Saturday, June 26, 2010

बेटा नहीं मौत लेने आई

बेटे के छल का सदमा झेल नहीं पाए 72 वर्षीय बुजुर्ग

भोपाल में 20 जून को फादर्स डे पर पिता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जा रही थी, आनंदधाम वृद्धाश्रम में मायूसी छाई थी। मायूसी की वजह बुजुर्गों के प्रति बेटों का अनादर नहीं बल्कि बीते पखवाड़े हुई एक बुजुर्ग की मौत है। दस साल से वृद्धाश्रम में रह रहे 72 वर्षीय दाते साहब को लेने बेटे को आना था लेकिन बेटे ने आने से इंकार किया तो वे सदमे में मौत के साथ चले गए।



पिता यानि जीवन का सहारा और बेटा बुढ़ापे का भरोसा। यह धारणा आधुनिक जीवन में बार-बार टूट रही है। इस बार इस धारणा के टूटने का गवाह बना आनंदधाम वृद्धाश्रम। फादर्स-डे के दिन आमतौर पर यहाँ के सहायक और संचालक बुजुर्गों को अकेलापन महसूस नहीं होने देते। इस दिन को खास बनाने के लिए कुछ विशेष रचा जाता है, लेकिन इस बार यहाँ विशेष में भी जोश और उत्साह नहीं था। चाह कर भी बुजुर्ग अपने साथी दाते साहब को नहीं भुला पा रहे थे, वहीं दाते साहब जो अपने बेटे द्वारा छले गए थे। यहाँ की देखरेख करने वाली माधुरी मिश्रा बताती हैं कि दाते साहब करीब दस साल से यहाँ रह रहे थे। पिछले महीने उनकी बेटी ने पटना में रहने वाले अपने भाई पर दबाव बनाया कि वह पिता को अपने साथ ले जाए। बहन के दबाव और जिद ने भाई को झुकने पर मजबूर कर दिया। पिता को भी बेटी ने ही जाने के लिए तैयार किया। आखिर बेटे ने दाते साहब को ले जाने के लिए सहमति दे दी। दाते साहब ने खुशी-खुशी बेटे के पास जाने की तैयारी की थी। वृद्धाश्रम में उनके जाने का गम तो था लेकिन खुशी थी कि वे दस सालों बाद अपने परिवार के पास जा रहे थे। तय कार्यक्रम के अनुसार पिछले हफ्ते उनके जाने का दिन आ गया। सारी तैयारी हो चुकी थी, सामान पैक था। काफी इंतजार के बाद बेटा नहीं आया तो पड़ताल की गई। सुश्री मिश्रा ने बताया कि बेटे ने आने में असमर्थता जता दी। बेटे का यह विश्वासघात दाते साहब झेल नहीं पाए। उन्हें इतनी निराशा हुई कि वे खामोश हो गए। इस गहरे सदमे में उन्हें हार्ट अटैक हुआ और वे दुनिया से कूच कर गए।

बेटे के छल से उनके साथी नाराज हैं। वे कहते हैं कि जब नहीं ले जाना था तो वादा क्यों किया? दस सालों से वृद्धाश्रम में रह रहे थे। उनके इस परिवार को अभी उनकी और जरूरत थी।

Tuesday, June 15, 2010

हार गई हरियाली

भोपाल के नाम बरगद की चिठ्ठी


' आज जो मैं एक ठूँठ दिखाई दे रहा हूँ, पिछले साल तक मैं भी हरा-भरा पेड़ था। मेरी पहचान सूखा तना नहीं, जमीन को छूती डालियाँ और घनी छाँव देता विस्तार था। तब सभी मुझे बरगद कहते थे। आज मैं अपना यह परिचय देने में शरमा जाता हूँ। कहाँ भरा-पूरा विस्तार और कहाँ यह सूखे ठूँठ? मुझे बरगद से ठूँठ बना देने के दोषी आप हैं। आप ही ने साल भर पहले मेरी जमीन और मेरा आसमान छीन लिया था। मुझे एक अनजान जगह ला कर रोप दिया, यहाँ न मुझे वैसा खाद-पानी मिला और न परवरिश। आपने मुझे कटने से बचाया लेकिन यहाँ किश्तों में मरने के लिए छोड़ दिया। पहले मेरे पत्ते गए, फिर शाखाएँ काट दी गई। अब तने के अलावा कुछ भी नहीं बचा। मैं हीं नहीं उजड़ा, मेरी गोद में समाया पक्षियों का पूरा संसार उजड़ गया। मेरे जैसे कई वृक्षों के साथ हरियाली हार गई और हार गई आपकी साँसें।'




