Monday, April 26, 2010

पानी गए न ऊबरे

दो घूँट पानी
'पानी पिलाया?" दो शब्दों का यह छोटा सा सवाल अपने भीतर ग्रंथों के बराबर का जवाब समेटे हुए हैं। एक 'हाँ" सुनते ही प्यासे कंठ के तृप्त होने के बाद चेहरे पर उभरे भाव याद हो आते हैं और जब इसका प्रयोग मुहावरे के रूप में हो तो जवाब सुन दूसरे पक्ष की हार सुकून देती है। पानी है ही ऐसी चीज। निर्जीव में प्राणों का संचार कर देने वाला पानी असल आब है। आजकल तो नहीं दिखता लेकिन कुछ बरस पहले तक पानी पिलाने का सुकून हर गली-चौराहे पर दिखाई देता था। लाल कपड़ों से ढँक की करीने से सजे मटके, जमीन में आधी गढ़ी काली नांद ताकि हरदम पानी ठंडा रहे। 9 बजते-बजते जब दिन चढ़ने लगता प्याऊ पर शीतलता बढ़ती जाती। चाहे खरीदी करने निकलो, यात्रा पर या यूँ ही मटरगश्ती करने, प्यास की क्या फिक्र? कहीं दो पल रूक कर मीठा पानी पी लेंगे। कहीं रंग-बिरंगे प्लास्टिक के गिलास, तो कहीं लोहे की सांकल से बँधा स्टील का गिलास। कहीं तो गिलास का सुख केवल कुछ खास लोगों को ही नसीब होता था बाकि तो थोड़ा झुक कर हाथ की ओक से तृप्त होते थे। क्या दृश्य होता था। पतलून या साड़ी को भीगने से बचाने के लिए पैरों में दबा लिया जाता था फिर भी पैर तो भीग ही जाते थे। पानी पी कर गीले हाथों को सिर पर फेर कर आनंद की अभिव्यक्ति होती थी। क्या अद्भुत अनुभव होता था शिख से नख तक शीतलता पाने का।

आज घर से निकलते वक्त पहली चिंता होती है साथ में पानी लेने की। अधिकांश तो यह चिंता नहीं करते। कदम-कदम पर पाऊच, बोतल और शीतल पेय की उपलब्धता है। सीधे मुँह से लगा कर पिए जा रहे पेय में मेरा दिल प्याऊ सी शीतलता खोजता है, नख से शीश को तृप्त करने वाली शीतलता।

चिंता केवल इतनी ही नहीं है कि बाजार शीतलता बेच रहा है, बड़ी चिंता यह है कि हमारे समाज से प्याऊ खत्म हो रहे हैं और खत्म हो रहे हैं पानी पिलाने वाले। सब चलता है कहने वाले लोगों में कहाँ वह साहस जो गलत काम पर किसी को पानी पिला दे या किसी के कंठ को तर करने के लिए 'कमाने के समय" में प्याऊ पर जलसेवा करे?

किस्सा है कि गुरू गोविंद सिंह के भाई घनैयाजी संघर्ष के दिनों में गुरू सेना को पानी पिलाया करते थे। इस दौरान जब विरोधी सेना का प्यासा सिपाही मिल जाता तो वे उसे भी पानी पिला देते थे। गुरू गोविंदसिंह से शिकायत हुई तो भाई घनैयाजी ने जवाब दिया मुझे तो प्यासा दिखाई देता है। अपने या दुश्मन में भेद कैसे करूँ?

1929 में जब महात्मा गाँधी ने जातीय भेदभाव को खत्म करने की ठानी तो कहा कि उच्च वर्ग के लोग हरिजनों को अपने कुएँ की पाल पर बुलाकर पानी पिलाएँ। यह आह्वान जन चेतना का कारक बन गया था। कितना अच्छा हो कि ऐसे ही किरदार बाजार में खड़े हों लेकिन उनके हाथ में लुकाठी नहीं पानी से भरा पात्र हो।

Monday, April 19, 2010

पानी गए न ऊबरे

'ब" से बावड़ी
बीचों बीच में एक बिंदु/ जो जीवन का प्रतीक है/ मुख्य आयत के भीतर लहरें हैं/ बाहर हैं सीढ़ियाँ। चारों कोनों पर फूल हैं/ जो जीवन को सुगंध से भर देते हैं। पानी पर आधारित/ एक पूरे जीवन दर्शन को/ इतने सरल सरस ढंग से/ आठ-दस रेखाओं में/उतार पाना कठिन काम है/ लेकिन हमारे समाज का बड़ा हिस्सा/ बहुत सहजता के साथ/ इस बावड़ी को/ गुदने की तरह/ अपने तन पर उकेरता है।




अनुपम मिश्र जी की ये पंक्तियाँ दरअसल उन लोगों का रेखांकन है जिनके जीवन में पानी घुलामिला था।


अब तो यह किस्से कहानी सा लगता है लेकिन उम्रदराज लोग जानते हैं, गाँव के बाहर एक बावड़ी हुआ करती थी। बच्चों के लिए कौतूहल, महिलाओं के लिए आस्था का केन्द्र, बुजुर्गों के लिए यादों का दस्तावेज। जितने लोग उतनी कहानियाँ। एकांत में पेड़ों की शाखों से ढँकी बावड़ियों के कई किस्से मशहूर हैं। कई यहाँ भूतों का ठिकाना मानते हैं तो देवता भी इसी की पाल पर बसते हैं। हर कोई इस बात से सहमत कि बावड़ी में बारह मास पानी रहता है। पानी भी इतना मीठा कि आत्मा तृप्त हो जाए।


बावड़ी, इहलोक में परलोक सुधारने का मौका भी थी। कहा जाता था कि बावड़ी खुदवाना सौ योग्य पुत्रों के बराबर पुण्य देता है। शासक चाहे कोई रहे, एक काम जरूर हुआ, जगह-जगह धर्मशालाएँ बनी, धर्म स्थल बने और खोदी गई बावड़ियाँ। बावड़ियाँ आस्था से जुड़ी तो राजाओं के सुकून का ठौर भी बनी। पानी के संग शीतलता पाने की ही चाह थी कि जयपुर के आभानेरी में राजा चाँद ने विश्व की सबसे बड़ी बावड़ी बनवाई। इसका नाम ही 'चाँद बावड़ी" है। श्री कृष्ण के ब्रज में आज भी आधा दर्जन बावड़ियाँ हैं। लखनऊ के बाड़ा इमामबाड़ा में 5 मंजिला बावड़ी है। शाही हमाम नाम से प्रसिद्ध इस बावड़ी की तीन मंजिलें आज भी पानी में डूबी रहती हैं। किस्सा तो यह भी है कि हजरत निजामुद्दीन औलिया दरगाह में एक ऐसी बावड़ी भी है जिसके पानी से दिये जल उठे थे। सात सौ साल पहले जब गयासुद्दीन तुगलक तुगलकाबाद के निर्माण में व्यस्त था तब श्रमिक हजरत निमाजुद्दीन के लिए काम करते थे। तुगलक ने तब तेल की बिक्री रोक दी तो श्रमिकों ने तेल की जगह पानी से दिये जलाए और बावड़ी का निर्माण किया। अब लोग मानते हैं कि इस पानी से मर्ज दूर होते हंै। माना जाता है कि मंदसौर के पास भादवामाता की बावड़ी में नहाने से लकवा दूर हो जाता है!


आस्था से अलग वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह कि बावड़ी के प्रति पुण्य और अमरता का भाव जगा कर जल संचय के लिए लोक मानस तैयार किया गया। लोक ने बावड़ी को किस्सों, कहावतों और गोदने में शामिल कर जन संचार के माध्यम के रूप में अपना लिया। नई पीढ़ी ने इस संदेश को सुनना बंद कर दिया तो बावड़ियाँ खोने लगी। इनका पानी वृक्षों की शाखाओं के बीच ओझल होता गया। पानी के किनारे रह कर भी लोग प्यासे होते गए।


हर शहर-गाँव में मौजूद बावड़ियों की सुध ले ली जाए तो किस्से भी जीवंत हो उठेंगे और सूखे कंठ भी। जरूरत ककहरे में 'ब" से बावड़ी पढ़ाने की ही है। प्रशासन और बच्चों दोनों के लिए।

Thursday, April 15, 2010

बलात्कार...फिर भी जलाया...

बैतूल जिले से अपने परिवार के साथ गेहूं कटाई के लिए इटारसी आई आदिवासी युवती को बलात्कार के बाद जला दिया गया। यह घटना इटारसी के पड़ोसी गांव सोमलवाड़ा कला में बुध्ावार की सुबह हुई।
सरकारी अस्पताल में भर्ती थाना सारणी निवासी 18 वर्षीय युवती उसके ही मुंह बोले जीजा जीलू की हवस का शिकार बन गई । युवती अपने परिजनों के साथ 15 दिन पूर्व सोमलवाड़ा कला गांव में गेहूं कटाई के लिए आई थी। पुलिस के अनुसार बुधवार की सुबह 5 बजे युवती अपने तीन साथियों सविता, विनोद और जीलू के साथ ट्रेक्टर-ट्राली पर सवार होकर राजकुमार माल्हा के खेत मंे पहुंचे। जहां चारों ने ट्राली में भूसा भरा, सविता और विनोद तो ट्रेक्टर-ट्राली के साथ वापस लौट आए। जीलू ने खेत में अकेला पाकर युवती से जोर जबरदस्ती की और जब युवती ने यह बात अपने परिवार को बताने की धमकी दी तो उसके मुंहबोले जीजा और एक और साथी ने खेत की नरवाई में आग लगाकर बलात्कार की शिकार युवती को आग में धकेल दिया। युवती बुरी तरह झुलस गई ।
पुलिस ने आरोपी के खिलाफ धारा 376, 307 का अपराध दर्ज किया है । आरोपी की तलाश में पुलिस दल को उसके गांव और अन्य संभावित ठिकानों पर भेजा गया है।


एक ओर युवती पुरूष हैवानियता का शिकार हुई। मध्यप्रदेश में युवतियों, बच्चियों से पहले छेड़छाड़ और विरोध्ा करने पर उन्हें जला देने की घटनाएँ तेजी से बढ़ती जा रही है। नेशनल क्राइम ब्यूरो की माने तो साल 2007 में सबसे ज्यादा 3010 बलात्कार मध्यप्रदेश में हुए थे। बच्चों के साथ बलात्कार में भी मध्यप्रदेश ही अव्वल (892)है। अब मामले बढ़ रहे हैं जब जोर जर्बदस्ती किसी के साथ बलात्कार का प्रयास करो, और वह जब इंकार कर दे तो उसे आग के हवाले कर दो। वाह रे पुरूष !!!

आज तो शहर में बेटी का होना माता-पिता के लिए (अफसोस) सबसे बड़ा बोझ हो गया है। पहले तो बेटी के जन्म पर लोग दुख मनाते थे कि दहेज देना होगा। इस ध्ाारणा को बदलने में कितना ही जोर लगाया लेकिन हम पूरी तरह कामयाब नहीं हुए और अब... माता पिता बेटी के जन्म पर सोचते हैं कि इसकी सुरक्षा कैसे करेंगे?

कितना त्रासद होता होगा उन बेटियों के लिए जिन्हें केवल इसलिए घर में कैद कर दिया जाता है कि उनके काका, मामा, भाई, कोई सगा या कोई परिचित या कोई 'आँखवाला" (जिनकी बुरी नजर इन पड़ जाए) इन्हें अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। मासूम बच्चियाँ आँगन में खेल नहीं सकती, फूदक नहीं सकती और अपने भाई जितने बड़े सपने नहीं देख सकती। सपने देखने और उन्हें पूरा करने का हक उन्हें प्रकृति ने दिया है, संविध्ाान भी इसकी पुष्टि करता है लेकिन समाज उन्हें बराबरी का यह अध्ािकार नहीं दे पाया। मैं ऐसे कई परिवारों को जानता हूँ जो बेटियों कैद में रखने के हिमायती हैं। पहले वेे पराया ध्ान मान कर सहेजते थे अब बदनामी और असुरक्षा के भय से

ये हाल तो शहरों के हैं। गाँव अभी भी शहरों की तुलना में कई बुराइयों से बचे हुए लेकिन लड़कियाँ यहाँ भी बदकिस्मत निकली। उनके लिए गाँव में भी वैसे ही हालात हैं जैसे शहरों में। यानि पढ़ाई-लिखाई का कोई असर नहीं। हम किसी के स्वाभिमान को कुचलेंगे सो कुचलेंगे। अगर लड़की ने इच्छा का पालन नहीं किया तो सभी जगह एक ही कानून- उसे जला दो।

ऐसी घटनाएँ पीड़ा देती है। दुख है कि समाज में लिंगानुपात का अंतर बढ़ रहा है और लड़कियों की मुसीबतें बढ़ती जा रही हैं।

मुझे एक साथी ने आपबीती बताई थी- मैंने कक्षा सातवीं की किताब में एक कहानी पढ़ी थी-'लड़की हूँ ना। इस कहानी में पढ़ा था कि एक लड़की को उसकी माता लड़की होने के लिए प्रताड़ित करती थी। सारा दोष उसकी कहा जाता था। भाई फेल हो तो भी दोषी वह, भाई का पेट दुखे तो भी दोषी वह। एक दिन किसी ने पूछ लिया- तुम्हे दुख नहीं होता तुम्हारी माँ तुम्हें पिटती है और भाई को दुलार करती है। लड़की ने जवाब दिया-नहीं। मैं लड़की हूँ ना।

कहानी सुनाने के बाद उस युवती ने बताया कि उसने भी घर जा कर अपनी माँ के कार्य व्यवहार को गौर से देखा था और यह जानने का प्रयास किया था कि उसके भाई को लड़का होने के क्या फायदे मिल रहे हैं और उसे लड़की होने के क्या नुकसान हैं।"

इस आपबीती से इतना तो पता चलता है कि घटनाएँ बहुत देर तक पीछा करती हैं। उन बच्चियों का क्या होता होगा जिनकी इच्छा को रौंद दिया जाता है, बेरहमी से।
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वर्ष 2007 में बलात्कार-नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो

3010-मध्यप्रदेश

2106-प बंगाल

1648-उत्तर प्रदेश

11555-बिहार


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बाल अपराध दर्ज मामले-2007, नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो

मध्यप्रदेश-4290

महाराष्ट्र-2707

उत्तप्रदेश-2248

दिल्ली-2019
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बच्चों के साथ बलात्कार-2008, गृह मंत्रालय के आंकड़े

मध्यप्रदेश-892

महाराष्ट्र-690

राजस्थान-420

आंध्रप्रदेश-412

छत्तीसगढ़-411

दिल्ली-301

Monday, April 12, 2010

पानी गए न ऊबरे//

...वो सुराही ... वो यादें
एक शेर है-'नए घड़े के पानी से जब मीठी खुशबू आती है, यूँ लगता है मुझको जैसे तेरी खुशबू आती है।" अब तो लगता है फ्रीज और कूलर ने प्रकृति की यह मीठी सुगंध ही छीन ली जैसे। यकीन नहीं आता तो जरा आस पड़ोस में देख लीजिए, कितने लोग हैं जो ठंडे पानी के लिए मटकों का प्रयोग करते हैं। भोपाल में ही कुछ बरस पहले तक हाथ ठेलों पर मटके सजाए लोग कॉलोनियों में फेरी लगाते थे। अब यह कम हो गया है। महेश कुम्हार बताते हैं -'अब बुजुर्गों के कहने पर ही मटके लिए जाते हैं। नई पीढ़ी तो बोतलबंद पानी पीती है। कभी बाजार से खरीद कर या फ्रीज से निकाल कर। इसी कारण बिक्री गिर गई है साहब।"

