Saturday, February 4, 2023

'फिर छिड़ी रात बात फूलों की' वाले शायर के एक शेर ने बदल दिया था निजाम

‘रात भर आपकी याद आती रही’, ‘फिर छिड़ी रात बात फूलों की’ और ‘इक चमेली के मंडुए तले’ जैसे गीत आपको याद तो होंगे. क्‍या इनके रचनाकार को जानते हैं? शायद नहीं. ये गीत शायर मखदूम मोहिउद्दीन के लिखे हुए हैं. खासबात यह है कि उन्‍होंने कभी फिल्‍मों के लिए लिखा ही नहीं था. उनकी रचनाओं की लोकप्रियता ऐसी थी कि फिल्‍मकारों ने शायरी का बतौर गीत इस्‍तेमाल किया. वे तो एक ऐसे शायर थे जो एक हाथ में कलम रखते थे तो दूसरे हाथ में बंदूक.

बंदूक? जी हां, आपने सही पढ़ा. वे ऐसे शायर थे जिन्‍होंने लिखा तो फूलों की बात को शब्‍द दिए और हैदराबाद को आजाद भारत में मिलाने की बारी आई तो निजाम के खिलाफ बंदूक थाम ली. जो इतना मजाकिया थे कि खुद के किस्‍सों को दिलचस्‍पी से सुनाते थे और मौका आने पर मुशायरे में शायरा को हमले से बचाने के लिए चीते सी फुर्ती लिए एक शख्‍स से भिड़ गए थे.

आज उन्‍हीं मखदूम मोहियुद्दीन की जयंती है और इस दिन उनकी रचनाओं और साहित्‍य जगत में फैले उनके किस्‍सों की बात करते हैं. मखदूम मोहिउद्दीन का जन्‍म 4 फरवरी 1908 को हैदराबाद रियासत के अंडोल गांव (अब जिला मेडक) में हुआ था. बचपन में पिता के देहांत के बाद चाचा ने उनकी परवरिश की. शायरी के लिए याद किए जाने वाले मखदूम मोहिउद्दीन वास्‍तव में कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के कार्यकर्ता पहले थे, शायर बाद में. लाल झंडे तले क्रां‍ति के लिए उन्‍होंने शायरी को ‘टूल’ बनाया. आजादी के संघर्ष और फिर हैदराबाद राज्य के निजाम के खिलाफ 1946-1947 के तेलंगाना विद्रोह में अपनी शायरी से क्रांति जगाने का काम किया. नर्म मिजाज शायर मखदूम मोहिउद्दीन निजाम की सेना का भी मुकाबला करने के लिए कलम के साथ बंदूक लिए भी उठाए घूमते थे.

कलम और बंदूक की धमक इतनी थी कि निजाम ने उन पर पांच हजार का इनाम घोषित किया था. इतना ही नहीं हैदराबाद के तत्कालीन निजाम मीर उस्मान अली खान ने लोगों को भड़काने का आरोप लगाकर मख़दूम को जान से मारने का आदेश दिया था.

कलम की ताकत से भी मखदूम ने निजाम को झुकने पर मजबूर कर दिया था. यह वाकया मखदूम के खास दोस्‍त मोहम्मद मेहदी ने उनके प्रशंसकों बताया है. उन दिनों हर स्कूल में पहले निजाम की शान में एक तराना पढ़ा जाता था. मखदूम ने इस तराने के खिलाफ एक शेर लिख दिया जो बहुत प्रसिद्द हो गया. लोगों ने निजाम को बताया कि मखदूम ने एक शेर लिखा है और जब जब निजाम की तारीफ में वह तराना गाया जाता है तो लोग मखदूम का शेर याद कर हंसने लगते हैं. अपनी हंसी उड़ती देख कर निजाम ने तराना गाने का नियम खत्‍म कर दिया.

मखदूम के तेलंगाना में किसानों के साथ किए गए संघर्ष को पर उर्दू के उपन्यासकार कृश्न चंदर ने ‘जब खेत जागे’ उपन्यास लिखा है. इस पर गौतम घोष ने तेलुगू में ‘मां भूमि’ फिल्म बनाई. विमल रॉय ने जब चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की मशहूर कहानी पर ‘उसने कहा था’ फिल्म बनाई तो उसमें मखदूम की नज्‍म ‘जाने वाले सिपाही से पूछो’ का उपयोग गीत के रूप में किया था. युद्ध के लिए सिपाही अपने परिवार को छोड़ कर जा रहा है. यह नज्‍म उसके जाने के समय के माहौल को बताती है.

