Monday, September 12, 2022

कर्मकांड की भेंट चढ़ गए थे ‘उसने कहा था’ वाले चंद्रधर शर्मा गुलेरी

Chandradhar Sharma Guleri Death Anniversary: जाने कितनी किताबों के प्रकाशन के आधार रहे चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की जीते जी कोई किताब नहीं छपी थी. वे कम लेकिन बेहतर लेखन के हिमायती थे. 'उसने कहा था' कहानी इसका प्रमाण है. जितनी यादगार उनकी कहानी और जीवन है, मृत्‍यु प्रसंग उतना ही कष्‍टदायक.

हिंदी साहित्‍य में रूचि रखने वाला शायद ही कोई होगा जिसने ‘उसने कहा था’ कहानी न पढ़ी हो. जिसने भी यह कहानी पढ़ी है वह इसके लेखक चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लेखन क्षमता का कायल हुए बिना नहीं रह सकता है. फिर यह पता चले कि गुलेरी ने मात्र तीन कहानियां ही लिखी हैं तो अचरज और भी बढ़ जाता है. उस पर यह भी एक तथ्‍य है कि आजीवन हिंदी की सेवा करने वाले प्रकांड विद्वान, जाने कितनी किताबों के प्रकाशन के आधार रहे गुलेरी जी की जीते जी कोई किताब नहीं छपी थी. वे कम लेकिन बेहतर लेखन के हिमायती थे और मात्र 39 वर्ष की उम्र में जब उनका देहांत हुआ तो यादगार लेखन व समृद्ध साहित्‍य सेवा का इतिहास छोड़ कर गए. जितनी यादगार उनकी कहानी और जीवन है, मृत्‍यु प्रसंग उतना ही कष्‍टदायक. उनकी मृत्‍यु प्राकृतिक न थी बल्कि एक शास्‍त्रज्ञाता ‘कर्मकांड’ की भेंट चढ़ गया.

आज पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की पुण्‍यतिथि है. लेखक, पत्रकार, विमर्शकार, अनुसंधनकर्ता और शास्त्रज्ञ आदि जैसे रूपों में गुलेरी जी को सम्‍मान के साथ याद किया जाता है. यूं तो उनके कार्यों की सूची लंबी है मगर समाज उन्हें केवल एक कहानी ‘उसने कहा था’ से जानता है. ‘उसने कहा था’ और गुलेरी जी इस बात के उदाहरण हैं कि किसी लेखक की केवल एक रचना उसे किस तरह अमरत्व प्रदान कर सकती है. ‘उसने कहा था’ एक ऐसी अविस्मरणीय कहानी है जिसने भारतीय साहित्य में गुलेरी को अक्षय कीर्ति प्रदान की, जिसने हिंदी कहानी को नई दिशा दी.









पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्‍म 7 जुलाई, 1883 को हुआ था. उनके पिता पंडित शिवराम जी ‘महाराज’ का जन्म गुलेर (कांगडा जिला तब पंजाब प्रांत, अब हिमाचल प्रदेश) में हुआ था. काशी में शास्त्रार्थ में अनेक विद्वानों को परास्त करने के बाद वे जयपुर राज्य के सवाई राम सिंह के आग्रह पर प्रधान पंडित नियुक्‍त हुए थे. अपने पिता के संघर्षपूर्ण जीवन, विद्वता और मान प्रतिष्ठा का गुलेरी जी के जीवन पर गहरा प्रभाव पडा. उनकी विद्वता का प्रमाण है कि मात्र उन्नीस वर्ष की आयु में जयपुर वेधशाला के जीर्णोद्धार में प्रमुख भूमिका निभाई थी. गुलेरी जी ने जब लिखना शुरू किया तो अपने गांव के साथ गहरे सम्‍बन्‍ध को दर्शाने के लिए गुलेर से ‘गुलेरी’ उपाधि धारण कर ली.

गुलेरी जी दर्शन-शास्त्र में एमए करने के इच्छुक थे किंतु परीक्षा के एक दिन पहले वे देर रात तक अध्ययन करते रहे. नींद पूरी नहीं हुई और परीक्षा भवन में तंद्रा की अवस्था में ही रहे. स्‍वयं गुलेरी जी के शब्दों में ‘परीक्षा की आवश्यकता से भी बढ़कर विषय का अनुशीलन किया किन्तु अस्वस्थता के कारण परीक्षा न दे सका.’’ फिर 1904 में गुलेरी जी जयपुर राज्य के आग्रह पर खेतडी नरेश जयसिंह के शिक्षक और अभिभावक बनकर मेयो कॉलेज अजमेर चले गए. इस प्रकार उनका एमए करने का विचार पूरा न हो सका.