और सुराही...सवाल छूटते ही जवाब मिला- 'एक- दो लोग ही खरीदते हैं। वो दिन कहाँ रहे जब हर घर में मटका और सुराही होती थी। "

मुझे वो दिन याद हो आए जब गर्मियों की रातों में छतें गुलजार होती थी। गाँव हो या शहर हर जगह की यही तस्वीर। बिस्तर के किनारे होती थी एक सुराही। सुराही... जितना सुरीला इसका नाम है उतना ही बाँकपन इसके आकार में भी। सुराहीदार गर्दन तो खूबसूरती का पैमाना भी है। जितना ठंडा और मीठा सुराही का पानी होता था, उतना ही बातें और रिश्ते भी मीठे हुआ करते थे। शौकियाँ लोगों के लिए नई डिजाइन की सुराही लाना जैसे अघोषित स्पर्धा थी। सुराही की अकेली ठंडक से बात न बने तो उसके लिए पैरहन तैयार किए जाते। टाट के इस पैरहन को जतन से भिगोया जाता, ताकि पानी और ठंडा हो सके।

फिर दिन बदले। लकड़ी की चारपाई की जगह पलंग सजे और उनके पास पंखों की जगह तय हो गई। सुराही पीछे सरकती गई। फिर तो जनाब फ्रिज आया और सुराही की जगह बोतल ने ले ली। क्या गिलास और क्या सुराही। फ्रिज खोल कर बोतल निकालना और सीधे गट-गट पानी पी जाना...जैसे शान की बात हो गई। मटके, सुराही, सफर में साथ ले जाई जाने वाली छागल, हाथ के पंखे सब गायब होते गए...।

अब तो पंखों-कूलर को भी एसी ने बाहर का रास्ता दिखला दिया है। अब बंद कमरें सो कर जागते हैं तो शरीर अकड़ जाता है। फ्रिज और वॉटर कूलर का पानी दाँत-गला खराब कर रहा है लेकिन फिर भी सुराही याद नहीं आती। मिट्टी की वो सुराही, वो मटकी जो प्राकृतिक फ्रिज है, जो गला खराब नहीं करता और जो बिजली भी बचाती है, जो ग्लोबल वार्मिंग की चिंता कम करती है और सबसे बड़ी बात ठंडे पानी से मीठे-सौंधे रिश्ते बनाती है।

Friday, April 9, 2010

किताब पढकर रोना

रघुवीर सहाय की कविता-



रोया हूं मैं भी किताब पढकर के

पर अब याद नहीं कौन-सी

शायद वह कोई वृत्तांत था

पात्र जिसके अनेक

बनते थे चारों तरफ से मंडराते हुए आते थे

पढता जाता और रोता जाता था मैं

क्षण भर में सहसा पहचाना

यह पढ्ता कुछ और हूं

रोता कुछ और हूं

दोनों जुड गये हैं पढना किताब का

और रोना मेरे व्यक्ति का



लेकिन मैने जो पढा था

उसे नहीं रोया था

पढने ने तो मुझमें रोने का बल दिया

दुख मैने पाया था बाहर किताब के जीवन से



पढ्ता जाता और रोता जाता था मैं

जो पढ्ता हूं उस पर मैं नही रोता हूं

बाहर किताब के जीवन से पाता हूं

रोने का कारण मैं

पर किताब रोना संभव बनाती है.