जाने वाले सिपाही से पूछो
वो कहां जा रहा है

कौन दुखिया है जो गा रही है
भूखे बच्‍चों को बहला रही है
लाश जलने की बू आ रही है
ज़िंदगी है कि चिल्‍ला रही है.

कितने सहमे हुए हैं नजारे
कैसे डर डर के चलते हैं तारे
क्‍या जवानी का खून हो रहा है
सुर्ख हैं आंचलों के किनारे.

गिर रहा है सियाही का डेरा
हो रहा है मेरी जाँ सवेरा
ओ वतन छोड़कर जाने वाले
खुल गया इंकलाबी फरेरा.

‘सरमाया मखदूम’ पुस्‍तक में मखदूम मोहिउद्दीन के दोस्‍तों और करीबियों ने उनकी जीवन यात्रा पर अपने अनुभव लिखे हैं. ‘मखदूम मोहिउद्दीन: यादों में बसा आदमी’ शीर्षक से लेख में मुज्‍तबा हुसैन लिखते हैं कि खुद अपना मजाक उड़ाने में उनका कोई सानी नहीं था. मुज्‍तबा हुसैन उनके एक किस्से का जिक्र करते हैं.

एक बार मखदूम अलसुबह ओरिएंट होटल पहुंचे और बैरा से पूछा, निहारी है?
बैरा बोला, ‘नहीं है.‘
मखदूम ने पूछा, ‘आमलेट है?’
बैरा बोला, ‘नहीं.’
मखदूम ने फिर पूछा, ‘खाने के लिए कुछ है?’
बैरे ने जवाब दिया, ‘इस वक़्त तो कुछ नहीं है.‘
इस पर मखदूम बोले, ‘ये होटल है या हमारा घर कि यहां कुछ भी नहीं है!’

उम्र के आखिरी चरण में भी वे इंकलाबी थे. उनके इंतकाल से दो बरस पहले की बात है. हैदराबाद में एक बड़ा मुशायरा बरपा था. मखदूम डायस पर बैठे थे और एक शाइरा माइक पर कलाम सुना रही थी. डायस के नीचे एक तगड़ा शख्स नशे में धुत्त बैठा शायरा को घूरे जा रहा था. फिर उसके जी में ना जाने क्या आई कि उसने अचानक शायरा की तरफ छलांग लगाई. मखदूम ने भी चीते जैसी फुर्ती के साथ उस शख्स की तरफ़ छलांग लगाई. सेकंडों में उस शख्स को डायस से नीचे गिराया और उसके सीने पर सवार हो गए. मैं कैसे बताऊं कि बीस-पच्चीस बरस बाद मखदूम के अंदर छिपे हुए इंकलाबी को फिर एक बार देखकर कितनी खुशी हुई. लोगों ने मखदूम की इस अदा की दाद भी उसी तरह दी जिस तरह उनके कलाम पर दिया करते थे.

मखदूम अक्सर अपने परिचितों को जानबूझकर छेड़ते भी रहते थे. ऐसा ही एक किस्सा है पेंटर को दी चुनौती का. मुज्‍तबा हुसैन ने लिखा है कि एक रात सुलेमान अरीब के घर हैदराबाद के मशहूर आर्टिस्ट सईद बिन मुहम्मद आए हुए थे. मखदूम ने उनसे कहा कि शायरी पेंटिंग से कहीं ज्यादा ताकतवर माध्‍यम है.

सईद मुहम्मद ने जवाब दिया, पेंटिंग और शायरी का क्‍या मुकाबला? तुम जो चीज शायरी में नहीं कह सकते हो वह हम रंगों में कह देते हैं. तुम कहो तो सारी उर्दू शायरी को पेंट करके रख दूं.

मखदूम बोले, सारी उर्दू शायरी तो बहुत बड़ी बात है, तुम इस मामूली मिस्रे को ही पेंट कर दो. मिसरा था- ‘पंखुड़ी इक गुलाब की सी है.’

सईद बिन मुहम्मद बोले, ‘यह कौन सी मुश्किल बात है. मैं कैनवास पर गुलाब
की एक पंखुड़ी बना दूंगा.’

मखदूम बोले, ‘पंखुड़ी गुलाब की तो पेंट हो गई मगर ‘सी’ को कैसे पेंट करोगे?’ सईद बिन मुहम्मद बोले, ‘सी’ भी भला कोई पेंट करने की चीज है?’

