यह पहले ही पवित्र हो चुका है. यहां उपस्थित सभी महानुभावों से मेरा निवेदन है कि सब खड़े होकर हिंदुस्‍तान की आजादी के इस ध्वज की वंदना करें।

इस भावुक अपील से प्रभावित हो कर वैश्विक समुदाय ने खड़े हो कर करतल ध्‍वनि से मैडम भीकाजी की भावनाओं से सहमति जताई. आजादी के बाद तिरंगे का रंग बदला, वंदेमातरम् की जगह पहले चरखा और फिर अशोक चक्र ने ली लेकिन भारत की एकता, अखंडता, विविधता की विशिष्‍टता के लिए देशभक्‍तों की भावनाओं में कोई अंतर नहीं आया. तिरंगा यात्राएं तथा तिरंगे को सलाम करने के लिए उठे हाथों के पीछे यही जज्‍बा है कि आजादी के मतवालों को याद कर आजादी को अखंड बनाए रखने का संकल्‍प दोहराया जा सके.

(न्‍यूज 18 पर 14 अगस्‍त 2023 को प्रकाशित) 

Saturday, August 12, 2023

हमारी धर्म, संस्‍कृति, कला के प्रतीकों तक सिमट कर न रह जाएं हाथी

हाथी यानी गजराज हमारे इको सिस्‍टम का बेहद महत्‍वपूर्ण कड़ी है. यह हमारी पौराणिक आख्‍यानों, लोक कला और कथाओं, हमारी संस्‍कृति और साहित्‍य का अभिन्‍न हिस्‍सा है. प्रथम पूज्‍य कहे गए गणेश का रूप है गजानन. धैर्य और विवेक का प्रतीक ऐरावत हाथी देवराज इंद्र का वाहन है और ऐरावत समुद्र मंथन में से निकले 15 रत्‍नों में से 5 वां रत्‍न है. गीता में श्री कृष्‍ण कहते हैं कि वे हाथियों में ऐरावत हैं. सौंदर्य की प्रशंसा में नायिका गजगामिनी संबोधित की गई है. हिंदू धर्म में गजलक्ष्‍मी को राजलक्ष्‍मी की संज्ञा दी गई है.

बौद्ध धर्म में हाथी मानसिक दृढ़ता और बुद्ध के गर्भ में आने के प्रतीक हैं. हिंदू मंदिरों और बौद्ध गुफाओं में हाथी उकेरे गए हैं. मध्‍य प्रदेश में भोपाल के पास भीमबेटका गुफाएँ हाथियों की सबसे पुरानी पेंटिंग हैं, जो लगभग 10,000 वर्ष पुरानी बताई जाती हैं. मुंबई के पास घारापुरी द्वीप को एलीफेंटा गुफाओं के नाम से जाना जाता है. हाथी की नक्काशी और अकेली हाथी की मूर्तियां उड़ीसा के कोणार्क सूर्य मंदिर और दक्ष प्रजापति मंदिर जैसे स्‍थलों पर पाई जाती हैं. ‘हस्ती आयुर्वेद’ एक ग्रंथ है जो हाथियों का आयुर्वेद है. इसे गजयुर्वेद या गजचिकित्सा कहा जाता है जो हाथियों की विभिन्न बीमारियों के उपचार की विधियां बताता हैं.

विस्‍तार दिया जाए तो कई संदर्भ और प्रतीक का उल्लेख किया जाएगा. मगर मुद्दा कुछ ओर है. इस सबको बताने के पीछे लक्ष्‍य है कि हाथी यानी गजराज हमारे जीवन का हिस्‍सा रहे हैं, इतना महत्‍वपूर्ण अंग कि उनकी उपस्थिति हमारे धर्म, कला-संस्‍कृति, साहित्‍य व आर्थिकी में विशिष्‍ट रही है. अब भय लग रहा है कि शक्ति, धैर्य, विवेक के प्रतीक गज कहीं वास्‍तव में ही प्रतीक बन कर ही न रह जाएं. इनकी सिमटी संख्‍या यह भय पैदा कर रही है. ये चिंताएं और भय केवल भारत की ही नहीं है बल्कि पूरी दुनिया की हैं. तभी 12 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय हाथी दिवस मनाया जाता है. यह दिन हमें याद दिलाता है कि हमारे धर्म, हमारी कहानियों और हमारे लिए प्रतीक हाथी को बचाने के प्रयास तेज करना है. इस दिन की शुरुआत 2012 में कनाडाई पेट्रीसिया सिम्स और थाईलैंड के एलिफेंट रीइंट्रोडक्शन फाउंडेशन की एचएम क्वीन द्वारा की गई थी. हर साल की तरह 12 अगस्त को एक नई योजना, एक नए रोडमैप के साथ हाथी बचाने की पहल पर बल दिया जाता है. विश्‍व हाथी दिवस 2023 की थीम ‘वन्‍य प्राणियों के अवैध व्‍यापार पर रोक’ लगाना है.

हाथी के संरक्षण की पहल कितनी महत्‍वपूर्ण है यह इस बात से समझा जा सकता है कि हर साल 16 अप्रैल को विश्‍व हाथी बचाओ दिवस मनाया जाता है. कोशिश यही है कि पूरी दुनिया हाथी महत्‍ता को जाने तथा उन्‍हें बचाने के जतन करें. अन्‍य लुप्‍त होते वन्‍य प्राणियों की तरह ही हमारे विकास ने हाथियों के अस्तित्‍व को संकट में डाला है. वनों में बढ़ते अतिक्रमण तथा वन संसाधनों पर शहरी इंसान के कब्‍जे ने वन प्राणियों के लिए खतरा बढ़ा दिया है. इस तरह पिछले कुछ सालों में एशियाई हाथियों का आवास भी कम हुआ और हाथी दांत के लिए हाथियों का शिकार भी खूब हुआ. जरा सर्च करें तो पाएंगे कि 1980 में एशिया में लगभग 93 लाख हाथी थे और अब इनकी संख्‍या लगातार घट रही है. एक साल पहले तक यह संख्‍या कम हो कर 50 हजार तक पहुंच गई है. इनमें से भी 55 फीसदी हाथी यानी 27 हजार हाथी भारत में हैं. भारत में हाथियों के रहवासी स्थल 10 हैं. ये 27 हजार से अधिक हाथी 15 राज्यों में 10 रहवास क्षेत्रों तथा 33 हाथी अभयारण्यों में रहते हैं.

भारत के लिहाज से देखें तो इंसान हाथियों के प्राकृतिक आवास क्षेत्र में बस गए हैं और बेदखल कर दिए गए हाथी महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, गोवा और मध्य प्रदेश के उन क्षेत्रों चले गए जहां उनका पारंपरिक आवास नहीं है. स्‍वाभाविक है कि इंसान के साथ उनका संघर्ष होगा. अध्‍ययन बताते हैं कि अपने मुख्‍य आहार वाली वनस्‍पतियों के खत्‍म होने के कारण भोजन और पानी की तलाश हाथी एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान पर पहुंच गए हैं.

अपना प्राकृतिक आवास छिन लिए जाने से हाथी का स्‍वभाव भी बदलता जा रहा है. वे उन स्‍थलों पर ठहर जाते हैं जहां उन्‍हें अपने खाने लायक वनस्‍पति और रहने को जगह मिलती है। छत्‍तीसगढ़ और मध्‍य प्रदेश का सीमावर्ती क्षेत्र हाथियों के इसी बदले स्‍वभाग का गवाह बन रहा है. हाथियों के झुंड के आने से किसानों की फसलें बर्बाद होती है तो उनसे बचने के लिए शोर किया जाता है. और जब किसानों का धैर्य टूटने लगता है तो वे करंट के तार बिछा कर हाथियों को भगाने का जतन करते हैं. नजीतन आंकड़ें बताते हैं कि पिछले दस सालों में करंट लगने के कारण हमारे देश में ही 482 हाथियों की मौत हुई है. पहले हमने पालतू हाथी को अपने महावत के साथ शहरों-गांवों में घूमते देखा है. मगर अब आंकड़ें बताते हैं कि इंसानों और हाथियों के संघर्ष में अधिकांश जान महावत की जाती है. वह महावत जो हाथी के साथ सबसे ज्‍यादा समय गुजारता है. इसका कारण यह है कि महावतों को हाथी के साथ रहने या उसे पालने का कुशल पता नहीं होता. हाथी के पालन और देखरेख का कौशल समय के साथ लुप्‍त होता जा रहा है.

