Tuesday, June 6, 2023

शिव कुमार बटालवी: प्रेम का कवि और बिरह का सुल्तान, जिसे दर्द में काबा और पीड़ा में अपनापन झलकता है


पंजाबी साहित्य में जब भी प्यार-मोहब्बत और ग़म की चर्चा होगी शिव कुमार बटालवी का जिक्र जरूर किया जाएगा. पंजाबी भाषा के विख्यात कवि शिव कुमार रोमांटिक कविताओं के लिए सबसे ज्यादा जाने जाते हैं. उनके गीत-कविताओं में भावनाओं का उभार ज्वार लेता है, करुणा की गहराई है तो जुदाई में प्रेमी के दर्द छलक पड़ता है. अमृता प्रीतम ने इन्हें “बिरहा का सुल्तान” कहा था. सच में शिव कुमार तो साहित्य जगत का वह अलमस्त फकीर है जो प्रेम की दुनिया में मगन रहता है, और नदी के पानी की तरह बस बहता, और बहता ही रहता है. शिव कुमार बटालवी से जब कोई उनके हाल-चाल पूछता है तो वे खुद को आशिक बताते हुए कहते हैं- फकीरों का हाल क्या पूछते हो, हम तो नदियों से बिछड़े पानी की तरह हैं. हम आंसूओं से निकले हैं और हमारा दिल जलता है.




की पुच्छदे हाल फ़कीराँ दा
साडा नदियों बिछड़े नीरां दा
साडा हंझ दी जूने आयां दा
साडा दिल जल्या दिलगीरां दा

कितना दर्द समेटे हुए हैं ये पंक्तियां. यहां शिव कुमार कहते हैं- “मैं दर्द को ही काबा मानता हूं और पीड़ा को अपना कहता हूं.”

मेरे गीत वी लोक सुणींदे ने
नाले काफ़र आख सदींदे ने
मैं दरद नूं काअबा कह बैठा
रब्ब नां रक्ख बैठा पीड़ां दा

शिव कुमार बटालवी का जन्म 23 जुलाई, 1936 को पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की शकरगढ़ तहसील के गांव बड़ा पिंड लोहटिया में हुआ था. भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद उनका परिवार गुरदासपुर जिले के बटाला चला आया.बताते हैं शिव कुमार बटालबी प्रेमी थे और प्रेम में नाकामी वजह से उनकी रचनाओं में विरह और दर्द का भाव बहुत अधिक है. कहा जाता है कि शिव कुमार को विख्यात पंजाबी लेखक गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी की बेटी से प्यार हो गया था.

गुम है गुम है गुम है
इक कुड़ी जिहदा नाम मोहब्बत
गुम है गुम है गुम है
साद मुरादी सोहणी फब्बत
गुम है गुम है गुम है

सूरत उसदी परियां वरगी
सीरत दी ओह मरियम लगदी
हसदी है तां फुल्ल झड़दे ने
तुरदी है तां ग़ज़ल है लगदी
लम्म सलम्मी सरूं क़द दी
उम्र अजे है मर के अग्ग दी

प्यार में डूबे शिव कुमार बटालवी अपनी माशूका के लिए लिखते हैं-

मुझ को तेरा शबाब ले बैठा
रंग, गोरा गुलाब ले बैठा

दिल का डर था कहीं न ले बैठे
ले ही बैठा जनाब ले बैठा

जब भी फुर्सत मिली है फर्ज़ों से
तेरे रुख़ की किताब ले बैठा


कितनी बीती है कितनी बाकी है
मुझ को इस का हिसाब ले बैठा

मुझ को जब भी है तेरी याद आई
दिन-दहाड़े शराब ले बैठा

अच्छा होता सवाल ना करता
मुझ को तेरा जवाब ले बैठा

‘शिव’ को इक ग़म पे ही भरोसा था
ग़म से कोरा जवाब ले बैठा।

लेकिन बटालवी का प्यार परवान नहीं चढ़ सका. प्रेमियों के बीच जातिभेद सामने आ गया. प्यार में नाकामी ने उन्हें बुरी तरह से तोड़ कर रख दिया. प्यार में टूटन की पीड़ा उनकी कविता में तीव्रता से परिलक्षित होती है.

