काश्मीर का जिक्र करते ही हमारे जेहन में या तो आतंक का चेहरा उभरता है या फिल्मों के दृश्य देख धरती के स्वर्ग में घूम आने की हसरत हिलौरे मारने लगती है लेकिन यह दुर्भाग्य है कि हर बार या तो पारा चढ़ने पर काश्मीर का जिक्र होता है या फिर तापमान उतरने पर। मेरा सवाल यह है कि काश्मीर सहित पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में सामान्य दिनों में चिंता-फिक्र क्यों नहीं होती? ऐसा क्यों होता है कि जब वहां हिंसा का पारा चढ़ता है, तब सभी चिंतित होने लगते हैं और इसे देश की संप्रभुता को खतरा मान अतिसंवेदनशील हो जाते हैं? उन दिनों में जब पूरा देश तरक्की कर रहा होता है, किसी को भी इन प्रांतों में बसे ‘अपने भाइयों’की समस्याओं और उनके हालात की फिक्र क्यों नहीं होती? हम जब विकास और सुख की राह में फर्राटा भर रहें होते हैं तब वहां के नागरिकों के पैरों के छालें हमें दुख में क्यों नहीं डालते?
काश्मीर एक बार फिर चर्चा में है। एक कारण तो यहां हुए आतंकी हमले हैं, जो आम कहे जा सकते हैं और दूसरा कारण है प्रधानमंत्री की यात्रा, जो काफी महत्वपूर्ण है और जिसके कारण आतंकी हमले हुए। दरअसल,प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी काश्मीर घाटी में जम्मू के बनिहाल से श्रीनगर के काजीकुंड के बीच रेल खंड का उद्घाटन कर रहे हैं। यह रेल मार्ग चालू हो जाने पर जम्मू से धरती के स्वर्ग यानि श्रीनगर की तरफ जाने वाला मार्ग 17 किलोमीटर कम हो जाएगा। यह सड़क मार्ग का वह खतरनाक टुकड़ा है जहां भूस्खलन होता है जो जिसके कारण घाटी में जाना सबसे ज्यादा खतरनाक है। टनल बन जाने से हर मौसम में रेल मार्ग से काश्मीर की सैर का सपना साकार हो सकेगा। यह खबर सुन कर पर्यटक जितना खुश हैं उतने ही खुश वे अमनपसंद काश्मीरी भी हैं। फिर नाराज कौन हैं? वे दहशतगर्द जो काश्मीर को हरा-भरा नहीं रहने देना चाहते। वे जो यहां की तरक्की को रोकने के लिए खून बहाना बेहद आसान तरीका मानते हैं।
आप काश्मीर जाएं तो पाएंगे कि वहां के हालात वैसे नहीं है जैसे वहां से कोसों दूर बैठ कर दिखलाई देते हैं। आम काश्मीरी न तो भारत सरकार से खुश है और न आतंकियों से। यह कठोर लग सकता है लेकिन यह खरा सच है कि काश्मीरी खुद को भारतीय कहलाने से ज्यादा काश्मीरी कहलाना पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ?