उनके विवाह की भी बडी अद्भुत कहानी हैं. गुलेरी जी की पुत्री डॉ. अदिति गुलेरी ने एक संस्‍मरण में बताया है कि लगभग बीस-बाइस वर्ष की अवस्था में गुलेरी जी का विवाह पद्मावती से हुआ था. प्रसंग है कि गुलेर गांव में उनके विवाह की तैयारियों हो चुकी थीं. दुर्भाग्यवश कन्या के पिता का देहांत हो गया. पिता शिवरामजी असमंजस में पड गए. वह बेटे को अविवाहित लेकर जयपुर नहीं लौटना चाहते थे क्‍योंकि उन्हें जयपुर राज्य की ओर से विवाह के लिए पांच सौ रुपये की सहायता प्राप्‍त हुई थी. इसीलिए शीघ्र ही ‘हरिपुर’ निवासी कवि रैणा की पुत्री पद्मावती से उनका विवाह करवाया गया.

जुलाई 1916 में गुलेरी जी ने मेयो कॉलेज अजमेर में संस्कृत विभागाध्यक्षक का पद संभाला. मेयो कॉलेज अजमेर में गुलेरी जी की कार्यदक्षता और योग्यता की धाक दूर-दूर तक फैल गई थी. उन दिनों महामना पंडित मदन मोहन मालवीय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए घूम-घूम कर धन एकत्र कर रहे थे. उनका गुलेरी जी से परिचय हुआ. मालवीय जी भी देश के कोने-कोने से चोटी के विद्वानों को बुलाकर हिन्दू विश्वविद्यालय में लाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे.

‘श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी: व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व’ के लेखक पीयूष गुलेरी ने एक संस्‍मरण में लिखा है कि हिंदी के प्रति उनकी आस्था इतनी गहरी थी कि उन्होंने अंग्रेज़ी के प्रयोग करने पर अपने मित्र रहे पंडित मदन मोहन मालवीय की भी आलोचना की. महामना पंडित मदन मोहन मालवीय सरल हिंदी की जगह अन्‍य भाषा के साथ मिश्रित हिंदी की पैरोकारी करने लगे. इसपर गुलेरी जी का विरोध ‘खुली चिठ्ठी’ के माध्यम से समालोचकः 1904 ईसवी में प्रकाशित हुआ. वे लिखते हैं:

‘वैसे ही जिन लोगों ने मालवीय जी की देखादेखी हिंदी का पक्ष लिया था, जो मालवीय जी की हिंदी को हिंदी मानते थे, वे आज मालवीय जी की दूसरी डिबिया को देखकर, चकराते हुए कह रहे हैं – सरल हिंदी, उर्दू मिश्रित हिंदी. जिज्ञासा यह है कि डिबिया जेब में कहां से आ गई? पहले ही से थी, या अब इसकी जरूरत पड़ी है?”

‘खरे सज्जनों को हरी चिट्ठियां’ वे व्यंग्यात्मक ढंग से लिखते हैं-

‘श्रीमान् ऑनरेबल पंडित मदन मोहन मालवीय: बीए, एलएलबी के नाम: ‘हमारे एक दयालु मित्र खो गए हैं. वे हमारे कृपालु थे, हमारी हिंदी के बड़े भारी सेवक और लेखक थे. उनका आपको कुछ पता है? कहां हैं? क्यों एकांतवास करते हैं? उनकी बोलती क्यों बंद हो गई है, इसका आपको पता है? हमारे वे सौम्यदर्शन ब्राह्मण मित्र’ पंडित मदनमोहन बीए इस नाम को भूषित करते थे और दैनिक हिन्दुस्तान के वे चिराग थे. कुछ लोग तो कहते हैं कि वे ही महाशय शैलूप की तरह नई भूमिका में ‘ऑनरेबल मालवीय’ के नाम से आ गए हैं. क्या यह भी सच है? युक्तप्रांत की कचहरियों में नागरी का चंचुप्रवेश करने वाला जो प्रसिद्ध है, वह और जो किसी काल में हिंदी का लेखक था, क्या एक ही व्यक्ति की सविधि (…) है? तो क्या वह महाशय धूपछाया के रंग का है? या अनेक रूपरूपाय का भक्त होने से ‘रूपं रूपं प्रति रूपो बभूव’ हो गया है? या लोगों के चश्मे का रंग बदल गया? या उसे हिंदी लिखने में लज्जा मालूम होती है? या इसमें यश नहीं मिलेगा? क्या कारण है कि उसके हाथ में नड़ की ग्रामीण क़लम न देखकर सभ्य फाउंटेन पेन देखते हैं! (-चिट्ठीवाला)’