प्रिय भोपालवासियो,


आप खुश हैं कि मिसरोद से बैरागढ़ तक सिक्स लेन सड़क बन रही है। आपको चौड़ी सड़क मिलेगी तो आवाजाही में कठिनाई नहीं होगी। जाम से मुक्ति मिलेगी। सोचता हूँ इसी लालच में आपने मुझ जैसे हरे पड़ों को काटा जाना मंजूर किया होगा। लेकिन क्या आपने सोचा है कि इतने पेड़ों के कटने से आपकी साँसें जाम हो सकती है, जब भविष्य में ऑक्सीजन नहीं मिलेगी? ऐसी ही चिंता के चलते मुझ जैसे करीब 80 पेड़ों का ठिकाना बदला गया। मुझे पता चला कि आप जैसे कई पर्यावरण प्रेमी उस दिन बड़े प्रसन्ना हुए थे, जब 50 साल पुराने वृक्षों की जगह बदल कर उन्हें नए ठिकाने दिए गए थे। उम्मीद थी कि नई जगह में भी हम खूब हरियाएँगे, लहलहाएँगे, छाँव और फल देंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।


आप जानते हैं, नगर निगम ने मिसरोद से बैरागढ़ तक बनने वाले करीब 16.5 किलोमीटर लंबे सिक्स लेन रोड के बीच में आने वाले 2333 पेड़ों में से करीब 602 पेड़ों का ठिकाना बदलने की योजना बनाई थी। इनमें बरगद, पीपल, गूलर, आम, जामुन, शीशम, सप्तपर्णी, करंज, अर्जुन, गुलमोहर सभी शामिल हैं। पहले महीने मिसरोद क्षेत्र से करीब डेढ़ दर्जन पेड़ों को हटाया गया। 13 पेड़ मिसरोद श्मशान घाट में रोपे गए, जबकि 6 पेड़ सुरेन्द्र लैंडमार्क के पास स्थित नटबाबा मंदिर प्रांगण में पहुंचाए गए। कुछ पेड़ बावड़िया कला श्मशान घाट में लगाए गए थे। जब हमारा ठिकाना बदला जा रहा था, तब मेरी जड़ें काफी गहरी जमी थीं। मेरी हर डाल पत्तियों से लदी हुई थी। मेरे साथी गुलमोहर के फूल गर्मी में खिलखिलाते थे। हर डाल लाल-लाल फूलों से भर जाती थी। हमारी ही छांव में लोग सुस्ताते थे, सावन में हमारी ही डालियों पर झूले डाले जाते थे। इन्हीं शाखाओं पर किस्म-किस्म के पंछियों का बसेरा था। इन सबका न मैंने कभी किराया लिया और न कभी घोंसले हटा लेने का नोटिस दिया।


लेकिन एक दिन आपने ही मेरे तने को छील कर उस पर नंबर लिख दिया। तब मैंने किसी को यह कहते हुए सुना था कि मेरी जड़ों को हटाया जाने वाला है। मेरी तो कुछ समझ नहीं आ रहा था। कभी सुना भी नहीं था कि बरगद को कोई डिगा भी सकता है। मुझसे तो बड़े व्यक्तित्व वाले इंसानों की तुलना होती है। फिर लगा, तरक्की पसंद इंसान ने कोई नई तकनीक ईजाद की होगी। सच बताऊँ तो उस दिन मेरी गोद में पलने वाले पंछियों ने खूब नाराजी जताई थी। कई ने तो खाना छोड़ चिल्ला-चिल्ला कर अपना गुस्सा दिखाया था, पर आपको वह सब सुनने की फुर्सत कहाँ थी?