हाथी के संरक्षण की फिक्र कर रहे प्रकृति प्रेमी पिछले दिनों सरकार के उस निर्णय से चिंतित हो गए है जिसमें वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय प्रोजेक्ट टाइगर और प्रोजेक्ट एलिफैंट को एक कर दिया है. अब दोनों प्रोजेक्‍ट ‘प्रोजेक्ट टाइगर एंड एलिफैंट डिवीजन’ नामक नए डिवीजन के तहत मिला दिया गया है. यह प्रस्‍ताव 2011 में भी लाया गया था. तब राष्ट्रीय वन्यजीव स्थायी समिति के विशेषज्ञों की आपत्तियों के बाद इस प्रस्‍ताव को रोक दिया गया था. अब इसे लागू कर दिया गया है. यह बात अच्‍छी है कि प्रोजेक्‍ट टाइगर ने बेहतर सफलता प्राप्‍त की है और देश में बाघ की तादाद 2010 की 1706 बाघ की तुलना में 2023 में बढ़ कर 3167 हो गई है लेकिन फिक्र तो हाथी की है. चिंता का कारण यह है कि बाघ संरक्षण के लिए धन आवंटन 2018-19 से घट रहा है. अब दोनों प्रोजेक्‍ट को मिला देने से भय है कि हाथी के संरक्षण का पैसा प्रोजेक्ट टाइगर पर खर्च होने लगेगा. धन के बंटवारे में अंतर के अलावा वन्य प्राणी विशेषज्ञों का तर्क है कि बाघ और हाथी दोनों की प्रकृति अलग है और दोनों ही प्रोजेक्ट्स के लक्ष्‍य व चुनौतियां अलग-अलग हैं. उन्हें एक साथ मिला देने से दोनों के ही संरक्षण के प्रयासों को नुकसान पहुंचेगा.

सहअस्तिव के दर्शन को मानने वाले देश भारत में हमें हाथी जैसे बड़े प्राणी के रहने तथा खाने की फिक्र करनी होगी. यह दुर्भाग्‍य है कि वन्‍य प्राणियों को लुप्‍त होने से बचाने के लिए प्रोजेक्‍ट चलाने पड़ रहे हैं लेकिन केवल प्रोजेक्‍ट चलाने और संख्‍या बढ़ा देने से काम नहीं चलेगा. यदि ऐसे प्रोजेक्‍ट सफलता के बाद वन्‍य प्राणी बढ़ते हैं तो उनके जिंदा रहने की फिक्र भी करनी होगी.

(न्‍यूज 18 पर 12 अगस्‍त 2023 को प्रकाशित) 

Friday, August 11, 2023

राहत इंदौरी: वे होते थे तो बस वे ही होते थे

फूलों की दुकानें खोलो, खुशबु का व्यापार करो

इश्क खता है तो, ये खता एक बार नहीं, सौ बार करो.

ऐसी शायरी लिखने और उसे पढ़ने के अपने अलहदा अंदाज के कारण मुशायरा लूट लेने वाले शायर राहत इंदौरी अब नहीं हैं. यूट्यूब, फेसबुक, इंस्‍टा और रील्‍स वाली सोशल मीडिया की दुनिया को यह अहसास नहीं है, मगर मुशायरों के श्रोता तो आज अपने महबूब शायर का न होना शिद्दत से महसूस करते हैं. वे उस अंदाज को याद करते हैं जो शायरी को हर्फ से आगे ले जाकर श्रोताओं के अनुभव से जोड़ा देता था. आसमान में देख कर शायरी पढ़ने का वह अंदाज, आवाज में उतार-चढ़ाव का वह जादू और आम शब्‍दों की कारीगरी ऐसी कि वे होते थे तो बस वे ही होते थे.

राहत साहब की याद आने पर इंटरनेट पर पड़े ढ़ेरों वीडियो को देख-सुना जा सकता है मगर देश-दुनिया में मुझ जैसे लाखों श्रोता हैं जो मुशायरों में उनका न होना मिस करते हैं. वे जो हर वाकये पर सोचते हैं कि वे होते को क्‍या लिखते? रंग बदलती दुनिया में नए चेहरे पर उनका तंज क्‍या होता? राजनीति और मोहब्‍बत के रूख पर उनका नया लिखा कैसा होता? साल 2020 में 11 अगस्‍त की वह शाम थी जब राहतें बांटने वाला जिंदादिल शायर इस दुनिया से रूखसत हो गया था. कोरोना से जो हमें गहरे जख्‍म दिए हैं उनमें एक यह जख्‍म भी है.

राहत इंदौरी का जन्म 1 जनवरी 1950 को इंदौर में हुआ था. उनके पिता रफ्तुल्लाह कुरैशी कपड़ा मिल के कर्मचारी थे. परिवार की आर्थिक हालत को देखते हुए राहत ने 10 साल की उम्र में ही उन्होंने साइन बोर्ड बनाने शुरू कर दिए थे. यही वह दौर था जब वे शायरी की ओर आकर्षित हुए. उनके शायर बनने की कहानी भी कई बार बताई गई है. सड़कों पर साइन बोर्ड लिखने का काम था तो जाहिर उनकी लिखावट सुंदर थी. एक मुशायरे के दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जां निसार अख्तर से हुई. जां निसार अख्‍तर से ऑटोग्राफ लेते वक्त राहत ने शायर बनने की ख्‍वाहिश जताई तो जां निसार अख्तर ने कहा कि पहले 5 हजार शेर याद कर लें फिर वे खुद ब खुद शायरी लिखने लगेंगे. राहत इंदौरी ने तुरंत बताया कि उन्‍हें 5 हजार शेर तो पहले से ही याद है. इस पर जां निसार अख्तर ने जवाब दिया कि फिर देर किस बात की है, तुम तो शायर हो, संभालो स्टेज.

यह प्रेरणा काम कर गई और वे शायरी करने लगे. साथ ही साथ उन्होंने इस्लामिया करीमिया कॉलेज इंदौर से 1973 में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की और 1975 में बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल से उर्दू साहित्य में एमए किया.

तमाम बड़े शायरों के बीच राहत इंदौरी ने अपनी लेखनी से ही नहीं बल्कि मुशायरा पढ़ने के अपने अंदाज से भी अपनी खास पहचान बनाई और प्रसिद्धि पाई. उनका अंदाज ऐसा था जैसे वे शायरी नहीं पढ़ रहे हैं बल्कि एक कुशल पेंटर है जो चित्र बना रहा है. उनके शब्‍द श्रोताओं के ख्‍याल में दृश्‍य बनाने लगते थे. कई लोगों ने राहत इंदौरी के इस अंदाज की नकल करने की कोशिश की लेकिन श्रोताओं ने सभी को नकार दिया. कोई भी उनकी तरह नकल कर शायरी पढ़ता है तो राहत ही याद आते हैं और इस तरह उनकी नकल करने की कोशिश विफल प्रयास साबित होती है.

राहत इंदौरी की शायरी केवल मंच पर ही नहीं पढ़ी गई बल्कि वह कई-कई जगह छापी गई है. विद्यार्थियों ने इस शायरी को जान-समझ कर लिखने के सबक याद किए हैं. देश-दुनिया के मुशायरों और कवि सम्‍मेलनों में उनकी शायरी चाव से सुनी गई तो बॉलीवुड क्‍यों पीछे रहता भला? ‘बेगम जान’, ‘मर्डर’, ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’, ‘मिशन कश्मीर’, ‘इश्क’, ‘घातक’, ‘मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी’ जैसी ख्‍यात फिल्‍मों के गीत राहत इंदौरी ने लिखे हैं.

हालांकि, राहत इंदौरी ने अपनी शायरी में अपने वक्‍त के मिजाज पर खूब तंज किए हैं. उनकी शायारी सामाजिक, राजनीतिक स्थितियों पर गहरी नजर रखती है फिर भी उर्दू शायरी तो मोहब्‍बत की जुबां है और राहत इंदौरी की शायरी इससे जुदां नहीं है. राहत इंदौरी की पुण्‍यतिथि पर उनकी शायरी के मुख्‍तलिफ रंग को देखना सुकूनबख्‍श काम होगा.

बहुत गुरूर है दरिया को अपने होने पर

जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियां उड़ जाएं.


उस की याद आई है सांसों जरा आहिस्ता चलो

धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है.


मुंतजि‍र हूं कि सितारों की जरा आंख लगे

चांद को छत पे बुला लूंगा इशारा कर के.


फूंक डालूंगा किसी रोज मैं दिल की दुनिया

ये तिरा खत तो नहीं है कि जिला भी न सकूं.


दोस्ती जब किसी से की जाए

दुश्मनों की भी राय ली जाए.


मैं इंतिजार में हूं तू कोई सवाल तो कर

यकीन रख मैं तुझे ला-जवाब कर दूंगा.


महकती रात के लम्हों नजर रखो मुझ पर

बहाना ढूंढ़ रहा हूं उदास होने का.


कहां हो आओ मिरी भूली-बिसरी यादो आओ

खुश-आमदीद है मौसम उदास होने का.


अभी गनीमत है सब्र मेरा, अभी लबालब भरा नहीं हूं मैं

वो मुझको मुर्दा समझ रहा है, उसे कहो मरा नहीं हूं मैं.


अड़े थे जिद पे के सूरज बनाके छोड़ेंगे

पसीने छूट गए एक दीया बनाने में.


मेरी निगाह में वो शख्स आदमी भी नहीं

जिसे लगा है ज़माना खुदा बनाने में.


ये चंद लोग जो बस्ती में सबसे अच्छे है

इन्ही का हाथ है मुझको बुरा बनाने बनाने.


मैं मर जाऊं तो मेरी एक अलग पहचान लिख देना

लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना.

(न्‍यूज 18 पर 11 अगस्‍त 2023 को प्रकाशित) 

Wednesday, August 9, 2023

अगस्‍त क्रांति: गांधी जी रोक दिया था भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लेने से

9 अगस्‍त भारतीय स्‍वतंत्रता संग्राम के इतिहास का वह ऐतिहासिक दिन है जब देश ने एक हो कर हुंकार भरी थी- क्विट इंडिया, अंग्रेजों भारत छोड़ो. ब्रिटिश साम्राज्‍य को उखाड़ फेंकने की जो कोशिश कई-कई आंदोलनों के जरिए की जा रही थी वह अंतत: उस आंदोलन पर आ कर टिक गई जिसे में अगस्‍त क्रांति कहते हैं. गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा देकर अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए पूरे भारत के युवाओं का आह्वान किया था.

साल था 1942 और स्‍थान था मुंबई का गोवालिया पार्क जिसे बाद में अगस्‍त क्रांति मैदान नाम दिया गया. इस आंदोलन की नींव 4 जुलाई 1942 को पड़ी थी जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर निर्णय लिया कि कि दूसरे विश्‍व युद्ध के समय किया वादा पूरा नहीं होता है और अंग्रेज भारत छोड़ कर नहीं जाते हैं तो देश भर में नागरिक अवज्ञा आंदोलन किया जाएगा. तथ्‍य बताते हैं कि इस निर्णय पर कांग्रेस में दो मत थे. कांग्रेसी नेता चक्रवर्ती गोपालाचारी इसके पक्ष में नहीं थे. विरोध करते हुए उन्‍होंने पार्टी छोड़ दी. वहीं सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, अशोक मेहता और जयप्रकाश नारायण ने इस प्रस्‍ताव का समर्थन किया. मुस्लिम लीग, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा इस आंदोलन में कांग्रेस के साथ नहीं आए.

गांधी जी द्वारा तय दिशा के अनुसार आंदोलन की रूपरेखा बनी और 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ शुरू करने का निर्णय ले लिया. 9 अगस्‍त की सुबह से ही कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारियां शुरू हो गईं मगर गांधी जी के भाषण से मिली ऊर्जा पूरे देश में फैल गई और लगभग पूरे देश ने एक स्‍वर में कहा, अंग्रेजों भारत छोड़ो.कांग्रेस समिति में दिया गया गांधी जी का भाषण इस‍ लिहाज से बेहद महत्‍वपूर्ण है. गांधी जी ने अपने भाषण में कुछ बातें साफ करना चाही थीं और कहा था कि कई लोग मुझसे यह पूछते है की क्या मैं वही इंसान हूं जो मैं 1920 में हुआ करता था, और क्या मुझमे कोई बदलाव आया है. मैं आपको भरोसा दिलाता हूं कि मैं वही मोहनदास गांधी हूं जैसा मैं 1920 में था.

गांधी जी ने 1920 का जिक्र इसलिए किया क्‍योंकि 1 अगस्‍त 1920 को असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ था. इसके पहले 1919 में जलियांवाला बाग हत्‍याकांड हो चुका था. कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 4 सितंबर 1920 को आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ. जनता से आग्रह किया गया था कि वे स्कूलो, कॉलेजो और न्यायालय न जाएं तथा अंग्रेजों का कर न चुकाएं. सभी अंग्रेज सरकार के साथ असहयोग करें. गांधी जी का मानना था कि यदि असहयोग का ठीक ढंग से पालन किया जाए तो भारत एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्त कर लेगा. लेकिन फरवरी 1922 में किसानों के एक समूह ने गौरखपुर जिले के चौरी चौरा में एक पुलिस थाने में आग लगा दी. इस अग्निकांड में कई पुलिस वालों की जान चली गई. हिंसा भड़कने पर गांधी जी ने असहयोग आंदोलन तत्काल वापस लेना पड़ा. उन्होंने जोर दिया कि, ‘किसी भी तरह की उत्तेजना को निहत्थे और एक तरह से भीड़ की दया पर निर्भर व्यक्तियों की घृणित हत्या के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है’.

इसीलिए 1920 का जिक्र कर भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान करते हुए गांधी जी ने साफ किया था कि वे हिंसा से उतनी ही नफरत करता हैं जितनी 1920 में किया करते थे. उन्‍होंने कहा कि मेरे वर्तमान प्रस्ताव और पहले के लेख और स्वभाव में कोई विरोधाभास नही है. मैं चाहता हूं कि आप सभी इस बात को जाने कि अहिंसा से ज्यादा शुद्ध और कुछ नहीं है, इस बात को मैं आज कह भी रहा हूं और अहिंसा के मार्ग पर चल भी रहा हूं. हमारी कार्यकारी समिति का बनाया हुआ प्रस्ताव भी अहिंसा पर ही आधारित है और हमारे आंदोलन के सभी तत्व भी अहिंसा पर ही आधारित होंगे. भगवान ने मुझे अहिंसा के रूप में एक मूल्यवान हथियार दिया है. मैं और मेरी अहिंसा ही आज हमारा रास्ता है. यदि आप में से किसी को भी अहिंसा पर भरोसा नहीं है तो कृपया करके इस प्रस्ताव के लिये वोट ना करें.

‘करो या मरो’ का नारा देते हुए गांधी जी ने कहा था कि अब मुझे डरने की बजाए आगे देखकर बढ़ना होगा. हमारी यात्रा ताकत पाने के लिए नहीं बल्कि भारत की आजादी के लिए अहिंसात्मक लड़ाई के लिए है. हिंसात्मक यात्रा में तानाशाही की संभावनाएं ज्यादा होती है जबकि अहिंसा में तानाशाही के लिए कोई जगह ही नही है. एक अहिंसात्मक सैनिक खुद के लिये कोई लोभ नही करता, वह केवल देश की आजादी के लिये ही लड़ता है. कांग्रेस इस बात को लेकर बेफिक्र है की आजादी के बाद कौन शासन करेगा. आजादी के बाद जो भी ताकत आएगी उसका संबंध भारत की जनता से होगा और भारत की जनता ही ये निश्चित करेंगी की उन्हें ये देश किसे सौपना है. हो सकता है कि भारत की जनता अपने देश को पेरिस के हाथों सौंपे. कांग्रेस सभी समुदायों को एक करना चाहती है ना कि उनमें फुट डालकर विभाजन करना चाहती है.

आजादी के बाद भारत की जनता अपनी इच्छानुसार किसी को भी अपने देश की कमान संभालने के लिये चुन सकती है और चुनने के बाद भारत की जनता को भी उसके अनुरूप ही चलना होंगा. मैं जानता हूं कि अहिंसा परिपूर्ण नहीं है और ये भी जानता हूं कि हम अपने अहिंसा के विचारों से फि‍लहाल कोसों दूर है लेकिन अहिंसा में ही अंतिम असफलता नहीं है. मुझे पूरा विश्वास है, छोटे-छोटे काम करने से ही बड़े-बड़े कामों को अंजाम दिया जा सकता है.

गांधी जी ने कार्यसमिति में कहा था कि मेरा इस बात पर भरोसा है कि दुनिया के इतिहास में हमसे बढ़कर और किसी देश ने लोकतांत्रिक आजादी पाने के लिये संघर्ष किया होगा. मेरा इस बात पर पूरा विश्वास है की जब हिंसा का उपयोग कर आजादी के लिये संघर्ष किया जाएगा तब लोग लोकतंत्र के महत्त्व को समझने में असफल होंगे. जिस लोकतंत्र का मैंने विचार कर रखा है, उस लोकतंत्र का निर्माण अहिंसा से होगा, जहां हर किसी के पास समान आजादी और अधिकार होंगे. जहां हर कोई खुद का शिक्षक होंगा और इसी लोकतंत्र के निर्माण के लिए आज मै आपको आमंत्रित करने आया हूं. एक बार यदि आपने इस बात को समझ लिया तब आप हिंदू और मुस्लिम के भेदभाव को भूल जाओगे. तब आप एक भारतीय बनकर खुद का विचार रखोगे और आजादी के संघर्ष में साथ दोगे.

गांधी जी यह विचार भी बेहद महत्‍वपूर्ण था कि कुछ लोग ब्रिटिश साम्राज्यवाद और ब्रिटिश लोगों के बीच के अंतर को भूल चुके है. उन लोगों के लिए दोनों ही एक समान है. उनकी यह घृणा जापानियों को आमंत्रित कर रही है. यह काफी खतरनाक होगा. इसका मतलब वे एक गुलामी की दूसरी गुलामी से अदला बदली करेंगे. हमें इस भावना को अपने दिलो दिमाग से निकाल देना चाहिए. हमारा झगडा ब्रिटिश लोगों के साथ नही हैं बल्कि हमें उनके साम्राज्यवाद से लड़ना है. ब्रिटिश शासन को खत्म करने का मेरा प्रस्ताव गुस्से से पूरा नही होने वाला. हम हमारे महापुरुषों के बलिदानों को नही भूल सकते हैं. मैं जानता हूं की ब्रिटिश सरकार हमसे हमारी आजादी छीन नहीं सकती लेकिन आजादी के लिए हमें एकजुट होना होगा. हमें खुद को घृणा से दूर रखना चाहिए.

