Saturday, November 23, 2013

‘आप’ का स्टिंग और नैतिकता का तकाजा

भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी (आप) अब खुद भ्रष्टाचार के आरोप झेल रही है। गुरुवार को समाचार चैनलों पर स्टिंग आॅपरेशन के फुटेज सामने आए। इसमें ‘आप’ के प्रमुख नेताओं समेत सात उम्मीदवारों पर अवैध तरीके से पैसा जुटाने के खुलासे का दवा किया गया है। स्टिंग आॅपरेशन न्यूज पोर्टल ‘मीडिया सरकार’ ने किया है। जिन प्रत्याशियों पर अवैध तरीके से फंड जुटाने का आरोप लगा है उनमें ‘आप’ की आरकेपुरम से उम्मीदवार शाजिया इल्मी और प्रमुख कार्यकर्ता कुमार विश्वास भी शामिल हैं। आरोप है कि ये लोग गलत तरीके से पार्टी के लिए चंदा इकट्ठा कर रहे थे।
उधर, एक चैनल ने अरविंद केजरीवाल के बारे में खुलासा किया है कि उन्होंने नौकरी में रहते हुए दो जगहों से तनख्वाह ली। हालांकि ‘आप’ का कहना है कि फुटेज में घालमेल किया गया है। कुमार विश्वास का कहना है कि मैं कवि हूं।  पैसे कमाता हूं, अपनी प्रतिभा से कमाता हूं। मैं बिजनेस क्लास में सफर करता हूं तो रामलीला मैदान में जाकर डंडे भी खाता हूं। आमदनी पर टैक्स देता आया हूं। कवि सम्मेलन के लिए अपनी फीस वह कैश और चेक दोनों तरीकों से लेता हूं और अगर इस देश में कैश से पैसे लेना अपराध है तो मैं आज ही सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लूंगा।
यह सब तब हुआ है जब मीडिया में ‘आप’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल और अण्णा हजारे के बीच विवाद की खबरें प्रसारित हुई थीं और केजरीवाल पर स्याही फेंकी गई। दिल्ली सहित देश के पांच राज्यों में चुनाव है और किसी के लिए भी यह समझना मुश्किल नहीं है कि दिल्ली का यह घटनाक्रम क्यों हो रहा है। बार-बार के सर्वे और रिपोर्ट्स में कहा गया है कि ‘आप’ का राजनीतिक अवतरण इस बार दिल्ली के चुनावी समीकरण बिगाड़ेगा। पार्टी बनने के पहले अण्णा के नेतृत्व में हुए आंदोलन में टीम केजरीवाल को मिला जनसमर्थन उनकी लोकप्रियता का गवाह है। ‘आप’ भले सरकार न बनाए या उसके प्रत्याशी न जीते लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं है कि वह खेल बिगाड़ने वाली है। किसी तीसरे का मुकाबले में आ जाना दो बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा को नागवार  गुजरना लाजमी है। इस लिए ‘आप’ के साथ हो रहे ताजा घटनाक्रमों में राजनीतिक साजिश के शक को खारिज नहीं किया जा सकता है।
‘आप’ के साथ जो हो रहा है वह किसी फिल्मी घटनाक्रम सा लगता है जिसमें हीरो और उसके सहायक अपनी नादानियों के कारण विलेन के षड्यंत्रों में उलझ जाते हैं और एक समय लगने लगता है कि विलेन की साजिशें सफल हो जाएंगी और सच्चा होने के बाद भी हीरो का समूह हार जाएगा। यहां ‘आप’  या किसी और पार्टी को हीरो या विलेन नहीं बताया जा रहा है बल्कि यह रेखांकित करना चाहता हूं कि कोई भी राजनेता हो वह एक बड़े समूह का हीरो होता है। उसकी ‘कारगुजारियों’ के बाद भी उसके समर्थक उसे पाक साफ ही मानते हैं और यही सोचते हैं कि उसके विरोधियों ने साजिश कर उसे फंसाया है। हर नेता के लिए समर्थकों का यह विश्वास बड़ी पूंजी होता है लेकिन विडंबना है कि नेता हर बार इस पूंजी को दांव पर लगाते हैं। ‘आप’ राजनीति में नई पार्टी है और इसके कार्यकर्ताओं को अभी ‘राजनीति’ का  उतना अनुभव नहीं है वरना वे दूसरे शातिर नेताओं की तरह फंसते नहीं। दरअसल, ‘आप’ पर ताजा हमलों या खुलासों के बहाने हमें देश की राजनीति के तौर-तरीकों पर सोचने-विचारने का मौका मिल गया है। जिस आंदोलन के पीछे देश के लाखों लोग खड़े हों उसके कर्ताधर्ताओं पर नैतिक जिम्मेदारी ओर लोगों की तुलना में ज्यादा होती है।
इसे यूं समझा जा सकता है। हम सामान्य तौर पर मानते हैं कि नेताओं को काली कमाई नहीं करनी चाहिए। उन्हें जीतने के लिए आपराधिक हथकंडों को नहीं आजमाना चाहिए। भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं देना चाहिए। अपना घर चमकाने के बदले जनता की पीड़ा हरनी चाहिए। उन्हें सेवक होना चाहिए, शासक नहीं। लेकिन अधिकांश नेता इन मान्यताओं को तोड़ते है और भरपूर तोड़ते हैं। वे अपने पद और पॉवर का खूब इस्तेमाल करते हैं। जनता सब जान कर भी सहती रहती है। मान लेती है कि यही राजनीति का रूप-रंग है। लेकिन जब ‘आप’  जैसी पार्टी  के ऊपर ऐसे आरोप लगते हैं तो उसके हजारों समर्थकों का मन बुझने लगता है। वह मायूस होने लगती है। अभी आरोपों का सिद्ध होना बाकि है। अगर ये सिद्ध हो जाएंगे तो कई दिल टूटेंगे। आरोप सिद्ध न हुए तो विश्वास सुदृढ़ होगा।
यही कारण है कि न केवल ‘आप’ के सदस्य बल्कि जीवन में हर उन लोगों के ऊपर यह विशेष जिम्मेदारी है कि वे जिन सिद्धांतों की पैरवी कर रहे हैं उनके पालन के लिए अतिरिक्त रूप से सतर्क रहें। या जिनकी वे मुखालफत कर रहे हैं उन सिद्धांतों का भूले से भी समर्थन न हो जाए। जब कोई कार्य मिशन हो जाता है तो वहां निजी और सार्वजनिक मूल्यों में कोई अंतर नहीं रह जाता। व्यक्तिगत और व्यवसायिक सिद्धांतों में फर्क नहीं होता। जैसे आप होते हैं वैसे दिखना भी पड़ता है और जैसे दिखते हैं वैसा होना भी पड़ता है। ‘गाइड’ फिल्म का मुख्य किरदार राजू गाइड इस रूपांतरण का सबसे बड़ा उदाहरण है। नैतिकता का यही तकाजा गुजरे जमाने से हमारी बाध्यता रही है और इस 21 वीं सदी में भी यही एक सीमा रेखा है। जिसके एक तरफ  विश्वास है दूसरी तरफ  दरका हुआ भरोसा।