मखदूम बोले, ‘मिस्रे की जान तो ‘सी’ ही है. सईद! आज मैं तुम्हें जाने नहीं दूंगा जब तक तुम ‘सी’ को पेंट नहीं करोगे.’

यह सुनते ही सईद बिन मुहम्मद वहां से भाग खड़े हुए.

जब हम मखदूम के बारे में पड़ताल करते हैं तो कई किस्‍से सुनाई देते हैं. एक और दिलचस्प वाकया है. मखदूम ने विधानसभा का चुनाव लड़ा था. इस चुनाव में उनके ही शेर का जबर्दस्‍त इस्‍तेमाल हुआ. शेर है:

हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो
चलो तो जमाने को अपने साथ ले के चलो.

चुनाव में प्रचार के दौरान इस शेर को बदल कर लिखा गया:

हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो
चलो तो जनाने को अपने साथ ले के चलो.

यानी कि मतदान के दिन अपने साथ महिलाओं को भी लेकर चलो ताकि इस इंकलाबी शायर को ज्‍यादा से ज्‍यादा वोटों से जिताया जा सके. हैदराबाद के भारत विलय के बाद हुए चुनाव में वे जीत कर आंध्र प्रदेश विधानसभा में पहुंचे. मखदूम ने हैदराबाद में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की थी. वे कामरेड एसोसिएशन और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य थे. मखदूम मोहिउद्दीन की प्रकाशित कृतियों में उनके तीन काव्य-संग्रह ’सुर्ख सवेरा’, ’गुले-तर’ और ’बिसात्-ए-रक़्स’ प्रमुख हैं. ‘बिसात-ए-रक़्स’ के लिए उन्हें 1969 का साहित्य अकादमी अवार्ड भी प्राप्त हुआ है.

वे बेहद अनुशासति थे. सारा दिन पार्टी का काम करते थे और शाम का थोड़ा वक्त दोस्तों में गुजारते थे. जहां अहसास हुआ कि वक्त जाया हो रहा है, झट से उठ जाते थे और महफि‍ल से गायब. वो दुनिया से गए भी इसी तरह यानी एकदम से चल दिए. संदर्भ बताते हैं कि मखदूम मानते थे कि प्रेम और युद्ध की कविता अलग-अलग नहीं होती, आखिर हम युद्ध भी तो प्रेम के लिए करते हैं और बिना प्रेम के युद्ध भी नहीं कर सकते. शायद यही कारण है इस गैरमामूली फिलासफी को जीने वाला इंसान ने जीवन भर ही नहीं मौत के बाद भी खूब प्‍यार पाया. तारीख गवाह है कि 25 अगस्त, 1969 को जब मखदूम की मृत्यु हुई तो हजारों लोग दहाड़ें मार-मार कर रो रहे थे जैसे कि उनके परिवार के किसी अपने की मृत्यु हुई हो.

उनकी कुछ रचनाओं का जिक्र किए बगैर जयंती पर उन्‍हें याद करना अधूरा ही रहेगा.

आप की याद आती रही रात भर
चश्मे नम मुस्कुराती रही रात भर.

रात भर दर्द की शम्मा जलती रही
गम की लौ थरथराती रही रात भर.

बांसुरी की सुरीली सुहानी सदा
याद बन बन के आती रही रात भर.

याद के चांद दिल में उतरते रहे
चाँदनी जगमगाती रही रात भर.

कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा
कोई आवाज आती रही रात भर.

फिर छिड़ी रात बात फूलों की
रात है या बरात फूलों की.

फूल के हार फूल के गजरे
शाम फूलों की रात फूलों की.

आप का साथ साथ फूलों का
आप की बात बात फूलों की.

नज़रें मिलती हैं जाम मिलते हैं
मिल रही है हयात फूलों की.

कौन देता है जान फूलों पर
कौन करता है बात फूलों की.

इश्क के शोले को भड़काओ कि कुछ रात कटे
दिल के अंगारे को दहकाओ कि कुछ रात कटे.

दीप जलते हैं दिलों में कि चिता जलती है
अब की दीवाली में देखेंगे कि क्या होता है.

एक झोंका तिरे पहलू का महकती हुई याद
एक लम्हा तिरी दिलदारी का क्या क्या न बना.

(4 फरवरी 2023 को न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग)