Monday, April 19, 2010

पानी गए न ऊबरे

'ब" से बावड़ी
बीचों बीच में एक बिंदु/ जो जीवन का प्रतीक है/ मुख्य आयत के भीतर लहरें हैं/ बाहर हैं सीढ़ियाँ। चारों कोनों पर फूल हैं/ जो जीवन को सुगंध से भर देते हैं। पानी पर आधारित/ एक पूरे जीवन दर्शन को/ इतने सरल सरस ढंग से/ आठ-दस रेखाओं में/उतार पाना कठिन काम है/ लेकिन हमारे समाज का बड़ा हिस्सा/ बहुत सहजता के साथ/ इस बावड़ी को/ गुदने की तरह/ अपने तन पर उकेरता है।




अनुपम मिश्र जी की ये पंक्तियाँ दरअसल उन लोगों का रेखांकन है जिनके जीवन में पानी घुलामिला था।


अब तो यह किस्से कहानी सा लगता है लेकिन उम्रदराज लोग जानते हैं, गाँव के बाहर एक बावड़ी हुआ करती थी। बच्चों के लिए कौतूहल, महिलाओं के लिए आस्था का केन्द्र, बुजुर्गों के लिए यादों का दस्तावेज। जितने लोग उतनी कहानियाँ। एकांत में पेड़ों की शाखों से ढँकी बावड़ियों के कई किस्से मशहूर हैं। कई यहाँ भूतों का ठिकाना मानते हैं तो देवता भी इसी की पाल पर बसते हैं। हर कोई इस बात से सहमत कि बावड़ी में बारह मास पानी रहता है। पानी भी इतना मीठा कि आत्मा तृप्त हो जाए।


बावड़ी, इहलोक में परलोक सुधारने का मौका भी थी। कहा जाता था कि बावड़ी खुदवाना सौ योग्य पुत्रों के बराबर पुण्य देता है। शासक चाहे कोई रहे, एक काम जरूर हुआ, जगह-जगह धर्मशालाएँ बनी, धर्म स्थल बने और खोदी गई बावड़ियाँ। बावड़ियाँ आस्था से जुड़ी तो राजाओं के सुकून का ठौर भी बनी। पानी के संग शीतलता पाने की ही चाह थी कि जयपुर के आभानेरी में राजा चाँद ने विश्व की सबसे बड़ी बावड़ी बनवाई। इसका नाम ही 'चाँद बावड़ी" है। श्री कृष्ण के ब्रज में आज भी आधा दर्जन बावड़ियाँ हैं। लखनऊ के बाड़ा इमामबाड़ा में 5 मंजिला बावड़ी है। शाही हमाम नाम से प्रसिद्ध इस बावड़ी की तीन मंजिलें आज भी पानी में डूबी रहती हैं। किस्सा तो यह भी है कि हजरत निजामुद्दीन औलिया दरगाह में एक ऐसी बावड़ी भी है जिसके पानी से दिये जल उठे थे। सात सौ साल पहले जब गयासुद्दीन तुगलक तुगलकाबाद के निर्माण में व्यस्त था तब श्रमिक हजरत निमाजुद्दीन के लिए काम करते थे। तुगलक ने तब तेल की बिक्री रोक दी तो श्रमिकों ने तेल की जगह पानी से दिये जलाए और बावड़ी का निर्माण किया। अब लोग मानते हैं कि इस पानी से मर्ज दूर होते हंै। माना जाता है कि मंदसौर के पास भादवामाता की बावड़ी में नहाने से लकवा दूर हो जाता है!


आस्था से अलग वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह कि बावड़ी के प्रति पुण्य और अमरता का भाव जगा कर जल संचय के लिए लोक मानस तैयार किया गया। लोक ने बावड़ी को किस्सों, कहावतों और गोदने में शामिल कर जन संचार के माध्यम के रूप में अपना लिया। नई पीढ़ी ने इस संदेश को सुनना बंद कर दिया तो बावड़ियाँ खोने लगी। इनका पानी वृक्षों की शाखाओं के बीच ओझल होता गया। पानी के किनारे रह कर भी लोग प्यासे होते गए।


हर शहर-गाँव में मौजूद बावड़ियों की सुध ले ली जाए तो किस्से भी जीवंत हो उठेंगे और सूखे कंठ भी। जरूरत ककहरे में 'ब" से बावड़ी पढ़ाने की ही है। प्रशासन और बच्चों दोनों के लिए।