क्या यह सच है? इसका जवाब खोजने के लिए हमें अतीत को समझना होगा। काश्मीरी मुसलमानों की मनस्थिति को समझना होगा। जम्मू और कश्मीर के सबसे बड़े नेता शेख अब्दुल्ला ने लंबे जन संघर्ष के बाद डोगरा शासन से कश्मीर को मुक्त कराया और भारत में कश्मीर के विलय को संभव किया। लेकिन आम काश्मीरी की जिंदगी में उतनी ही तकलीफें रही जितनी मुगलकाल या डोगरा शासनकाल में थी, बल्कि इनमें कहीं ज्यादा इजाफा ही हुआ। काश्मीरियों के दमन का सिलसिला अकबर के समय में ही शुरू हो गया था। अकबर ने कश्मीरियों को हथियार रखने से मना कर दिया। इस फरमान का उद्देश्य यही था कि कश्मीरी अपनी खोई हुई आजादी को प्राप्त करने की कोशिश न करें। डोगरों ने कश्मीर को अपने बाहुबल से हासिल नहीं किया था, बल्कि अमृतसर संधि के तहत खरीदा था। अत: वे अपनी लगाई पूंजी को ब्याज सहित जल्दी से जल्दी वसूल लेना चाहते थे। शाल बुनकरों के किसी और धंधे में जाने की मनाही कर दी गई। साथ ही, काश्मीरी मुसलमानों के उच्च शिक्षा प्राप्त करने पर पाबंदियां लगा दीं। शिक्षा की तरह नौकरियों के द्वार भी मुसलमानों के लिए बंद थे। यही कारण था कि आजादी का काश्मीर आंदोलन आज एक आतंकवादी-अलगाववादी संघर्ष में बदल गया।
आजाद भारत में भी काश्मीर पर फतह, उस पर कब्जे के सपने देखे गए, कोशिशें हुई लेकिन उसे अपनाने और अपना बना लेने के प्रयत्न नगण्य हुए। काश्मीर की जमीन की चिंता में करोड़ों फूंक दिए गए लेकिन वहां के बाशिंदों की शिक्षा, सेहत, रोजगार पर खर्च नाकाफी रहा। यहां तक कि उस पर्यटन की सुध भी नहीं ली गई जो सरकार की जेब भर रहा था। आज काश्मीर सुविधाओं और विकास से खाली है और इसीलिए दहशत के साये में हैं। विकास कई राहें खोलता है और आतंकी यह होने नहीं देना चाहते। आज सरकार ने रेलमार्ग की बुनियाद रखी तो आतंकियों ने बंदूकें उठा ली। वे नहीं चाहते कि काश्मीरी विकास के मायने और उसके फायदों को समझें। अगर, काश्मीर जैसे प्रांतों को भारत का अंग बनाए रखना है तो हमें हथियारों की भाषा से ज्यादा विकास की बोली बोलना होगी। तभी आम काश्मीरी खुद को भारत का अंग मान कर उसके साथ अपने हित जोड़ सकेगा। तभी आतंकियों को स्थानीय सहयोग नहीं मिलेगा। लेकिन यह देखना होगा कि डोगरा शासन की तरह विकास का मतलब अपने निवेश की ब्याज सहित वसूली नहीं होना चाहिए। घाटी का विकास वहां की प्रकृति से छेड़छेड़ा कर हमारे स्वार्थ के लिए न हो। दोहन इतना न हो कि काश्मीरी पड़ोसी देश की और सहायता के लिए ताकने लगे और वहां से मिली सहायता के लालच में छले जाएं।
काश्मीर एक बार फिर चर्चा में है। एक कारण तो यहां हुए आतंकी हमले हैं, जो आम कहे जा सकते हैं और दूसरा कारण है प्रधानमंत्री की यात्रा, जो काफी महत्वपूर्ण है और जिसके कारण आतंकी हमले हुए। दरअसल,प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी काश्मीर घाटी में जम्मू के बनिहाल से श्रीनगर के काजीकुंड के बीच रेल खंड का उद्घाटन कर रहे हैं। यह रेल मार्ग चालू हो जाने पर जम्मू से धरती के स्वर्ग यानि श्रीनगर की तरफ जाने वाला मार्ग 17 किलोमीटर कम हो जाएगा। यह सड़क मार्ग का वह खतरनाक टुकड़ा है जहां भूस्खलन होता है जो जिसके कारण घाटी में जाना सबसे ज्यादा खतरनाक है। टनल बन जाने से हर मौसम में रेल मार्ग से काश्मीर की सैर का सपना साकार हो सकेगा। यह खबर सुन कर पर्यटक जितना खुश हैं उतने ही खुश वे अमनपसंद काश्मीरी भी हैं। फिर नाराज कौन हैं? वे दहशतगर्द जो काश्मीर को हरा-भरा नहीं रहने देना चाहते। वे जो यहां की तरक्की को रोकने के लिए खून बहाना बेहद आसान तरीका मानते हैं।
आप काश्मीर जाएं तो पाएंगे कि वहां के हालात वैसे नहीं है जैसे वहां से कोसों दूर बैठ कर दिखलाई देते हैं। आम काश्मीरी न तो भारत सरकार से खुश है और न आतंकियों से। यह कठोर लग सकता है लेकिन यह खरा सच है कि काश्मीरी खुद को भारतीय कहलाने से ज्यादा काश्मीरी कहलाना पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ?
