अमेरिका के कनेक्टिकट के न्यूटाउन शहर के एक स्कूल में बरसाई गईं गोलियों के कारण 18 बच्चों की मौत ने पूरी दुनिया को हिला दिया। इस जघन्य हत्याकांड का एक मानवीय पक्ष भी था। स्कूल के शिक्षकों और अन्य कर्मचारियों ने सतर्कता, कर्मठता और मानवता की अनूठी मिसालें पेश कीं। इसी वजह से स्कूल के कई बच्चों की जान बचाई जा सकी। यह सवाल उठना अस्वावाभिक नहीं है कि यदि ऐसा कोई दुर्भाग्यपूर्ण हादसा अगर हमारे देश में हो तो क्या यहां भी मानवीय आपदा प्रबंध्ान का वैसा ही कौशल देखने को मिलेगा?
अमेरिका के सैंडी हुक एलिमेंट्री स्कूल की प्राचार्या डॉन हॉकस्प्रंग जब एक मीटिंग के बाद कमरे से निकलीं तो उन्होंने एक 20 वर्षीय युवक को हाथों में बंदूक लिए देखा। वे उसका इरादा भांप चुकी थी। उन्होंने तुरंत अपने साथी शिक्षकों को बाहर न निकलने के लिए कहा। वे दरवाजा बंद करने की चेतावनी दे कर मुड़ी ही थी कि उन्हें गोली मार दी गई। प्राचार्य ने खुद भागने की जगह पहले अपने साथियों की जान बचाने के लिए उन्हें चेतावनी देना जरूरी समझा। स्कूल की शिक्षिका विक्टोरिया सोटो ने बच्चों को बचाने के लिए हमलावर से झूठ बोला कि बच्चे जिम में हैं, जबकि उन्होंने छात्रों को बाथरूम में छिपा दिया था। इस तरह कई बच्चों की जानें तो बच गईं, लेकिन वो खुद को नहीं बचा सकीं।
अमेरिकी मीडिया ने खुलासा किया है कि स्कूल के ही एक प्रमुख अध्ािकारी ने गोलियों की बरसात के बीच सभी कक्षाओं में जा कर यह देखा कि वहां के दरवाजे बंद है या नहीं। स्कूल के पुस्तकालय में भी कई बच्चे थे। वहां के कर्मचारियों को स्कूल के आध्ाुनिक पब्लिक इंफर्मेशन सिस्टम से जानकारी मिली थी कि स्कूल परिसर में एक बंदूकधारी घुस आया है। कर्मचारियों ने हड़बड़ी में कोई गलत कदम उठाने की जगह समझदारी से काम लिया और छात्रों को पुस्तकालय के अंदर ही सुरक्षित रखने की व्यवस्था की।
दिखने में ये प्रयास छोटे लगें, लेकिन इन छोटी-छोटी साहसी घटनाओं ने इस हादसे के हताहतों की संख्या को कम रखा। मुंबई पर 26/11 को हुए हमले भी कुछ ऐसे ही साहस के कारनामे सामने आए थे लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारे यहां ऐसा कोई हादसा हो जाए तो हम ज्यादा जान बचा पाने में सक्षम हैं? क्या हमारे यहां सतर्कता का यह स्तर देखने को मिलेगा? इस सवाल को उठाने के पीछे मेरा मकसद किसी व्यक्ति की सूझबूझ या कर्मठता पर सवाल उठाने का नहीं बल्कि इस सवाल के पीछे उस सच को उजागर करने की कोशिश है, जो हमारी व्यवस्था को पंगु बनाता है। मसलन, उन परिवारों के घाव अभी तक हरे हैं जिनके बच्चों की दो माह पहले भोपाल के कमला नेहरू अस्पताल में गलत इंजेक्शन लगाए जाने से मौत हो गई थी। अक्टूबर में कोलकाता के सरकारी अस्पताल में 13 बच्चों की मौत होती है तो वहीं के बर्दमान मेडिकल कॉलेज में उसी हफ्ते 12 नवजात दम तोड़ देते हैं।
लापरवाही का यह स्तर बार-बार सामने आता है। हालांकि अमेरिका और भारत की परिस्थितियों में बड़ा अंतर है। वहां एक हमलावर बंदूक लेकर स्कूल में घुस जाता है जबकि भारत में बच्चों की जान लेने के लिए बेटे की चाह, हमारे अस्पतालों का लचर तंत्र, जर्जर स्कूल भवन, कंडम स्कूल वाहन, तेज रफ्तार में गाड़ी चलाने के शौकीन स्कूल बस और वेन चालक जैसे कारण ही काफी हैं । मनोचिकित्सक मानते हैं कि भारत में भी तनाव का स्तर बढ़ रहा है और यह लोगों को आक्रामक और हिंसक बना रहा है। स्कूल के शिक्षक भी इससे अछूते नहीं हैं । यही कारण है कि स्कूलों में बच्चों को मौत होने जाने तक बेरहमी से पीटा जाता है।
सुधार की तमाम कोशिशें तंत्र की चौखट पर जा कर दम तोड़ देती हैं। अमेरिका के एक स्कूल में हादसे की क्या बात करें, हमने तो विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी भोपाल गैस कांड से भी कोई सबक नहीं लिया है। गैस कांड के बाद भोपाल में आपदा प्रबंधन संस्थान स्थापित किया गया जो मप्र सहित सात से ज्यादा राज्यों में आपदा प्रबंधन की सलाह और सुझाव देता है लेकिन इस संस्थान की कई अनुशंसाएं कभी मानी नहीं गईं। जैसे, कारखानों और सावर्जनिक दफ्तरों के कर्मचारियों को आपदा प्रबंधन का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए लेकिन किसी को भी प्रशिक्षण नहीं दिया गया। पिछले दिनों आगजनी की घटनाओं के बाद जब भोपाल नगर निगम ने बड़ी इमारतों की जांच की तो नामचीन व्यावसायिक और रहवासी बहुमंजिला इमारतों में आग सहित अन्य आपदाओं से निपटने के साध्ान नहीं मिले। लोगों को पता ही नहीं है कि अगर वहां कभी कोई दुर्घटना हो जाए तो सतर्कता बरतते हुए कौन से कदम उठाए जाना चाहिए? फिर,मानवीय गलतियों और सोची समझी वारदातों से निपटने का व्यवहारिक ज्ञान और कौशल कहां से आएगा?