गुंचे तेरी ज़िंदगी पे दिल हिलता है
सिर्फ एक तबस्सुम के लिए खिलता है
गुंचे ने कहा कि इस चमन में बाबा
ये एक तबस्सुम भी किसे मिलता है.
फिल्म्स डिवीजन द्वारा बनाई गई अपनी बायोपिक में उस्ताद अमीर खां साहब यही एक शेयर पढ़ते हैं और मानो कहते हैं, तमाम संघर्षों के बाद भी मैं खुश हूं. वे अमीर खां साहब जिनके पहले तक हिंदुस्तानी संगीत की एक खास गायन शैली तराना अर्थहीन थी. संगीत विद्वान पं. विष्णु नारायण भातखंडे ने भी तराना को अर्थहीन ही करार दिया था. मगर दस सालों के शोध के बाद उस्तार अमीर खां ने तराना को अर्थ दिया. उन्होंने बताया कि अमीर खुसरो द्वारा इजाद किया गया तराना अर्थहीन नहीं बल्कि वह एक तरह का जप है और इस कारण मूल्यवान है. इसलिए उन्होंने तराने में कम शब्द रख कर उनका जप अधिक रखा और इस तरह वे अध्यात्म में एकाकार होते रहे. पंडित निखिल मुखर्जी को दिए साक्षात्कार में उस्ताद अमीर खां ने कहा था पहले गायक शब्द पर अधिक बल देते थे जबकि भाव को महत्व कम देते थे. जबकि अमीर खां साहब के गायन में स्वर्गिक भाव का अहसास होता है.शब्द से भाव की संगीत यात्रा करवाने वाले उस्ताद गायक अमीर खां की 15 अगस्त को जयंती है. उनका जन्म 15 अगस्त, 1912 को हुआ था. उनके पिता शाहमीर खान भिंडी बाजार घराने के सारंगी वादक थे, जो इंदौर के होलकर राजघराने में बजाया करते थे. उनके दादा चंगे ख़ान तो बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में गायक थे. 1921 में अमीर अली की मां का देहांत हो गया था जब वे केवल नौ वर्ष के थे. अमीर और उनका छोटे भाई बशीर को पिता ने सारंगी की शिक्षा देनी आरंभ की. जल्द ही पिता को महसूस हुआ कि अमीर का रुझान वादन से ज़्यादा गायन की तरफ है. इसलिए उन्होंने अमीर अली को गायन की तालीम देने लगे.
बालक अमीर के उत्साद अमीर खां बनने के पीछे दर्द और अपमान की दास्तानें हैं. डॉ. इब्राहिम अलद की पुस्तक में बचपन की एक अपमानभरी घटना का उल्लेख अमीर खां के बाल मित्र सितार वादक रामनाथ श्रीवास्तव ने किया है. वे बताते हैं कि पिता का व्यवहार उस जमाने के उस्तादों की तरह ही बेहद कड़क होता था. एकबार पिता ने सांरगी बजाने के दौरान किसी गलती पर नन्हे अमीर की गर्दन पर डिब्बा दे मारा था. इससे दुखी अमीर ने गायक की राह पकड़ ली. वे छिपछिप कर रियास किया करते थे. इसमें छोटे भाई बशीर की सारंगी पर संगत मिला करती थी.
बचपन में ही एक घटना और हुई. इंदौर के प्रसिद्ध हार्मोनियम वादक बापराव अग्निहोत्री ने लिखा है कि एक बार इंदौर के गफूर बजरिया मोहल्ले में उस्ताद नसीरूद्दीन खां डागर का कार्यक्रम हुआ. वहां अमीर खां ने ‘मेरुदंड’ नामक ग्रंथ देखा. वे उसे लेकर पढ़ने लगे तो उस्ताद नसीरूद्दीन ने यह कहते हुए ग्रंथ छीन लिया कि यह बच्चों के काम का नहीं है. बालक अमीर इतने आहत हुए कि तय कर लिया उच्च श्रेणी के गायक बन कर ही दम लेंगे. बालसखा रामनाथ श्रीवास्तव से ‘मेरुदंड’ ग्रंथ लाने को कहा. रामनाथ ने भी दोस्त के भाव को समझा और कुछ ही दिनों में ‘मेरुदंड’ की कॉपी हाथ से लिख कर अमीर खां को दे दी.