क्या यह सच है? इसका जवाब खोजने के लिए हमें अतीत को समझना होगा। काश्मीरी मुसलमानों की मनस्थिति को समझना होगा। जम्मू और कश्मीर के सबसे बड़े नेता शेख अब्दुल्ला ने लंबे जन संघर्ष के बाद डोगरा शासन से कश्मीर को मुक्त कराया और भारत में कश्मीर के विलय को संभव किया। लेकिन आम काश्मीरी की जिंदगी में उतनी ही तकलीफें रही जितनी मुगलकाल या डोगरा शासनकाल में थी, बल्कि इनमें कहीं ज्यादा इजाफा ही हुआ। काश्मीरियों के दमन का सिलसिला अकबर के समय में ही शुरू हो गया था। अकबर ने कश्मीरियों को हथियार रखने से मना कर दिया। इस फरमान का उद्देश्य यही था कि कश्मीरी अपनी खोई हुई आजादी को प्राप्त करने की कोशिश न करें। डोगरों ने कश्मीर को अपने बाहुबल से हासिल नहीं किया था, बल्कि अमृतसर संधि के तहत खरीदा था। अत: वे अपनी लगाई पूंजी को ब्याज सहित जल्दी से जल्दी वसूल लेना चाहते थे। शाल बुनकरों के किसी और धंधे में जाने की मनाही कर दी गई। साथ ही, काश्मीरी मुसलमानों के उच्च शिक्षा प्राप्त करने पर पाबंदियां लगा दीं। शिक्षा की तरह नौकरियों के द्वार भी मुसलमानों के लिए बंद थे। यही कारण था कि आजादी का काश्मीर आंदोलन आज एक आतंकवादी-अलगाववादी संघर्ष में बदल गया।
आजाद भारत में भी काश्मीर पर फतह, उस पर कब्जे के सपने देखे गए, कोशिशें हुई लेकिन उसे अपनाने और अपना बना लेने के प्रयत्न नगण्य हुए। काश्मीर की जमीन की चिंता में करोड़ों फूंक दिए गए लेकिन वहां के बाशिंदों की शिक्षा, सेहत, रोजगार पर खर्च नाकाफी रहा। यहां तक कि उस पर्यटन की सुध भी नहीं ली गई जो सरकार की जेब भर रहा था। आज काश्मीर सुविधाओं और विकास से खाली है और इसीलिए दहशत के साये में हैं। विकास कई राहें खोलता है और आतंकी यह होने नहीं देना चाहते। आज सरकार ने रेलमार्ग की बुनियाद रखी तो आतंकियों ने बंदूकें उठा ली। वे नहीं चाहते कि काश्मीरी विकास के मायने और उसके फायदों को समझें। अगर, काश्मीर जैसे प्रांतों को भारत का अंग बनाए रखना है तो हमें हथियारों की भाषा से ज्यादा विकास की बोली बोलना होगी। तभी आम काश्मीरी खुद को भारत का अंग मान कर उसके साथ अपने हित जोड़ सकेगा। तभी आतंकियों को स्थानीय सहयोग नहीं मिलेगा। लेकिन यह देखना होगा कि डोगरा शासन की तरह विकास का मतलब अपने निवेश की ब्याज सहित वसूली नहीं होना चाहिए। घाटी का विकास वहां की प्रकृति से छेड़छेड़ा कर हमारे स्वार्थ के लिए न हो। दोहन इतना न हो कि काश्मीरी पड़ोसी देश की और सहायता के लिए ताकने लगे और वहां से मिली सहायता के लालच में छले जाएं।