हर साल ईद आती है लेकिन ऐसी ईदी तो कभी-कभार ही मिलती है जब अतुल जलराशि छलक उठती है और भदभदा के गेट को खोलना पड़ता है...। हर साल मेघ आते हैं, छा कर हर्षाते हैं लेकिन जी भर कर बरसते नहीं। मन और धरा, कुछ प्यासे रह जाते हैं। ऐसे ही अतृप्त रह जाता है अपना बड़ा ताल। पहले तो ये मौके बहुत आते थे। हर साल बार-बार आते थे लेकिन जब से इंसान ने अपनी दुनिया का विस्तार किया है बड़ा तालाब छोटा होता गया है। मानो अग्रज ने अनुजों के लिए अपना विस्तार समेट लिया। राजा भोज के ताल ने अपनी प्रजा के 'सुख" के लिए खुद को छोटा कर लिया जैसे।
हर साल ताल के साथी बादल आते तो है लेकिन वे भी इसे रीता ही छोड़ जाते हैं। मेघ अपना नेह बरसाते ही नहीं और हमारे ताल की लहरें लचकती भी नहीं। न धरती वैसी हरियाती है, जैसी इस बार धानी चादर ओढ़ हर्षित वसुंधरा इठला रही है। मेघ कलश से बरसे नीर ने तालाब को यौवन दे दिया है। लहरें बल खाने लगी हैं और दौड़-दौड़ कर शहर की ओर आने लगी है। जैसे हमें बुलाती हो अपने उत्सव में शामिल होने...।
प्रकृति के इस मुखर निमंत्रण को कौन संवेदनशील मन ठुकरा सकता है भला? तभी तो जब पता चला कि अपना ताल छलक उठा है और वह भदभदा के तटबंध तोड़ने को आतुर है, लोग टूट पड़े इस खूबसूरत नजारे को अपनी स्मृतियों में कैद करने। छह बरस बाद आया ऐसा मौका, जब बड़े तालाब के पानी ने भदभदा का दायरा लांघा है।
कितना मनोरम दृश्य...तालाब की सीमाओं में उफनती जल राशि को ज्यों ही मार्ग मिला वे किलक उठीं। छन-छन छमकती, बूँदें उड़ाती लहरें अपना रास्ता तलाशती दौड़ पड़ी कलिया सोत की ओर। भदभदा के पुल के एक ओर मर्यादा में भोजताल और दूसरी तरफ कूदती-फांदती लहरें। पहाड़ों की फुनगी पर टीकी रूई जैसे बादल और हरी धरती के बीच ताल की रजत संपदा। ऐसे दृश्यों को देख चिहुँकते-मुस्काते चेहरे और उनकी तृप्त आत्मा।
हे मेघ, तुम हर साल ऐसे बरसो कि मरूथल मेरा, मधुवन हो जाए।