Thursday, April 1, 2010

पानी गए न ऊबरे//

...जब भी मुझे प्यास लगेगी।



-मुबंई में वाहन ध्ाोने के लिए 50 लाख लीटर पानी खर्च कर दिया जाता है। भोपाल में हर दिन किेसी न किसी जगह लीकेज होने से करीब 500 लीटर पानी रोजाना बह जाता है।

- इंसान को पीने के लिए 3 लीटर और पशुओं को 50 लीटर पानी की जरूरत होती है। जबकि बाथटब में नहाते समय 300 से 500 लीटर और सामान्य से नहाने में 100 से 150 लीटर पानी खर्च किया जाता है। ब्रश करते समय नल खुला रख दिया तो 5 मिनट में करीब 25 से 30 लीटर पानी बर्बाद हो जाता है।

- यूनिसेफ और विश्व बैंक की 2009 की रिपोर्ट बताती है कि हर पाँच में से एक बच्चे की मौत डायरिया के कारण होती है। यानि हर दिन करीब 690 नन्हे 'पानी" के कारण हमारी दुनिया में चले जाते हैं। इनमें से 39 प्रतिशत बच्चों की मौत रोकी जा सकती है, अगर उन्हंे समय पर साफ पानी मिल जाए।

- गोल गोल रानी कितना-कितना पानी...बचपन के खेल में दोहराया जाना वाला यह गीत असल जीवन में पानी की कड़वी हकीकत बन गया है। हर सुबह पानी जुटाने की कवायद से शुरू होती है और हर रात पानी की चिंता के साथ ढ़लती है। सामान्यतया हर शहर में अब पानी सबसे बड़ी चिंता में शामिल है। जो गाँव और कस्बे निर्मल नीर के ठिकाने थे वहाँ भी आज पानी खरीद कर पिया जा रहा है। पानी पर पानी की तरह ही पैसा खर्च करने के बाद भी हमने उसे पैसे की तरह सहेजने में रूचि नहीं दिखाई। वरना क्या यह होता कि तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की घोषणाओं और निर्देशों के बाद भी आम घरों में तो दूर सरकारी भवनों में भी रेन वॉटर हार्वेस्टिंग के इंतजाम नहीं करवाए जाते!

- पहले नाम के लिए राजा-महाराजा गाँव-गाँव, डगर-डगर कुँए खुदवाते थे, बावड़िया और ताल बनवाते थे। समाज भी उनका सहायक और पहरेदार होता था। राजे महाराजे गए तो नए जमाने के साहूकार प्याऊ लगवाने लगे...अब पानी भी साहूकारी हो गया है।

- जमीन को भी कहाँ छोड़ा। ध्ाड़ध्ाड़ करती मशीनों से ध्ारती का ऐसा कलेजा छलनी किया कि नलकूप खनन प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। पड़ोसी ने नलकूप खनन करवाया तो हमारे घर तो खनन अनिवार्य है, फिर चाहे पानी बर्बाद हो या पाताल में जाए।

- दरअसल पानी हर जगह सूख रहा है। हमारी आँखों और आत्मा का पानी भी सूख रहा है। तभी तो पिछले छह माह में इतनी ही लाड़लियों को कुछ लोगों ने जला डाला, क्योंकि वे अपने साथ छेड़छाड़ का विरोध्ा कर रही थीं! क्या अपने स्व को बचाना इतना बड़ा गुनाह है? - लड़कियों की संख्या कम होने की चिंता कुछ सालों पहले ही हमारी चर्चाओं में शामिल हुई। ज्यादा दिन नहीं हुए जब हमने कहना शुरू किया था कि देखना एक दिन लड़कों को शादी के लिए लड़की नहीं मिलेगी। आज यह सच हो रहा है। परिचय सम्मेलनों में लड़कों की तुलना में लड़कियों को संख्या आध्ाी होती है...तो क्या अब बच्चियों का अपहरण होगा या उन्हें इंकार की सजा के रूप में जला कर मार डाला जाएगा ?

- बाबा रहीम सच कह गए थे कि बिना पानी के सब सूना है...फिलहाल आलोक ध्ान्वा की एक कविता याद आ रही है-



आदमी तो आदमी

मैं तो पानी के बारे में सोचता था

कि पानी को भारत में बसना सिखाऊंगा।

सोचता था

पानी होगा आसान

पूरब जैसा

पुआल के टोप जैसा

मोम की रोशनी जैसा।

यह मिट्टी के घड़े में भरा रहेगा

जब भी मुझे प्यास लगेगी।