हजारों काम मोहब्बत में हैं मजे के दाग
जो लोग कुछ नहीं करते कमाल करते हैं.
मोहब्बत दाग देहलवी ने जब यह शेर कहा तो बहुत मशहूर हुआ क्योंकि उनके पहले मिर्जा गालिब कह चुके थे, ‘इश्क ने ‘गालिब’ निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के.’ अपनी शायरी से मिर्जा गालिब, मौमिन, जौक जैसे बुजुर्ग शायरों की तारीफ पाने वाले दाग देहलवी ने उर्दू का इतना सहज इस्तेमाल किया कि अवाम के प्रिय शायर हो गए. उनकी शायरी मोहब्बत की शायरी मानी जाती है मगर उनके जीवन का भी अजीब रंग था कि मोहब्बत पाने के लिए उन्होंने तवायफे काम पर रखी हुई थी.
दाग देहलवी का असली नाम नवाब मिर्जा खां था. उनका जन्म 25 मई 1831 को दिल्ली में हुई था. दाग देहलवी के पिता शम्सुद्दीन खां ने नाइंसाफी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाई. ब्रिटिश रेजिडेंट के कत्ल की भी साजिश के आरोप में उसे 1835 फांसी दे दी गई. पिता की फांसी के समय दाग देहलवी मात्र चार साल और चार महीने के थे. अंग्रेजों के भय से दाग देहलवी की मां वजीर बेगम कई वर्षों तक छिप कर रहीं और इस दौरान दाग देहलवी अपनी मौसी के यहां रहे.
संदर्भ बताते हैं कि कई वर्षों के भटकाव के बाद जब दाग की मां वजीर बेगम ने आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के पुत्र और उत्तराधिकारी मिर्जा फखरू से विवाह कर लिया. इस शादी के बाद दाग देहलवी भी लाल किले में आ गए यहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई. मिर्जा फखरू के देहांत के बाद इन्हें लाल किले से बाहर कर दिया गया. लेकिन लाल किले में बीते 12-14 सालों में दाग देहलवी ने उर्दू शायरी में नाम पा लिया था. ऐसे समय में जब फारसी में शायरी की जा रही थी तब दाग ने उर्दू को खास अंदाज से अपनी शायरी में आजमाया. लाल किले से निकलने के अगले साल ही 1857 की क्रांति हो गई. आशियाना बिखरने के बाद वे दर-बदर के हो गए. दिल्ली से वे रामपुर पहुंचे और कुछ बरस बाद वहां से हैदराबाद.
हैदराबाद का शुरुआती जीवन तकलीफों में गुजरा फिर नवाब से राहत मिली. बीवी के देहांत के बाद दाग अकेले हो गए थे और मन बहलाने के लिए उन्होंने एक साथ कई तवायफों को नौकर रखा था. दाग देहलवी से इन तवायफों का रिश्ता शाम की महफिलों तक ही था. दाग देहलवी की गज़लों की शौहरत में इन सुरीली आवाज़ों का भी बड़ा योगदान था. दाग देहलवी की शायरी के प्रसिद्ध होने का एक और कारण था कि उन्होंने वक्त के हिसाब से न केवल गजलें लिखी, बल्कि धुन तैयार कर उन्हें तब की नामचीन तवायफों और कोठेवालियों को याद करवाया. इस तरह अगले ही दिन उनकी गजलें शहर में मशहूर हो जाती. उस वक्त की मशहूर गायिकाओं से चर्चित हुई दाग की गजलों का कारवां समकालीन गजल गायकों नूरजहां, बेगम अख्तर, फरीदा खानम, आबिदा परवीन, गुलाम अली, मेहदी हसन, जगजीत सिंह, पंकज उधास की आवाज के जरिए हम तक पहुंचा है. हैदराबाद में ही साल 17 मार्च 1905 में उनका देहांत हो गया.
दाग देहलवी ने अपने जीवन में खूब लिखा है. बताते हैं कि उनका एक ‘दीवान’ 1857 में लूट लिया गया था, जिसकी कोई खबर नहीं मिली. जब वे हैदराबाद में रह रहे थे तब दूसरा दीवान कोई चुरा ले गया मगर इसके बावजूद दाग देहलवी के पांच दीवान ‘गुलजारे दाग’, ‘महताबे दाग’, ‘आफ़ताबे दाग’, ‘यादगारे दाग’, ‘यादगारे दाग- भाग-2’ प्रकाशित हुए जिनमें 1038 से ज्यादा गजलें, रुबाईयां, सलाम मर्सिये आदि शामिल हैं. उन्होंने कम से कम फारसी लफ्जों का इस्तेमाल करके उर्दू शेर लिखे. दाग को अपने वक्त का सबसे बेहतरीन रोमांटिक शायर कहते हुए माना जाता है कि दाग वो शायर हैं जिन्होंने उर्दू गजल को निराशा से निकाल कर मोहब्बत के रास्ते पर ला खड़ा किया. उनके बहुचर्चित कुछ शेर यूं हैं:
आप पछताएं नहीं जौर से तौबा न करें
आप के सर की कसम ‘दाग’ का हाल अच्छा है.
आशिकी से मिलेगा ऐ जाहिद
बंदगी से ख़ुदा नहीं मिलता.
अभी आई भी नहीं कूचा-ए-दिलबर से सदा
खिल गई आज मेरे दिल की कली आप ही आप.
अदम की जो हकीकत है वो पूछो अहल-ए-हस्ती से
मुसाफिर को तो मंजिल का पता मंजिल से मिलता है.
इलाही क्यूं नहीं उठती कयामत माजरा क्या है
हमारे सामने पहलू में वो दुश्मन के बैठे हैं.
राह पर उनको लगा लाए तो हैं बातों में
और खुल जाएंगे दो-चार मुलाकातों में.
ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा.
सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नजर देख रहे हैं.
ये तो कहिए इस खता की क्या सजा
मैं जो कह दूं आप पर मरता हूं मैं.
जिन को अपनी खबर नहीं अब तक
वो मिरे दिल का राज क्या जानें.
आइना देख के कहते हैं संवरने वाले
आज बे-मौत मरेंगे मिरे मरने वाले.
दिल दे तो इस मिजाज का परवरदिगार दे
जो रंज की घड़ी भी खुशी से गुजार दे.
वफा करेंगे, निबाहेंगे, बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था.
मिलाते हो उसी को खाक में जो दिल से मिलता है
मिरी जां चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है.
तुम्हारा दिल मिरे दिल के बराबर हो नहीं सकता
वो शीशा हो नहीं सकता ये पत्थर हो नहीं सकता.
फलक देता है जिन को ऐश उन को गंम भी होते हैं
जहां बजते हैं नक़्क़ारे वहां मातम भी होता है.
(न्यूज 18 में प्रकाशित ब्लॉग)