इस तरह भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई. पूरे देश ने ही गांधी जी के आह्वान को स्‍वीकार किया और अंतत: ब्रिटिश सरकार को देश छोड़ना पड़ा। लेकिन जाते-जाते वे घृणा और विद्वेष का ऐसा बीज बो गए जिसने देश को विभाजन की कगार पर पहुंचा दिया.

(न्‍यूज 18 पर 9 अगस्‍त 2023 को प्रकाशित) 

Sunday, August 6, 2023

हिरोशिमा दिवस 2023: जापान और ओपेनहाइमर के सबक को भूला बैठी दुनिया

 

यह 1945 की बात है. 6 अगस्त 1945 की सुबह. वह सुबह जापान के शहर हिरोशिमा में रोज की तरह थी. मगर कुछ घंटों बाद यह सुबह और शहर दोनों ही दुनिया के सबसे त्रासद वक्‍त में तब्‍दील हो गए. मारियाना द्वीप से उड़ान भरकर पहुंचे अमेरिकी विमान ने जापान के इस शहर पर परमाणु बम गिरा दिया. यह दुनिया का पहला परमाणु बम विस्‍फोट था. 10 सेकंड में खुशहाल हिरोशिमा आग के शहर में बदल गया. 70,000 से अधिक लोग भस्‍म हो गए. दुनिया के इस कोने में मानवता का चीत्‍कार रही थी तो अमेरिका में बैठे रॉबर्ट ओपेनहाइमर जरूर खुश हुए होंगे. लेकिन अपने बम की सफलता की यह खुशी लाखों प्राणियों और प्रकृति के उजाड़ होने पर टिकी थी. कितने दिन टिकी रहती? वे कुछ ही समय में ग्‍लानि से भर गए और जब राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन से मिले तो ग्‍लानि में कहा मेरे हाथ खून से रंगे हुए हैं.

6 अगस्‍त को हिरोशिमा दिवस है और हिरोशिमा को तबाह करने वाला परमाणु बम बनाने वाले अमेरिकी वैज्ञानिक रॉबर्ट ओपेनहाइमर पर बनी फिल्‍म सफलता के कीर्तिमान छू रही है. इस बहाने से दोनों पर बात की जा सकती है और इस निष्‍कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि आविष्‍कार कितना ही अच्‍छा क्‍यों न हो यदि उसका उपयोग मानवता, प्रकृति और मूल्‍यों के खिलाफ हुआ है तो वह निकृष्‍टतम है.

जूलियस रॉबर्ट ओपेनहाइमर का जन्म न्यूयॉर्क में 22 अप्रैल 1904 को हुआ था. महज 9 साल की उम्र से वह अलग-अलग भाषाओं के साहित्य पढ़ने लगे. विज्ञान में रूचि ने उन्‍हें वैज्ञानिक बना दिया. 1939 में जब दूसरा विश्‍व युद्ध शुरू हुआ तो सेकंड्स में विध्‍वंस के ख्‍याल ने जोर पकड़ा और इस दौड़ में आगे निकलने के लिए परमाणु बम की कोशिशें तेज हो गईं.

1942 में अमेरिका ने मैनहट्टन जिले में परमाणु बम बनाने का कार्य ‘मैनहट्टन प्रोजेक्ट’ के नाम से शुरू किया. इस प्रोजेक्‍ट का नेतृत्‍व वैज्ञानिक रॉबर्ट ओपेनहाइमर ने किया. वैज्ञानिकों की रात दिन की मेहनत का परिणाम था कि तीन साल बाद अमेरिका परमाणु बम के पहले परीक्षण में सफल हुआ. 16 जुलाई 1945 की सुबह दुनिया का पहला परमाणु बम परीक्षण हुआ.

इस परीक्षण के 22वें दिन अमेरिका ने जापान को कमजोर करने के लिए हिरोशिमा पर पहला परमाणु बम गिरा दिया. असल में, 1939 में शुरू हुए दूसरे विश्व युद्ध को छह साल हो चुके थे, लेकिन लड़ाई का अंत नजर नहीं आ रहा था. युद्ध में अमेरिका लगातार जापान पर बम गिरा रहा था. अगस्त 1945 तक अमेरिकी द्वारा की गई बममारी से 3 लाख से ज्‍यादा लोगों ने अपना जीवन खो दिया था. जापान लगातार हमले कर रहा था तब अमेरिका ने ये मान लिया कि सिर्फ पारंपरिक बमबारी के जरिए जापान झुकने वाला नहीं है तो जापान को क्षण में ध्‍वस्‍त करने के लिए परमाणु बम गिरा दिया.

हिरोशिमा पर हमले के तीसरे दिन अमेरिका ने 9 अगस्त 1945 की सुबह 11 बजे जापान के नागासाकी पर दूसरा परमाणु बम गिराया था. हजारों लोगों की जान एक क्षण में चली गई और भारी क्षति उठा कर जापान ने झुकना स्‍वीकार कर लिया. अमेरिका का प्रभुत्‍व स्‍थापित हुआ और दूसरा विश्व युद्ध समाप्‍त हुआ. परमाणु हमले के कई सालों बाद तक जापान के इन शहरों के आसपास के शहरों में परमाणु विकिरण के कारण दिव्‍यांग बच्चे पैदा होते रहे.

परमाणु विभीषिका झेलने के बाद जापान ने परमाणु शक्ति के शांतिपूर्ण इस्तेमाल और कभी परमाणु बम नहीं बनाने का संकल्प लिया, लेकिन दुनिया के तमाम दूसरे देशों ने परमाणु ताकत जुटाने की होड़ जगजाहिर है. 2020 में दुनियाभर में 3,720 परमाणु बम तैनात थे. 2021 में ये बढ़कर 3,825 हो गए थे. मतलब दुर्भाग्‍य से अब जो भी हिरोशिमा-नागासाकी होगा वह अधिक तबाही का गवाह बनेगा.

अब बात करते हैं ओपेनहामइर की. परमाणु बम से हुई मानवता की क्षति का दोष ओपेनहाइमर ने स्‍वयं पर लिया. इस आत्‍मग्‍लानि से उभरने में ‘भगवद् गीता’ उनका संबल बनी. उन्होंने एक बार कहा था कि परमाणु बम बनाते समय नतीजों को सोचकर जब वह डर जाते थे तो उनकी उलझन गीता से कम हो जाती थी. गीता में लिखी इस बात ने उन्हें काफी प्रोत्साहित किया कि- ‘कर्म किए जाओ फल की चिंता मत करो.’

संदर्भ बताते हैं कि 1929 में ओपेनहाइमर जब अपने देश अमेरिका लौटे तो वह साहित्य और दर्शन की किताबें पढ़ने लगे थे. इसी समय उन्होंने भगवद् गीता भी पढ़ी थी. ओपेनहाइमर गीता पढ़कर काफी प्रभावित हुए थे. वह मानते थे कि इस किताब से उन्हें दार्शनिक सोच की बुनियाद मिली थी. वह जब भी उलझन में होते थे तो इससे उन्हें शांति मिलती थी.

तथ्‍य यह भी कि परमाणु हमले के बाद जब अमेरिकी राष्ट्रपति के बुलावे पर ओपेनहाइमर उनसे मिलने राष्ट्रपति भवन गए तो ओपेनहाइमर ने राष्‍ट्रपति से कहा था कि वे महसूस करते हैं कि उनके हाथ खून से रंगे हुए हैं. हालांकि, राष्‍ट्रपति को उनकी यह बात पसंद नहीं आई और ओपेनहाइमर को कमजोर व भावनात्‍मक इंसान करार दे दिया गया. ओपेनहाइमर लगातार अमेरिकी सरकार के कदम का पुरजोर विरोध करते रहे.

ओपेनहाइमर को सरकार के खिलाफ जाने की सजा मिली. 1954 में उन पर सोवियत रूस का जासूस होने का आरोप लगा. अमेरिकी सरकार ने उन्हें सिक्योरिटी क्लियरेंस अप्रूवल देने से मना कर दिया. उन्हें देश के टॉप साइंटिस्ट की लिस्ट से ब्लैकलिस्ट कर दिया गया. ओपेनहाइमर की बाकी की जिंदगी देशद्रोही और गद्दार के लांछन के साथ बीती.

18 फरवरी 1967 को प्रिंसटन स्थित घर में गले के कैंसर से ओपेनहाइमर की मौत हो गई. मृत्यु से ठीक पहले 1966 में तत्‍कालीन राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन उन्हें एटॉमिक एनर्जी कमीशन का सर्वोच्च सम्मान एनरिको फर्मी अवॉर्ड से सम्मानित किया. आखिरकार ओपेनहाइमर के निधन के 55 साल बाद 2022 में अमेरिकी सरकार ने उनकी वफादारी पर मुहर लगाते हुए उनका सिक्योरिटी क्लियरेंस बहाल किया.

परमाणु बम के निर्माता ओपेनहाइमर और परमाणु बम के विध्‍वंस को झेल चुके जापान ने तो इसके विनाश को पहचाना और सबक लिए. गीता के मार्ग को हर कर्म का स्‍वीकृति मान लेना हमारी समझ का दोष हो सकता है, गीता दर्शन का नहीं। गीता हमें आत्‍म बंधन से मुक्‍त होना सीखाती है, तभी कहती है कर्म करो फल की चिंता न करो, लेकिन वह फल आपके हिस्‍से का परिणाम नहीं है, उस फल या परिणाम की चिंता तो करनी चाहिए जो मानवता के हिस्‍से में आता है.


(न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग) 

Monday, July 31, 2023

प्रेमचंद: हिंदी वाले इन्‍हीं की बदौलत दूसरी भाषा वालों के सामने इठला सकते हैं

 साहित्य का प्रभाव चरित्र पर बहुत पडता है. साहित्य का उद्देश्य ही चरित्र का निर्माण है, इसलिए इस काम में अपने आदर्शी और उद्देश्यो को पवित्र रखना चाहिए. मुंशी प्रेमचंद ने यह बात एक पत्र में साहित्‍यकार-संपादक बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखी थी. कमोबेश यही बात प्रेमचंद ने पत्रकार-कहानीकार प्रभाकर माचवे को भी लिखते हुए कहा था कि कहानी वही श्रेष्‍ठ जिसका कोई उद्देश्‍य हो. बिना समाज को संदेश दिए लिखा गया साहित्‍य कितना भी श्रेष्‍ठ क्‍यों न हो, अच्‍छा नहीं कहा जा सकता है.

अपनी इस कसौटी पर साहित्‍य रचने वाले मुंशी प्रेमचंद लेखन के लिहाज से अपने समय से आगे थे और आज भी अधिक प्रासंगिक मालूम होते हैं. उनकी रचनाओं को पढ़ कर लगता ही नहीं है ये रचनाएं सौ साल पहले लिखी गई थीं. हमें यूं लगता है जैसे ये हमारे समय में ही लिखी गई हैं, हमारा वह समय जब नैतिकता, मूल्‍यों और मानवता का ह्रास हो रहा है. मुंशी प्रेमचंद के नाम से मशहूर साहित्‍यकार का असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव है. 31 जुलाई 1880 को उत्‍तर प्रदेश के लमही में जन्‍मे प्रेमचंद का देहांत 8 अक्टूबर 1936 को हुआ. वर्ष 1901 से ही प्रेमचंद की साहित्यिक यात्रा आरंभ हो गई थी. शुरुआत में वो नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखा करते थे. उनका पहला उर्दू उपन्यास “असरारे मआबिद” है यह धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ. 1908 में प्रकाशित पहला कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ देशभक्ति की भावना से परिपूर्ण था. अंग्रेज सरकार ने इस संग्रह को प्रतिबंधित कर सभी प्रतियां जब्त कर ली थीं.

उन्‍हें भविष्य में न लिखने की हिदायत दी गई थी. यही कारण है कि उन्‍होंने अपना नाम बदल कर प्रेमचंद रख लिया था. 1918 में उनका पहला उपन्यास ‘सेवासदन’ प्रकाशित हुआ. लोकप्रिय हुए इस उपन्‍यास के बाद वे उर्दू के बाद हिंदी में समान रूप से ख्‍यात हो गए. प्रेमाश्रम, रंगभूमि, सेवासदन, निर्मला, कर्मभूमि, गोदान, गबन उपन्यास और पूस की रात, बड़े घर की बेटी, कफन, पंच परमेश्वर, दो बैलों की कथा, बूढी काकी जैसी कहानियां प्रेमचंद के रचना संसार की प्रतीक रचनाएं हैं.

ऐसी रचनाएं जिनके संदर्भ में साहित्‍यकार बनारसी दास चतुर्वेदी ने कहा है कि हिंदी वाले उन्हीं की बदौलत आज दूसरी भाषा वालों के सामने मूंछों पर ताव दे सकते हैं. यद्यपि इस बात में संदेह है कि प्रेमचंद हिंदी भाषा-भाषी जनता में कभी उतने लोकप्रिय बन सकेंगे जितने कविवर मैथिलीशरण जी हैं. पर प्रेमचंद के सिवा भारत की सीमा उल्लंघन करने की क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिंदी कलाकार इस समय हिंदी जगत में विद्यमान नहीं. लोग उनको उपन्यास सम्राट कहते हैं, पर कोई भी समझदार आदमी उनसे दो ही मिनट बातचीत करने के बाद समझ सकता है कि प्रेमचंद में साम्राज्यवादिता का नामोनिशान नहीं है. कद के छोटे है, शरीर निर्बल-सा है. चेहरा भी कोई प्रभावशाली नहीं और श्रीमती शिवरानी देवी हमें क्षमा करें, यदि हम कहे कि जिस समय ईश्वर के यहां शारीरिक सौंदर्य बंट रहा था. प्रेमचंद जरा देर से पहुंचे थे. पर उनकी उन्मुक्त हंसी की ज्योति पर, जो एक सीधे-सादे सच्चे स्नेहमय हृदय से ही निकल सकती है, कोई भी सहदया सुकुमारी पतंगवत अपना जीवन निछावर कर सकती है.

प्रेमचंद का संपूर्ण जीवन साहित्‍य को समर्पित था. उन्‍होंने खूब लिखा, तमाम विपरीत परिस्थि‍तियों में भी ‘हंस’ का संपादन किया. लेकिन इस संघर्षों तथा विपरीत स्थितियों का स्‍वयं के व्‍यक्तित्‍व पर असर नहीं पड़ने दिया. बनारसी दास चतुर्वेदी अपने संस्‍मरण में लिखते हैं, प्रेमचंदजी ने बहुत से कष्ट पाए हैं, अनेक मुसीबतों का सामना किया है, पर उन्होंने अपने हृदय में कटुता को नहीं आने दिया. वे शुष्क बनियापन से कोसों दूर रहे. प्रेमचंदजी में सबसे बड़ा गुण यही है कि उन्हें धोखा दिया जा सकता है. जब इस चालाक साहित्य-संसार में बीसियों आदमी ऐसे पाए जाते हैं, जो दिन-दहाड़े दूसरों को धोखा दिया करते हैं, प्रेमचंदजी की तरह के कुछ आदमियों का होना गनीमत है. उनमें दिखावट नहीं, अभिमान उन्हें छू भी नहीं गया और भारत व्यापी कीर्ति उनकी सहज विनमता को उनसे छीन नहीं पाई.

प्रख्‍यात लेखिका महादेवी वर्मा ने लिखा है, प्रेमचंद के व्यक्तित्व में एक सहज संवेदना और ऐसी आत्मीयता थी. जिस युग में उन्होंने लिखना आरंभ किया था, उस समय हिंदी कथा-साहित्य जासूसी और तिलस्मी कौतूहली जगत में ही सीमित था. उसी बाल-सुलभ कुतूहल में प्रेमचंद उसे एक व्यापक धरातल पर ले आए, जो सर्व सामान्य था. उन्होंने साधारण कथा, मनुष्य की साधारण घर-घर की कथा, हल-बैल की कथा, खेत-खलि-हान की कथा, निर्झर, वन, पर्वतों की कथा सब तक इस प्रकार पहुंचाई कि वह आत्मीय तो थी ही, नवीन भी हो गई.

प्रेमचंद के जीवन संघर्षों को कई साहित्‍यकारों ने करीब से देखा है और उनके व्‍यक्तित्‍व के प्रति आदर व्‍यक्‍त किया है. महादेवी वर्मा अपने संस्‍मरण में यही बात रेखांकित करती हैं. वे लिखती हैं कि प्रेमचंद ने जीवन के अनेक संघर्ष झेले और किसी संघर्ष में उन्होंने पराजय की अनुभूति नहीं प्राप्त की. पराजय उनके जीवन में कोई स्थान नहीं रखती थी. संघर्ष सभी एक प्रकार से पथ के बसेरे के समान ही उनके लिए रहे. वह उन्हें छोड़ते चले गए. ऐसा कथाकार जो जीवन को इतने सहज भाव से लेता है, संघर्षों को इतना सहज मानकर, स्वाभाविक मानकर चलता है, वह आकर फिर जाता नहीं. उसे मनुष्य और जीवन भूलते नहीं. वह भूलने के योग्य नहीं है. उसे भूलकर जीवन के सत्य को ही हम भूल जाते हैं. जिस पर उन्होंने विश्वास किया, जिस सत्य को उनके जीवन ने, आत्मा ने स्वीकार किया उसके अनुसार उन्होंने निरंतर आचरण किया. इस प्रकार उनका जीवन, उनका साहित्य दोनों खरे स्वर्ण भी हैं और स्वर्ण के खरेपन को जांचने की कसौटी भी है.

काम के प्रति प्रेमचंद का आग्रह कैसा था, यह बनारसीदास चतुर्वेदी के संस्‍मरण से ही समझा जा सकता है. वे लिखते हैं, यदि प्रेमचंद को अपनी डिक्टेटर शिवरानी देवी का डर न रहे तो वे चौबीस घंटे यही निष्काम कर्म कर सकते हैं. एक दिन बात करते-करते काफी देर हो गई घड़ी देखी तो पता लगा कि पौन दो बजे हैं. रोटी का वक्त निकल चुका था. प्रेमचंद ने कहा ‘खैरियत यह है कि घर में ऊपर घड़ी नहीं है, नहीं तो अभी अच्छी खासी डांट सुननी पड़ती. घर में एक घड़ी रखना, और सो भी अपने पास बात सिद्ध करती है कि पुरुष यदि चाहे तो स्त्री से कहीं अधिक चालाक बन सकता है और प्रेमचंद में इस प्रकार का चातुर्य बीजरूप में तो विद्यमान है ही.

बकौल बनारसीदास चतुर्वेदी प्रेमचंद में मानसिक स्फूर्ति चाहे कितनी ही अधिक मात्रा में क्यों न हो, शारीरिक फुर्ती का प्रायः अभाव ही है. यदि कोई भला आदमी प्रेमचंद तथा कथाकार सुदर्शन को एक मकान में बंद कर दे तो सुदर्शन तिकड़म भिड़ाकर छत से नीचे कूद पड़ेंगे और प्रेमचंद वही बैठे रहेंगे. यह दूसरी बात है कि प्रेमचंद वहां बैठे-बैठे कोई गल्प लिख डालें. जम के बैठ जाने में ही प्रेमचंद की शक्ति और निर्बलता का मूल स्रोत छिपा हुआ है. प्रेमचंद ग्रामों में जमकर बैठ गए और उन्होंने अपने मस्तिष्क के सुपरफाइन कैमरे से वहां के चित्र-विचित्र जीवन का फिल्म ले लिया.

जीवित रहते हुए भी प्रेमचंद के नाम के साथ विवाद जुड़े थे, खासकर हंस के प्रकाशन के दौरान. उनके निजी जीवन पर भी तंंज किए गए.  आज भी प्रेमंचद और उनके साहित्‍य को तरह-तरह की दृष्टि से देखा जा रहा है. उनकी आलोचना की जा रही है मगर जो उन्‍होंने जिया और रचा है, वह आज के समय में भी एक व्‍यक्ति को ठीक एक समूह के बस की भी बात नहीं है. इसीलिए प्रेमचंद का लिखा हमें पसंद आता है.


(न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग) 

Thursday, July 27, 2023

मिसाइल मैन डॉ. कलाम: एक ब्रेक ने दूर कर दी थी अग्नि मिसाइल परीक्षण की घबराहट

वह 27 जुलाई 2015 की शाम थी. भारत के पूर्व राष्‍ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम भारतीय प्रबंधन संस्थान शिलांग में व्याख्यान दे रहे थे. इस दौरान उन्हें जोरदार कार्डियक अरेस्ट हुआ और वे बेहोश हो कर गिर पड़े. यह दिल का दौरा इतना ताकतवर था कि उन्‍हें बचाया नहीं जा सका. जीवन भर अपने कार्य के प्रति समर्पित और निष्‍ठावान रहे डॉ. कलाम का इस तरह सक्रिय रहते हुए निधन भी जैसे उनकी कर्मठता का अभिनंदन था. डॉ. कलाम को प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में भारत का पहला स्वदेशी उपग्रह (एस.एल.वी. तृतीय) प्रक्षेपास्त्र बनाने का श्रेय हासिल है. कलाम ने ही पोखरण में दूसरी बार परमाणु परीक्षण कर देश को परमाणु हथियार निर्माण की क्षमता दिलवाई. वे ऐसे तीसरे राष्ट्रपति हैं जिन्हें भारत रत्न से सम्‍मानित किया गया.

15 अक्टूबर 1931 को तमिलनाडु में रामेश्वरम के धनुषकोडी गांव में जन्‍मे डॉ. कलाम का जीवन आसान नहीं रहा. मध्‍यमवर्गीय संयुक्‍त परिवार में जन्‍मे अबुल पाकिर जैनुलाअबदीन अब्दुल कलाम के भारत रत्‍न डॉ. एपीजे अब्‍दुल कलाम बनने तक के सफर में अनेक मील के पत्‍थर हैं जो हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत हो सकते हैं. इस सफलता के पीछे के कारकों को उन्‍होंने अपनी पुस्‍तक ‘द ट्री लाइफ’ में दर्ज किया है. ‘क्या मैं अकेला हूं’ शीर्षक से वे लिखते हैं:

मैं और मेरे मित्र प्रो. विद्यासागर हवाई जहाज से हैदराबाद से दिल्ली आ रहे थे. हमारा हवाई जहाज घने बादलों में परत-दर-परत ऊपर उठता हुआ ऊंची उड़ान भर रहा था. उस अद्भुत दृश्य ने हमारी अंतरात्मा को झकझोर दिया. उसके बाद, एक दिन हम एशियाड विलेज कांप्लैक्स के बागीचे में घूम रहे थे तो वहां फूलों से लदे हुए नागफनी के खूबसूरत पौधे ने एक ईश्वरीय अनुभव से हमारी आत्मा को भिगो दिया और मुझे ‘जीवन वृक्ष’ लिखने के लिए प्रेरित किया.

सांप्रदायिक सोच हमारे देश में हमेशा से एक मसला रही है. इस सोच देश को कई हिस्‍सों में बांट दिया है. मुस्लिम परिवार में जन्‍मे डॉ. कलाम का भी इस सोच से सामना हुआ होगा. उन्‍होंने ऐसे मामलों पर अपने अनुभव को यूं लिखा है:

जब भी मैं सांप्रदायिकता और सामाजिक असमानता की बातें सुनता हूं तो मुझे रामेश्वरम् के अपने प्राइमरी स्कूल की एक घटना तुरंत याद आ जाती है. मैं पांचवीं कक्षा में पढ़ता था. हमें पढ़ाने के लिए स्कूल में एक नए शिक्षक आए थे. मैं हमेशा अपने परम मित्र रामनाथन के साथ सबसे आगे की पंक्ति में बैठा करता था. नए शिक्षक एक ब्राह्मण और एक मुसलिम विद्यार्थी का कक्षा में एक साथ बैठना समझ न सके. शिक्षक ने अपनी समझ से सामाजिक व्यवस्था का पालन करते हुए मुझे पीछे के बेंच पर बैठने के लिए कहा. मुझे यह सुनकर बहुत क्रोध आया और मेरा मित्र रामनाथन भी इससे बहुत विचलित हुआ. मैं आगे से उठकर आखिरी बेंच पर जा बैठा. यह देखकर रामनाथन ने रोना शुरू कर दिया. रामनाथन का रोता चेहरा मुझे आज भी याद है. हमारे पिता और परिजनों को जब इस घटना के बारे में पता चला तो अध्यापक को बुलाकर समझाया गया कि उन्होंने बहुत घृणित कार्य किया है. लगभग 50 वर्ष पूर्व, हमारे परिजनों के मजबूत विश्वास ने उस अध्यापक के विचार बदल दिए.

फिर जब देश आजाद हुआ तब भी सांप्रदायिक दंगों ने बाल मन को प्रभावित किया था. उस दौरान महात्‍मा गांधी भूमिका पर किशोर अब्‍दुल कलाम क्‍या सोचते थे, यह यूं व्‍यक्‍त हुआ है:

15 अगस्त, 1947 को हमारे हाई स्कूल के अध्यापक श्रद्धेय अय्यादुरै सोलेमन मुझे पं. जवाहरलाल नेहरू की मध्य रात्रि में दी जानेवाली स्वतंत्रता दिवस की तकरीर सुनाने के लिए ले गए. उन दिनों सभी घरों में रेडियो नहीं हुआ करते थे. नेहरूजी की तकरीर ने हमें द्रवित कर दिया. अगली सुबह सभी समाचार पत्रों ने इस महत्त्वपूर्ण घटना को अपना मुख्य समाचार बनाया. परंतु साथ ही एक अन्य समाचार भी छपा था, जो आज भी मेरी स्मृति में ताजा है. यह था कि कैसे सांप्रदायिक दंगों से पीडित परिवारों का कष्ट दूर करने के लिए गांधीजी नंगे पाँव नौआखली में घूम रहे थे. साधारणतः राष्ट्रपिता होने के नाते महात्मा गांधी को उस समय सत्ता हस्तांतरण और राष्ट्रीय ध्वज को फहराना देखने के लिए राजधानी में होना चाहिए था. जबकि वे उस समय नौआखली में थे, यही महात्मा की महानता थी. इसने मेरे हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ी.

