इनदिनों के राजनीतिक हालात देख कर एक शेर बार-बार याद आ रहा है-‘घर से निकल रहे हो, कफन साथ ले लो/ क्यूं इतने मुतमईन हो कि वापस भी आओगे?’ क्या यह सवाल भाजपा और कांग्रेस को अपने आप से पूछना चाहिए कि वे किस आधार पर यह यकीन रखे हुए है कि वे सत्ता में वापसी कर रहे हैं? भाजपा में नेतृत्व को लेकर जो घमासान मचा है उसे देख कर यही लगता है कि सारी लड़ाई सिंहासन पर बैठने की है, सिंहासन पाने के लिए की जाने वाली कवायद की चिंता किसी को नहीं है। केंद्र में
सत्ता पाने को आतुर भाजपा को मोदी में वह सारथी नजर आ रहा है जो उसके रथ को सिंहासन के करीब ले जा सकता है और इस यकीन की छांव में वह अपने सबसे अनुभवी नेता लालकृष्ण आडवाणी और सहयोगी दलों को भी किनारा करने को बेताब है। टीम मोदी यह साबित करने पर जुटी है कि मोदी के अलावा कोई और भाजपा का मसीहा है ही नहीं। वे यह मानकर चल रहे हैं कि जनता केंद्र की कांग्रेस सरकार से नाराज है और बस मोदी का चेहरा देख कर उन्हें चुन लेने को आतुर हैं। पार्टी यह क्यों भूल रही है कि उसका अब तक का सबसे बेहतर प्रदर्शन 1998 और 99 में मिली 182 सीट ही है। देश पर राज करना है तो उसे 272 सीट पर ‘अपने’ सांसद चाहिए। जब ‘अपने’ की रूठ जाएंगे तो ये आंकड़ा कैसे पूरा होगा? मोदी की कट्टर छवि एक वर्ग को पसंद आ सकती है लेकिन यह वर्ग भाजपा को कुछ हिस्सों में एकतरफा जीत भले ही दिला दे, देशभर में 272 सीट दिलाने की ताकत नहीं रखता। पार्टी ने छह राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी राज्य इकाइयों को अकेला छोड़ दिया है। मप्र में शिवराज सिंह चौहान का जिम्मा है कि वे तीसरी बार सरकार बनवाएं, लेकिन पार्टी के अंदरूनी मसलों को हल करने में केंद्रीय नेतृत्व सहयोग में रूचि नहीं दिखाएगा फिर चाहे वह हार सकने वाले विधायकों के टिकट काटने की बात हो या नेताओं में तालमेल न होने का मसला। यही बात छत्तीसगढ़ में भी लागू होती है। कुछ यही हाल मप्र कांग्रेस का भी है। बड़े नेता एकजुट हो रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया सारे मतभेद भूला कर अपनी कार्यकारिणी में दूसरे गुट के नेताओं को जिम्मेदारियां दे रहे हैं लेकिन पदाधिकारी हैं कि काम करने को तैयार नहीं। क्यों भूरिया को बार-बार फटकारना पड़ता है कि मैदान में जाओ वरना कुंडली बिगाड़ दूंगा? असल में दोनो दलों को भरोसा है कि जनता सरकारों से नाराज है और वह उन्हें ही चुनेगी। क्या इतना भरोसा जायज है?
सत्ता पाने को आतुर भाजपा को मोदी में वह सारथी नजर आ रहा है जो उसके रथ को सिंहासन के करीब ले जा सकता है और इस यकीन की छांव में वह अपने सबसे अनुभवी नेता लालकृष्ण आडवाणी और सहयोगी दलों को भी किनारा करने को बेताब है। टीम मोदी यह साबित करने पर जुटी है कि मोदी के अलावा कोई और भाजपा का मसीहा है ही नहीं। वे यह मानकर चल रहे हैं कि जनता केंद्र की कांग्रेस सरकार से नाराज है और बस मोदी का चेहरा देख कर उन्हें चुन लेने को आतुर हैं। पार्टी यह क्यों भूल रही है कि उसका अब तक का सबसे बेहतर प्रदर्शन 1998 और 99 में मिली 182 सीट ही है। देश पर राज करना है तो उसे 272 सीट पर ‘अपने’ सांसद चाहिए। जब ‘अपने’ की रूठ जाएंगे तो ये आंकड़ा कैसे पूरा होगा? मोदी की कट्टर छवि एक वर्ग को पसंद आ सकती है लेकिन यह वर्ग भाजपा को कुछ हिस्सों में एकतरफा जीत भले ही दिला दे, देशभर में 272 सीट दिलाने की ताकत नहीं रखता। पार्टी ने छह राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी राज्य इकाइयों को अकेला छोड़ दिया है। मप्र में शिवराज सिंह चौहान का जिम्मा है कि वे तीसरी बार सरकार बनवाएं, लेकिन पार्टी के अंदरूनी मसलों को हल करने में केंद्रीय नेतृत्व सहयोग में रूचि नहीं दिखाएगा फिर चाहे वह हार सकने वाले विधायकों के टिकट काटने की बात हो या नेताओं में तालमेल न होने का मसला। यही बात छत्तीसगढ़ में भी लागू होती है। कुछ यही हाल मप्र कांग्रेस का भी है। बड़े नेता एकजुट हो रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया सारे मतभेद भूला कर अपनी कार्यकारिणी में दूसरे गुट के नेताओं को जिम्मेदारियां दे रहे हैं लेकिन पदाधिकारी हैं कि काम करने को तैयार नहीं। क्यों भूरिया को बार-बार फटकारना पड़ता है कि मैदान में जाओ वरना कुंडली बिगाड़ दूंगा? असल में दोनो दलों को भरोसा है कि जनता सरकारों से नाराज है और वह उन्हें ही चुनेगी। क्या इतना भरोसा जायज है?