मुझे पता चला कि इंदौर के पेड़ शिफ्टिंग विशेषज्ञ प्रेम जोशी हमारा ठिकाना बदलेंगे। उन्होंने कलकत्ता में 12 बीघा क्षेत्रफल में फैला बरगद का पेड़, शुक्रवासा (देवास) में 12 बीघा में फैले करीब तीन हजार साल पुराने बरगद के अलावा गुजरात और नेपाल में भी बरसों पुराने पेड़ों को दूसरी जगह ले जाकर लगाया था। दक्षिण भारत में इमली के पेड़ की अहमियत ज्यादा है, जिसके चलते वहां उन्होंने कई पेड़ शिफ्ट कराने में मदद की है।


इतना पता चलने के बाद हम भी खुश थे। सोचा था, नई जगह होगी तो क्या, परिंदें फिर आशियाना बना लेंगे। राहगीर छाँव तलाश लेंगे। मुझे श्मशान में लगाया जाना था। लगा था वहाँ पहुँचने वाले लोगों के दुख को पनाह दूँगा। लेकिन मेरी किस्मत कलकत्ता के बरगद जैसी नहीं निकली। साल भर बाद भी नई कोंपल फूटना तो दूर तने की छाल भी नहीं रही। यूँ लग रहा है जैसे पैरहन (कपड़े) के साथ मेरी आबरू जाती रही। अब बरगद के नाम पर दो सूखे तने बचे है। मैं ही क्यों आ कर देखो तो मेरे जैसे कई पेड़ तिल-तिल कर मर रहे हैं। पत्तियों और शाखाओं के साथ इनका पेड़ होने का सम्मान जाता रहा। श्मशान में मैं पनप नहीं पाया और अब तो लगता है मेरी शाखाएं पंछियों को घोसला बनाने या इंसानों को छांव देने के बजाय शायद किसी पार्थिव देह को भस्म करने के ही काम आ जाएगी।


फूटी कोंपलें
वो कहते हैं ना कि सभी की किस्मत एक जैसी नहीं होती। पेड़ों के साथ भी यही हुआ। बावड़ियाँ कला श्मशान घाट में लगाए पेड़ों में अंकुरण हो गया है। यह मरणासन्ना बुजुर्ग की साँसें फिर चलने जैसा है। यहाँ आ कर देखिये तो। सूखे तने में फूट रहे नए हरे पात कितने अच्छे लग रहे है। लेकिन इन पीपल और गुलमोहर के पेड़ों को अपने पुराने स्वरूप में आने में बरसों लगेंगे। तब तक शायद इन्हें यहाँ से भी हटाने की बारी आ जाए। हमारी इनके जैसी किस्मत कहाँ? हम बचे रह गए ठूँठ, हरे पत्तों को तरस रहे हैं।


शिफ्टिंग के हालात :


0 काम : मिसरोद से बैरागढ़ तक सिक्स लेन रोड
0 बाधा : 2333 पेड़
0 हटेंगे : 602 पेड़
0 कटेंगे : 1731 पेड़
0 अब तक हटे : करीब 80 पेड़
0 कितना खर्च : प्रति पेड़ ढाई से दस हजार स्र्पए तक
0 यह पेड़ हुए शिफ्ट : बरगद, पीपल, गूलर, आम, जामुन, शीशम, सप्तपर्णी, करंज, अर्जुन, गुलमोहर आदि।
0 यहां पहुंचाए : मिसरोद विश्राम घाट परिसर, नटबाबा मंदिर परिसर, बावड़िया कला श्मशान घाट, नूतन कालेज के सामने ग्रीन बेल्ट की जमीन, दुर्गा पेट्रोल पंप के सामने।

Sunday, June 13, 2010

कच्ची केरी के साथ बचपन के दिन



कल दफ्तर से घर लौट रहा था कि अचानक सड़क किनारे बैठी महिलाओं पर नजर पड़ी। महिलाओं पर नहीं डलिया में रखी पीली सलोनी पकी केरियों पर नजरें टिक गई। भरपूर ललचाई नजरों से उन आमों को देख मैं आगे बढ़ गया। लेकिन आगे तो गाड़ी बढ़ रही थी मैं तो पीछे लौट रहा था...बचपन में।