शिव कुमार बटालवी का पहला कविता संग्रह 1960 में पीड़ां दा परागा (दु:खों का दुपट्टा) प्रकाशित हुआ. यह संग्रह प्रकाशित होते ही साहित्यिक हलकों में छा गया. इसके बाद उनकी महत्वपूर्ण कृति महाकाव्य नाटिका ‘लूणा’ प्रकाशित हुई तो इसने ने भी कामयाबी के लहरा दिए. ‘लूणा’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. 1967 में साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले शिव कुमार बटालवी सबसे कम उम्र के साहित्यकार बन गये. ‘लूणा’ को आधुनिक पंजाबी साहित्य की एक महान कृति माना जाता है. यह महाकाव्य है. इसमें लूणा का ब्याह सियालकोट के राजा के साथ होता है, लेकिन लूणा राजा के बेटे पूरण से मोहब्बत करने लगती है. लूणा दरअसल के नकारात्मक किरदार है, लेकिन शिव कुमार ने इस किरदार को सच्ची मोहब्बत, त्याग और समर्पण की मिसाल बताते हुए नए सिरे गढ़ा है.

शिव कुमार की नज़्मों में आम जनता की हूंक सुनाई देती है. दरअसल, वे जनता के कवि हैं. उनकी कविताएं लोकगीत के रूप में गाई और गुनगुनाई जाती हैं. पंजाब की फिज़ाओं में आज भी कहीं न कहीं ‘मैं कंडयाली थोर वे सजणा’ या ‘जिंदू दे बागीं दरदाँ दा बूटड़ा’ जैसे गीतों की गूंज सुनाई पड़ ही जाती है. मैनूं विदा करो (मुझे विदा करो), अलविदा (विदाई), सोग (शोक) समेत ना जाने कितनी रचनाएं हैं जिनमें शिव कुमार बटालवी की निराशा और मृत्यु की प्रबल इच्छा दिखाई पड़ती है.

मैंनू विदा करो
असां ते जोबन रुत्ते मरना,
मर जाणां असां भरे भराए,
हिजर तेरे दी कर परिकरमा..

(मुझे विदा करो. हमें तो यौवन की ऋतु में मरना है, मर जाएंगे हम भरे पूरे तुम से जुदाई की परिक्रमा पूरी करके)

36 साल की उम्र में शराब की दुसाध्य लत के कारण हुए लीवर सिरोसिस के कारण 7 मई 1973 को पठानकोट के किरी मांग्याल में अपने ससुर के घर पर शिव कुमार बटालवी ने अंतिम सांस ली. उनके अंतिम दिनों के बारे में एक किस्सा मशहूर है कि शिव कुमार बटालवी 1972 में इंग्लैंड गए थे. चूंकि वे मशहूर कवि थे तो इंग्लैंड में उनसे मिलने के लिए लोगों का तांता लगा रहता था. इस मेल-मिलाप में दिन-रात शराब और शायरी का दौर चलता रहता. वे वहां कई महीने रहे. इंग्लैंड प्रवास के दौरान उन्होंने बहुत ज्यादा शराब का सेवन किया. जब वे हमवतन वापस आए तो शराब की बहुत ज्यादा लत लगने के कारण उनकी शरीर अंदर से खराब हो चुका था. इलाज के लिए वे अपनी सुसराल किरी मांग्याल आ गए और यहीं इलाज के दौरान उनकी मृत्यु हो गई.

उनकी एक कविता है, जिसमें वह लिखते हैं- हमें तो जवानी के मौसम में ही मरना है. ऐसे ही भरे-भराए शरीर से लौट जाना है. इन पंक्तियों को पढ़कर लगता है कि शायद उन्होंने ये अपने लिए ही लिखी थीं-

असाँ ताँ जोबन रुत्ते मरना
मुड़ जाणा असाँ भरे-भराए
हिजर तेरे दी कर परकरमा
असाँ ताँ जोबन रुत्ते मरना

शिव कुमार बटालवी की कई रचनाओं का इस्तेमाल हिंदी फिल्मों में किया गया है. समय-समय पर गायक बटालवी के गीतों को अपने सुरों में पिरोकर प्रस्तुत करते रहे हैं. दीदार सिंह परदेसी, जगजीत सिंह-चित्रा सिंह, सुरिंदर कौर, नुसरत फतेह अली खान, रब्बी शेरगिल, हंस राज हंस, महेंद्र कपूर ने बटालवी की रचनाओं को अलग-अलग अंदाज में प्रस्तुत किया है.

(न्‍यूज 18 हिंदी में प्रकाशित ब्‍लॉग)