Friday, February 12, 2010

क्या आप नन्हे बाघ को हारते देख सकते हैं?

* इन दिनों टीवी पर एक विज्ञापन आ रहा है। नन्हा बाघ...सुकुमार बाघ...जीवन के लिए लड़ता बाघ। अगर इस विज्ञापन के साथ अभिनेता कबीर बेदी की आवाज सुनाई ना भी दे तो भी दृश्य ही इतना बताने के लिए काफी है कि नन्हा बाघ संकट में। उसे सहारा नहीं जीवन का अिध्कार चाहिए......right to survive.


* बचपन में देखी एक िफल्म...तब टीवी नया-नया आया था... बाल सुलभ दिमाग समझता ही नहीं था ऐसी िफल्मों का महत्व...1989 में बनी िफल्म `बाघ बहादुर´। बुद्धदेव दास गुप्ता की यह िफल्म याद रही तो पवन मल्होत्रा के कारण। बंगाल का एक चरित्र घुनुराम जो शरीर पर पुताई कर बाघ बनता है और किसी तरह गुजर-बसर करता है। िफल्म याद रही तो बाघ के कारण...गरीब की व्यथा भुलाते हुए। 20 साल बाद यह विज्ञापन देखा तो हूक सी उठी- क्या अब `बाघ बहादुर´ में ही ज़िन्दा रहेंगे बाघ?
और `बाघ बहादुर´? क्या वे ज़िन्दा है?
* भोपाल का राष्ट्रीय उद्यान वन विहार...जून 2007... सफेद नर बाघ की दहाड़...जून के पहले पखवाड़े की तपती सांझ में सूरज भले मद्धम पड़ रहा था लेकिन जवान की तफरीह उसके बाड़े के बाहर खड़े लोगों को रोमांचित कर रही थी। बलिष्ठ बदन...सध्ाी चाल...दिल चीर देने वाली निगाहें और गजब की आक्रामकता...। साथ में मौजूद वैभव ने पूछा- यह बाहर होता तो...जवाब दिया-तब जो करना था इसे ही करना था...।
अब सोचता हूं अगर यह बाहर होता तो जो करते शिकारी करते?
* जनवरी 2008... वन विहार राष्ट्रीय उद्यान...वह बाड़ा खाली है जहां छह माह ईशू तफरीह करते दिखाई दिया था। वन विहार ही नहीं जग सूना लग रहा था ईशू के बिना। `एट पैक्स´ वाले ईशू को लीवर की बीमारी हमसे दूर ले गई। जहां उसे शिकारियों से सुरक्षा मिली थी वहां बीमारी या कहो लापरवाही उसे लील गई। याद है जब राष्ट्रीय समाचार चैनलों पर ईशू के अन्तिम संस्कार के दृश्य दिखलाए जा रहे थे तब कई लोगों ने मातम मनाया था। केवल वन विहार के मामूली से वन्य प्राणी सेवक ही नहीं फफक-फफक कर नहीं रो रहे थे...केवल ईशू की प्रेमिका बाघिन ही उदास और आक्रोशित नहीं थी...पूरा अभियान, पूरे प्रयत्न निढाल थे...कई सवाल थे और प्रबंध्ान के पास रटाया-रटाया जवाब था...अपनी लापरवाही से मुंह मोड़ लेने के लिए।
* अस्पताल की नवजात उपचार यूनिट...आठ माह का गर्भस्थ शिशु तड़प रहा था...न चाहते हुए भी उसके माता-पिता ने उसे समय के पहले इस दुनिया में लाने का निर्णय लिया था...ऐसी भी क्या मजबूरी...डॉक्टर ने बताया था...रीढ़ में कुछ खलल थी... जीना मुमकिन न था। समय से पहले आया मासूम... समय के पहले जा न सका। डॉक्टर के बताए वक्त से करीब डेढ़ घंटा ज्यादा सिसकियां भरता रहा...िफर कर गया कूच। पत्नी कहती है- विज्ञापन में शिशु बाघ को देख वार्मर में सिसकता शिशु याद आता है...हम उसे तो नहीं बचा पाए क्या यह शिशु बाघ बचाया जा सकता है? ईशू तो नहीं रहा क्या यह नन्हा नहीं जी सकता भरपूर जीवन जैसे जी रहे हैं आप और हम...जैसे जी रहे हैं वे जो इन्हें मार देना चाहते हैं...अपनी स्वार्थ की गर्मी के लिए।
* सवाल बड़ा है। सवाल तो कई हैं। वन केवल पेड़ों से नहीं बनता। वन नाम लेने पर याद आता है बियाबान जंगल, उसमें घूमते मासूम और आक्रान्ता प्राणी, कल-कल बहती नदियां-झरने। रास्तों वाले पेड़ समूहों को जंगल नहीं कह सकते ना। जंगल तो वह हैं जहां पगडण्डियां है और जहां से गुजरते वक्त हावी रहता है भटक जाने का भय। हम चाहते हैं कि पेड़ न हो, नदियां-झरने न हों...सारे के सारे वन्य प्राणी न हो, लेकिन `वन´ हो !
* कुछ लोग चाहते हैं कि बाघ केवल पोस्टर में रहे, डाक्यूमेन्ट्रीस में रहे, चिन्ताओं में रहे...अफसोस ऐसा सोचने वाले थोड़े हो कर भी अपने कार्य में बहुत परिपक्व हैं और बाघ की तरफ बोलने वाले ज्यादा हो कर भी कमतर साबित हो रहे हैं।
* आंकड़ें कहते हैं कि 20 वीं सदी की शुरूआत में भारत के जंगलों में 40 हजार से ज्यादा बाघ थे। 2002 में जब पद चि—ों के आध्ाार पर बाघ की गणना की गई तो यह संख्या 3 हजार 642 निकली। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्रािध्ाकरण ने जब 2008 में कैमरों के जरिए निगरानी कर संख्या जाना चाही तो पता चला कि देश में केवल 1 हजार 411 बाघ बचे थे।
बाघ अपने दुश्मनों से अकेले लड़ रहे हैं, जैसे `बाघ बहादुर´ का घुनुराम लड़ रहा था, जैसे वन विहार का ईशु लड़ रहा था, जैसे अस्पताल में शिशु लड़ रहा था... वे नहीं बचे। बचे तो केवल आंसू।
क्या आप और आंसू देख सकते हैं ? मैं नहीं देख सकता जिन्दगी की हार।

क्या आप देख सकते हैं नन्हे बाघ को मौत से हारते हुए?

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