गुलेरी जी ने सन् 1900 से 1922 के दौरान में हिंदी में बहुत लेखन किया. यहां तक कि उन्होंने छद्म नामों से भी कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेख लिखे. उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा के प्रभावी संचालन के लिए बाबू श्याम सुन्दर दास को भी यथासम्भव सहयोग प्रदान किया. वे नागरी प्रचारिणी सभा के लिए तन-मन-धन से समर्पित रहे. वे सभा के लिए कुछ देना ही चाहते थे. वहां से कुछ लिया ही नहीं. यहां तक कि सभा का पानी भी ग्रहण नहीं करते थे. इस विषय में बाबू श्याम सुन्दर दास द्वारा पूछने पर उन्होंने कहा था, “मैं सभा को बेटी मानता हूं, बेटी के यहां का अन्न-जल ग्रहण करना निषिद्ध है.’

मित्रों की सहायता के लिए वे सदैव तत्‍पर रहते थे. उन्हें साहित्य-प्रकाशन से धन अर्जित करने या यश कमाने का जैसे कोई लालच ही न था. वे दूसरों के प्रेरणा -स्रोत रहे. राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त को साहित्यिक सम्मतियां दीं, राय कृष्णदास की पाण्डुलिपियों को सुधारा और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे विद्वानों के आदि देव बन गए. उन्होंने अपने मित्रों को रचनाओं के प्रकाशनार्थ उत्साहित किया किन्तु अपनी पुस्तक तक न छपवाई. साहित्य प्रकाशन में वे संख्‍या की जगह गुणवत्‍ता के पक्षधर थे. थोडा लिखा जाए परंतु स्तरीय लिखा जाए.

गुलेरी जी ने काशी पहुंच कर प्राच्य-विभाग का पुनर्गठन किया. लेकिन गुलेरी जी को काशी जाना फला नहीं. वह जिन भावनाओं को लेकर वहाँ गए थे, वे सब धरी की धरी रह गईं. वहां पहुंचने के कुछ समय पश्चात् उन पर एक-एक कर विपत्तियां टूटने लगीं.

अपने शोध ग्रथ में डॉ. पीयूष गुलेरी गुलेरी जी के अंतिम रोग के कष्‍ट का उल्‍लेख करते हैं. अपने भाई की पत्‍नी के अंतिम संस्कार के लिए वे काशी के ‘मणिकर्णिका घाट’ गए हुए थे. उनकी तबीयत ठीक नहीं थी. अतः उन्होंने स्‍नान न करते हुए गंगाजल का आचमन और छिडकाव ही किया. तब मृतका के भाई पंडित पद्मानाभ ने क्रोधित होकर कहा- ‘‘क्या तुम नहाओगे नहीं? जान पडता है तू ब्रह्म राक्षस है.’’

गुलेरी जी सनातनी थे. यदि उन्हें श्मशानघाट पर नहाना होता तो वस्त्रों सहित नहाते. उन्हें पद्मानाभ की बात से बडा क्षोभ हुआ. उन्होंने कहा- ‘अरे चाण्डाल! जो तू मेरे प्राण लेना चाहता है तो ले.’ यह कहकर वह गंगा में कूद गए, उसी दिन से उन्हें हल्का ज्वर रहने लगा. इस ज्‍वर को खत्‍म करने के अनेक उपाय हुए. उन्‍हें बर्फ की शीलाओं पर सुलाया जाता मगर रोग कम न हुआ. सोलह दिन उपरांत 12 सितंबर 1922 को हिंदी का यह भास्‍कर अस्‍त हो गया. उस समय उनकी दैहिक आयु उनतालीस वर्ष दो महीने और पांच दिन थी. ‘उसने कहा था’ जैसी कहानी व हिंदी सेवा के माध्‍यम से वे अमर हैं.


(Source: News18 Hindi में 12 September 2022 को प्रकाशित)