क्या दिन थे वो। अल्हड़, बेबाक, निर्मल आनंद से गर्मियों की छुट्टियों के दिन। अगर आप आज के बच्चों की गर्मी की छट्टियों से इनदिनों की तुलना कर रहे हैं तो जनाब गलती कर रहे है। ये छुट्टियाँ शिविरों में अपने व्यक्तित्व में हुनर जोड़ने और स्कूल दिए प्रोजेक्ट व होम वर्क पूरा करने में बीतती है। लेकिन हमारी छुट्टियाँ... उनके क्या कहने साहब। परीक्षा के आखिरी दिन बस्ता और पुरानी किताबों को यों उड़ा कर फेंक देते थे जैसे इनसे कोई नाता ही न रहा हो या कोई बम हो जो पास में रखने पर जान ले लेगा। मार्च लगते ही इस उधेड़बुन में दिन बीतते थे कि गर्मी की छुट्टियों की योजनाओं को कैसे पूरा करना है। छुट्टियाँ खत्म होते ही अगली छुट्टियों की योजना जो बन जाती थी। अंतिम पर्चे के साथ चेहरे पर ऐसे भाव उमड़ते थे मानो गंगा स्नान कर लिया हो और अब स्वर्ग का आनंद उठाने से कोई रोक नहीं सकता। मित्रों के साथ सुबह 5 बजे मैदान पर जाना। सूरज के चमकने साथ लौटना, फिर खाना खा कर दिन में भरपूर नींद और शाम ढलते ही बेट-बॉल के साथ फिर मैदान में। रात में घंटों गप्पे। कस्बे में रहते थे तो मित्रों के घर पास ही थे। जिनके घरों की छत आपस में मिली थी, उनके साथ तो नींद आने तक बातें होती-गुजरे दिन के क्रिया कलापों का विश्लेषण, अगले दिन की कार्य योजना यहीं बनती। सुबह अन्य दोस्तों को निर्णयों से अवगत करवा दिया जाता।

ऐसी ही मौज के बीच आनंद बढ़ जाता, जब बाग में हरी-हरी कच्ची केरियाँ पक कर पीली हो जाती। घर में टोकरियाँ भर कर आम आता तो क्या? असल आनंद तो पेड़ पर पत्थर से निशाना लगा कर केरी तोड़ लेने में आता था। दूना आनंद अपने आम को चौकीदार की नजर से बचा कर बाग से बाहर लाने में मिलता। तेज दौड़ कर लाया गया आम, किसी बड़ी स्पर्धा में जीते गए पदक से ज्यादा सुख देता था। उसके रस का स्वाद बता पाना शब्दों के बस में नहीं।

जनाब, पके आम का रस लेने की भी अपनी प्रक्रिया है। सधी उँगलियाँ आम को चारों तरफ से तैयार करती है। दबाव भी इतना संतुलित की कहीं से रस टपक न पड़े। अनुभव से पता चल जाता है कि बस, आम अब रसास्वाद के लिए एकदम तैयार हंै।

इन्हीं ख्यालों और बचपन के मीठे दिनों की याद में रात गुजरी और सुबह फिर एक घटना घटी। कॉलोनी में कई आम के पेड़ है और केरियों से लकदक आम पर राहगीरों की नजरें टिकी रहती हैं। बस्तियों के बच्चे इस आस में घंटों खड़े रहते हैं कि कब कोई आम टपके और वे लेकर भागें। मौका मिलता है तो वे पत्थर के निशाने से आम टपकाना नहीं चूकते। (पक्के निशानेबाज जो ठहरे)। तो हुआ यह कि अपनी गाड़ी बाहर निकाल रहा था कि एक बच्चे के जेब पर नजर पड़ी। उसकी जेब से कुछ बाहर झाँक रहा था, देखा और चौंका। अरे, यह तो गुलेल है। आम तोड़ लेने का पुराना साधन।

मेरे चेहरे पर मुस्कान तैर गई। बच्चा भी सजग था, मेरी नजरों को ताड़ गया। उसने जेब में रखे अपने साधन को हाथ से छुपाया और दौड़ लगा दी।

मैं उसे भागता देख, खुद को भागता देख रहा था। मैं उसके साथ अपने बचपन में लौट गया था। गुलेल के साथ... अमराई के बीच।

Thursday, June 10, 2010

मस्ती की पाठशाला में बिंदास जीवन!

वैभव जब भी शर्ट खरीदने जाता है तो एक शर्ट ही नहीं खरीदता। पसंद आने पर वह कई शर्ट खरीद सकता है। चाहे उनकी संख्या चार हो या छः। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह आठ सौ के बदले पाँच हजार खर्च कर रहा है। वह जब भी अपने गाँव पहुँचता है तो सभी के लिए किसी बड़े आश्चर्य से कम नहीं होता। मामूली कमाई वाले घर का यह होनहार बेटा अब शाही अंदाज में जीता है।

माँ के लिए यह भले ही फख्र की बात हो लेकिन जीवनभर पाई-पाई के लिए खून-पसीना बहाने वाले पिता मौका मिलते ही बेटे को बचत का पाठ पढ़ाना नहीं भूलते। वैभव की इस बेफिक्री पर पिता की फटकार भी असर नहीं डालती है। वह उस पीढ़ी का झंडाबरदार बन गया है जो आजाद है, बिंदास है और बेपरवाह भी है।
यह किसी एक वैभव की कहानी नहीं है। यह आपके, हमारे, हम सभी के वैभव का जिंदगीनामा है। उस युवा पीढ़ी की तस्वीर, जो कमाना भी जानती है और दिल खोलकर खर्च करना भी। यह भारत की उस आर्थिक आजादी की तस्वीर है, जो पिछले डेढ़ दशक में तैयार हुई है। ज्ञान और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत ने विश्व को राह दिखाई है, लेकिन राजनीतिक आजादी के पाँच दशक बाद ऐसा मौका आया जब दुनिया ने यहाँ के युवा की असल ताकत को पहचाना। यह पहचान जैसे-जैसे पुख्ता होती गई, युवा आजाद होते गए। यह बहुत पुराना इतिहास नहीं है, हमारे देखे जमाने की बात है।
जिस घर का मुखिया पूरी उम्र खपकर भी एक लाख रुपए की बचत नहीं कर पाता था, उसी घर का बेटा पहली तनख्वाह 60 हजार पा रहा है। किसी एक की बात होती तो इसे किस्मत का लेखा कह लेते लेकिन आज के युवा ने अपनी तकदीर खुद लिखी है। भूमंडलीकरण ने यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बाजार दिया तो कंपनियों के लिए भारत ने कुशल और ज्ञानवान श्रम प्रदान किया है। मामला केवल आईटी कंपनियों तक सीमित नहीं रहा। बीपीओ, कॉल सेंटर और बीमा कंपनियों में उन वाक्‌पटु युवाओं के लिए भी जगह बनी जो पढ़ने में उच्च श्रेणी के नहीं थे।
स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के क्षेत्रीय प्रमुख उपभोक्ता बैंकिंग विशु रामचंद्रन के मुताबिक भारत में हर साल 20 से 24 की उम्र के करीब तीस लाख युवा रोजगार पाते हैं। नैसकॉम की मानें तो बीपीओ सेक्टर में वर्ष 2003-2004 में ही 2 लाख 45 हजार लोगों को रोजगार मिला था। साल-दर-साल इस आँकड़े में इजाफा हो रहा है। गाँव-गाँव तक पहुँची बीमा कंपनियों ने मोटे वेतन और कमीशन पर एक्जीक्यूटिव भर्ती किए हैं। इसी का परिणाम है कि जो कस्बाई युवा आईटी की चमत्कृत कर देने वाली नौकरी के लिए बेंगलुरू की ओर भागता था, वह एमबीए की डिग्री के बाद मनचाहा वेतन अपने शहर में पा रहा है।

रोजगार के इन अवसरों ने सारी तस्वीर ही बदल दी है। मोटी तनख्वाह ने युवाओं को बिंदास बनाया है। बिंदास जीवन का हर अंदाज निराला है। वे खुलकर जीते हैं और जी खोलकर खर्च करते हैं। दो जोड़ी कपड़ों में बचपन गुजार देने वाले युवाओं की आज हर चीज ब्रांडेड है। वह अपने 'लुक' को लेकर जितना चिंतित है, उतना ही सतर्क अपनी गाड़ी को लेकर भी है। अमेरिका को दीवाना बना देने वाले आईफोन को चाहने वालों की तादाद भारत में भी कम नहीं है। सुपर ट्रेंडी दिखने की चाह में कपड़े, सन ग्लासेज, सेलफोन, पेन, परफ्यूम, घड़ी, जूते, लेपटॉप से लेकर उसके घर का इंटीरियर तक ब्रांडेड हो चुका है।
इसके लिए मोटी रकम खर्च करने में मेट्रो के ही नहीं, मध्यप्रदेश के छोटे शहरों के युवा भी पीछे नहीं हैं। वे परंपरागत किराने वाले की जगह मॉल से साफ की हुई पैक खाद्य सामग्री लेना पसंद करते हैं। इसके पीछे केवल खुद को अमीर बताने की चाह और पड़ोसी से होड़ नहीं है, बल्कि बेहतर की चाह भी है। एक बीमा कंपनी में प्रमुख पद पर काम कर रहे आशीष गुहे इस बात से सहमत भी हैं। उनका मानना है कि आज के युवा को बाजार का औजार कहना गलत होगा।
असल में उसके पास बाजार को खरीदने की ताकत है और वह दिल खोलकर ऐसा कर रहा है। एक साल में 14 से 18 प्रतिशत की उच्चतम वेतनवृद्धि इस बात को साबित भी करती है। यही कारण है कि जेब में भले ही पैसा न हो, युवा क्रेडिट कार्ड के सहारे सब कुछ हासिल करने का हुनर रखते हैं। तभी तो देश में क्रेडिट कार्ड की वृद्धि दर 25 फीसदी सालाना है।

बहुत पाया, तो कुछ खोया भी है

'आज को जियो, आज की रात खुलकर खर्र्च करो और कल के सपने देखो' के फलसफे ने आज के युवा से कुछ छीना भी है। उसकी मानसिक संतुष्टि का स्तर लगातार कम हो रहा है। छोटी उम्र में वह अपना स्वास्थ्य खोने लगा है। तनाव युवाओं को अवसाद, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह जैसी बीमारियों की ओर धकेल रहा है। तमाम संसाधन जुटाने के बाद भी उसे आंतरिक सुख नहीं मिल पा रहा है। उसे शादी करने या इस रिश्ते को निभाने की फुर्सत नहीं है।
'लिव इन रिलेशनशिप' पसंद करने वालों में तेजी से इजाफा हो रहा है। मॉल की तरह ही वृद्धाश्रमों की संख्या भी बढ़ रही है। आर्थिक विशेषज्ञ चिंता जाहिर करते हैं कि जब बाजार का यह 'बूम' उतार पर होगा, तब क्या युवाओं की यह आजाद और बिंदास जीवनशैली बरकरार रह पाएगी? क्या यह दिखावे की निश्चिंतता नहीं है?

सवालों की इस भीड़ में तीखा सच यह भी है कि मस्ती की पाठशाला में बिंदास जीवन का पाठ पढ़ रहे युवाओं की समाज में सक्रिय भागीदारी खत्म हो रही है। लगता है कि वे हर गलत माहौल के आदी हो गए हैं, तभी तो किसी बड़े मसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, फिर चाहे वह भ्रष्टाचार का मामला हो या गिरते हुए नैतिक मूल्यों का। अगर आर्थिक आजादी का यही स्वरूप रहा तो वह युवाओं के लिए नई गुलामी का सबब बन सकता है। और उस गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए राजनीतिक आजादी के संघर्ष से ज्यादा बड़े बलिदान की जरूरत होगी।

Sunday, June 6, 2010

धरती, जल, हवा, वन, कोई नहीं रहा पावन

हम ही बिगाड़ रहे अपना पर्यावरण,
थाम लो वरना खत्म हो जाएगा जीवन

धरती, जल, वायु और वन। जीवन के लिए अनिवार्य इन तत्वों में से कोई शुद्ध नहीं बचा। धरती बंजर हो रही है, पानी जहरीला होता जा रहा है। हवा दूषित है और आकाश में धुआं दौर धूलकण हैं। केन्द्र सरकार की स्टेट ऑफ इंवायरमेंट रिपोर्ट 2009 इसी कड़वी हकीकत को बयान करती है। रिपोर्ट के अनुसार देश की 328.73 मिलियन हेक्टेयर जमीन बंजर हो रही है। इसमें से 93.68 मिलियन हेक्टेयर पानी के क्षरण तथा 16.03 मिलियन हेक्टेयर पानी की अम्लता के कारण जमीन बंजर हुई है। इसी प्रकार खेतों में नरवाई जलाने से श्वसंन तंत्र बिगड़ रहा है तो फ्लोराइडयुक्त पानी हड्डियों को टेढ़ा बना रहा है।

धरती
* आजादी के बाद भारत की कुल आबादी तो तीन गुना बढ़ गई, लेकिन कृषि भूमि क्षेत्र में मामूली वृद्धि हुई। 1951 में खेती का रकबा 118.75 मिलियन हेक्टेयर था जो 2005-06 में 141.89 हुआ।
* ज्यादा उपज की लालच में प्रति हेक्टेयर रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल में इजाफा हुआ है। 1991-92 में 69.8 किलोग्राम उर्वरकों का उपयोग किया जाता था जो 2006-07 में बढ़ कर 113.3 किग्रा हो गया। इस कारण मिट्टी की उर्वरता खत्म हो रही है।
* खेतों में नरवाई जलाने के कारण न केवल जमीन का उपजाऊपन खत्म हो रहा है, बल्कि हवा प्रदूषित हो रही है और तापमान में इजाफा हो रहा है। अकेले पंजाब में 23 मिलियन टन चावल और 17 मिलियन टन गेहूँ की नरवाई होती है। चावल की 80 प्रतिशत यानि 18.4 मिलियन टन और गेहूँ की 5.5 मिलियन टन नरवाई जला दी जाती है।
* नरवाई जलाने से खेतों की मिट्टी का कार्बन का कार्बन डाई ऑक्साइह में तथा नाइट्रोजन का नाइट्रेट में परिवर्तन हो जाता है। यह 0.824 मिलियन टन उर्वरक के खत्म होने के बराबर है, यानि पंजाब में कुल उर्वरकों की खपत का आध्ाा।
* नरवाई से बिगड़ा पर्यावरण बड़े क्षेत्र में श्वाँस, चर्म और नेत्र रोग का कारण बनता है।



जल
* पर्यावरण में बदलाव के कारण देश में बारिश का अनुपात गड़बड़ा गया है। अनुमान है कि 2050 तक पश्चिम और मध्य भारत के बारिश के 15 दिन घट जाएँगे। दूसरी तरफ हम अभी औसतन बारिश का 45 प्रतिशत पानी संभाल नहीं पाते। यह व्यर्थ बह जाता है।
* मप्र के प्रथम श्रेणी के 25 शहरों में 1560.91 मिलियन लीटर प्रतिदिन पानी प्रदान किया जाता है। इसमें से 1248.726 एमएलडी पानी सीवेज के रूप में निकल जाता है।
* दूसरी श्रेणी के 23 शहरों में 163.64 एमएलडी पानी प्रदान किया जाता है। इन शहरों में 130 लीटर पानी मैला कर बहा दिया जाता है।
* प्रदेश के 19 जिलों में फ्लोराइड की मात्रा ज्यादा है। इस कारण बच्चों में दाँत के क्षरण और हड्डियों के टेढ़ा होने की बीमारियाँ तेजी से बढ़ रही है।

हवा
* हमारे वाहनों और कारखानों ने ऑक्सीजन को कार्बन डाई ऑक्साइड में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। केवल दिल्ली का उदाहरण देखें तो यहाँ प्रतिवर्ष हवा में 3 हजार टन प्रदूषण घुल रहा है जिसमें 66 प्रतिशत वाहनों के कारण है।
* 2006-07 में भारत के कोयले का उपयोग कर रहे विद्युत क्षेत्र ने 495.54 मिलियन टन कॉर्बन का उत्सर्जन किया।
* भारत में 60 फीसदी घरों में ईध्ान के रूप में जलाऊ लक ड़ी और कोयला और कंडे का इस्तेमाल होता है।
* द इंटरोगर्वनमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज 2007 की रिपोर्ट कहती है कि 2080 तक तापमान में 2.7 से 4.3 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाएगी।

वन
* यूँ तो देश की हरियाली में इजाफे के संकेत हैं लेकिन 2003 से 2005 के बीच कुल वन क्षेत्र में 728 वर्गकिमी की कमी आई थी। वन क्षेत्र घटने वाले प्रमुख राज्यों में मप्र भी शामिल है। यहाँ 132 वर्गकिमी वन घटा। तीन सालों में बड़े पैमाने पर वनक्षेत्र का कम होना, खतरनाक चेतावनी है।
* बदलते पर्यावरण के कारण ही राजस्थान का जलसंकट झेल रहा 92 प्रतिशत क्षेत्र रेगिस्तान में तब्दील हो रहा है। गुजरात में 91 फीसदी क्षेत्र रेगिस्तान बन रहा है।