दो दिनों में दो बड़े फैसले आए हैं। बहुचर्चित चारा घोटाले में फैसला 17 साल लंबी कानूनी लड़ाई के बाद आया है। इसी तरह 23 साल पुराने मेडिकल एडमिशन फर्जीवाड़ा मामले में कांग्रेस सांसद रशीद मसूद को दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने चार साल कैद की सजा सुनाई है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश के मुताबिक, अगर किसी सांसद को दो साल कैद से ज्यादा की सजा सुनाई जाती है तो उसकी संसद सदस्यता रद्द हो जाएगी और वह जेल से चुनाव भी नहीं लड़ सकेगा। इस फैसले की जद में लालू के पहले रशीद मसूद आएंगे। दोनों ही मामलों में कानूनी प्रक्रिया करीब 2 दशकों तक चली है। इतने वक्त की लड़ाई में कई मोड़ ऐसे भी आए जब न्याय की आस टूटने लगी थी। हालांकि यह राहत की बात है कि देरी से ही सही लेकिन दोषियों को सजा मिल रही है। ऐसे में कई सवाल भी उठते हैं कि क्या इतनी देरी से मिलने वाली सजा का समाज में कोई संदेश जा पाएगा? क्या ये फैसले न्याय में देर है अंधेर नहीं की कहावत के अलावा भ्रष्टाचार या अपराधों को रोकने में भय का वातावरण तैयार कर पाएंगे? बहुत विश्वास से नहीं कहा जा सकता कि इससे भ्रष्टाचारियों को सबक मिलेगा और वे भविष्य में सत्ता का दुरुपयोग करने के पहले सोचेंगे। अभी तो इन फैसलों राजनीतिक महत्व ज्यादा है। लालू यादव की गिरफ्तारी 2014 के आम चुनाव को लेकर बनाए जा रहे समीकरणों को प्रभावित करेगी। ये फैसले राजनीतिक दृष्टि से इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि सजायाफ्ता नेताओं को चुनाव के अयोग्य करार देनेवाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ठोस राजनीतिक राय कायम होगी और उस फैसले की काट में केंद्र सरकार द्वारा लाया गया राहतकारी अध्यादेश को खत्म करने की राह पुख्ता हो जाएगी। यह हमारे देश की राजनीति की विडंबना ही कही जानी चाहिए कि आने वाले चुनावों में इन सजायाफ्ता नेताओं की पार्टियां व समर्थक उनके नाम पर सहानुभूति मतों की उम्मीद करेंगे और बहुत हद तक उन्हें सहानुभूति मत मिल भी जाएंगे। यह भी संभव है कि लालू और राशिद के समर्थक जनता के बीच यह संदेश देने में कामयाब हो जाएं कि लालू और राशिद राजनीति का शिकार हुए हैं और इस आधार पर दोनों नेताओं का न केवल गुनाह कमतर कर दिया जाएगा बल्कि भ्रष्टाचार के खिलाफ संदेश भी उतना असरकारक नहीं रह पाएगा जितना इन दोनों को मिली सजा के बाद पहुंचना चाहिए था। इस बात की भी संभावना है कि जयललिता और जगन की तरह लालू भी सजा के बाद या सजा के दौरान ज्यादा जन समर्थन हासिल कर लें। यह भ्रष्टाचार पर मिली सजा को साबित करने की लड़ाई का दूसरे चरण है। कानूनी लड़ाई पूरी हो चुकी अब भ्रष्टाचार और अपराध पर मिली सजा को नैतिक रूप से कमतर करने की कोशिशों को बेअसर करने की चुनौती है। आप ही सोचिए क्या सजायाफ्ता नेताओं को सहानुभूति मिलना चाहिए?