जमीन से जमीन पर मार करने वाली अग्नि मिसाइल और पृथ्वी मिसाइल का सफल परीक्षण का श्रेय डॉ. कलाम को जाता है. उन्‍होंने स्‍वदेशी तकनीक से अग्नि मिसाइल का निर्माण किया था. क्‍या आप जानते हैं, आयुध क्षमता निर्माण व विकास में जुटे वैज्ञानिक डॉ. कलाम को प्रकृति ने सदैव प्रेरणा दी है. यानी शस्‍त्रों की मारकता के पीछे फूलों सी सुकोमल सोच की शक्ति थी. हथियारों के बुद्धिमत्‍तापूर्ण और संयमित उपयोग के लिए यह एक तरह का संदेश है. डॉ. कलाम लिखते हैं:

पिछले अनेक वर्षों से हम मध्यम दूरी की जिस अग्नि मिसाइल पर कार्य करते आ रहे थे उसे प्रक्षेपण के लिए चांदीपुर में प्रक्षेपण स्थल पर स्थापित कर दिया गया था. हमें अगले दिन उसका प्रक्षेपण करना था. मैं प्रक्षेपण स्थल से लांच ऑथोराइजेशन बोर्ड के लिए कंट्रोल सेंटर जा रहा था. मैं विचारमग्न था क्योंकि हमारे पिछले दो प्रयासों के दौरान प्रक्षेपण प्रतिक्रिया में कुछ गड़बड़ी पैदा हो गई थी. हालांकि हम काफी संतुष्ट थे कि हम मिसाइल को सुरक्षित रखने में सफल हुए थे. तभी कार की खिड़की से मैंने बाहर देखा और मेरी नजर सड़क के साथ-साथ बने तालाबों में खिली रंग-बिरंगी कुमुदनियों पर पड़ी. सुबह-सवेरे की ठंडी मनमोहक हवा के साथ इधर-उधर डोल रही इन कुमुदनियों का नृत्य देखने के लिए मैं कार से उतर पड़ा. इस अल्पविश्राम ने मुझे शांति प्रदान की और मैं तनाव मुक्त हो गया. एक बार फिर मैं चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार था. अगले दिन अग्नि को छोड़ा गया और शेष तो अब इतिहास है.

यह ऐतिहासिक कार्य करने वाले वैज्ञानिक किस मानसिक और भावनात्‍मक दौर से गुजरते हैं यह हमें पता ही नहीं होता है. देश के वैज्ञानिकों और उनके परिजनों के समर्पण और संघर्ष को डॉ. कलाम ने यूं बताया है:

अग्नि के सफल परीक्षण ने पूरे देश को उल्लासित कर दिया था. अग्नि के निर्माण के समय एक घटना घटी. अग्नि के निर्माण कार्य में लगे होने के कारण लगभग चालीस दिन से अपने घर-परिवार से दूर एक वैज्ञानिक ने, जो इस कार्य में विशेष निपुण है, अपने घरवालों का कुशलक्षेम जानने के लिए उन्हें हैदराबाद फोन किया. उनकी पत्नी ने फोन उठाया, पर ज्यादा बात न कर फोन उनके पिता को थमा दिया. पिता ने उनसे बातचीत की और उन्हें आश्वस्त किया कि वे सब हैदराबाद में कुशल से हैं और जानना चाहा कि वह कब घर लौट रहे हैं. कुछ दिन बाद अग्नि के सफल प्रक्षेपण के पश्चात् जब वे लौटे तो पत्नी को रोते हुए देख काफी व्याकुल हुए. तब उन्हें पता चला कि एक सप्ताह पूर्व उनकी पत्नी के भाई की एक दुर्घटना में असमय मृत्यु हो गई थी. अग्नि-निर्माण के कार्य में बाधा न पड़े, यह सोचकर घरवालों ने उन्हें यह खबर नहीं दी थी. ऐसे परिवारों को मैं झुककर सलाम करता हूं.

जब हम सफल होते हैं तो हमें अपने माता-पिता, अपने शिक्षक, अपने मित्र, प्रेरणास्रोत याद आते हैं. अपनी सफलता में इन सभी का योगदान होता है. ‘अम्मी-अब्बा मैं आपका शिशु’ शीर्षक में डॉ. कलाम लिखते हैं:

1990 के गणतंत्र दिवस के दिन मुझे एक सुखद समाचार मिला. भारत के राष्ट्रपति ने मुझे पद्मविभूषण से सम्मानित किया है. इस खुशी के मौके पर मैंने अपना कमरा संगीतमय वातावरण से भर दिया और वह संगीत मुझे किसी अन्य देश और काल में ले गया. मैं पुरानी यादों में खो गया. अपने कल्पना लोक में घूमता हुआ मैं रामेश्वरम् पहुंचा और अपनी मां के गले जा लगा. मेरे पिता मेरे बाल अपने हाथों से संवार रहे थे. मस्जिद वाली सड़क पर इकट्ठी हुई भीड़ को जलालुद्दीन ने यह समाचार दिया. लक्ष्मण शास्त्री ने मेरे माथे पर तिलक लगाया. फादर सोलोमन ने अपने पवित्र क्रॉस के लॉकेट पर हाथ रखकर मुझे आशीर्वाद दिया. मैंने प्रो. विक्रम साराभाई को मुस्कराते हुए देखा. बीस साल पहले उनके लगाए बिरवे में फल आ गए थे. मेरा हृदय कृतज्ञता से भर गया.


 (न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग) 


Thursday, July 20, 2023

श्री मां शारदा देवी: भगवान से लौकी-कद्दू नहीं, शुद्ध प्रेम व ज्ञान मांगों

छोटी सोच मत रखो. भगवान से लौकी और कद्दू के लिए प्रार्थना न करें, जबकि आपको हर दिल में शुद्ध प्रेम और शुद्ध ज्ञान के लिए प्रार्थना करनी चाहिए.

यह प्रेरक वाक्‍य श्री मां शारदा देवी (सारदा देवी) का है. शारदा देवी यानी नाम सारदामणि मुखोपाध्याय. उनका परिचय केवल इतना नहीं है कि वे बंगाल के उन्नीसवीं सदी के संत रामकृष्ण परमहंस की पत्नी और आध्यात्मिक सहयात्री थीं, बल्कि वे उस वक्‍त की सामाजिक उन्‍नति और मानवीय चेतना के विकास की अग्रदूत भी थीं. रामकृष्ण मठ के अनुयायी उन्हें श्री मां संबोधित करते हैं तो इसका कारण है कि उन्‍होंने प्राणी मात्र में भेद नहीं किया. फिर चाहे स्‍वामी विवेकानंद जैसा प्रखर आध्‍यात्मिक पुरूष सामने हो या डाकू अजमद या कोई चींटी, श्री मां शारदा देवी ने सभी को समान स्‍नेह और ममता प्रदान की. स्वयं अशिक्षित होने के बावजूद शारदा देवी ने महिलाओं के लिए शिक्षा की वकालत की.

शारदा देवी का जन्म कलकत्ता के पास एक छोटे से गांव जयरामबती में 22 दिसंबर 1853 को हुआ था. उस समय की परंपरा के अनुसार पांच साल की उम्र में उनकी शादी रामकृष्ण से हो गई थी. जब वे अठारह वर्ष की हुईं तब हुगली नदी के किनारे स्थित दक्षिणेश्वर काली मंदिर पहुंची जो रामकृष्‍ण परमहंस की कर्मभूमि है. विवाहित होने के बावजूद दोनों ने गृहस्थ और मठवासी जीवन के आदर्शों को दर्शाते हुए अखंड ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत किया. कहा जाता है कि एक पुजारी के रूप में रामकृष्ण ने शारदा देवी को देवी काली के स्थान पर बैठाया और अनुष्ठानपूर्वक षोडशी पूजा की. रामकृष्ण ने शारदा को दिव्य मां का अवतार माना और उन्हें श्री मां संबोधित किया.

श्री मां शारदा का दिन सुबह 3 बजे शुरू होता था. गंगा में अपना स्नान समाप्त करने के बाद, वह सुबह होने तक मंत्र जप और ध्यान किया करती थीं. ध्यान के घंटों को छोड़कर, उनका अधिकांश समय रामकृष्ण और उनके भक्तों के लिए खाना पकाने में व्यतीत होता था. रामकृष्ण परमहंस के निधन के बाद शारदा देवी धार्मिक आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहीं. रामकृष्ण ने उन्हें अपने निधन के बाद अपना मिशन जारी रखने का आदेश दिया था और चाहते थे कि उनके शिष्य उनके और उनके बीच कोई अंतर न करें. वे अगले चौंतीस वर्षों तक आंदोलन की आध्यात्मिक मार्गदर्शक बनी रहीं.