अपमान की ऐसी ही एक घटना का उल्लेख कला मर्मज्ञ प्रभु जोशी ने अपने आलेख में किया है. वे लिखते हैं कि उस्ताद अमीर खां की प्रतिभा को अस्वीकार का आरंभ तो उसी समय हो गया था, जब वे शास्त्रीय संगीत के एक दक्ष गायक बनने के स्वप्न से भरे हुए थे और रायगढ़ दरबार में एक युवतर गायक की तरह अपनी अप्रतिम प्रतिभा के बलबूते संगीत-संसार में एक सर्वमान्य जगह बनाने में लगे हुए थे. एक बार उनके आश्रयदाता ने उन्हें मिर्जापुर में सम्पन्न होने वाली एक भव्य-संगीत सभा में प्रतिभागी की बतौर भेजा, ताकि वे वहां जाकर अपनी गायकी की एक प्रभावकारी उपस्थिति दर्ज करवा के लौटें. लेकिन, उन्होंने जैसे ही अपना गायन शुरू किया रसिकों के बीच से उनके विरोध के स्वर उठने लगे. यह विरोध जल्द ही शोरगुल में बदल गयस. उस संगीत-सभा में प्रसिद्ध गायक इनायत खां, फैयाज खां और केशरबाई भी मौजूद थे. इन वरिष्ठ गायकों की बात भी श्रोताओं ने सुनी नहीं. इस घटना से हुए अपमान-बोध ने युवा गायक अमीर खां के मन में ‘अमीर‘ बनने के दृढ़ संकल्प से साथ दिया. वे जानते थे, एक गायक की ‘सम्पन्नता’, उसके ‘स्वर’ के साथ ही साथ ‘कठिन साधना’ भी है. नतीजतन, वे अपने गृह नगर इंदौर लौट आए.
उसने स्वर-साधना को अपना अवलम्ब बनाया, और ऐसी साधना ने एक दिन उसको उसकी इच्छा के निकट लाकर छोड़ दिया. शायद इसी की वजह रही कि बाद में, जब अमीर खां साहब देश के सर्वोत्कृष्ट गायकों की कतार में खड़े हो गये तो बड़े-बड़े आमंत्रणों और प्रस्तावों को वे बस इसलिए अस्वीकार कर दिया करते थे कि ‘वहां आने-जाने में उनकी ‘रियाज‘ का बहुत ज्यादा नुकसान हो जाएगा. प्रभु जोशी सच ही लिखते हैं कि कुल मिला कर यह रियाज के अखण्डता की बात ही थी. बहारहाल, अमीर खां साहब का सर्वस्व रियाज पर ही एकाग्र हो गया था. भारतीय शास्त्रीय संगीत के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा गायक हुआ होगा, जिसके लिए ‘रियाज‘ इतना बड़ा अभीष्ट बन गया हो. उनके बारे में एक दफा उनके शिष्य रमेश नाडकर्णी ने जो एक बात अपनी भेंट में कही थी, वह यहां याद आ रही है कि ‘मौन में भी कांपता रहता था, खां साहब का कंठ. जैसे स्वर अपनी समस्त श्रुतियों के साथ वहां अखंड आवाजाही कर रहा है.’
फिल्म संगीत में भी उस्ताद अमीर खां का योगदान उल्लेखनीय है. ‘बैजू बावरा’, ‘शबाब’, ‘झनक झनक पायल बाजे’, ‘रागिनी’, और ‘गूंज उठी शहनाई’ जैसी फिल्मों के लिए उन्होंने अपना स्वरदान किया. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि दूसरे संगीतकारों की तरह उन्होंने कभी फिल्मों में गाने से परहेज नहीं किया. संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये उस्ताद अमीर खां को 1967 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. फिर 13 जनवरी 1974 का वह दिन जिसने एक कार दुर्घटना ने शास्त्रीय संगीत के इस महान गायक को हमसे छीन लिया है. हालांकि, संगीत में उन्होंने आसमान सा कद अर्जित किया लेकिन उनका पारिवारिक जीवन संतोषप्रद नहीं रहा. अलग-अलग कारणों से उन्हें चार बार शादियां करनी पड़ीं. उनके दो बेटे भी हुए लेकिन दोनों में से किसी ने भी भी संगीत की अपनी विरासत को आगे नहीं बढ़ाया. उनका एक बेटा इंजीनियर हुआ था भारत के बाहर बस गया जबकि दूसरा बेटा हैदर अली फिल्मी दुनिया में अभिनेता शाहबाज खान के नाम से चर्चित हुआ.
इंटरनेट पर उपलब्ध उस्ताद अमीर खां साहब के इंटरव्यू या गायन को सुन कर एक ही बात से सहमति होती है कि वे एक गायक नहीं, एक पूरे घराने की तरह मौजूद हैं, जिसमें उनके कई-कई शिष्य हैं, जो गा-गा कर अपने गुरु का ऋण उतार रहे हैं.
(न्यूज 18 पर 15 अगस्त 2023 को प्रकाशित)