Tuesday, October 25, 2022

जिंदगी नोट्स: यूं होता है तो होता क्‍यूं है?


ऐसा क्‍यों होता है कि कुछ लोग बेहद निकट होते है। इतने निकट कि जिनके बिना एक दूसरे के अस्तित्‍व पर शक होता है। वो गाना है न, देखे बिना करार न था, टाइप।

फिर एक दिन वे गुम हो जाते हैं। कपूर जैसे। कभी गंध छूट जाती है पीछे, कभी सोचना पड़ता है उनके बारे में। 

सोचो तो अचरज होता है, अच्‍छा वे भी थे!

लगता है, जिस तरह हम याद करते हैं, साथ के रूप में, सुख-दु:ख के साझेदार के रूप में, गुजरे लम्‍हों के भागीदार के रूप में, याद उन्‍हें भी तो आती होगी? क्‍या वे भी ठिठकते है किसी पल यह सोच कर कि कुछ पीछे छूट तो नहीं गया?

सोचता हूं, किसी रात उनकी भी तो नींद टूटती होगी। यूं ही। तब क्‍या वे भी सोचते होंगे अपनी पोटली में क्‍या रख लाए और क्‍या छोड़ आए?

जैसे, बही खाते मिलाते हैं, जैसे हम जांचते रहते हैं अपने दोषों को, क्‍या वे भी कभी जांचते होंगे?

सोचते होंगे तो क्‍या मिलने को, बतियाने को बेकरार न होते होंगे?  

क्‍या पीछे छूट गई सुवास उन्‍हें बार-बार बाग खिलाने को मजबूर नहीं करती होगी?

जैसा सोचता हूं मैं, जानता हूं, वैसा सोचते हैं कई लोग। फिर वे ही क्‍यों नहीं सोचते वैसा, जैसा दूसरे सोचते हैं उनके बारे में?

ऐसा क्‍यों होता है कि लौट आना हर बार चले जाने से ज्‍यादा मुश्किल होता है? 

जो जाने की हिम्‍मत रखते हैं, वे लौट आने का रास्‍ता क्‍यों नहीं जानते हैं?

लगता था कि जिनके बिना एक कदम भी चल नहीं पाएंगे हम और अब सोचें तो अनुभव होता है कितने मील दूर चले आए हैं। क्‍या वे न सोचते होंगे ऐसा?  

और जब-जब टूटने लगता है ऐसी किसी भी बात से विश्‍वास तब ऐसा क्‍यों होता है कि कोई एक पंक्ति, कोई एक बात, कोई एक घटना, कोई एक व्‍यक्ति फिर से उम्‍मीद का एक दीया जला जाता है। और चुपचाप जली लौ भीतर उजास फैलाने लगती है।

रूकते-रूकते हम फिर चलने लगते हैं। गिरते-गिरते संभलने लगते हैं।

फिर भी लगता है, संभलते-संभलते पुराने सहारे क्‍यों विस्‍मृत होने लगते हैं? एक फोन नंबर डायल करने जितनी दूरी भी तय क्यों नहीं हो पाती है?