Friday, October 7, 2022

वयं रक्षाम: रावण होने, न होने के बीच


दशहरे पर शुभकामनाएं देते हुए हमें राम और रावण के चरित्र याद आते हैं. प्रतापी बताते हुए रावण के पांडित्‍य और पौरूष के प्रति हम चमत्‍कृत भी होते हैं. श्री राम द्वारा की गई रामेश्‍वर पूजा में बतौर आचार्य स्‍वयं पहुंचने, मृत्‍यु के पूर्व श्री राम के उद्घोष और लक्ष्‍मण द्वारा शिक्षा लेने जाने जैसी विशेषताओं के माध्‍यम से ग्रंथों, श्रुति कथाओं में रावण के व्‍यक्तित्‍व की प्रशंसा भी हुई है. यह मानव स्‍वभाव ही है कि वह बुराई में कुछ अच्‍छाई खोज ही लेता है. या यूं जानिए कि सबकुछ ब्‍लेक एंड व्‍हाइट नहीं होता है. धवल व स्‍याह के बीच धूसर भी होता है. रावण के चरित्र में भी दुर्गुण थे तो विशेषताएं भी. रावण होने न होने के बीच एक महीन सी रेखा है. हम किस बात से मुग्‍ध होते हैं और किस का अनुसरण करते हैं यह हमारे विवेक निर्भर करता है.


रावण के चरित्र निर्माण के पीछे क्‍या पोषण था, कौन सी संस्‍कृति थी यह जानना दिलचस्‍प हो सकता है. तमाम ग्रंथों के अध्‍ययन के अलावा आचार्य चतुरसेन शास्‍त्री द्वारा लिखा गया उपन्‍यास ‘वयं रक्षाम:’ इस कार्य में बड़ी सहायता कर सकता है. यह उपन्‍यास इतिहास नहीं है लेकिन किसी शोध ग्रंथ से कम नहीं है. इसकी भूमिका में आचार्य चतुरसेन शास्‍त्री ने जो लिखा है, वह समझना बेहद महत्‍वपूर्ण है. वे लिखते हैं,

मेरे हृदय और मस्तिष्क में भावों और विचारों की जो आधी शताब्दी की अर्जित प्रज्ञा-पूंजी थी, उस सबको मैंने ‘वयं रक्षामः’ में झोंक दिया है. अब मेरे पास कुछ नहीं है. लुटा-पिटा-सा, ठगा-सा श्रांत-क्लांत बैठा हूं. चाहता हूं, अब विश्राम मिले. चिर न सही, अचिर ही. गत ग्यारह महीनों में दो-तीन घंटों से अधिक नहीं सो पाया. संभवतः नेत्र भी इस ग्रंथ की भेंट हो चुके हैं. शरीर मुर्झा गया है, पर हृदय आनंद के रस में सराबोर है. यह अभी मेरा पैंसठवां ही तो वसंत है. फिर रावण जगदीश्वर मर गया तो क्या? उसका यौवन, तेज़ दर्प, दुस्साहस, भोग और ऐश्वर्य, जो मैं निरंतर इन ग्यारह मासों में रात-दिन देखता रहा हूं, उसके प्रभाव से कुछ-कुछ शीतल होते हुए रक्तबिंदु अभी भी नृत्य कर उठते हैं. गर्म राख तो है.


बकौल, आचार्य चतुरसेन शास्‍त्री, ‘वयं रक्षामः’ में प्राग्वेदकालीन जातियो के संबंध में सर्वथा अकल्पित-अतर्कित नई स्थापनाएं हैं, मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है. सत्य की व्याख्या साहित्य की निष्ठा है. उसी सत्य की प्रतिष्ठा में मुझे प्राग्वेदकालीन नृवंश के जीवन पर प्रकाश डालना पड़ा है. अनहोने, अविश्रुत, सर्वथा अपरिचित तथ्य आप मेरे इस उपन्यास में देखेंगे; जिनकी व्याख्या करने के लिए मुझे उपन्यास पर तीन सौ से अधिक पृष्ठों का भाष्य भी लिखना पड़ा है. फिर भी आप अवश्य ही मुझसे सहमत न होंगे. परंतु आपके ग़ुस्से के भय से तो मैं अपने मन के सत्य को मन में रोक रखूंगा नहीं. अवश्य कहूंगा और सबसे पहल आप ही से.


वे लिखते हैं, ‘वैशाली की नगरवधू’ लिखकर मैंने हिंदी उपन्यासों के संबंध में एक यह नया मोड़ उपस्थित किया था कि अब हमारे उपन्यास केवल मनोरंजन की तथा चरित्र-चित्रण भर की सामग्री न रह जाएंगे. अब यह मेरा नया उपन्यास ‘वयं रक्षामः’ इस दिशा में अगला कदम है. इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्य, दानव, आर्य, अनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्मृत पुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देखकर सारे संसार ने उन्हें अंतरिक्ष का देवता मान लिया था. मैं इस उपन्यास में उन्हें नर-रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूं. ‘वयं रक्षामः’ एक उपन्यास तो अवश्य है; परंतु वास्तव में वह वेद, पुराण, दर्शन और वैदेशिक इतिहास-ग्रंथों का दुस्सह अध्ययन है. संक्षेप में मैंने सब वेद, पुराण, दर्शन, ब्राह्मण और इतिहास के प्राप्तों की एक बड़ी-सी गठरी बांधकर इतिहास-रस में एक डुबकी दे दी है. सबको इतिहास-रस में रँग दिया. फिर भी यह इतिहास-रस का उपन्यास नहीं ‘अतीत-रस’ का उपन्यास है. इतिहास-रस का तो इसमें केवल रंग है, स्वाद है अतीत-रस का.


अब बात उपन्‍यास की. यह कहानी किशोरवय के रावण से शुरू होती है. वह ऋषि पुलस्‍त्‍य का पौत्र और ऋषि विश्रवा का पुत्र था. धनपति कुबेर का मौसेरा भाई. राक्षसों में मातृसत्ता पद्धति चलती थी, इसलिए रावण में उसके नाना और मामा के राक्षस संस्कार थे. वह अपने नाना सुमाली और मामा प्रहस्‍त के कहने और निर्देश पर ही लंका व उसके आसपास के द्वीपों को जीतने के लिए निकला. रावण राक्षस धर्म को मानता था और चाहता था कि पृथ्वी पर जितनी भी जातियां है जैसे वे सब राक्षस धर्म को स्‍वीकार कर ले. राक्षस धर्म को स्वीकार करवाने के लिए रावण का एक ही नारा था- वयं रक्षामः (हम रक्षा करेंगे). जो राक्षस धर्म स्वीकार कर लेते थे, रावण उनकी रक्षा करता था जो उसकी बात नहीं मानते थे वह उनका वध कर देता था.


जैसे, दानेंद्र मकराक्ष पर विजय के बाद रावण खड्ग हवा में ऊंचा उठा कर कहा – “वयं रक्षामः. सब कोई सुनो, आज से यह सुम्बा द्वीप और दानवों के सब द्वीपसमूह रक्ष संस्कृति के अधीन हुए. हम राक्षस इसके अधीश्वर हुए. जो कोई हम से सहमत है उसे अभय, जो सहमत नहीं है, उसका इसी क्षरण शिरच्छेद हो.”



अशोक वाटिका का एक संवाद जरूर पढ़ना चाहिए. मिलने आए रावण से सीता कहती हैं, आप त्रिलोक के स्वामी और सब विद्याओं के भंडार हैं. आपको ज्ञात है कि मैं वरिष्ठ कुल की कन्या और वधू हूं. मैं आर्य कुलवधू हूं. फिर भला मैं, लोकनिन्दित आचरण कैसे कर सकती हूं? आप सद्धर्म का विचार कीजिए और सज्जनों के मार्ग का अनुसरण कीजिए. आप रक्षपति हैं. ‘वयं रक्षाम:’ आपका व्रत है. आपको स्त्रियों की सर्वप्रथमा रक्षा करनी चाहिए.


सीता की बात सुन कर रावण ने कहा, “भद्रे, सीते, मैंने तेरे साथ कोई अधर्माचरण नहीं किया है. राक्षस धर्म को मर्यादा के अनुसार ही तेरा हरण किया है, क्योंकि तेरा पति मेरा बैरी है. उसने अकारण मेरी बहिन सूर्पनखा का अंगभंग किया और उसकी रतियाचना की अवज्ञा की. इसलिए मैंने उसकी स्त्री का हरण कर लिया. इसमें दोष कहां है? फिर तो तुम पर अधिक सह्रदय हूं. मैंने तुमसे बलात्कार नहीं किया. तुमसे दासीकर्म नहीं कराया. तेरा वध भी नहीं किया, न तुझे विक्रय किया अपितु सादर सयत्न रानी की भांति रखा है.


सीता ने कहा, “क्या आपने मेरे पति को युद्ध में जीत कर मेरा हरण किया है? आपने तो छल करके, भिक्षु वनकर, चोर की भांति मुझे चुराया है. आपने पुरुष-सिंह राम और लक्ष्मण की अनुपस्थिति मे मेरा हरण किया, आपका यह कार्य कितना कलंकित था. आपका यह कार्य न धर्म-सम्मत है, न वीरोचित. फिर मैं तो आपको स्वीकार करती नहीं. मेरे यशस्वी पति राज्य-भ्रष्ट नहीं हैं. उन्होने तो स्वेच्छा से राज्य त्यागा है, अभी भी वे ही अवध के स्वामी हैं. अभी भी वे सात अक्षोहिणी सेना के अधिनायक हैं. परंतु इससे भी क्या? आर्यपुत्र का बल उनकी सेना में नहीं; उनकी भुजा में है.


है न बारीक सी बात. अपने धर्म के प्रति निष्‍ठ रावण का आचरण धर्म सम्‍मत नहीं था. यहां निष्‍ठा से बड़ी बात आचरण की है. उसे अपनी रक्ष संस्‍कृति से अलग कोई और धर्म, कोई और संस्‍कृति पसंद नहीं थी. यह भाव ही दानव और देव के मध्‍य संघर्ष का मूल था.


सहज जिज्ञासा होती है, रावण के बाद लंका का क्‍या हुआ? वैसा ही हाल हुआ जैसा राम के बाद अयोध्‍या का हुआ था. लंका विजय के बाद विभीषण राजा बने और लंका में केवल विधवाएं, बच्चे और बूढ़े ही बचे. वे विभीषण को तिरस्कार की दृष्टी से देखने लगे. मंदोदरी ने विभीषण की पत्नी बनना स्वीकार किया लेकिन विभीषण अधिक दिन जी नहीं पाए. उनके वंशज कमजोर निकले. लंका विस्‍तार सिमट गया.


कथा का अंत हुआ. नायकों, खलनायकों का अंत हुआ. जय-पराजय के किस्‍से लिखे गए. सुने गए. काल की गति ज्‍यों कि त्‍यों हैं. गाथाएं भी वैसी ही रची, लिखी जा रही हैं. जब भी नीर क्षीर विवेक वांच्छित था, आज भी यही विवेक प्रणम्‍य है. विजयादशमी पर शुभकामनाएं.

(न्‍यूज 18 हिंदी ब्‍लॉग में प्रकाशित)