अमेरिकी सूफी लेखक लेक्स हिक्सन ने अपनी पुस्‍तक ‘ग्रेट स्वान’ में संत रामकृष्ण परमहंस के साथ मुलाकातों को वर्णन किया है. इस पुस्तक में हिक्सन ने मां शारदा से भेंट के अनुभवों पर भी लिखा है. इसमें दर्ज है कि शारदा देवी को उनकी महिला साथी सुबह तीन बजे न जागने की सलाह देती हैं. शारदा देवी कहती हैं कि सुबह तीन बजे से पहले जागना और आधी रात के बाद ही निवृत्त होना कठिन काम है. लेकिन मैं कैसे ज्‍यादा सो सकता हूं? मैं प्राणियों की कष्टदायी पीड़ा से भली-भांति परिचित हूं. मेरे दिल की गहराई में चुपचाप दिव्य नाम दोहराने से, यह सार्वभौमिक पीड़ा धीरे-धीरे लालसा में बदल जाती है और अंततः रोशनी बन जाती है. मैं इस स्थिति को इतना स्पष्ट रूप से देखती हूं कि मेरे लिए सोने के लिए प्रार्थना करना बंद करना मुश्किल है, यहां तक कि एक घंटे के लिए भी नहीं. मैं कभी-कभी सोची हूं कि मैं सीमित मानव शरीर के बजाए यदि अनंत दिव्य रूप में प्रकट होती तो शायद पीड़ित प्राणियों के लिए और अधिक करने में अधिक सक्षम होती. वे हर हाल में प्रत्‍येक जीवित प्राणी की देखभाल करने को महत्‍व देती थी. एक बार का किस्‍सा है कि कक्ष में आई चींटी को किसी ने मारना चाहा तो उन्‍होंने उसे रोक दिया। श्री मां ने कहा कि उस चींटी में उन्‍हें रामकृष्‍ण परमहंस की छवि दिखाई दी.

संदर्भ बताते हैं कि जो भी श्री मां के सानिध्‍य में आया उनकी कृपा का पात्र बना। यूं तो स्‍वामी रामकृष्ण परमहंस प्रख्‍यात संत स्‍वामी विवेकानंद के गुरु थे. स्‍वामी विवेकानंद अपने गुरु जितना ही बल्कि उनसे कुछ अधिक महत्‍व गुरु मां शारदा देवी को देते थे. वे अपने जीवन का हर महत्‍वपूर्ण निर्णय श्री मां की आज्ञा से ही लेते थे. किस्‍सा है कि जब विश्व धर्म सम्मेलन के लिए अमेरिका जाने का प्रस्‍ताव आया तो वे श्री मां से आज्ञा लेने पहुंचे. तुरंत कोई उत्‍तर देने की जगह श्री मां ने कहा कि मैं सोचकर बताती हूं. यह अचरज वाली बात थी. स्‍वीकृति या अस्‍वीकृति एक क्षण में ही दी जा सकती थी.

कुछ देर बाद शारदा देवी भोजन पकाने के लिए रसोई में चली गईं. स्‍वामी विवेकानंद भी साथ थे. उन्होंने सब्जी काटने के लिए चाकू मांगा. स्‍वामी विवेकानंद चाकू लाकर दे दी. इस प्रक्रिया के तुरंत बाद शारदा देवी ने प्रसन्‍न हो कर स्वामी विवेकानंद को अमेरिका जाने की अनुमति दे दी. यह घटनाक्रम चौंकाने वाला था. स्‍वामी विवेकानंद ने प्रश्‍न किया कि आप तो विचार करने वाली थीं. अब तुरंत ही स्‍वीकृति कैसे दे दी? इसमें क्या रहस्य है?’

शंका का समाधान करते हुए श्री मां बताया कि चाकू मांग कर उन्‍होंने असल में परीक्षा ली थी. वे देखना चाहती थी कि विवेकानंद चाकू कैसे देते हैं? वे खुश हुई कि विवेकानंद ने धार वाला हिस्‍सा अपनी ओर रख कर हत्‍थे वाला हिस्‍सा श्री मां की ओर रखा. इससे पता चला कि वे दूसरों की सुरक्षा के लिए स्‍वयं खतरा उठाने को तैयार हैं.

गुरु रामकृष्‍ण परमहंस के निधन के उपरांत स्‍वामी विवेकानंद हमेशा श्री मां की चिंता किया करते थे. अपने गुरुभाई को एक पत्र में उन्‍होंने लिखा था कि मां कितनी अनमोल हैं इस बात को लोग अभी नहीं समझेंगे. धीरे-धीरे समझेंगे. तुम्हें पता है कि हमारा देश दूसरे देशों के मुकाबले इतना कमजोर और पिछड़ा है क्योंकि यहां शक्ति (नारी) का अपमान किया जाता है.’

श्री मां ने आध्‍यात्मिक उन्‍नति के लिए तो मार्ग प्रशस्‍त किया ही बालिका शिक्षा को लेकर भी वे अत्‍यधिक आग्रही थीं. 1895 में स्वामी विवेकानंद इंग्लैंड गए थे तब उनके विचारों से एक युवती मार्गरेट नोबल प्रभावित हुई थी. 28 जनवरी 1898 को मार्गरेट नोबल भारत आईं और यहीं की हो कर रह गईं. 25 मार्च 1898 को स्वामी विवेकानंद ने उन्‍हें ‘ब्रह्मचारिणी’ व्रत की दीक्षा देकर उनका नाम ‘निवेदिता’ रखा. भगिनी निवेदिता ने उसी वर्ष कोलकाता मे ‘निवेदिता बालिका विद्यालय’ की स्थापना की. निवेदिता स्कूल का उद्घाटन श्री मां शारदा ने किया था. उन्‍होंने भगिनी निवेदिता को अपनी पुत्री की तरह स्नेह दिया. भगिनी निवेदिता ने अपने गुरु की प्रेरणा से ऐसे समय में स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में कार्य किया जब संभ्रांत लोग भी अपनी लड़कियों को स्कूल भेजना पसंद नहीं करते थे.

मां शारदा द्वारा पीडि़तों की सेवा और भेद न करने के कई किस्‍से प्रचलित हैं. जैसे कहा जाता है कि विवाह उपरांत जब वे 18 वर्ष की उम्र में पित रामकृष्‍ण के पास आ रही थीं तो रास्‍ते में घना जंगल आता था. पैर में मोच के कारण वे तेज नहीं चल पा रही थीं. समूह के लोगों पर खतरा भांप कर उन्‍होंने उन्‍हें जाने के लिए कह दिया. वे अकेली रह गई थीं. रात में रास्‍ते में डाकुओं ने घेर लिया. जब डाकुओं ने पूछा कि वे अकेली क्‍यों हैं, तो उत्‍तर दिया कि अकेली कहां है, उनके पिता और भाई तो हैं न साथ में. डाकुओं के लिए यह आश्‍चर्य का विषय था कि एक महिला उनसे डर नहीं रही है बल्कि उन्‍हें भाई और पिता कह रही हैं. डाकुओं की आंखें भर आईं. श्री मां के पैर की स्थिति देख डाकुओं ने उनसे अपने घर चलने का आग्रह किया. छुआछूत को किनारे रख कर वे डाकुओं के घर में रात रूकी. डाकु सम्‍मान उन्हें लेकर श्री रामकृष्‍ण के निवास पर पहुंचे.

श्री मां की शरण में आने वाला हर व्यक्ति उनके लिये पुत्रवत था. अनेक डाकू बदमाश उनके वात्सल्य और ममता भरे व्यवहार से सुधार के रास्ते पर चलने लगे थे. ऐसा ही एक किस्‍सा है कि एक डाकू अजमद का. मां शारदा ने अमजद के द्वारा भक्तिपूर्वक लाए हुए फल-फूल को स्वीकार किया और उससे कभी घृणा नहीं की. यह अपनापन सब देखकर अमजद और उसके साथी आनंद से भर गए. एक दिन अमजद को मां ने भोजन पर बुलाया. जब भतीजी नलिनी ने छुआछूत का ध्‍यान रख कर अमजद की थाली में रोटी दूर से फेंक कर दद तो श्री मां ने उन्‍हें रोकते हुए कहा कि इस तरह फेंक कर परोसने से किसको अच्छा लगेगा? क्या वह प्रसन्नता से भोजन कर पाएगा? श्री मां ने स्‍वयं अपने हाथों से अमजद का परोस कर खाना खिलाया.

ये सब उदाहरण भले ही श्रद्धा में कहे गए किस्‍सों की तरह लगे लेकिन समझा जाना चाहिए कि 19 वीं और 20 वीं शताब्‍दी के भारतीय खासकर बंगाली समाज में भेदभाव और छुआछूत की क्‍या स्थिति थी और किस तरह अपने आचरण और व्‍यवहार से संतों ने इस भेद को मिटाने का कार्य किया है. श्री मां शारदा ने कोई किताब नहीं लिखी लेकिन शिष्‍यों ने उनके कथनों को संग्रहित किया है. उनका जीवन ही उनका संदेश था. मानवता की सेवा करते हुए कठिन परिश्रम एवं बार-बार मलेरिया के कारण उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता गया और 20 जुलाई 1920 को श्री मां शारदा ने देह त्याग दी. आज सौ बरसों बाद भी जब उनके समय जैसी परिस्थितियां अपने आसपास पाते हैं तो उनका अंतिम कथन याद आता है. मृत्यु से पहले मां शारदा ने अपने दुःखी भक्तों को सलाह दी थी:

‘यदि आप मन की शांति चाहते हैं, तो दूसरों में दोष न ढूंढें. बल्कि अपने दोष देखें. पूरी दुनिया को अपना बनाना सीखो. कोई भी पराया नहीं है मेरे बच्चे: यह पूरी दुनिया तुम्हारी अपनी है.’

 (न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग)