छोटी सोच मत रखो. भगवान से लौकी और कद्दू के लिए प्रार्थना न करें, जबकि आपको हर दिल में शुद्ध प्रेम और शुद्ध ज्ञान के लिए प्रार्थना करनी चाहिए.
यह प्रेरक वाक्य श्री मां शारदा देवी (सारदा देवी) का है. शारदा देवी यानी नाम सारदामणि मुखोपाध्याय. उनका परिचय केवल इतना नहीं है कि वे बंगाल के उन्नीसवीं सदी के संत रामकृष्ण परमहंस की पत्नी और आध्यात्मिक सहयात्री थीं, बल्कि वे उस वक्त की सामाजिक उन्नति और मानवीय चेतना के विकास की अग्रदूत भी थीं. रामकृष्ण मठ के अनुयायी उन्हें श्री मां संबोधित करते हैं तो इसका कारण है कि उन्होंने प्राणी मात्र में भेद नहीं किया. फिर चाहे स्वामी विवेकानंद जैसा प्रखर आध्यात्मिक पुरूष सामने हो या डाकू अजमद या कोई चींटी, श्री मां शारदा देवी ने सभी को समान स्नेह और ममता प्रदान की. स्वयं अशिक्षित होने के बावजूद शारदा देवी ने महिलाओं के लिए शिक्षा की वकालत की.शारदा देवी का जन्म कलकत्ता के पास एक छोटे से गांव जयरामबती में 22 दिसंबर 1853 को हुआ था. उस समय की परंपरा के अनुसार पांच साल की उम्र में उनकी शादी रामकृष्ण से हो गई थी. जब वे अठारह वर्ष की हुईं तब हुगली नदी के किनारे स्थित दक्षिणेश्वर काली मंदिर पहुंची जो रामकृष्ण परमहंस की कर्मभूमि है. विवाहित होने के बावजूद दोनों ने गृहस्थ और मठवासी जीवन के आदर्शों को दर्शाते हुए अखंड ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत किया. कहा जाता है कि एक पुजारी के रूप में रामकृष्ण ने शारदा देवी को देवी काली के स्थान पर बैठाया और अनुष्ठानपूर्वक षोडशी पूजा की. रामकृष्ण ने शारदा को दिव्य मां का अवतार माना और उन्हें श्री मां संबोधित किया.
श्री मां शारदा का दिन सुबह 3 बजे शुरू होता था. गंगा में अपना स्नान समाप्त करने के बाद, वह सुबह होने तक मंत्र जप और ध्यान किया करती थीं. ध्यान के घंटों को छोड़कर, उनका अधिकांश समय रामकृष्ण और उनके भक्तों के लिए खाना पकाने में व्यतीत होता था. रामकृष्ण परमहंस के निधन के बाद शारदा देवी धार्मिक आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहीं. रामकृष्ण ने उन्हें अपने निधन के बाद अपना मिशन जारी रखने का आदेश दिया था और चाहते थे कि उनके शिष्य उनके और उनके बीच कोई अंतर न करें. वे अगले चौंतीस वर्षों तक आंदोलन की आध्यात्मिक मार्गदर्शक बनी रहीं.
अमेरिकी सूफी लेखक लेक्स हिक्सन ने अपनी पुस्तक ‘ग्रेट स्वान’ में संत रामकृष्ण परमहंस के साथ मुलाकातों को वर्णन किया है. इस पुस्तक में हिक्सन ने मां शारदा से भेंट के अनुभवों पर भी लिखा है. इसमें दर्ज है कि शारदा देवी को उनकी महिला साथी सुबह तीन बजे न जागने की सलाह देती हैं. शारदा देवी कहती हैं कि सुबह तीन बजे से पहले जागना और आधी रात के बाद ही निवृत्त होना कठिन काम है. लेकिन मैं कैसे ज्यादा सो सकता हूं? मैं प्राणियों की कष्टदायी पीड़ा से भली-भांति परिचित हूं. मेरे दिल की गहराई में चुपचाप दिव्य नाम दोहराने से, यह सार्वभौमिक पीड़ा धीरे-धीरे लालसा में बदल जाती है और अंततः रोशनी बन जाती है. मैं इस स्थिति को इतना स्पष्ट रूप से देखती हूं कि मेरे लिए सोने के लिए प्रार्थना करना बंद करना मुश्किल है, यहां तक कि एक घंटे के लिए भी नहीं. मैं कभी-कभी सोची हूं कि मैं सीमित मानव शरीर के बजाए यदि अनंत दिव्य रूप में प्रकट होती तो शायद पीड़ित प्राणियों के लिए और अधिक करने में अधिक सक्षम होती. वे हर हाल में प्रत्येक जीवित प्राणी की देखभाल करने को महत्व देती थी. एक बार का किस्सा है कि कक्ष में आई चींटी को किसी ने मारना चाहा तो उन्होंने उसे रोक दिया। श्री मां ने कहा कि उस चींटी में उन्हें रामकृष्ण परमहंस की छवि दिखाई दी.
संदर्भ बताते हैं कि जो भी श्री मां के सानिध्य में आया उनकी कृपा का पात्र बना। यूं तो स्वामी रामकृष्ण परमहंस प्रख्यात संत स्वामी विवेकानंद के गुरु थे. स्वामी विवेकानंद अपने गुरु जितना ही बल्कि उनसे कुछ अधिक महत्व गुरु मां शारदा देवी को देते थे. वे अपने जीवन का हर महत्वपूर्ण निर्णय श्री मां की आज्ञा से ही लेते थे. किस्सा है कि जब विश्व धर्म सम्मेलन के लिए अमेरिका जाने का प्रस्ताव आया तो वे श्री मां से आज्ञा लेने पहुंचे. तुरंत कोई उत्तर देने की जगह श्री मां ने कहा कि मैं सोचकर बताती हूं. यह अचरज वाली बात थी. स्वीकृति या अस्वीकृति एक क्षण में ही दी जा सकती थी.
कुछ देर बाद शारदा देवी भोजन पकाने के लिए रसोई में चली गईं. स्वामी विवेकानंद भी साथ थे. उन्होंने सब्जी काटने के लिए चाकू मांगा. स्वामी विवेकानंद चाकू लाकर दे दी. इस प्रक्रिया के तुरंत बाद शारदा देवी ने प्रसन्न हो कर स्वामी विवेकानंद को अमेरिका जाने की अनुमति दे दी. यह घटनाक्रम चौंकाने वाला था. स्वामी विवेकानंद ने प्रश्न किया कि आप तो विचार करने वाली थीं. अब तुरंत ही स्वीकृति कैसे दे दी? इसमें क्या रहस्य है?’
शंका का समाधान करते हुए श्री मां बताया कि चाकू मांग कर उन्होंने असल में परीक्षा ली थी. वे देखना चाहती थी कि विवेकानंद चाकू कैसे देते हैं? वे खुश हुई कि विवेकानंद ने धार वाला हिस्सा अपनी ओर रख कर हत्थे वाला हिस्सा श्री मां की ओर रखा. इससे पता चला कि वे दूसरों की सुरक्षा के लिए स्वयं खतरा उठाने को तैयार हैं.
गुरु रामकृष्ण परमहंस के निधन के उपरांत स्वामी विवेकानंद हमेशा श्री मां की चिंता किया करते थे. अपने गुरुभाई को एक पत्र में उन्होंने लिखा था कि मां कितनी अनमोल हैं इस बात को लोग अभी नहीं समझेंगे. धीरे-धीरे समझेंगे. तुम्हें पता है कि हमारा देश दूसरे देशों के मुकाबले इतना कमजोर और पिछड़ा है क्योंकि यहां शक्ति (नारी) का अपमान किया जाता है.’
श्री मां ने आध्यात्मिक उन्नति के लिए तो मार्ग प्रशस्त किया ही बालिका शिक्षा को लेकर भी वे अत्यधिक आग्रही थीं. 1895 में स्वामी विवेकानंद इंग्लैंड गए थे तब उनके विचारों से एक युवती मार्गरेट नोबल प्रभावित हुई थी. 28 जनवरी 1898 को मार्गरेट नोबल भारत आईं और यहीं की हो कर रह गईं. 25 मार्च 1898 को स्वामी विवेकानंद ने उन्हें ‘ब्रह्मचारिणी’ व्रत की दीक्षा देकर उनका नाम ‘निवेदिता’ रखा. भगिनी निवेदिता ने उसी वर्ष कोलकाता मे ‘निवेदिता बालिका विद्यालय’ की स्थापना की. निवेदिता स्कूल का उद्घाटन श्री मां शारदा ने किया था. उन्होंने भगिनी निवेदिता को अपनी पुत्री की तरह स्नेह दिया. भगिनी निवेदिता ने अपने गुरु की प्रेरणा से ऐसे समय में स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में कार्य किया जब संभ्रांत लोग भी अपनी लड़कियों को स्कूल भेजना पसंद नहीं करते थे.
मां शारदा द्वारा पीडि़तों की सेवा और भेद न करने के कई किस्से प्रचलित हैं. जैसे कहा जाता है कि विवाह उपरांत जब वे 18 वर्ष की उम्र में पित रामकृष्ण के पास आ रही थीं तो रास्ते में घना जंगल आता था. पैर में मोच के कारण वे तेज नहीं चल पा रही थीं. समूह के लोगों पर खतरा भांप कर उन्होंने उन्हें जाने के लिए कह दिया. वे अकेली रह गई थीं. रात में रास्ते में डाकुओं ने घेर लिया. जब डाकुओं ने पूछा कि वे अकेली क्यों हैं, तो उत्तर दिया कि अकेली कहां है, उनके पिता और भाई तो हैं न साथ में. डाकुओं के लिए यह आश्चर्य का विषय था कि एक महिला उनसे डर नहीं रही है बल्कि उन्हें भाई और पिता कह रही हैं. डाकुओं की आंखें भर आईं. श्री मां के पैर की स्थिति देख डाकुओं ने उनसे अपने घर चलने का आग्रह किया. छुआछूत को किनारे रख कर वे डाकुओं के घर में रात रूकी. डाकु सम्मान उन्हें लेकर श्री रामकृष्ण के निवास पर पहुंचे.
श्री मां की शरण में आने वाला हर व्यक्ति उनके लिये पुत्रवत था. अनेक डाकू बदमाश उनके वात्सल्य और ममता भरे व्यवहार से सुधार के रास्ते पर चलने लगे थे. ऐसा ही एक किस्सा है कि एक डाकू अजमद का. मां शारदा ने अमजद के द्वारा भक्तिपूर्वक लाए हुए फल-फूल को स्वीकार किया और उससे कभी घृणा नहीं की. यह अपनापन सब देखकर अमजद और उसके साथी आनंद से भर गए. एक दिन अमजद को मां ने भोजन पर बुलाया. जब भतीजी नलिनी ने छुआछूत का ध्यान रख कर अमजद की थाली में रोटी दूर से फेंक कर दद तो श्री मां ने उन्हें रोकते हुए कहा कि इस तरह फेंक कर परोसने से किसको अच्छा लगेगा? क्या वह प्रसन्नता से भोजन कर पाएगा? श्री मां ने स्वयं अपने हाथों से अमजद का परोस कर खाना खिलाया.
ये सब उदाहरण भले ही श्रद्धा में कहे गए किस्सों की तरह लगे लेकिन समझा जाना चाहिए कि 19 वीं और 20 वीं शताब्दी के भारतीय खासकर बंगाली समाज में भेदभाव और छुआछूत की क्या स्थिति थी और किस तरह अपने आचरण और व्यवहार से संतों ने इस भेद को मिटाने का कार्य किया है. श्री मां शारदा ने कोई किताब नहीं लिखी लेकिन शिष्यों ने उनके कथनों को संग्रहित किया है. उनका जीवन ही उनका संदेश था. मानवता की सेवा करते हुए कठिन परिश्रम एवं बार-बार मलेरिया के कारण उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता गया और 20 जुलाई 1920 को श्री मां शारदा ने देह त्याग दी. आज सौ बरसों बाद भी जब उनके समय जैसी परिस्थितियां अपने आसपास पाते हैं तो उनका अंतिम कथन याद आता है. मृत्यु से पहले मां शारदा ने अपने दुःखी भक्तों को सलाह दी थी:
‘यदि आप मन की शांति चाहते हैं, तो दूसरों में दोष न ढूंढें. बल्कि अपने दोष देखें. पूरी दुनिया को अपना बनाना सीखो. कोई भी पराया नहीं है मेरे बच्चे: यह पूरी दुनिया तुम्हारी अपनी है.’
(न्यूज 18 में प्रकाशित ब्लॉग)