Saturday, November 23, 2013

‘आप’ का स्टिंग और नैतिकता का तकाजा

भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी (आप) अब खुद भ्रष्टाचार के आरोप झेल रही है। गुरुवार को समाचार चैनलों पर स्टिंग आॅपरेशन के फुटेज सामने आए। इसमें ‘आप’ के प्रमुख नेताओं समेत सात उम्मीदवारों पर अवैध तरीके से पैसा जुटाने के खुलासे का दवा किया गया है। स्टिंग आॅपरेशन न्यूज पोर्टल ‘मीडिया सरकार’ ने किया है। जिन प्रत्याशियों पर अवैध तरीके से फंड जुटाने का आरोप लगा है उनमें ‘आप’ की आरकेपुरम से उम्मीदवार शाजिया इल्मी और प्रमुख कार्यकर्ता कुमार विश्वास भी शामिल हैं। आरोप है कि ये लोग गलत तरीके से पार्टी के लिए चंदा इकट्ठा कर रहे थे।
उधर, एक चैनल ने अरविंद केजरीवाल के बारे में खुलासा किया है कि उन्होंने नौकरी में रहते हुए दो जगहों से तनख्वाह ली। हालांकि ‘आप’ का कहना है कि फुटेज में घालमेल किया गया है। कुमार विश्वास का कहना है कि मैं कवि हूं।  पैसे कमाता हूं, अपनी प्रतिभा से कमाता हूं। मैं बिजनेस क्लास में सफर करता हूं तो रामलीला मैदान में जाकर डंडे भी खाता हूं। आमदनी पर टैक्स देता आया हूं। कवि सम्मेलन के लिए अपनी फीस वह कैश और चेक दोनों तरीकों से लेता हूं और अगर इस देश में कैश से पैसे लेना अपराध है तो मैं आज ही सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लूंगा।
यह सब तब हुआ है जब मीडिया में ‘आप’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल और अण्णा हजारे के बीच विवाद की खबरें प्रसारित हुई थीं और केजरीवाल पर स्याही फेंकी गई। दिल्ली सहित देश के पांच राज्यों में चुनाव है और किसी के लिए भी यह समझना मुश्किल नहीं है कि दिल्ली का यह घटनाक्रम क्यों हो रहा है। बार-बार के सर्वे और रिपोर्ट्स में कहा गया है कि ‘आप’ का राजनीतिक अवतरण इस बार दिल्ली के चुनावी समीकरण बिगाड़ेगा। पार्टी बनने के पहले अण्णा के नेतृत्व में हुए आंदोलन में टीम केजरीवाल को मिला जनसमर्थन उनकी लोकप्रियता का गवाह है। ‘आप’ भले सरकार न बनाए या उसके प्रत्याशी न जीते लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं है कि वह खेल बिगाड़ने वाली है। किसी तीसरे का मुकाबले में आ जाना दो बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा को नागवार  गुजरना लाजमी है। इस लिए ‘आप’ के साथ हो रहे ताजा घटनाक्रमों में राजनीतिक साजिश के शक को खारिज नहीं किया जा सकता है।
‘आप’ के साथ जो हो रहा है वह किसी फिल्मी घटनाक्रम सा लगता है जिसमें हीरो और उसके सहायक अपनी नादानियों के कारण विलेन के षड्यंत्रों में उलझ जाते हैं और एक समय लगने लगता है कि विलेन की साजिशें सफल हो जाएंगी और सच्चा होने के बाद भी हीरो का समूह हार जाएगा। यहां ‘आप’  या किसी और पार्टी को हीरो या विलेन नहीं बताया जा रहा है बल्कि यह रेखांकित करना चाहता हूं कि कोई भी राजनेता हो वह एक बड़े समूह का हीरो होता है। उसकी ‘कारगुजारियों’ के बाद भी उसके समर्थक उसे पाक साफ ही मानते हैं और यही सोचते हैं कि उसके विरोधियों ने साजिश कर उसे फंसाया है। हर नेता के लिए समर्थकों का यह विश्वास बड़ी पूंजी होता है लेकिन विडंबना है कि नेता हर बार इस पूंजी को दांव पर लगाते हैं। ‘आप’ राजनीति में नई पार्टी है और इसके कार्यकर्ताओं को अभी ‘राजनीति’ का  उतना अनुभव नहीं है वरना वे दूसरे शातिर नेताओं की तरह फंसते नहीं। दरअसल, ‘आप’ पर ताजा हमलों या खुलासों के बहाने हमें देश की राजनीति के तौर-तरीकों पर सोचने-विचारने का मौका मिल गया है। जिस आंदोलन के पीछे देश के लाखों लोग खड़े हों उसके कर्ताधर्ताओं पर नैतिक जिम्मेदारी ओर लोगों की तुलना में ज्यादा होती है।
इसे यूं समझा जा सकता है। हम सामान्य तौर पर मानते हैं कि नेताओं को काली कमाई नहीं करनी चाहिए। उन्हें जीतने के लिए आपराधिक हथकंडों को नहीं आजमाना चाहिए। भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं देना चाहिए। अपना घर चमकाने के बदले जनता की पीड़ा हरनी चाहिए। उन्हें सेवक होना चाहिए, शासक नहीं। लेकिन अधिकांश नेता इन मान्यताओं को तोड़ते है और भरपूर तोड़ते हैं। वे अपने पद और पॉवर का खूब इस्तेमाल करते हैं। जनता सब जान कर भी सहती रहती है। मान लेती है कि यही राजनीति का रूप-रंग है। लेकिन जब ‘आप’  जैसी पार्टी  के ऊपर ऐसे आरोप लगते हैं तो उसके हजारों समर्थकों का मन बुझने लगता है। वह मायूस होने लगती है। अभी आरोपों का सिद्ध होना बाकि है। अगर ये सिद्ध हो जाएंगे तो कई दिल टूटेंगे। आरोप सिद्ध न हुए तो विश्वास सुदृढ़ होगा।
यही कारण है कि न केवल ‘आप’ के सदस्य बल्कि जीवन में हर उन लोगों के ऊपर यह विशेष जिम्मेदारी है कि वे जिन सिद्धांतों की पैरवी कर रहे हैं उनके पालन के लिए अतिरिक्त रूप से सतर्क रहें। या जिनकी वे मुखालफत कर रहे हैं उन सिद्धांतों का भूले से भी समर्थन न हो जाए। जब कोई कार्य मिशन हो जाता है तो वहां निजी और सार्वजनिक मूल्यों में कोई अंतर नहीं रह जाता। व्यक्तिगत और व्यवसायिक सिद्धांतों में फर्क नहीं होता। जैसे आप होते हैं वैसे दिखना भी पड़ता है और जैसे दिखते हैं वैसा होना भी पड़ता है। ‘गाइड’ फिल्म का मुख्य किरदार राजू गाइड इस रूपांतरण का सबसे बड़ा उदाहरण है। नैतिकता का यही तकाजा गुजरे जमाने से हमारी बाध्यता रही है और इस 21 वीं सदी में भी यही एक सीमा रेखा है। जिसके एक तरफ  विश्वास है दूसरी तरफ  दरका हुआ भरोसा।

Thursday, October 31, 2013

बौना हो कर नहीं समझ सकते सरदार की विशालता...

सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती पर कई सियासी बातें हुई हैं। यह अच्छी बात है कि देश अपने नेताओं को याद करे और उनके सिद्धांतों को अपनाने  के लिए प्रेरित हो। नेता अगर अपने पूववर्ती जननायकों को याद रखते हैं तो और भी अच्छी बात है इससे शासन और नेतृत्व क्षमता में सुधार होता है। इनदिनों सरदार पटेल को भी याद किया जा रहा है। बेहतर होता उन्हें उनके कृतित्व और व्यक्त्वि की खूबियों के कारण याद कर उनके दिखाए मार्ग का अनुसरण करने का संकल्प लिया जाता लेकिन गांधी, नेहरू, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, लालबहादुर शास्त्री की ही तरह सरदार पटेल को भी स्वार्थवश याद किया जाता है। इस तरह से याद करना असल में ऐसे महानायकों का निरादर करने के समान है। यह विडंबना ही कही जानी चाहिए कि मनीषियों को लोग प्रतिमाएं बना कर याद रखते हैं लेकिन उनकी बताई शिक्षा को सबसे पहले भूला देते हैं। उनके नाम पर झगड़ते हैं लेकिन अपने आदर्श के क्रिया कलापों का अनुसरण नहीं करते। अगर ऐसा होता तो विचारधारा की जो लड़ाई देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू और देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने जिस शालीनता से लड़ी, बाद में भी उसी गरिमा के साथ लड़ी जाती। दुर्भाग्य है समर्थकों ने अपने हित साधने के लिए उन नेताओं को नीचा दिखाना शुरू कर दिया जिन नेताओं ने जीवित रहते हुए कभी एक-दूसरे का अपमान नहीं किया था।  देश को आजाद करवाने में महात्मा गांधी का सर्वाधिक योगदान था तो नेहरू देश के विकास की ने कल्पना और दृष्टिकोण को विस्तार दिया। देश अगर आज एकजुट है और इसकी रगों में विविधता के बावजूद एकता का लहू दौड़ रहा है तो इसकी यह शक्ति और संपूर्णता सरदार पटेल की कार्यक्षमता का परिणाम है। इतिहास गवाह है कि मतभेदों के बावजूद इन नेताओं ने हमेशा कभी मनभेद नहीं होने दिया। साथ काम करने के दौरान के अनेकों प्रसंग है जब पटेल और नेहरू दोनों ने ही अपनी भूमिकाओं को त्यागने के प्रस्ताव रखे थे लेकिन कभी यह नहीं चाहा कि स्वयं का वर्चस्च स्थापित हो। त्याग, समर्पण और निष्ठा के ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जो उनके व्यक्तित्व की विशालता उजागर करते है लेकिन यह अनुयायियों और समर्थकों का छोटापन है कि वे न तो उस विशालता को समझ पाए और न आत्मसात कर पाए। कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों बड़े दलों ने नेताओं पर अपना अधिकार इस तरह जताया ऐसे वे उनकी पैतृक पूंजी हो लेकिन इस पूंजी के संरक्षण के लिए उनके आदर्शों को अपनाने के उदाहरण यदाकदा ही देखने को मिले। चुनाव के कारण ही सही लेकिन एक बार फिर सरदार पटेल चर्चा में है और उनकी चर्चा होना तभी सार्थक होगा जब युवा पीढ़ी उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जाने और किताबों को पढ़ कर उनके व्यक्तित्व का सही आकलन कर पाए। वे कानों से सूनी उन्हीं बातों को सच न माने जो इनदिनों एक दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे नेता कह रहे हैं। नेताओं के लिए भी क्या यह आवश्यक नहीं कि वे सरदार और नेहरू ने आदर्श राजनीति का पाठ सीखें और यह सीखें कि कैसे तमाम मतभेदों के बावजूद देश को मजबूत और विकसित बनाने के लिए साथ काम किया जाता है। ऐसा  कर पाए तो यह सरदार को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Saturday, October 26, 2013

राहुल गांधी के बयान पर ये सोचिए

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जो कहा उस पर जमकर सियासत हो  रही है। राहुल ने  इंदौर की सभा में मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के लिए सीधे तौर पर भाजपा को जिम्मेदार बताया था। राहुल ने कहा था कि खुफिया विभाग के एक अधिकारी ने बताया है कि भाजपा ने मुजफ्फरनगर में आग लगाई और अब आईएसआई पीड़ित युवकों से संपर्क कर उन्हें भड़का रही है। राहुल गांधी ने सियासी सभा में यह बयान दिया था और यह मानना कि विपक्ष उनके बयाने पर आपत्ति नहीं करेगा नासमझी होगी। फिर अगर यह बयान मुस्लमानों से जुड़ा हो तो उस पर कोहराम मचना तय है। भाजपा के साथ सपा ने भी राहुल को इस बयान के लिए आड़े हाथों लिया है और वे माफी की मांग कर रहे हैं। यह चुनावी मौसम है और सभी दल अपने वोट बैंक को सुरक्षित करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। राहुल गांधी की इस टिप्पणी को केवल चुनावी भाषण मान कर भुलाया नहीं जा सकता क्योंकि उन्होंने एक ऐसे मसले  का जिक्र किया है जो विभाजन के बाद से अब तक करोड़ों लोगों को प्रभावित कर रहा है। राहुल गांधी अपनी पार्टी के महत्वपूर्ण पद पर हैं और  उनकी मंशा के अनुरूप की कांग्रेस की रीतियां-नीतियां निर्धारित की जा रही हैं। उनकी छवि ऐसे नेता कि है जो आम आदमी और युवाओं के बारे में सोचता है। इसलिए अगर वे कुछ कह रहे हैं तो उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। मुजफ्फरनगर के दंगों में आईएसआई कनेक्शन की बात अब तक न तो उत्तर  प्रदेश सरकार ने कही है, न ही केंद्र सरकार या उसकी किसी जांच एजेंसी ने ही ऐसा कोई उल्लेख किया है। ऐसे में राहुल का सार्वजनिक रूप से ऐसा कहना हमारे सुरक्षा तंत्र  की कमजोरी की ओर इशारा करता है। इतनी ही गंभीर बात दंगा पीड़ितों के नजरिए की भी है। आईएसआई के संपर्क में होने के आरोप के कारण मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ितों को अविश्वास की दृष्टि से देखा जा सकता है। यह माना जाएगा कि राष्ट्र विरोधी तत्व उन्हें बहला फुसला कर अपनी साजिशों को पूरा करने में उनका इस्तेमाल कर सकते हैं। दंगा पीड़ितों के मन पहले ही आहत हैं और अगर उन्हें अपने ही देश में संदिग्ध माना जाएगा और पर्याप्त राहत नहीं मिलेगी तो देश में फूट डालने वालों के मंसूबे कामयाब ही होंगे। कांग्रेस का कहना है कि राहुल गांधी के बयान की यही मंशा थी। अगर यह बात सही भी है तो सत्तारूढ़ पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी को बजरिए  सरकार उन खामियों को दूर करने के प्रयास करना चाहिए जिनका लाभ उठा कर विघटनकारी ताकतें अपना हित साध लेती हैं। ऐसी ताकतों को मुंह तोड़ जवाब मिलना जरूरी है। हम जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी ताकतों के घातक इरादों को सफल होता देख चुके हैं। वहां अभी भी हालात सामान्य नहीं हैं। ऐसे में राहुल को मिली सूचना के केवल राजनीतिक पहलुओं को ही न टटोला जाए बल्कि उसके हर आयाम पर समग्रता से ध्यान दिया जाना चाहिए।  इतनी ही बड़ी आवश्यकता इस बात की भी है कि केवल इस कारण मुजफ्फरनगर और पूरे देश के मुसलमानों की निष्ठा पर संदेह न किया जाए और केवल इस बात से उनके साथ व्यवहारगत भेदभाव न हो कि वे आईएसआई के लिए ‘साफ्ट टारगेट’ हैं।  ऐसा होता है तो यह देश की एकता पर खतरा होगा।

Thursday, October 24, 2013

तेरी गायकी की बूंद के प्यासे हम...

जिंदगी  की पहेलियां जब उलझाने लगती हैं तो संगीत हमराही बन जाता है। मन्ना डे की गिनती भी ऐसे ही गायकों में होती है जिनकी गायकी हमें पारलौकिक अनुभव करवाती हैं। ऐसी आवाज का धनी यह मकबूल फनकार  अब हमारे बीच नहीं है। वर्ष 1943 में सुरैया के साथ ‘तमन्ना’ फिल्म से अपनी गायकी की शुरूआत करने वाले मन्ना डे का मूल नाम प्रबोध चंद्र डे था। उनका सफर भी उस युग के तमाम सफल इंसानों की तरह मुश्किलों और संघर्ष से भरा हुआ था। गरीबी और संघर्ष के दिन में काफी संघर्ष करना पड़ा। ‘तमन्ना’ के बाद कई दिनों तक काम नहीं मिला। नाउम्मीदी और मुफलिसी के उस दौर में उन्हें ‘मशाल’ फिल्म मिली और इसमें गाया गीत ‘ऊपर गगन विशाल’ हिट हो गया जिसके बाद उन्हें धीरे-धीरे काम मिलने लगा। बाद का जीवन मन्ना डे की सफलता और हमारे से साथ संगीत के गहरे नाते की कहानी है। उनकी आवाज की तरह उनके व्यक्तित्व की सरलता ही थी कि उन्होंने कभी किसी गीत को गाने से इंकार नहीं किया और हर किस्म के गाने हर किसी के लिए गाए। शुरुआत में उन्हें सहायक कलाकार, हास्य और चरित्र अभिनेता के गीत मिले लेकिन उन्होंने हमेशा पूरे समर्पण से काम किया। यही कारण है कि उनके हर गीत पर उनकी खास मुहर दिखाई दिखाई देती है फिर चाहे वह ‘उपकार’ फिल्म का ‘कस्मे वादे प्यार वफा’ हो  या ‘आनंद’ फिल्म का चर्चित गीत ‘जिंदगी कैसी है पहेली’ हो। हर गीत से उनकी अनूठी छवि का परिचय होता है। जो मन्ना डे को केवल गंभीर गीतों का गायक  मानते रहे वे भी ‘पड़ोसन’ का गीत ‘इक चतुर नार करके सिंगार’ और ‘श्री 420’ का रोमांटिक गाना ‘ये रात भीगी-भीगी’ सुन कर हतप्रभ रह जाते हैं। उनकी रेंज का अनूठा उदाहरण यह है कि वे जहां हल्के-फुल्के गीतों में मस्ती का रंग भरते थे वहीं ‘लागा चुनरी में दाग’ जैसे शास्त्रीय और ‘ऐ मेरे प्यारे वतन के लोगों’ जैसे देशभक्ति के गीतों में गहराई और ओज का संचार कर देते थे। आज मन्ना डे सशरीर हमारे बीच में नहीं है लेकिन उनके गीत ही उनकी मौजूदगी के निशान होंगे। जब-जब दोस्ती का जिक्र होगा तब-तब ‘यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी’ गाया  जाएगा। अपने जीवन साथी को देख प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए ‘ओ मेरी जोहरा जबीं’ गुनगुनाया जाएगा और दर्शन की बात आएगी तो ‘ऐ भाई जरा देख के चलो’ में जिंदगी का मिजाज खोजा जाएगा। ‘सीमा’ में गाया ‘तू प्यारका सागर है तेरी एक बूंद के प्यासे हम’ को कौन भूल सकता है? एक बार संगीतकार अनिल विश्वास ने कहा था कि मन्ना हर वह गीत गा सकते हैं जो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश ने गाए हों। लेकिन इनमें कोई भी मन्ना के हर गीत को नहीं गा सकता। ऐसे थे मन्ना डे। समाज ने उन्हें पद्म श्री और पद्म भूषण तथा दादा साहब फाल्के सम्मान दे कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है लेकिन उनकी गायकी के कर्ज से हम कभी उऋण नहीं हो पाएंगे आखिर वे गायकी के सागर थे और हम इस सागर की एक-एक बूंद के प्यासे हैं। जब जब भारतीय फिल्म संगीत का उल्लेख होगा मन्ना डे का जिक्र किए बगैर बात पूरी नहीं हो पाएगी।

Tuesday, October 22, 2013

चीन के साथ रिश्ते में चीनी कम है ...

प्रधानमंत्री  मनमोहन सिंह रूस की यात्रा कर लौटे हैं और अब चीन जा रहे हैं। 1992 से विश्व ने  आर्थिक उदारीकरण को स्वीकार किया और बीते दस सालों में चीन के साथ रिश्ते में आर्थिक पक्ष फिर से जुड़ गया।  भारत और चीन का व्यापार साल 2012 तक 66 अरब डॉलर का हो गया जो 2007 के 38.68 अरब डॉलर की तुलना में लगभग दोगुना है। यह कारोबार 2015 तक 100 अरब डॉलर के पार होने की संभावना है। ऐसा नहीं है कि चीन के साथ पहले आर्थिक संबंध नहीं थे। सदियों पहले सिल्क रूट में भारत की अहम् भागीदारी थी। सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के समय में भारत में चीन से और यूरोप से व्यापार हुआ करता था। 1700-1800 में भी भारत मे विदेशी मूल के व्यापारियों से व्यापार होता था। 1947 में आजादी के बाद खुली अर्थव्यवस्था से किनारा कर लिया गया। 1947 से 1990 तक भारत ने आयात और निर्यात पर कई तरह के कर लगाए थे। पिछले 20 सालों में इन देशों के साथ हमारे संबंध राजनयिक और कूटनीतिक स्तर के साथ आर्थिक तौर पर भी मजबूत हुए हैं। पचास के दशक में पंडित जवाहर लाल नेहरू को चीन ने राजकीय भोज का आमंत्रण भेजा था। उसके बाद यह पहला मौका है जब भारतीय प्रधानमंत्री को चीनी राष्ट्रपति की तरफ से राजकीय भोज का न्यौता मिला है। लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है जितनी दिखाई दे रही है। जो चीन व्यापार में मित्र दिखाई देता है वह सीमा पर ताकतवर दुश्मन है जो हमारी  धरती निगलने को बेताब है। सीमा पर अतिक्रमण के विरोध पर आंखें दिखाने वाला चीन धीरे-धीरे अपने सस्ते सामान से हमारे बाजार पर भी कब्जा कर रहा है। पिछले दिनों लद्दाख में दोनों देशों के सैनिक बीस दिनों तक आमने-सामने डटे रहे थे। स्पष्ट है कि रिश्तों की इस उलझन को केवल व्यापार के सहारे सुलझाना संभव नहीं है। सीमा विवाद का कोई संतोषजनक समाधान खोजे बगैर दोनों देशों के बीच बेहतर आर्थिक रिश्ते कायम करना बेहद मुश्किल है। भारत ने चीन पर हमेशा विश्वास जताया है लेकिन हर बार ही चीन ने इस भरोसे पर आघात किया है। ऐसे में लाजमी है कि चीन हमें यह विश्वास दिलाए कि वह सीमा पर दगा नहीं करेगा और लद्दाख जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी। दूसरा मुद्दा आर्थिक है। दोनों देशों के बीच कारोबार का पलड़ा चीन की ओर ही क्यों झुका रहे? वह भारत के सामान की चीन में बिक्री बढ़ाने की राह आसान करे। तभी दोनों देशों के संबंधों में मिठास बढ़ाने के प्रयास सार्थक हो सकेंगे।

Saturday, October 19, 2013

मुंगेरी लाल के हसीन सपने, जमीन में दबे सोने का लालच और कीमत विहीन इंसानी जान


उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में भारतीय पुरातत्व विभाग का दल उस छुपे हुए ‘खजाने’ को खोजने के लिए खुदाई शुरू कर चुका है जिसके बारे में एक साधु को सपना आया है। आश्चर्य तो यह है कि इस सोने के अस्तित्व पर खुद विभाग को भी शक है। यह पहली बार नहीं है कि किसी का सपने में जमीन में गड़े सोने या धन की जानकारी मिली हो और उसने इसे पाने के जतन न किए हों। हमारा आपराधिक इतिहास तफ्सील से इस बारे में बता  सकता है और उन बच्चों के बारे में जानकारी भी दे सकता है जिनकी बलि इस जमीन में गड़े सोने को पाने के लालच में दे दी गई। लेकिन यह पहली बार है जब  दर्जनों पुरातत्वविद और उनके सहायक एक साधु को आए सपने के आधार पर सैकड़ों साल पुराने राजाराव रामबक्श के किले के खंडहर पर खुदाई कर रहा है। हालांकि, कहा जा रहा है कि भूगर्भ सर्वेक्षण की रिपोर्ट में संबंधित इलाके में सोना, चांदी और अन्य अलौह धातु होने की संभावना के संकेत मिले हैं।  इतिहास भी इस इस बात की पुष्टि नहीं करता है कि राजाराव रामबक्श के पास कभी इतनी भारी मात्रा में सोना था। यहां इतना सोने होने का दावा भारत के दूसरे इलाकों के खुदाई के इतिहास से भी मेल नहीं खाता। बावजूद इसके अगर भारतीय पुरातत्व विभाग ने राजाराव रामबक्श के किले पर खुदाई करवाने का फैसला किया है तो इसके दो बड़े कारण हैं पहला आर्थिक और दूसरा राजनीतिक। आर्थिक कारण को समझने के लिए हमारी अर्थव्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था में सोने का महत्व समझना होगा। आज सोना भुगतान संतुलन में अहम स्थान रखता है। आर्थिक तंगी से जूझ रही सरकार इस खामोख्याली में है कि सोना मिल गया तो उसके दिन फिर जाएंगे। इसका कारण भी है। कुल आयात का यह 8.7 प्रतिशत है। हमारी कुल राष्ट्रीय आय में बहुमूल्य वस्तुओं की भागीदारी, जिनमें सोना भी शामिल है, वित्तीय वर्ष 2013-14 की पहली तिमाही में 4.6 फीसदी रही। भारत में सोने की कुल मांग का 75 प्रतिशत आयात आभूषण के लिए ही होता है। 23 प्रतिशत सिक्के व बिस्कुट के रूप में निवेश के लिए तथा बाकी उद्योग-धंधे में। हमारी सामाजिक व्यवस्था में सोने  के  बगैर कोई शुभ कार्य पूरा नहीं होता। यह प्रतिष्ठा का विषय भी है और संपन्नता का प्रतीक भी। सोने न केवल महिला के सौंदर्य से जोड़ कर देखा जाता है बल्कि सोने से लदी महिला उसके पति के रूतबे का द्योतक भी होती है। ऐसे में सोना पाने के लिए अगर जान लेना भी पड़े तो लोग उसमें गुरेज नहीं करते।
सोना पाने के लिए प्रत्यक्ष रूप से हत्या और हत्या के षड्यंत्र तो आम बात है लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि उनके सोने का लालच अप्रत्यक्ष रूप से कई लोगों की जान ले रहा है। जी हां, मैं बात कर रहा हूं सोने की खदानों में काम करने वाले मजदूरों और सोने का परिष्कृत करने वाले कारीगरों की। सोने को जमीन से निकालने में जुटे श्रमिक मिट्टी से सोने के कण खोजने के लिए उसमें पारा मिलाते हैं और पारे के जहर के शिकार होते हैं। यह पारा उनके दिमाग पर असर करता है। लिहाजा कंपकंपी और तालमेल की समस्या से घिरे ये गरीब मजदूर बिना समुचित उपचार प्राण गंवा देते हैं। पारे का शिकार वे कारीगर मजदूरों से ज्यादा होते हैं जो सोने को पारे से अलग करते हैं। पारा उनके दिमाग के उस हिस्से पर असर डालता है जो सही ढंग से चलने में मदद करता है। पारे का असर गुर्दों पर भी पड़ता है लेकिन दिमाग पर ये जो असर डालता है उसे ठीक नहीं किया जा सकता। माना जाता है कि 70 देशों में एक से डेढ़ करोड़ लोग सोना निकालने के काम में जुटे हैं।  यानी इतने लोगों को सोना निकालने  में जान का खतरा उठाना पड़ता है। इतना ही नहीं सोने की खुदाई के लिए इंडोनेशिया में करीब 60 हजार हेक्टेयर जमीन से जंगल काट दिए गए हैं। पहले जहां हरा इलाका था वहां अब हवाई नक्शे में एक सफेद धब्बा दिखाई देता है।
हालांकि, भारतीय पुरातत्व विभाग योजनाबद्ध तरीके से हर साल 100 से 150 साइटों पर खुदाई करवाती है, जिसका उद्देश्य सांस्कृतिक विरासतों को ढूंढ़ना और सहेजना होता है  लेकिन इस बार वह सोने की खुदाई में जुटी है और यह कह कर अपनी कार्रवाई को उचित करार दे रही है कि सोना मिल गया तो बहुत बढ़िया और सोना छोड़ मिट्टी के बर्तन भी मिल गए  तो पुरातत्व महत्व के होंगे। वहां खजाना मिलेगा या नहीं ये तो खुदाई के बाद ही पता चलेगा लेकिन इतना तो तय है कि अब देश भर में कई लोगों को जमीन में धन और सोना गड़ा होने के सपने आएंगे।अगर, उन्नाव की खुदाई में सोना मिल गया तो देश भर में जारी होने वाला सोना पाने का संभावित जुनून कहां जा कर थमेगा कहना मुश्किल है। इसकी शुरुआत हो चुकी है। पुरातत्व विभाग के पास देश के अलग-अलग हिस्सों से उन्हें हर रोज सैकड़ों फोन आ रहे हैं, जिनमें लोग संभावित खजाने की खोज के लिए टीम भेजने का आग्रह कर रहे हैं। जमीन में गड़ा सोना या धन पा कर बिना परिश्रम अमीर बनने के हसीन सपने कितने ही ‘मुंगेरीलालों’ को आएंगे और यह ख्याली पुलाव पकाने के लिए वे अंध विश्वास, जादू टोने का सहारा लेने और मासूम बच्चों की हत्या तक करने से नहीं चूकेंगे। यही कारण है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था में कभी भी बिना परिश्रम कमाए गए धन को तवज्जो नहीं दी गई। हमारी नैतिक कथाएं ऐसे धन के साथ आए पतन के उदाहरणों से भरी पड़ी हैं। उन्नाव से कुछ हासिल होगा या नहीं लेकिन उसके घातक दुष्परिणामों का मिलना तो तय हो चुका है। 

Thursday, October 17, 2013

राहुल, कांग्रेस में आपकी बात सुनी क्यों नहीं जाती?

श्रीमान राहुल गांधी, बहुत अच्छा लगता है जब आप बाहें चढ़ा कर कहते हैं कि सच बोलने का कोई वक्त नहीं होता लेकिन यह बताते हुए दुख होता है कि आपका यह सच आपकी पार्टी ही नहीं सुनती है। आपको याद दिलाना चाहता हूं कि आप जब पहली बार इटारसी के आबादीपुरा और झाबुआ आए थे तो राजनीति के एक विद्यार्थी की तरह थे और आपकी बातों को उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया लेकिन फिर जब आप दो साल बाद आए तो एक विजन के साथ प्रस्तुत हुए थे। आपने पैराशूट से उतरे नेता पुत्रों के विपरीत तोहफे  में मिले पद को ठुकरा कर संगठन को खड़ा करने में रूचि दिखाई थी। आपकी बातों पर यकीन होने लगा था। तब तक आपने अपनी खास योजना ‘आम आदमी का सिपाही’ लांच कर दी थी और युवा कांग्रेस के चुनिंदा नेताओं को उसके संचालन की जिम्मेदारी सौंपी थी। यह योजना देश की तरह मध्यप्रदेश में भी फ्लाप हो गई। यहां युवा नेताओं ने इसे चलाने में रूचि नहीं दिखाई।  बीते अप्रैल में जब आप कार्यकर्ताओं से मुखातिब हुए थे, तब आपने कहा था कि नवंबर में होने वाले चुनावों के उम्मीदवारों के नाम तीन माह पहले घोषित कर दिए जाएंगे लेकिन यह बात भी नहीं मानी गई। अब तो 40 दिन शेष हैं और लगता नहीं कि मतदान के 30 दिन पहले तक सभी कांग्रेस प्रत्याशियों के नाम घोषित हो पाएंगे। लगता है कि दागियों को बचाने वाले अध्यादेश को फाड़ने वाले कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अपनी ही पार्टी के नेताओं के आगे बेबस हैं। आपने कहा था कि कांग्रेस को छह बड़े नेताओं के चंगुल से मुक्त करवाएंगे और इसे कार्यकर्ताओं की पार्टी बनाएंगे लेकिन विधानसभा के लिए बनी पैनल में बड़े नेताओं ने अपने बेटे,बेटी,भाई, बहन का अकेला नाम डलवा कर टिकट पक्की कर ली है। कार्यकर्ता पहले इनके बाप दादाओं के झण्डे उठाते रहे, अब नेता पुत्रों के लिए नारे लगाएंगे।
राहुलजी, आपने ही भोपाल यात्रा में कहा था कि कार्यकर्ताओं को अपना हक लेने के लिए संघर्ष करना होगा, बिना इसके कोई भी उन्हें यह हक देने वाला नहीं है। लगता है, आपकी बात सच हो रही है, यहां कार्यकर्ताओं को उनका हक देने वाला कोई नहीं है।

मप्र की चार यात्राओं के दौरान विद्यार्थी से पूर्ण नेता बन गए राहुल


28 अप्रैल 2008
अपनी पहली मप्र यात्रा के दौरान राहुल गांधी इटारसी के आबादीपुरा में प्रमिला कुमरे के घर पहुंचे थे और मैदानी तथ्यों से अवगत होने ग्रामीणों से चर्चा की थी। उन्होंने इस कार्यक्रम से कांग्रेस नेताओं को पूरी तरह अलग रखा था। आलम यह था कि आबादीपुरा में कांग्रेस की तारीफ सुन वे इस पूर्व नियोजित बता कर नाराज हो गए और बिना खाना खाए रेस्ट हाऊस लौट गए। अगले दिन झाबुआ जिले के रायपुरिया में एनजीओ ‘संपर्क’ पहुंचे और वहां दो घंटे से ज्यादा का वक्त बिताया। कांग्रेस नेताओं को यहां भी दूर रखा गया।
6  अक्टूबर 2010
राहुल फिर भोपाल आए। यहां उन्होंने रवींद्र भवन में कॉलेज के विद्यार्थियों से चर्चा कर राजनीति में आने का आह्वान किया। यहां राहुल ने उच्च शिक्षा ले रही युवतियों से पहली बार अलग सत्र में बात की और राजनीति में आने की सलाह दी। इस कार्यक्रम में भी कांग्रेस नेताओं को मोटे तौर पर दूर रखा गया।
25 अप्रैल 2013
इस बार राहुल प्रदेश कांग्रेस की दो दिन की कार्यशाला में शामिल होने पहुंचे। राहुल ने बड़े नेताओं के कब्जे से कांग्रेस को बाहर निकालने की बात करते हुए कहा-‘जैसा कि मुझे लगता है, कांग्रेस न तो राहुल गांधी की है और न ही आप लोगों की है। यह पूरे हिन्दुस्तान की पार्टी है, जो आजादी के संघर्ष से तपकर बनी है।’ साफ है, राहुल भविष्य की अपनी राजनीति का उद्घोष कर रहे थे।
17 अक्टूबर 2013
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल इस प्रवास में चुनावी सभाओं को संबोधित करेंगे और भाजपा सरकार के परिवर्तन के लिए पूर्ण राजनेता के रूप में हुंकार भरेंगे।

राहुल गांधी की मप्र की ये चार यात्राएं राजनीति के एक विद्यार्थी के सुघड़ राजनेता में तब्दील होने की समानांतर यात्राएं हैं। पहली यात्रा में वे भारतीय राजनीति और कांग्रेस का चरित्र समझने के लिए निकले थे। राजनीति की इस बारहखड़ी को पढ़ते समय विद्यार्थी राहुल ने वरिष्ठ नेताओं की उंगली नहीं पकड़ी बल्कि खुद इबारत पढ़ने-समझने की कोशिश की। दूसरी बार वे आए तो युवाओं से मिले और उनके बीच अपना राजनीतिक एजेंडा रखा। यहां वे युवाओं के बीच ‘फ्यूचर लीडर’ के रूप में दिखाई दिए। तीसरी यात्रा में राहुल ने परिपक्व होते नेता के रूप दिखलाए। उन्होंने वरिष्ठ नेताओं को खरी-खरी सुनाई तो कार्यकर्ताओं के मन की बात को अपनी आवाज दी। कार्यकर्ताओं को लगा कि वे ‘कठपुतली नेता’ नहीं, अपनी स्वतंत्र राय रखने वाले कांग्रेस के कर्ताधर्ता से मुखातिब हैं। अब इस चौथी यात्रा में राहुल का रूप पूरी तरह एक राजनेता का जो है जो शिवराज सरकार को आरोपों के कठघरे में खड़ा कर रहा है और कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए अपना ‘मास्टर स्ट्रोक’ खेल रहा है।

Saturday, October 12, 2013

नेता क्या गमले में उगेंगे?

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उप्र के दौरे के दौरान एक ऐसे मुद्दे को छेड़ दिया है जिस पर आमतौर पर राजनेता बात तो करते हैं लेकिन काम नहीं करते। राहुल ने सवाल उठाया कि देश में दलित नेतृत्व क्यों तैयार नहीं हो सका? दलित समुदायों के बीच से नेतृत्व खड़ा करने की राहुल गांधी की चिंता उतनी ही आवश्यक है जितनी युवा नेतृत्व तैयार करने की फिक्र। युवा नेतृत्व तैयार करने की चिंता में राहुल ने अपने कीमती साल संगठन को दिए हैं। यहां राहुल से ही प्रतिप्रश्न हो सकता है कि उन्होंने या उनकी पार्टी ने दलित नेतृत्व खड़ा करने के लिए क्या किया? समाजवादी पार्टी के आजम खान ने यह सवाल किया भी लेकिन यह सवाल केवल राहुल गांधी, कांग्रेस से ही नहीं भाजपा, सपा, बसपा सहित सभी राजनीतिक दलों से होना चाहिए। राजनीतिज्ञों की चिंता का विषय केवल दलित नेतृत्व खड़ा करना ही नहीं बल्कि सभी वर्गों और समुदायों का बेहतर नेतृत्व तैयार करना भी होना चाहिए। देश की राजधानी दिल्ली सहित पांच राज्यों में अगले दो माहों में विधानसभा चुनाव होना है और अगले साल आम चुनाव होंगे। इसलिए नेतृत्व के विकल्पों की बात करने के लिए यह एकदम उपयुक्त समय है। हालांकि चुनावी मौसम में नेतृत्व की बात होती है और फिर मौसमी बातों की तरह राजनेताओं चिंतन की प्रक्रिया से गायब हो जाती है। बेहतर नेतृत्व वह समझा जाता है जो अपनी दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेता तैयार करे और समय आने पर उनके अधिकार सौंप दे। आज लगभग सभी राजनीतिक दल अपने भीतर कॉडर की समस्या से जूझ रहे है। पैराशूट से उतरे नेता बरसों से मैदानी सेवा कर रहे कार्यकर्ताओं पर भारी पड़ते जा रहे हैं और राजनीतिक विरासत को संभालने को लालायित नेता पुत्र अपने क्षेत्र में अन्य नेतृत्व के विकसित होने की संभावनओं को लील रहे हैं। हर बार यह बात की जाती है कि राजनीति करने की कोई योग्यता नहीं होती लेकिन राजनीति में जगह बनाने के लिए सारी अनिवार्यताओं पर पारिवारिक पृष्ठभूमि भारी पड़ती है। ऐसे में स्वाभाविक नेतृत्व विकसित होने की संभावनाएं और क्षीण होती जाती है। यही बात दलित नेतृत्व पर भी लागू होती है और उन तबकों के नेतृत्व पर भी जिनके हित की बात तो सभी करते हैं लेकिन आजादी के बाद से अब तक वे वंचित ही रहे। आरक्षण के जरिए जगह पक्की की जा सकती है लेकिन सफलता तो व्यक्तिगत कौशल पर भी ही निर्भर करती है। कोई किसी को कुर्सी उपहार में दे सकता है लेकिन उसके दायित्वों का निर्वहन तो व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर है। ऐसे में सभी राजनीतिक दलों को अपने भीतर हर तरह के नेतृत्व को विकसित होने की संभावनाओं को बरकरार रखना चाहिए। खासकर कमजोर और वंचित वर्गों की नेतृत्व में भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए ताकि उनके बात सही मंच पर सही तरीके से पहुंच चुके। वे केवल संसाधनों और अवसरों की कमी के कारण पीछे न रह जाएं। राहुल स्वयं यह पहल करे तो सभी दलों के लिए यह कदम उठाना मजबूरी बन जाएगी।
(फोटो साभार) 

Friday, October 11, 2013

खत्म हो जाएगा क्रिकेट का ‘सचिन वाला’ रोमांच

क्रिकेट  के भगवान, महानतम क्रिकेटर, रन मशीन, मास्टर ब्लास्टर, शतकवीर, बल्ले का बाजीगर व दूसरा डॉन ब्रेडमैन। ये वे उपमाएं हैं जो क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर का पर्याय बन चुकी हैं। अब जबकि सचिन ने टेस्ट क्रिकेट से संन्यास का ऐलान
कर दिया है, उनकी पारियां इतिहास और हमारी यादों का हिस्सा होंगी। वेस्टइंडीज के खिलाफ टेस्ट सीरीज में अपना 200 वां टेस्ट मैच खेलकर सचिन संन्यास लेंगे। यह टेस्ट मैच 14 नवंबर से  मुंबई में खेला जाना है। असल अपने दो दशक से भी  ज्यादा लंबे क्रिकेट कॅरियर के दौरान सचिन क्रिकेट का पर्याय बन गए हैं। 1989 में 16 साल की उम्र में जब सचिन तेंदुलकर ने पाकिस्तान के खिलाफ अपने क्रिकेट कॅरियर की शुरूआत की थी तब बहुत कम लोगों को यह अहसास होगा कि जब यह खिलाड़ी अपना बल्ला रखेगा तो रिकार्ड्स की एक पूरी बुक उसके नाम होगी।  इस आरोपों पर बहस हो सकती है कि सचिन केवल 200 मैचों का आंकड़ा पूरा करने के लिए टीम पर भार बने रहे और वे केवल रिकार्ड्स के लिए खेले लेकिन यह निर्विवाद तथ्य है कि सचिन का क्रिकेट देखते हुए एक पीढ़ी जवान हुई है और लाखों लोगों का क्रिकेट प्रेम केवल और केवल सचिन तक सीमित रहा है। सचिन उस दौर में मैदान में उतरे थे जब टीवी घर-घर में पहुंच रहा था और उन्होंने अपने करोड़ों प्रशंसकों को क्रिकेट मैच देखने की वजह दी। उनके लिए सचिन की पारी खत्म होने के बाद क्रिकेट का महत्व घट जाता था। सचिन आउट तो जैसे क्रिकेट उनके दिमाग से आउट। तभी तो सचिन को कई बार अपने प्रशंसकों की नाराजी झेलना पड़ी। उनके लंबे कॅरियर में कई ऐसे पल आए, जब  वे वांछित प्रदर्शन नहीं कर सके लेकिन इस निराशा से उबर कर जब वे मैदान पर आए तो एक नया रिकार्ड बना कर ही पैवेलियन लौटे। यह सचिन के  व्यक्तित्व की विशेषता रही कि उन्होंने अपनी या टीम की आलोचना का जवाब बोल कर नहीं हमेशा बल्ले और अपने
खेल से दिया। सचिन ने जितनी प्रशंसा पाई उतनी ही आलोचना भी झेली लेकिन उन्होंने हर बार अपने खेल से सोच बदलने को मजबूर किया। यह सुखद विरोधाभास है कि सचिन निजी जीवन में जितने अंर्तमुखी है, मैदान पर उनका बल्ला उतना ही जोर से बोलता है। वे जितने नाटे कद के हैं उनका खेल उतना ही ऊंचा है। जितने आसान वे दिखाई देते हैं उतना ही भारी उनका बल्ला है और उन्होंने अपने खेल के जरिए क्रिकेट के मैदान पर जो करिश्मा 24 सालों में रचा है उसे दोबारा रचने में दूसरे क्रिकेटर को पता नहीं ऐसे कितने ही 24 सालों की जरूरत होगी।  अब जबकि सचिन दो मैचों के बाद मैदान से रूखसत हो जाएंगे तो उनकी पारियां ही हमारी यादों में होंगी। जब भी कोई नया खिलाड़ी किसी करिश्मे को रचेगा या किसी रिकार्ड की तरफ बढ़ेगा तो उसकी तुलना सचिन से ही होगी। टीवी पर सचिन की यादगार पारियों के क्लिप्स दिखाए जाएंगे और उनकी पारियां देख कर ही क्रिकेटरों की नई पीढ़ियां तैयार होंगी। एक क्रिकेटर के रूप में ही नहीं बेहतर और सुलझे हुए इंसान के रूप में सचिन मैदान के बाहर भी जीवन प्रबंधन का पाठ पढ़ाएंगे। लेकिन अब उनके जैसा किसी दूसरे को होने में बरसों लगेंगे, उनका स्थान भरना तो नामुमकिन है। सचिन न होंगे तो क्रिकेट तो वही रहेगा लेकिन उसका ‘सचिन वाला’ रोमांच खत्म हो जाएगा।

Tuesday, October 8, 2013

नैना जैसे मामलों में देरी से मिला न्याय भी अन्याय जैसा

आखिरकार, नैना साहनी के हत्यारे सुशील शर्मा को सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी के बदले उम्र कैद की सजा सुना ही दी। सुशील ने जुलाई, 1995 में अवैध संबंधों के शक में नैना की गोली मारकर हत्या कर दी थी। इसके बाद उसने नैना के शव को दिल्ली के एक रेस्तरां में तंदूर में जलाने की कोशिश की थी। इस दौरान मामला खुल गया और पुलिस ने तंदूर से नैना का अधजला शव बरामद किया था। रेस्तरां मैनेजर केशव कुमार को मौके पर ही गिरफ्तार कर लिया गया था, जबकि शर्मा की गिरफ्तारी कुछ दिन बाद हुई थी। सत्र अदालत और दिल्ली हाई कोर्ट ने शर्मा को मौत की सजा सुनाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने 7 मई, 2007 को शर्मा की अपील विचारार्थ स्वीकार करते हुए उसकी सजा पर अंतरिम रोक लगा दी थी। शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट से मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने की गुहार लगाई थी। बहस के दौरान शर्मा की सजा उम्रकैद में बदलने की गुहार लगाते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता जसपाल सिंह ने दलील दी थी कि यह मामला दुर्लभतम अपराध (रेयरेस्ट आॅफ रेयर) की श्रेणी में नहीं आता, इसलिए शर्मा को मौत की सजा देना न्याय संगत नहीं है। उनका कहना था कि पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है इसलिए इसमें मौत की सजा नहीं दी जा सकती। युवा कांग्रेस के पूर्व नेता सुशील शर्मा को साल 2007 में दिल्ली हाईकोर्ट ने फांसी की सजा सुनाते समय कहा था कि सुशील शर्मा का गुनाह माफ करने लायक नहीं है। रहम की कोई गुंजाइश भी नहीं है, ऐसे गुनाहगारों के लिए एक ही सजा है, सजा-ए-मौत। कोर्ट ने कहा कि सबूतों और गवाहों से ये साबित होता है कि सुशील शर्मा ने ही नैना साहनी की हत्या की और फिर उसकी लाश को तंदूर में जलाने की कोशिश की। कोर्ट का यह कहना सही है कि इस तरह का घृणित अपराध करने वाले अपराधी के सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं है। लोग दिल दहलाने वाले इस हत्याकांड को अब तक भूले नहीं होंगे लेकिन साल-दर-साल जख्मों पर वक्त की परत चढ़ती गई। नैना के दोषी को फांसी मिले या उम्रकैद इसका फैसला करने में 18 वर्षों का समय लग गया। निश्चित रूप से एक बार फिर यह बात पुख्ता होगी कि देर से मिला न्याय भी अन्याय के समान है और यह मांग बलवती होगी कि न्यायिक प्रक्रिया को शीघ्र पूरा करने में आने वाली बाधाओं को दूर किया जाना  चाहिए। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय न्याय प्रक्रिया में देरी पर सवाल उठा चुका है। न्यायालय कई बार सरकार को बता चुका है कि कोर्ट के सामने मुकदमों की जो स्थिति है उसको देखते हुए त्वरित न्याय की उम्मीद करना व्यर्थ है लेकिन इस दिशा में उठाए गए कदम नाकाफी है। देरी से मिला न्याय जहां पीड़ित पक्ष के लिए पीड़ादायक होता है वहीं समाज में भी इसका सही संदेश नहीं जा पाता और अपराधियों के हौंसले बुलंद होते हैं। दिल्ली गैंगरेप के बाद ऐसे मामलों में शीघ्र न्याय की चाह बढ़ी है ताकि आरोपी पक्ष गवाह और पीड़ित पक्ष पर दबाव बना कर केस को कमजोर न कर सके। यह तभी संभव होगा जब त्वरित न्याय के मार्ग की सारी बाधाएं दूर की जाएंगी।

Wednesday, October 2, 2013

सजायाफ्ता नेताओं को क्यों मिले सहानुभूति?

दो दिनों में दो बड़े फैसले आए हैं। बहुचर्चित चारा घोटाले में फैसला 17 साल लंबी कानूनी लड़ाई के बाद आया है। इसी तरह 23 साल पुराने मेडिकल एडमिशन फर्जीवाड़ा मामले में कांग्रेस सांसद रशीद मसूद को दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने चार साल कैद की सजा सुनाई है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश के मुताबिक, अगर किसी सांसद को दो साल कैद से ज्यादा की सजा सुनाई जाती है तो उसकी संसद सदस्यता रद्द हो जाएगी और वह जेल से चुनाव भी नहीं लड़ सकेगा। इस फैसले की जद में लालू के पहले रशीद मसूद आएंगे। दोनों ही मामलों में कानूनी प्रक्रिया करीब 2 दशकों तक चली है। इतने वक्त की लड़ाई में कई मोड़ ऐसे भी आए जब न्याय की आस टूटने लगी थी। हालांकि यह राहत की बात है कि देरी से ही सही लेकिन दोषियों को सजा मिल रही है। ऐसे में कई सवाल भी उठते हैं कि क्या इतनी देरी से मिलने वाली सजा का समाज में कोई संदेश जा पाएगा? क्या ये  फैसले न्याय में देर है अंधेर नहीं की कहावत के अलावा भ्रष्टाचार या अपराधों को रोकने में भय का वातावरण तैयार कर पाएंगे? बहुत  विश्वास से नहीं कहा जा सकता कि इससे भ्रष्टाचारियों को सबक मिलेगा और वे भविष्य में सत्ता का दुरुपयोग करने के पहले सोचेंगे। अभी तो इन फैसलों राजनीतिक महत्व ज्यादा है। लालू यादव की गिरफ्तारी 2014 के आम चुनाव को लेकर बनाए जा रहे समीकरणों को प्रभावित करेगी। ये फैसले राजनीतिक दृष्टि से इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि सजायाफ्ता नेताओं को चुनाव के अयोग्य करार देनेवाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ठोस राजनीतिक राय कायम होगी और उस फैसले की काट में केंद्र सरकार द्वारा लाया गया राहतकारी अध्यादेश को खत्म करने की राह पुख्ता हो जाएगी। यह हमारे देश की राजनीति की विडंबना ही कही जानी चाहिए कि आने वाले चुनावों में  इन सजायाफ्ता नेताओं की पार्टियां व समर्थक उनके नाम पर सहानुभूति मतों की उम्मीद करेंगे और बहुत हद तक उन्हें सहानुभूति मत मिल भी जाएंगे। यह भी संभव है कि लालू और राशिद के समर्थक जनता के बीच यह संदेश देने में कामयाब हो जाएं कि लालू और राशिद राजनीति का शिकार हुए हैं और इस आधार पर दोनों नेताओं का न केवल गुनाह कमतर कर दिया जाएगा बल्कि भ्रष्टाचार के खिलाफ संदेश भी उतना असरकारक नहीं रह पाएगा जितना इन दोनों को मिली सजा के बाद पहुंचना चाहिए था। इस बात की भी संभावना है कि जयललिता और जगन की तरह लालू भी सजा के बाद या सजा के दौरान ज्यादा जन समर्थन हासिल कर लें। यह भ्रष्टाचार  पर मिली सजा को साबित करने की लड़ाई का दूसरे चरण है। कानूनी लड़ाई पूरी हो चुकी अब भ्रष्टाचार और अपराध पर मिली सजा को नैतिक रूप से कमतर करने की कोशिशों को बेअसर करने की चुनौती है। आप ही सोचिए क्या सजायाफ्ता नेताओं को सहानुभूति मिलना चाहिए? 

Friday, September 13, 2013

एक फैसले से समाज के बदल जाने की उम्मीद


आखिरकार, अदालत ने भी दिल्ली गैंगरेप के आरोपियों को दोषी ठहरा दिया और सजा की बारी आ गई है। दोषियों को फांसी मिले या उम्र कैद या कुछ राहत मिल जाए लेकिन यह सवाल अब तक बकाया है कि क्या इस घटना से समाज ने कोई सबक लिया? क्या ये सजा निर्भया के साथ हुए अमानवीय कृत्य जैसी घटनाओं को रोक पाएगी? उम्मीदें कई हैं लेकिन आशंकाएं नाउम्मीद कर देती हैं। आंकड़े इस निराशा को गहरा करते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो बलात्कार और छेड़छाड़ की घटनाओं में कमी आती लेकिन ये तो लगातार बढ़ रही हैं। अब तो छेड़छाड़ का विरोध भी भारी पड़ रहा है।  गुरुवार को भोपाल के पास नसरूल्लागंज में पड़ोसी युवक द्वारा लगातार छेड़छाड़ के बाद दुष्कर्म का प्रयास करने 21 वर्षीय युवती ने खुद को बचाने के लिए आत्मदाह कर लिया। युवती गंभीर अवस्था में भोपाल रेफर की गई है। एसडीएम के समक्ष हुए बयान में युवती ने युवक पर लगातार परेशान करने और दुष्कर्म का प्रयास करने की बात कही है। ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ रही है। निर्भया की आखिरी ख़्वाहिश बताते हुए उसकी मां कहती है  कि उसने बोला था सजा क्या उन्हें तो जिÞंदा जला देना चाहिए। अगर उन्हें फांसी की सजा हो जाती है तो शायद उसकी आखिरी इच्छा पूरी हो जाए। ऐसे में एक सजा से क्या सामाजिक बुनावट में कोई बदलाव आएगा? तो क्या निर्भया के अपराधियों को सजा मिलने से हिंदुस्तान के हालात बदलेंगे? क्योंकि ऐसे मामलों में सजा के प्रावधान तो कई थे। जैसे, कात्यायन ने कहा है कि बलात्कारी को मृत्युदण्ड दिया जाए। नारदस्मृति में बलात्कारी को शारीरिक दंड देने का प्रावधान है। कौटिल्य के मुताबिक दोषी की संपत्तिहरण करके कटाअग्नि में जलाने का दंड दिया जाना चाहिए। याज्ञवल्क्य सम्पत्तिहरण कर प्राणदंड देने को उचित बताते हैं। मनुस्मृति  में एक हजार पण का अर्थदंड, निर्वासन, ललाट पर चिह्न अंकित कर समाज से बहिष्कृत करने का दंड निर्धारित करती है। तो क्या आज सख्त सजा से बदलाव की आस नहीं की जा सकती? निर्भया की मां उम्मीद करती है कि अगर दोषियों को सही मायने में सजा मिल जाती है, तो फर्क जरूर पड़ेगा। अपराधियों को फांसी दिए जाने का जनता में बढ़िया संदेश जाएगा।  एक बार ऐसा करने से पहले लोगों के मन में ख़्याल तो जरूर आएगा कि हम करेंगे तो फंसेंगे। लगता तो नहीं है कि हिंदुस्तान बदल रहा है लेकिन बदलाव की थोड़ी सी झलक दिखती है। पहले बदनामी के डर से दुष्कृत्य पीड़िता को चुप रखा जाता था।अब इतना तो बदलाव हुआ है कि लोग आगे आने लगे हैं, कार्रवाई तुरंत होने लगी है, अभियुक्त पकड़े जाने लगे हैं और उन्हें समय से सजा दी जा रही है। असल में त्वरित न्याय प्रक्रिया भी कानून के सख्ती से पालन और अपराधों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उम्मीद की जाना चाहिए  कि इस फैसले के बाद भी ऐसा ही होगा। 

Monday, August 26, 2013

और लगेंगी पाबंदियां, कड़े होंगे पहरे

और नहीं बस अब और नहीं... ऐसा हमें कितनी बार कहना होगा और कितनी बार ऐसे ही चुप हर जाना होगा? यह सवाल केवल सरकार या प्रशासन से ही नहीं समाज से भी है। कुछ महीने पहले जब दिल्ली में निर्भया के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था, तो पूरा देश उबल पड़ा था। औरतों की सुरक्षा के सवाल पर हजारों युवा दिल्ली के राष्ट्रपति भवन के द्वार पर कई दिन तक जमे रहे थे। समाज में औरतों के दर्जे और पुरुषों की मानसिकता पर भी बहुत सारी बहसें चली थीं। ऐसे कानून बनाने की मांग भी उठी थी, जिससे बलात्कार के दोषियों को कड़ी सजा दी जा सके। लेकिन हुआ क्या? ऐसे मामलों की बाढ़ आ गई जैसे। हर तरफ से ऐसी ही मामलों की सूचनाएं। कहीं बेटियां घर में शिकार हुई तो कही सड़क पर भद्दी टिप्पणियों ने शर्मसार किया।
महिलाओं के साथ हिंसा और उत्पीड़न पुलिस के रोजनामचे में दर्ज होने वाले सामान्य अपराध से अलग है। यह सामाजिक पतन का गवाह है। पिछले  दो दिन की खबरों पर ही गौर करिए। उत्तरी दिल्ली के कांझावाला में घर में 15 वर्षीय लड़की के साथ उसका 55 वर्षीय पिता दुष्कर्म करता रहा।  पति-पत्नी का तलाक हो चुका है और बेटी पिता के साथ रहती थी। दूसरी घटना मुंबई कि जहां शुक्रवार देर शाम एक महिला पर हमला किया गया। वह महिला लोकल से जा रही थी तभी कुछ बदमाशों ने महिला पर तेजाब फेंकने  की धमकी दी। साफ है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए सिर्फ कानून पर्याप्त नहीं है। यह ठीक है कि मुंबई पुलिस ने मुस्तैदी दिखाते हुए एक अपराधी को कुछ घंटे के भीतर ही पकड़ लिया, लेकिन सवाल है कि शाम छह-सात बजे जब वहशी ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं तब वह कहां होती है? क्या ऐसे मामलों में समाज मूक दर्शक ही बना रहेगा या पुलिस की तरह घटना के बाद पहुंच कर विरोध ही जताता रहेगा? जब सड़क पर या स्टेशन पर किसी महिला का अपमान होता है तब वहां खड़े लोग तमाशबीन क्यों बने रहते हैं? उसी समय विरोध और प्रतिकार का साहस कहां गया?
बलात्कार की घटनाओं को लेकर सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी जैसे तर्क बेमानी लगते हैं। असल में ऐसी घटनाओं के लिए पुरुषों की वह मानसिकता भी जिम्मेदार है, जो महिलाओं को न तो उनकी पारंपरिक घरेलू भूमिका से बाहर निकलते देखना चाहती है और न ही उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता को स्वीकार कर पा रही है। ऐसी घटनाओं का बुरा परिणाम यह होगा कि अन्य लड़कियों पर परिवार द्वारा तमाम तरह की पाबंदियां लाद दी जाएंगी। जैसे, अकेले घर से जाओ, शाम को मत निकलो, नौकरी मत करो, कॉलेज मत जाओ आदि। ऐसा हो भी रहा है। दिल्ली के निर्भया बलात्कार कांड के बाद जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आई थीं, उसी तरह की प्रतिक्रियाएं मुंबई की घटना के बाद भी आने लगी हैं। यह पूछा जा रहा हैं कि सांझ ढलने के बाद उस सुनसान इलाके में वह लड़की गई ही क्यों थी? घटना के बाद सोशल मीडिया हो या अनौपचारिक बातचीत माता-पिताओं ने बेटी की सुरक्षा को लेकर डर जाहिर करते हुए तमाम तरह के प्रतिबंध की पैरवी की। यह प्रतिबंध प्यार से लागू किए जाएं या डरा कर लेकिन वास्तविक रूप में उसी पुरूषवादी सोच को बढ़ावा देंगी कि महिलाओं को घर के काम करने चाहिए। वह पढ़े क्यों और बाहर काम करने क्यों निकले? काम करने के लिए पुरूष है। हालांकि बलात्कार के आंकड़े और  घटनाएं कुछ और ही कहानी कहती हैं। आंकड़े बताते हैं कि सुनसान जगहों पर ही नहीं, बेटी हो या प्रौढ़ महिलाएं, वे अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। दुष्कर्म ज्यादातर घरों में होता है और अपराधी कोई रिश्तेदार या परिचित होता है। दरअसल, औरतों के साथ शारीरिक हिंसा और यौन उत्पीड़न के पीछे जो मानसिकता काम करती है, वह किसी सुनसान जगह या अवसर की तलाश में नहीं रहती। वह मानसिकता तो सरेराह, सभी के बीच महिलाओं को प्रताड़ित करती है। उसके निजत्व पर कब्जा जमा कर गुलाम बनाए रखने में यकीन करती है। हमें यह मानना होगा कि यह हमारे ही समाज की एक विकृति है और जब तक हम इसे दुरूस्त नहीं कर लेते आगे बढ़ती पत्नी, बहन या सहकर्मी तथा एक तरफा प्रेम प्रस्ताव अस्वीकार करती युवती पर हमले होते रहेंगे। यह सच स्वीकार नहीं कर लेते, तब तक हम इससे मुक्ति का रास्ता भी खोज नहीं पाएंगे। समाज को इस मानसिकता से मुक्त करवाना केवल कानून व्यवस्था का मामला नहीं है। सजग व तत्पर पुलिस और सख्त कानून दोनों बहुत आवश्यक हैं लेकिन हमें पूरे समाज की सोच को बदलने की मुहिम भी छेड़ना होगी। यह दोतरफा लड़ाई है। इसके कानूनी पक्ष को मजबूत करने के लिए जरूरी है कि बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामलों का निपटारा जल्दी हो। दूसरी तरफ, सामाजिक सुधारों के प्रति हमारा आग्रह ज्यादा प्रबल हो। यह हमारे समाज की विडंबना है कि 21 वीं सदी में भी नरेंद्र दाभोलकर को अंध विश्वास का विरोध करने के लिए जान गंवानी पड़ती है और महिलाओं को कुछ कुत्सित सोच वाले पुरूषों के कारण चार दीवारों में कैद होना पड़ता है। एक बार फिर उम्मीद युवाओं से ही है। वे ही इस मामले में ऐसी पहल कर सकते हैं जिसके कारण राजनीति हो या प्रशासन या समाज सभी को अपना रूख बदलना पड़े।

Saturday, August 17, 2013

क्या हार कर जीतने वाला बाजीगर बन पाएंगे मनमोहन सिंह ?

आज अमेरिका में आर्थिक हालात सुधर रहे हैं और फेडरल बैंक द्वारा प्रोत्साहन वापस लेने का खतरा है। इस आशंका में हमारी अर्थव्यवस्था डोल रही है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब अमेरिका की अर्थव्यवस्थ लड़खड़ा रही थी तब भी हम घबराए हुए थे। उस मंदी से हमारी देशी अर्थव्यवस्था के जरिए निपट लिया गया। लेकिन अब शायद ऐसा न हो, क्योंकि विशेषज्ञ मानते हैं कि हमने मालिक  होने की जगह कर्मचारी होने की अर्थनीति को चुना और यही कारण है कि हम आत्मनिर्भर होने की  जगह विश्व बाजार पर  निर्भर हो गए। आज रुपया रसातल में जा रहा है। सरकार खुद कह रही है कि रुपए के गिरने के कारण शेयर बाजार में जबर्दस्त  गिरावट हुई है। यानि हमारे पास अंतरराष्ट्रीय अर्थ जगत में आए भूचाल से निपटने के लिए कोई उपाय नहीं  है। ऐसी बुरी स्थिति में सवाल यही उठता है कि क्या डॉ. मनमोहन सिंह एक असफल अर्थशास्त्री हैं? क्योंकि विशेषज्ञ तो खतरे को भांप कर पहले ‘एंटीबायोटिक्स’ और ‘एंटीडोट’ का इंतजाम करता है लेकिन यहां तो सरकार गाफिल है। भले ही मनमोहन सिंह ने कैम्ब्रिज विवि से पीएचडी की हो और आक्सफोर्ड विवि से डीफिल किया हो और लंबे समय तक अर्थशास्त्र पढ़ाया हो लेकिन देश की आर्थिक दशा में वे किताबी ज्ञान के व्यवहारिक ज्ञान से कमतर होने की हमारी मान्यता को साबित करते लग रहे है।
ऐसा कहने के पीछे का कारण कोई राजनीतिक विद्वेष नहीं बल्कि लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था और गिरते रुपए को संभालने की सरकार की नाकामी है। स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर रिजर्व बैंक ने विदेश में निवेश पर शिकंजा कसा है। अब एक वित्तीय वर्ष में 75 हजार डॉलर से ज्यादा बाहर नहीं भेजा जा सकेगा। पहले यह सीमा 2 लाख डॉलर थी। ऐसे कदमों से वे भारतीय उद्योगपति निराश हैं जो बाहर निवेश कर वहां के उद्योगों का अधिग्रहण करना चाहते हैं। सरकार ने आर्थिक सुधारों के नाम पर विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खोल दिए लेकिन लगभग साल भर होने के बाद भी इसके कोई चमत्कारिक परिणाम सामने नहीं आए हैं। सरकार लोगों से बार-बार  आग्रह कर रही है कि वे सोना न खरीदें। वह यह नहीं समझती कि सोना निवेश के लिए जितना लुभाता है उससे कहीं ज्यादा यह हमारी धार्मिक-सामाजिक परंपराओं का अंश होने के कारण अनिवार्यता हो गया है। दरअसल, यहीं आ कर सरकार से मतभेद प्रारंभ होता है। सरकार विश्व की स्थितियों को देखते हुए जनता से उपभोग में  कटौती का आग्रह करती है। वैश्विक परिदृश्य के हिसाब से पेट्रोलियम पदार्थों को नियंत्रण मुक्त करती है। यानि हरबार जनता से ही उम्मीद करती है कि वह कटौती करे, आर्थिक अनियमितताओं की मार झेले। सरकार क्यों अर्थव्यवस्था को शॉक प्रूफ नहीं बनाती? क्यों वह आर्थिक आपाद से निपटने के इंतजाम पहले से नहीं करती है? नीतियां भी आपकी है और व्यवस्था भी आपकी क्यों भारत की अर्थ नीतियों को भारत के संदर्भ में तैयार नहीं किया जाता? क्या सरकार बाजार के उस सीधे से सिद्धांत को भूला बैठी है कि मांग बनी रहेगी तो आपूर्ति और उत्पादन  की श्रृंखला भी कायम रह सकेगी? क्यों अन्न के लिए तरस रहे भारत में हरित क्रांति के इतिहास को दोहराया नहीं जा सकता?

आज हालात ये हैं कि सोने पर इंपोर्ट ड्यूटी 8 फीसदी से बढ़ाकर 10 फीसदी कर दी गई  है। रुपए में जारी अवमूल्यन को रोकने के लिए और चालू खाता घाटा कम करने के लिए सरकारी कोशिशों के बाद भी शुक्रवार को रुपए ने अपने जीवन का नया निचला स्तर छू लिया। अंतर-बैंक विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार में रुपया डॉलर के मुकाबले 62.03 के स्तर पर चला गया। इससे पिछला निचला ऐतिहासिक स्तर छह अगस्त को 61.80 का था। रुपए में एक मई से अब तक करीब 14 फीसदी गिरावट आ चुकी है। दूसरी तरफ सोने पर आयात शुल्क बढ़ाकर 10 प्रतिशत किए जाने के बाद त्यौहारों से पहले स्टाकिस्टों की ताबड़तोड़ लिवाली के चलते शुक्रवार को सोने की कीमत 1,310 रुपए उछल कर 31,010 रुपए प्रति 10 ग्राम पर पहुंच गयी। स्थानीय सोना बाजार में यह दो साल का सबसे तेज उछाल है।
ये विरोधाभास बताता है कि सरकार के निर्णय  गलत दिशा में जा रहे हैं। पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का यह कहना सही लगता है कि सरकारी सिर्फ लक्षणों का इलाज कर रहे हैं, बीमारी का नहीं। सरकार ने बीमारी को खतरनाक बनने दिया है। राजकषीय घाटा, चालू खाते का घाटा, अर्थव्यवस्था की हालत, रुपए में गिरावट... हर चीज नियंत्रण से बाहर है। सरकार को नीतियों में बुनियादी बदलाव लाना होगा। सरकार को भारत की उस देशी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने पर गौर करना होगा जहां दैनिक उपभोग की वस्तओं के लिए बाजार पर निर्भरता कम थी। आज किसान अपने खाने का अनाज भी बाजार से खरीद रहा है जबकि पहले वे लोगों के खाने के लिए अनाज खुद उपजाता था। क्रेश क्राप के फर में वह अन्नदाता से उपभोक्ता हो गया है। ठीक वैसे  ही शहरों में नौकरी के लिए पलायन को प्रोत्साहन देकर सरकार ने देशी और पैतृक स्वरोजगार को पिट दिया। अब समाधान उन्हीं नीतियों और तरीकों में नजर आ रहा है। नीतियों की समीक्षा पर यू टर्न सरकार को हार कर जीतने वाला बाजीगर बनाएगी।

Wednesday, July 17, 2013

आस्था के शिखर पर लापरवाही की धूल

एक महीना हो गया जब प्राकृतिक आपदा त्रासदी ने उत्तराखंड में तबाही मचा दी थी। इस विध्वंस में सैकड़ों लोगों की जानें गई जबकि आधिकारिक तौर पर 5748 लोग अब भी लापता हैं। बाढ़ में फंसे एक लाख से अधिक लोगों को निकालने के लिए सुरक्षा बलों ने देश का अब तक का सबसे बड़ा राहत अभियान चलाया। बचाव कार्यों के दौरान करीब 20 वायुसेना कर्मियों तथा अन्य बलों के जवानों को भी अपनी जान गंवानी पड़ी। उत्तराखंड में अतिवृष्टि  ने जो तबाही मचाई उससे चारधाम-यात्रियों के परिजनों और स्थानीय नागरिकों को उबारने में कितना समय लगेगा, यह कहना मुश्किल है। शायद समय उनके घाव पर नई चमड़ी की परत चढ़ा दे लेकिन उसकी टीस को कभी नहीं भर पाएगा। क्या वक्त 1954 में कुंभ यात्रा के दौरान भगदड़ मच जाने के कारण मारे गाए 800 से अधिक लोगों के परिजनों के जख्म कभी भर पाए?
तब से लेकर इस साल के  इलाहाबाद कुंभ में रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ तक और फिर केदारनाथ व बोध गया जैसे मामलों में हर साल कई लोगों की असमय मौत हो जाती है। लेकिन इन धार्मिक स्थलों की व्यवस्था और प्रबंधन देख रहे ट्रस्टों और उनके कर्ताधर्ताओं से कभी सवाल नहीं होते। अगर सवाल होते तो 1989 में हरिद्वार के कुंभ मेले में भगदड़ से 350 से अधिक तीर्थयात्री नहीं मारे जाते या अगस्त 2008 में हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में भगदड़ 146 लोगों की मृत्यु का कारण नहीं बनती।  उत्तराखंड या बोध गया में जो घटा उसके लिए जिम्मेदार कौन है, यह सवाल पूछना जितना ही जरूरी यह सवाल भी है कि जिनके पास इन घटनाओं को रोक सकने वाले प्रबंधों  को करने का जिम्मा है, क्या वे अपनी भूमिकाओं पर खरे उतर रहे हैं?  इस बात से तो हर कोई सहमत होगा कि हमारे तीर्थस्थल अब तीर्थस्थल नहीं रह गए हैं, बल्कि वे पिकनिक स्पॉट बन चुके हैं। उत्तराखंड में हुए जानमाल के नुकसान का एक कारण उनका पिकनिक स्पॉट बनना भी है। तीर्थयात्राओं के नाम पर पर्यटन उद्योग आगे बढ़ रहा है। मंदिरों के इर्दगिर्द की जमीनें होटल-धर्मशाला-सड़कों आदि से पट चुकी है। यहां तक कि जिन ट्रस्टों पर यहां सुविधाओं का निर्माण करने का जिम्मा है वे भी अपना आर्थिक लाभ बढ़ाने के फेर में कमाई के नए-नए साधन तलाशने में जुटे रहते हैं जैसे, मंदिर ट्रस्ट से ही प्रसाद खरीदने की अनिवार्यता आदि।
समझ से परे है कि जिन ट्रस्टों में हर साल लाखों-करोड़ों का चढ़ावा आ रहा है, उन्हें अपनी कमाई के लिए नए-नए हथकंडों को अपनाने की क्या जरूरत है? यकीन नहीं आता तो जरा आंकड़ों पर गौर कीजिए।  तिरुमला तिरुपति देवस्थानम जिसे हम तिरुपति बालाजी के नाम से जानते हैं दुनिया का दूसरा सबसे धनी धर्मस्थल है। इस देवस्थान के रत्नों से जड़ित आभूषणों की कीमत 52 सौ करोड़ से ज्यादा है और कई सौ करोड़ का सालाना चढ़ावा है। श्री माता वैष्णो देवी मंदिर श्राइन बोर्ड को हर साल करीब एक अरब रुपए मंदिर  के चढ़ावे के रूप में मिलते हैं। महाराष्ट्र के सबसे अमीर मंदिरों में से एक शिरडी सांई मंदिर ट्रस्ट के पास 32 करोड़ रुपए के आभूषण हैं और 450 करोड़ रुपए का निवेश है। ट्रस्ट के पास 24.41 करोड़ रुपए कीमत का सोना है, 3.26 करोड़ की चांदी है। मंदिर की वार्षिक आय करीब 450 करोड़ रुपए है। करोड़ों की कमाई और लाखों श्रद्धालुओं का आना। तिरूपति, सांई बाबा मंदिर जैसे कुछ धर्म स्थलों को छोड़ दें तो अधिकांश के ट्रस्ट केवल कमाई क्यों कर रहे हैं? उनके पास श्रद्धालुओं की सुरक्षा और सहायता-सुविधाओं की कोई योजना क्यों नहीं है? हजारों लोगों के आने के बाद भी वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड ने पैदल यात्रियों और घोड़ों-टट्टू  के लिए अलग रास्ता क्यों नहीं बनाया? क्या यह बुजुर्ग-महिला, बच्चों सहित  हजारों यात्रियों को अव्यवस्था और लापरवाही के बीच छोड़ देना नहीं है जहां पूरे रास्ते घोड़ों की लीद परेशान करती है तो कभी घोड़ों के अचानक दौड़ जाने से चोट लगने की आशंका बनी रहती है? क्या ऐसे मंदिरों में ट्रस्ट को ज्यादा बेहतर इंतजाम नहीं करना चाहिए?
असल में हमारी आस्था यह मानती है कि देवस्थलों पर जाने में मिलने वाला कष्ट हमारी परीक्षा है। इसी कारण हम सारी अव्यवस्था को प्रभु की इच्छा मान स्वीकार करते जाते हैं और जिम्मेदारों को कुछ न करने की छूट दे देते हैं। दूसरा, ऐसे धार्मिक स्थल जो पर्यटन की दृष्टि से अहम् हो गए हैं वहां  सुविधा के नाम  पर बाजार और मुनाफे से जुड़ी गतिविधियां तो प्रारंभ कर दी गई लेकिन यात्रियों का आराम देने के सारे मामले ताक पर रख दिए गए हैं। ट्रस्ट भी वे काम कर रहे हैं जिनसे कमाई हो रही है लेकिन इस कमाई का कुछ अंश भी वे यात्रियों की सुरक्षा और सुविधा के लिए व्यय नहीं कर रहे। कुछ हद तक वे किसी लालची व्यापारी की तरह व्यवहार करने लगे हैं।  बोध गया विस्फोट के बाद पूर्व आईपीएस किरण बेदी ने ट्वीट किया था कि धार्मिक स्थलों के लिए एक अलग पुलिस बल होना चाहिए जिसका खर्च करोड़ों का चढ़ावा पाने वाले ट्रस्ट उठाएं। इस विचार पर बात होनी चाहिए। बड़े आयोजनों के पहले सारी व्यवस्था का आॅडिट होना चाहिए ताकि भगदड़ और इस कारण जान की हानि को रोका जा सके। जहां लोग पूजा के लिए जल-दूध, फूल आदि ले जाते हैं क्या वहां फिसलन रोधी फर्श या कारपेट नहीं लगाया जाना चाहिए? वहां व्यवस्था के लिए ट्रस्ट को स्वैच्छिक या सवैतनिक कार्यकर्ता नियुक्त नहीं करने चाहिए? ऐसे स्थानों पर आपदा  चाहे प्राकृतिक हो या इंसानी, बचाव और प्रबंधन के पुख्ता इंतजाम आज की बड़ी जरूरत है। 

Saturday, June 29, 2013

काश्मीर में गोली का जवाब विकास की बोली

काश्मीर का जिक्र करते ही हमारे जेहन में या तो आतंक का चेहरा उभरता है या फिल्मों के दृश्य देख धरती के स्वर्ग में घूम आने की हसरत हिलौरे मारने लगती है लेकिन यह दुर्भाग्य है कि हर बार या तो पारा चढ़ने पर काश्मीर का जिक्र होता है या फिर तापमान उतरने पर। मेरा सवाल यह है कि काश्मीर सहित पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में सामान्य दिनों में चिंता-फिक्र क्यों नहीं होती? ऐसा क्यों होता है कि जब वहां हिंसा का पारा चढ़ता है, तब सभी चिंतित होने लगते हैं और इसे देश की संप्रभुता को खतरा मान अतिसंवेदनशील हो जाते हैं? उन दिनों में जब पूरा देश तरक्की कर रहा होता है, किसी को भी इन प्रांतों में बसे ‘अपने भाइयों’की समस्याओं और उनके हालात की फिक्र क्यों नहीं होती? हम जब विकास और सुख की राह में फर्राटा भर रहें होते हैं तब वहां के नागरिकों के पैरों के छालें हमें दुख में क्यों नहीं डालते?
काश्मीर एक बार फिर चर्चा में है। एक कारण तो यहां हुए आतंकी हमले हैं, जो आम कहे जा सकते हैं और दूसरा कारण है प्रधानमंत्री की यात्रा, जो काफी महत्वपूर्ण है और जिसके कारण आतंकी हमले  हुए। दरअसल,प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी काश्मीर घाटी में जम्मू के बनिहाल से श्रीनगर के काजीकुंड के बीच रेल खंड का उद्घाटन कर रहे हैं। यह रेल मार्ग चालू हो जाने पर जम्मू से धरती के स्वर्ग यानि श्रीनगर की तरफ जाने वाला मार्ग 17 किलोमीटर कम हो जाएगा। यह सड़क मार्ग का वह खतरनाक टुकड़ा है जहां भूस्खलन होता है जो जिसके कारण घाटी में जाना सबसे ज्यादा खतरनाक है। टनल बन जाने से हर मौसम में रेल मार्ग से काश्मीर की सैर का सपना साकार हो सकेगा। यह खबर सुन कर पर्यटक जितना खुश हैं उतने ही खुश वे अमनपसंद काश्मीरी भी हैं। फिर नाराज कौन हैं? वे दहशतगर्द जो काश्मीर को हरा-भरा नहीं रहने देना चाहते। वे जो यहां की तरक्की को रोकने के लिए खून बहाना बेहद आसान तरीका मानते हैं।
आप काश्मीर जाएं तो पाएंगे कि वहां के हालात वैसे नहीं है जैसे वहां से कोसों दूर बैठ कर दिखलाई देते हैं। आम काश्मीरी न तो भारत सरकार से खुश है और न आतंकियों से। यह कठोर लग सकता है लेकिन यह खरा सच है कि काश्मीरी खुद को भारतीय कहलाने से ज्यादा काश्मीरी कहलाना पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ?
क्या यह सच है? इसका जवाब खोजने के लिए हमें अतीत को समझना होगा। काश्मीरी मुसलमानों की मनस्थिति को समझना होगा। जम्मू और कश्मीर के सबसे बड़े नेता शेख अब्दुल्ला ने लंबे जन संघर्ष के बाद डोगरा शासन से कश्मीर को मुक्त कराया और भारत में कश्मीर के विलय को संभव किया। लेकिन आम  काश्मीरी की जिंदगी में उतनी ही तकलीफें रही जितनी मुगलकाल या डोगरा शासनकाल में थी, बल्कि इनमें कहीं ज्यादा इजाफा ही हुआ। काश्मीरियों के दमन का सिलसिला अकबर के  समय में ही शुरू हो गया था। अकबर ने कश्मीरियों को हथियार रखने से मना कर दिया। इस फरमान का उद्देश्य यही था कि कश्मीरी अपनी खोई हुई आजादी को प्राप्त करने की कोशिश न करें। डोगरों ने कश्मीर को अपने बाहुबल से हासिल नहीं किया था, बल्कि अमृतसर संधि के तहत खरीदा था। अत: वे अपनी लगाई पूंजी को ब्याज सहित जल्दी से जल्दी वसूल लेना चाहते थे। शाल बुनकरों के किसी और धंधे में जाने की मनाही कर दी गई। साथ ही, काश्मीरी मुसलमानों के उच्च शिक्षा प्राप्त करने पर पाबंदियां लगा दीं। शिक्षा की तरह नौकरियों के द्वार भी मुसलमानों के लिए बंद थे। यही कारण था कि आजादी का काश्मीर आंदोलन आज एक आतंकवादी-अलगाववादी संघर्ष में बदल गया।
आजाद भारत में भी काश्मीर पर फतह, उस पर कब्जे के सपने देखे गए, कोशिशें हुई लेकिन उसे अपनाने और अपना बना लेने के प्रयत्न नगण्य हुए। काश्मीर की जमीन की चिंता में करोड़ों फूंक दिए गए  लेकिन वहां के बाशिंदों की शिक्षा, सेहत, रोजगार पर खर्च नाकाफी रहा। यहां तक कि उस पर्यटन की सुध भी नहीं ली गई जो सरकार की जेब भर रहा था। आज काश्मीर सुविधाओं और विकास से खाली है और इसीलिए दहशत के साये में हैं। विकास कई राहें खोलता है और आतंकी यह होने नहीं देना चाहते। आज सरकार ने रेलमार्ग की बुनियाद रखी तो आतंकियों ने बंदूकें उठा ली। वे नहीं चाहते कि काश्मीरी विकास के मायने और उसके फायदों को समझें। अगर, काश्मीर जैसे प्रांतों को भारत का अंग बनाए रखना है तो हमें हथियारों की भाषा से ज्यादा विकास की बोली बोलना होगी। तभी आम काश्मीरी खुद को भारत का अंग मान कर उसके साथ अपने हित जोड़ सकेगा। तभी आतंकियों को स्थानीय सहयोग नहीं मिलेगा। लेकिन यह देखना होगा कि डोगरा शासन की तरह विकास का मतलब अपने निवेश की ब्याज सहित वसूली नहीं होना चाहिए। घाटी का विकास वहां की प्रकृति से छेड़छेड़ा कर हमारे स्वार्थ के लिए न हो। दोहन इतना न हो कि काश्मीरी पड़ोसी देश की और सहायता के लिए ताकने लगे और वहां से मिली सहायता के लालच में छले जाएं। 

Wednesday, June 12, 2013

निर्मम सत्ता संघर्ष के सबक

भारतीय जनता पार्टी के  बूजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी भले ही मान गए है लेकिन उनकी नाराजगी और उसके बाद उन्हें मनाने की कवायद ने कई निष्कर्षों को पुनर्स्थापित किया है। भारतीय संस्कृति और आश्रम व्यवस्थ की आलोचना के तमाम कारण हो सकते हैं लेकिन भाजपा के ताजा प्रसंग में आश्रम व्यवस्था एकदम सही जान पड़ती है। यह  सिद्धांत कि जहां आपकी जरूरत न हो वहां टिके रहना आपके सम्मान को कम करता है, जीवन में बार-बार अपनी सार्थकता सिद्ध करता रहा है और इस बार भी इसने अपने सही होने को प्रमाणित किया है। आडवाणी जैसे कुशल नेता से यह आकलन करने में चूक हो गई कि भाजपा को उनकी जरूरत नहीं है और इससे पहले कि पार्टी उन्हें नकारे, वे खुद अपने लिए नई जिम्मेदारी चुन लें। लेकिन ऐसा हो न सका और जो घटा वह इस मायने में बेहद कष्टकारी है कि पार्टी को अपने जीवन रक्त से सिंचने वाले नेता कि ऐसी विदाई हुई। लेकिन सत्ता संघर्ष निर्मम होता है। भाजपा की मजबूरी यह है कि वह केवल आडवाणी के साथ नहीं रह सकती। उसे कांग्रेस से लोहा लेना है और ऐसे नेतृत्व की तलाश में थी जो मिशन 2014 को पूरा कर सके। आडवाणी का भरपूर अवसर मिले लेकिन उनके नेतृत्व में 1999 के बाद कोई चमत्कार हो न सका। यहां  तक कि आडवाणी की अंतिम रथयात्रा भी कोई कमाल नहीं दिखा पाई थी। लेकिन जैसा हर बार होता आया है सत्ता छोड़ना या सत्ता की आस छोड़ना  हर इंसान के लिए मुश्किल होता है, शायद आडवाणी के साथ भी वैसा ही हुआ। बहुत कम नेतृत्वकर्ता होते हैं जो अपनी दूसरी पीढ़ी को अपने से ज्यादा कुशल पा कर सत्ता सूत्र उसके हाथ में सौंप देते हैं। पिछले लगभग आठ वर्षो में आडवाणी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ एक हारी हुई बाजी में उलझे हुए थे। 2005 में आडवाणी की पाकिस्तान यात्रा के बाद से ही संघ ने यह साफ जता दिया था कि आडवाणी उन्हें मंजूर नहीं हैं। 2009 में आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा की चुनावी पराजय ने साफ कर दिया था कि अब पार्टी को किसी नए  नेतृत्व की तलाश है। संभवत: आडवाणी यह बात समझना नहीं चाहते थे। क्या यह कहना गलत होगा कि आडवाणी  बदले हुए समय और इस बदले समय में पार्टी की मांग को समझ नहीं पाए? दरअसल, चूक यही हुई है। आडवाणी और भाजपा का सत्ता पाने का सपना तो एक था लेकिन उसकी राह दोनों के लिए अलग थी। आडवाणी खुद के नेतृत्व में आगे बढ़ने का मोह पाले थे जबकि पार्टी उनका विकल्प खोज रही थी। अमूमन हर संस्था या परिवार में यही होता है। नई पीढ़ी तूफानी घोड़े पर सवार हो कर आती है और अपने पूर्ववर्तियों को उनके सिद्धांतों और नियमों के साथ निर्ममता से बाहर कर देती है। नई पीढ़ी संचालन के सारे सूत्र, सारे सिद्धांत अपने दृष्टिकोण से तय करती है और पुरानी पीढ़ी और उनके समर्थक हाशिए पर ठिठके सब कुछ बदलता और अपना बनाया परिवर्तित होते देखते रहते हैं।
ऐसी स्थिति में यह सवाल हमेशा खड़ा होता है क्या उस व्यक्ति का उस संस्था पर कोई हक नहीं जिसे उसने खून-पसीने से खड़ा किया है? असल में व्यक्ति सपने देखता है और अपने सपने को पूरा करने के लिए समानधर्मा लोगों को एकजूट करता चलता है। इस तरह संस्थाएं खड़ी होती है। धीरे-धीरे संस्थाएं  विराट होती जाती हैं और व्यक्ति बौने। एक समय आता है जब व्यक्ति उस संस्था के  लिए अहम् नहीं रह जाता। उसके होने या न होने के मायने नहीं रह जाते। व्यक्ति का हासिल यही है कि उसने जो सपना देखा था वह पूरा हुआ। पेड़ कोई और लगता है और  फल कोई और खाता है। माली का सुख तो पेड़ लगाने और उसने घना-विस्तारित होता देखने में हैं। लेकिन माली ही अगर अपने बोये पेड़ के फल खाने का ख्वाब देखे तो संघर्ष होना लाजमी है। हमारा इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। जिसने समय को नहीं पढ़ा, वह खारिज कर दिया गया है। दुखद यह है कि यह घटना बेहद निर्मम होती है और जश्न के स्वर में कोने में बिसूरने वालों की कराह सुनाई नहीं देती।

Monday, June 10, 2013

क्यों इतने मुतमईन हो कि वापस भी आओगे?

इनदिनों के राजनीतिक हालात देख कर एक शेर बार-बार याद आ रहा है-‘घर से निकल रहे हो, कफन साथ ले लो/ क्यूं इतने मुतमईन हो कि वापस भी आओगे?’ क्या यह सवाल भाजपा और कांग्रेस को अपने आप से पूछना चाहिए कि वे किस आधार पर यह यकीन रखे हुए है कि वे सत्ता में वापसी कर रहे हैं? भाजपा में नेतृत्व को लेकर जो घमासान मचा है उसे देख कर यही लगता है कि सारी लड़ाई सिंहासन पर बैठने की है, सिंहासन पाने के लिए की जाने वाली कवायद की चिंता किसी को नहीं है। केंद्र में
सत्ता पाने को आतुर भाजपा को मोदी में वह सारथी नजर आ रहा है जो उसके रथ को सिंहासन के करीब ले जा सकता है और इस यकीन की छांव में वह अपने सबसे अनुभवी नेता लालकृष्ण आडवाणी और सहयोगी दलों को भी किनारा करने को बेताब है। टीम मोदी यह साबित करने पर जुटी है कि मोदी के अलावा कोई और भाजपा का मसीहा है ही नहीं।  वे यह मानकर चल रहे हैं कि जनता केंद्र की कांग्रेस सरकार से नाराज है और बस मोदी का चेहरा देख कर उन्हें चुन लेने को आतुर हैं। पार्टी यह क्यों भूल रही है कि उसका अब तक का सबसे बेहतर प्रदर्शन 1998  और 99 में मिली 182 सीट ही है। देश पर राज  करना है तो उसे 272 सीट पर ‘अपने’ सांसद चाहिए।  जब ‘अपने’ की रूठ जाएंगे तो ये आंकड़ा कैसे पूरा होगा? मोदी की कट्टर छवि एक वर्ग को पसंद आ सकती है लेकिन यह वर्ग भाजपा को कुछ हिस्सों में  एकतरफा जीत भले ही दिला दे, देशभर में 272 सीट दिलाने की ताकत नहीं रखता। पार्टी ने छह राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी राज्य इकाइयों को अकेला छोड़ दिया है। मप्र में शिवराज सिंह चौहान का जिम्मा है कि वे तीसरी बार सरकार बनवाएं, लेकिन पार्टी के अंदरूनी मसलों को हल करने में केंद्रीय नेतृत्व सहयोग में रूचि नहीं दिखाएगा फिर चाहे वह हार सकने वाले विधायकों के टिकट काटने की बात हो या नेताओं में तालमेल न होने का मसला। यही बात छत्तीसगढ़ में भी लागू होती है। कुछ यही हाल मप्र कांग्रेस का भी है। बड़े नेता एकजुट हो रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया सारे मतभेद भूला कर अपनी कार्यकारिणी में दूसरे गुट के नेताओं को जिम्मेदारियां दे रहे हैं लेकिन पदाधिकारी हैं कि काम करने को तैयार नहीं। क्यों भूरिया को बार-बार फटकारना पड़ता है कि मैदान में जाओ वरना कुंडली बिगाड़ दूंगा? असल में दोनो दलों को भरोसा है कि जनता सरकारों से नाराज है और वह उन्हें ही चुनेगी। क्या इतना भरोसा जायज है?

Tuesday, June 4, 2013

सफलता की दौड़ में हार कर आउट होने लगी जिंदगी

फिल्मी दुनिया का एक और सितारा जिया खान निराशा के काले अंतरिक्ष में डूब गया। फिल्मी दुनिया जिसे सिल्वर स्क्रीन भी कहा जाता है, सुनहरे सपने दिखलाती है। यह ख्वाब बेचती और ख्वाबों की स्पर्धा भी करवाती है। चकाचौंध और सफलता के ‘नवाब’ अपने आनंद के लिए कलाकारों के स्वप्नों के ‘ग्लेडिएटर्स’ लड़ाते हैं और आगे निकल जाने के संघर्ष में उनको रक्तरंजित देख सुख उठाते हैं। ख्वाब सजाने वाली इस दुनिया में सपनों का संतुलन बेहद जरूरी है वरना जीवन की डोर टूट जाती है।
एक जिया ही क्यों, हमारी दुनिया में ऐसे हजारों उदाहरण मौजूद है जहां हमने सपनों के पथरीली राह पर इंसानी इरादों को दम तोड़ते देखा है। कई बेहतरीन गानों के लिए अपनी आवाज देने वाले गायक शान ने अपने खाली होने पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि अब निर्माता और संगीतकार उनकी आवाज को अपनी फिल्मों में जगह नहीं देना चाहते। शान इनदिनों कोई गाना नहीं गा रहे हैं। वे एक डांस रियलिटी शो में आने वाले हैं। वे कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि मैं गीत नहीं चुन रहा या मैंने अपना मेहनताना बढ़ा दिया है। यदि लोग मुझे प्रस्ताव ही नहीं दे रहे तो क्या किया जा सकता है? यह अकेले शान का दर्द नहीं है। पूरी फिल्म इंडस्ट्री और हमारे आसपास का समाज इसी ‘सिंड्रोम’ से पीड़ित है।
जरा याद कीजिए, पिछले एक दशक में कितने कलाकार आए और गुमनामी के अंधेरे में खो कर रह गए। आप अगर योग्य है तो यह काफी नहीं हैं। इतना ही बल्कि इससे ज्यादा जरूरी है कि आप अपनी योग्यता और जरूरत साबित करें। यह आज के समय की सच्चाई है और इसे या तो कोई मस्त मौला ही झूठला  सकता है या वो जिसके पास अदम्य इच्छाशक्ति है। कहते हैं फिल्मी दुनिया बेहद निर्मम है। फिल्मी दुनिया की यह निर्ममता हमारे जीवन में अतिक्रमण करती जा रही है। अब जरा सी असफलता से हमारे हौंसले टूटने लगते हैं क्योंकि सफलता को ही एकमात्र उद्देश्य मान लिया गया है। हार बर्दाश्त नहीं होती क्योंकि हमारे पास हार से उबर जाने का जज्बा नहीं है। पराजय के क्षणों में कमजोर मन को कोई सहारा नहीं मिलता क्योंकि हमारे आसपास मौजूद हर इंसान सफलता की दौड़ में भाग रहा है और अगर वह किसी को सहारा देने रूकेगा तो कार्पोरेट की शब्दावली में यह समय का दुरूपयोग होगा। आज इसी में समझदारी मानी जाती है कि कोई गिर भी रहा है तो उसे उठाओ मत। ऐसा करने में आपका समय बर्बाद होगा और क्या पता आपका यही साथी कल प्रतिस्पर्धी बन जाएं! जब तक ऐसी सोच कायम रहेगी निराशा हमारे समाज की प्रतिभाओं को डसती रहेगी। 

Friday, May 24, 2013

सैयां के ‘बेलगाम’ कोतवाल बनने से डर लगता है जी

एक बड़ी प्रचलित कहावत है कि सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का। ये कहावत इनदिनों बहुत याद आ रही है खास कर तब जब भांजा अपने मामा के कोतवाल (रेलमंत्री) बनने पर ऐसा निडर हुआ कि मामा की कुर्सी ही खा गया। शनिवार को एक खबर मिली कि सीबीआई मुख्यालय के बाहर एक सीबीआई अधिकारी सात लाख की रिश्वत लेते पकड़ा गया। ऐसे बेलगाम कोतवाल सैंया और उसके निडर परिजनों के कृत्य डराते हैं।
यह डर तब और भारी हो जाता है जब सीबीआई की स्वायत्ता की बात होती है और उसे पूरी आजादी देने की मांग की जाती है। यहां कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की यह बात याद आती है कि हम सीबीआई अधिकारी जो एक इंस्पेक्टर या उप पुलिस अधीक्षक को पूरी स्वायत्ता देना चाहते हैं, लेकिन उन्हें किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं बनाना चाहते हैं। सारी समस्या यहीं है। अंग्रेजी इतिहासकार लार्ड एक्शन ने कहा था- ‘पॉवर करप्टस एंड एब्स्योलूट पॉवर करप्टस एब्स्योल्यूटली’। यानि ताकत भ्रष्ट बनाती है और असीमित ताकत असीमित रूप से भ्रष्ट बनाती है। असल में जब भ्रष्टाचार की बात आती है तो पूरी उम्मीदें अंतत: व्यक्तिगत शुचिता और मूल्यों पर आकर टिक जाती है अन्यथा तो पूरा माहौल आदमी को भ्रष्ट बनाने पर आमादा है। तमाम शोध और दृष्टिकोण बताते हैं कि ताकत मिलने के बाद व्यक्ति भ्रष्ट होता है। यही वजह है कि अपने पक्ष में निर्णय करवाने के लिए किसी भी हद तक भ्रष्टाचार किया जा सकता है। तो क्या सीबीआई जैसी ताकतवर जांच संस्था को पूरी स्वायत्ता देने के विरोध के  पीछे ये डर काम नहीं कर रहा है? जो सरकार अभी सीबीआई का प्रयोग अपने हित में करती है वह इसलिए भी डर रही है कि कहीं सीबीआई स्वायत्त हो गई तो निरंकुश हो जाएगी जैसे पाकिस्तान में सेना है जो सरकार की नहीं सुनती।
यही डर लोकपाल की नियुक्ति में भी है और भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए बनने वाले हर ताकतवर संस्थान से भी है, क्योंकि अपनी गलती छिपाने के लिए इन संस्थानों में और बड़े भ्रष्टाचार की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता है। तो फिर, इसका समाधान क्या? बार-बार समाधान संविधान में ही नजर आता है। अगर लोकतंत्र के चारों स्तंभों में से एक ज्यादा ताकतवर और अधिकार संपन्न होगा तो लोकतंत्र लड़खड़ा जाएगा। लोकतंत्र की बेहतरी के लिए जरूरी है कि चारों स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया स्वतंत्र भी रहें और एक-दूसरे पर एक-दूसरे की निगाह भी रहे। तभी जवाबदेही भी तय होगी और कार्य भी। वरना अभी की तरह होगा कि कहीं नेताओं पर अधिकारी भारी हैं तो कहीं प्रशासन नेताओं को पिछलग्गू है। न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका से असंतुष्टि है तो ये दोनों न्यायपालिका की टिप्पणियों से हैरान-परेशान।
                

Sunday, May 12, 2013

ऐसा ‘बाहरी’ अंदर न आने पायें जो घर तोड़े


घोटालों, विरोध और अपराध की खबरों को देख-सुन कर आजिज आ गए हम लोग। कहीं से कोई अच्छी खबर नहीं आती। माटिवेशन के लिए भी एकल प्रयास ही नजर आते हैं। डर लगता है कि हमारी सामूहिकता क्यों कुछ ऐसा नहीं रच रही जिस पर नाज किया जा सके। तभी एक खबर आई। ऐसे मुद्दे पर खबर जिसने पिछले ढ़ाई दशकों से देश की राजनीति को गर्मा रखा है और जिसके कारण कई जानें गर्इं, कई परिवार उजड़े। खबर हजारों लोगों की रगों में सांप्रदायिकता का जहर भर देने वाले अयोध्या मसले पर है। समाधान संबंधी समिति की उपसमिति ने तय किया है कि अयोध्या में जहां राम प्रतिमा है वहीं मंदिर बनेगा और अधिग्रहित परिसर के दक्षिण-पश्चिम हिस्से में मस्जिद निर्माण किया जाएगा। सबसे खास बात यह है कि  चार सूत्रीय इस प्रस्ताव के पहले बिंदु में कहा गया है कि इसमें अयोध्या-फैजाबाद के लोग ही शामिल हो सकेंगे। बाहरी व्यक्ति, संस्था आदि की इसमें कोई भागीदारी स्वीकार नहीं की जाएगी।
पिछले ढ़ाई वर्षों की कवायद के बाद इस प्रस्ताव पर सहमति बनना सुखद है। इतना ही सुखद यह है कि वहां के लोगों को समझ में आ  गया कि अयोध्या की शांति क्यों भंग हुई थी। घर के मामलों में जब-जब बाहरी व्यक्ति दखल देगा तो घर टूटेगा ही। इसे थंब रूल ही मानिए। यह सभी जगह लागू होता है। घर ही क्यों बाहरी का दखल परिवार, समाज, कॉलोनियों की समितियां, दफ्तर से लेकर राज्य और देश सभी का तोड़ता है। पराई पीर में शरीक होने वाले लोग अब कहां बचे हैं? लेकिन दूसरों के दर्द में अपना सुख खोजने वाले रायचंद रक्तबीज से बढ़े जा रहे हैं। कुछ पल सोचेंगे तो कई किस्से याद आ जाएंगे जब ‘बाहरी’ के आ जाने से बनता काम बिगड़ गया था। जिस समस्या का समाधान करीब था वह और विकराल हो गई थी।
मंदिर विवाद पर अगर ‘बाहरी’ अपनी रोटियां न सेंकते तो अयोध्या-फैजाबाद के लोग कभी का इसका समाधान निकाल चुके होते। कमोबेश यही हालत हमारे प्रदेश के भोजशाला विवाद या हमारे शहर-कस्बे में विकास कार्यों में बाधा बन रहे धार्मिक स्थलों के बारे में निर्णय करने की है। भोपाल, इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर समेत सभी जगहों पर किसी न किसी धार्मिक स्थल को लेकर विवाद चल रहा है। ये विवाद उस स्थान विशेष के लोगों ने पैदा नहीं किए। ये विवाद तो ‘बाहरी’ तत्वों की देन हैं जो दूसरी बस्ती, कॉलोनी,गांव या शहर से आते हैं और विवाद की आग जला कर रवाना हो जाते हैं। वे नजर रखते हैं कि किसी सूरत में से आग ठंडी न पड़ जाए। इन लोगों के हथियार फरसे, तलवार, बल्लम या बंदूक-तमंचे नहीं है। ये जाति,धर्म, संप्रदाय के नाम पर अपना हित साधते हैं। परिवार हो या मोहल्ला या शहर, हम तभी बंटते हैं जब कोई ‘बाहरी’ हमारे मामलों में घुस आता है। हम अपनी समस्या को खत्म करने के लिए  कई बार कुछ हित छोड़ने को तैयार भी हो जाते हैं ताकि परेशानी का कांटा निकले। सड़क को चौड़ा किया जाना है। स्थानीय रहवासी जाम से मुक्ति के लिए बाधा बन रहे धार्मिक स्थल को हटा कर दूसरी जगह ले जाने को तैयार हैं लेकिन ये ‘बाहरी’ ही हैं जो ऐसा होने नहीं देते। वे विवाद खड़ा करते हैं और स्थानीय लोग उसका परिणाम भोगते हैं।
हम बड़ी मुश्किल से पंछी की तरह एक-एक तिनका  जुटा कर अपना घरोंदा, कॉलोनी, समाज बुनते हैं और ये ‘बाहरी’ आंधी की तरह आ कर सबकुछ उजाड़ कर चले जाते हैं। क्यों न ऐसे ‘बाहरी’ को बाहर ही रखा जाए। कड़ी नजर रखी जाए कि ये ‘बाहरी’ हमारे मसलों में ‘अंदर’ न आने पाएं। आज अयोध्या-फैजाबाद के कुछ लोगों ने ये बात समझी है। कल पूरा फैजाबाद-अयोध्या  मानेगा और दुआ करें कि समझदारी की ये आग पूरे देश में फैलेगी। ये काम हमें ही करना होगा क्योंकि कोई ‘बाहरी’ तो ये काम नहीं करेगा।

Thursday, May 9, 2013

शुक्र है, कला समय ने याद किया सतपुड़ा के घने जंगल वाले भवानी भाई को


'ये सच है कि प्रतिस्मृति उतरती धूप की तरह होती है। जब धूप ठीक सिर के ऊपर ठीक सिर के ऊपर होती है, तब परछाई नजर नहीं आती लेकिन उसक ढलते ही परछाई दीखती है। फिर ये साये वास्तविक कद से और लंबे होते चले जाते हैं। जब तक कोई साक्षात् रहता है, अनुभव की आवृत्ति छोटी होती है, उसमें स्मृतियों का बनना बिगड़ना जारी रहता है लेकिन जैसे ही साक्षात् अदृश्य होता है तब स्मृतियां बार-बार उभरती हैं, अपना घेरा बड़ा करती हैं और मन के किसी कोने में अपना स्थाई बसेरा बना लेती हैं। भवानी प्रसाद मिश्र की स्मृतियां भी कुछ ऐसी ही हैं।' 
मंझले भईया, मन्ना और दादा नाम के संबोधन से लोकप्रिय कवि भवानी प्रसाद मिश्र को याद करते हुए यह टिप्पणी कला समीक्षक विनय उपाध्याय ने कला पत्रिका ‘कला समय’ के ताजा अंक के अपने संपादकीय में की है। जी हां,  ‘राग-भवानी’ शीर्षक से प्रस्तुत यह अंक भवानी दादा के सौ वें जन्मवर्ष के विशिष्ट मौके पर आदरांजलि है।  कई लोग सवाल कर सकते हैं कि भवानी दादा कौन हैं? यह सवाल इसीलिए उपजेगा कि कला समय के अलावा किसी सरकारी-गैर सरकारी संस्थान को इतनी फुर्सत ही नहीं मिली कि वे अपने भवानी दादा को याद करें! सारी साहित्यिक पत्रिकाएं भी इस मामले में पिछड़ गई। ये जिम्मा साहित्यकारों, उनकी संस्थाओं और संस्कृति विभाग का होता है कि वे नई पीढ़ी को भवानी दादा जैसै महापुरूषों के कृतित्व और व्यक्तित्व से रूबरू करवाए। इसलिए जब घर आए एक युवा आगंतुक ने पूछा कि राग भवानी क्या और  तो मैंने प्रतिप्रश्न किया-स्कूल में कभी सतपुड़ा के घने जंगल कविता पढ़ी है? तपाक से जवाब मिला- हां। मैंने कहा कि वह इन्हीं भवानी दादा ने लिखी है। वह यह जानकर हतप्रभ रह गया कि वह भवानी प्रसाद मिश्र ही थे जिन्होंने लिखा था-
"जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख|"

वह बोला-इन पर एक  समारोह होना  चाहिए ताकि सभी को पता चल सके कि हमारी अपनी भाषा में कविता कैसे कही जाती है। कला समय की यही तो सफलता है कि जो बात प्रभाकर श्रोत्रिय, विजय बहादुर सिंह, राजेश जोशी, प्रेमशंकर रघुवंशी जैसे साहित्यकारों ने अपने दीर्घ अनुभवों से साझा की वह सीधा सा तथ्य वह युवक साथी आसानी से कह गया कि भवानी दादा से सीखा जाना चाहिए कि कविता कैसे कही जाती है। भवानी दादा ने ही लिखा था-कलम अपनी साध/और मन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध/यह कि तेरी-भर न हो तो कह/और बहते बने सादे ढंग से तो बह।  कला समय का धन्यवाद कि इस रूखे समय में भवानी भाई को इतनी शिद्दत से याद दिलवाया। वे भवानी प्रसाद मिश्र जिनके परिचय में कवि जगदीश गुप्त ने कहा था-
‘खुली बांहें,खुला ह्रदय/यही है भवानी भाई का परिचय।’

Monday, May 6, 2013

ये पुलिस मसखरी क्यों लगती है?


अगर थोड़ा फिल्मी अंदाज अपना लिया जाए तो अपनी बात शुरू करने के पहले यह सूचना जाहिर करना चाहूँगा कि इस लेख का उद्देश्य किसी पक्ष का बचाव करना या उसके दोषों को नजरअंदाज करना नहीं है। मेरा उद्देश्य है कि इससे कर्ताधर्ताओं को कष्ट पहुंचे और वे तिलमिला कर ही सही लेकिन कुछ जरूरी कदम उठाने को मजबूर हो। उन्हें सक्रिय करने के अलावा मेरा और कोई उद्देश्य नहीं है।
शनिवार को राष्ट्रीय  महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा भोपाल में थीं और उन्होंने कहा कि पुलिस असंवेदनशील है और वह अकसर ही पीड़ितों की तकलीफ बढ़ाती है। अब शुक्रवार को रिलीज हुई फिल्म ‘शूटआउट एट वडाला’ का संवाद पढ़ लीजिए। इसमें इंस्पेक्टर बने अनिल कपूर का कहना है- ‘वे खाकी वर्दी इसलिए पहनते हैं क्योंकि कोई पॉटी भी कर दे तो दिखाई न दे। ’पहली बात चिंता जाहिर करती है तो दूसरी बात मखौल उड़ाती है। हाल में बैठा दर्शक अभिनेता के संवाद पर तालियां पीटता है और बाहर आ कर लगभग इसी अंदाज में पुलिस से बर्ताव भी करता है। मुझे कोफ्त होती है ऐसी पुलिस देख कर और गुस्सा भी आता है कि फिल्मों में विदेशी पुलिस का फिल्मांकन इतना अच्छा क्यों और हमारी पुलिस मसखरी और भ्रष्ट क्यों? क्या पुलिस के शीर्ष से फर्श तक के अफसरों को बैचेनी नहीं होती? होती भी हो तो क्या करें? फिल्मों में सबकुछ गलत थोड़े ही बताया जा रहा है। यह भी उतना ही बड़ा सच है कि हमारी पुलिस 20 से 50 रुपयों के लिए चौराहों पर बिक सी जाती है। अपराधियों और नेताओं के चरणों में बिछ जाती है। आम नागरिक को गरियाती है और रसूखदार को सलाम ठोकती है।
मेरा सवाल केवल इतना है क्या इस सबका दोषी केवल पुलिसकर्मी है? क्या नया-नया भर्ती हुआ रंगरूट असंवेदनशील होता है? क्या वह यह सोच कर पुलिस बल का हिस्सा बनता है कि आते ही रिश्वत से घर भरना है? वह सोच कर नहीं आता लेकिन जब गरीब परिवार के युवा को रिश्वत दे कर नौकरी मिलती है तो सबसे पहले वह रिश्वत में दिए गए पैसे की वसूली करता है और तब तक इतनी ‘मोटी  चमड़ी’ का हो चुका होता कि किसी काम के लिए पैसे लेने में गुरेज नहीं करता। क्या कोई जिम्मेदार यह बताने का कष्ट करेगा कि इस सिस्टम को बदलने के लिए क्या किया गया? क्या आप जानते हैं कि प्रदेश और देश में जनसंख्या के मुताबिक पुलिस बल आधा ही है और यह बल भी साधनों, वाहनों और उनमें र्इंधन की कमी से जूझ रहा है। थानों में रिपोर्ट लिखवाने के लिए स्टेशनरी नहीं मिलती। फरियादी से ही कागज मंगवाने की मजबूरी चाय-नाश्ते का दरवाजा खोलती है। जमाना 3 जी से 4 जी तक  पहुंच गया है लेकिन पुलिस की कार्यप्रणाली और शब्दावली बाबा आदम के जमाने की है। अपराधी साइबर क्राइम के मास्टर हैं और थानों में पुराने बंद कम्प्यूटर सिस्टम मुंह चिढ़ाते हैं।
क्या आपको पता है कि वेतन और अन्य सुविधाओं के मामले में सामान्य पुलिसकर्मी आज के कार्पाेरेट युग के सेलेरी स्ट्रक्चर के सबसे निम्न श्रेणी में भी नहीं आता। उसका सरकारी क्वार्टर जितना असुविधापूर्ण है उतना ही घोर अव्यवहारिक ड्यूटी श्यूड्यूल। पुलिस इसलिए भी कमजोर है कि उसके हाथ में जो डंडा है वह केवल दिखावे का है। एक सिस्टम है जो व्यक्ति को दिन-दर-दिन असंवेदनशील बनाता है। इस और कौन ध्यान देगा?  अगर यह उम्मीद  नेताओं से की जा रही है तो यह उम्मीद बेमानी है। वे अपने पिछलग्गू तंत्र को भला बदलना क्यों चाहेंगे?

Monday, April 29, 2013

आग तो कभी की लग चुकी, कुँआ खोदना कब शुरू करेंगे?

गर्मी आते ही जलसंकट गहराने लगा है। भोपाल के सबसे तेजी से बढ़ते और सबसे महंगे इलाकों में शुमार होने वाले कोलार में जल संकट से निपटने के लिए कलेक्टर ने निजी नलकूपों को अधिग्रहित करने को कहा है। सभी जानते हैं कि कोलार में हर साल भीषण जल संकट होता है। इतना कि लोग अपने लाखों के घरों को छोड़ कर समीप के उन क्षेत्रों में किराए से रहने तक चले जाते हैं जहां पानी उपलब्ध हो। यहां अलसभोर से शुरू हुई पानी जुटाने कि चिंता देर रात तक खत्म नहीं होती। इतनी परेशानी है तो सवाल उठता है कि यहां के लोग पानी के संरक्षण को लेकर बेहद सजग होंगे? लेकिन रेन वाटर हार्वेस्टिंग के आंकड़ों को देख कर तो ऐसा नहीं लगता। नगर पालिका के पास ऐसी कोई साफ-साफ जानकारी नहीं है कि कितने घरों में रैन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लागू हैं। आकलन हो तो यह सिस्टम लगवाने वालों की संख्या 1 फीसदी के करीब ही होगी। यह है पानी का लेकर हमारी फिक्र। 
भोपाल के कोलार जैसे ही हालात लगभग पूरे प्रदेश में हैं। जल संकट का सबसे दुखद पहलू यह है कि इसे बेहतर जल प्रबंधन से दूर किया जा सकता है, लेकिन हमारे पास यह व्यवस्था ही नहीं है। जल कानून, जल संरक्षण, पानी के कुशल उपयोग, जल रीसाइकिलिंग और आधारभूत संसाधनों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। हमारे यहां जमीन का पानी खत्म और प्रदूषित हो रहा है लेकिन भूजल के दोहन का कोई कानून नहीं है। कम से कम पानी लिया जा रहा है तो उतना या ज्यादा पानी जमीन को लौटाने की जिम्मेदारी तय होना चाहिए। गौरतलब है कि देश में हर साल औसतन चार हजार अरब घन मीटर बारिश होती है लेकिन केवल 48 फीसद बारिश का जल नदियों में पहुंचता है। भंडारण और संसाधनों की कमी के चलते इसका केवल 18 फीसदी जल का उपयोग हो पाता है।
पानी बचाने के लिए सामाजिक चेतना नहीं आती तो इसे कानून की सख्ती से लागू करन होगा। वैसे पिछले दिनों भोपाल से अच्छी खबर आई कि शहर की तमाम मस्जिदों में नमाज से पहले वुजू करने में रोजाना खर्च हो रहे लाखों लीटर पानी को जाया होने से बचाने के लिए मसाजिद कमेटी मस्जिदों में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगवाना चाहती है। कमेटी चाहती है कि यह काम राज्य सरकार व स्वयं सेवी संस्थाओं की आर्थिक मदद से हो। पहल अच्छी है और यह सभी जगह लागू होना चाहिए। सवाल धन जुटाने का है तो सरकार के साथ धनिकों को भी आगे आना होगा। पहले कुँए-बावड़ी-धर्मशाला बनवाने का रिवाज था अब पानी बचाने के लिए धन की कमी को दूर करने रईस समाजसेवियों को आगे आना होगा।
इससे सबके साथ व्यक्तिगत जिम्मेदारी कभी खत्म नहीं हो जाती। घर बनाने की पूरी प्लानिंग में अगर रैन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम का उल्लेख नहीं है तो प्लान खारिज हो जाना चाहिए।
आमतौर पर हम आग लगने पर ही कुँआ खोदते हैं तो आग लग चुकी है...जल संकट दिन-ब-दिन गहरा रहा है। सवाल यही है कि आप कुँआ कब खोदना शुरू करेंगे?
पानी बचाने के लिए सामाजिक चेतना नहीं आती तो इसे कानून की सख्ती से लागू करन होगा। वैसे पिछले दिनों भोपाल से अच्छी खबर आई कि शहर की तमाम मस्जिदों में नमाज से पहले वुजू करने में रोजाना खर्च हो रहे लाखों लीटर पानी को जाया होने से बचाने के लिए मसाजिद कमेटी मस्जिदों में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगवाना चाहती है। कमेटी चाहती है कि यह काम राज्य सरकार व स्वयं सेवी संस्थाओं की आर्थिक मदद से हो। पहल अच्छी है और यह सभी जगह लागू होना चाहिए। सवाल धन जुटाने का है तो सरकार के साथ धनिकों को भी आगे आना होगा। पहले कुँए-बावड़ी-धर्मशाला बनवाने का रिवाज था अब पानी बचाने के लिए धन की कमी को दूर करने रईस समाजसेवियों को आगे आना होगा।इससे सबके साथ व्यक्तिगत जिम्मेदारी कभी खत्म नहीं हो जाती। घर बनाने की पूरी प्लानिंग में अगर रैन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम का उल्लेख नहीं है तो प्लान खारिज हो जाना चाहिए।आमतौर पर हम आग लगने पर ही कुँआ खोदते हैं तो आग लग चुकी है...जल संकट दिन-ब-दिन गहरा रहा है। सवाल यही है कि आप कुँआ कब खोदना शुरू करेंगे?पानी बचाने के लिए सामाजिक चेतना नहीं आती तो इसे कानून की सख्ती से लागू करन होगा। वैसे पिछले दिनों भोपाल से अच्छी खबर आई कि शहर की तमाम मस्जिदों में नमाज से पहले वुजू करने में रोजाना खर्च हो रहे लाखों लीटर पानी को जाया होने से बचाने के लिए मसाजिद कमेटी मस्जिदों में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगवाना चाहती है। कमेटी चाहती है कि यह काम राज्य सरकार व स्वयं सेवी संस्थाओं की आर्थिक मदद से हो। पहल अच्छी है और यह सभी जगह लागू होना चाहिए। सवाल धन जुटाने का है तो सरकार के साथ धनिकों को भी आगे आना होगा। पहले कुँए-बावड़ी-धर्मशाला बनवाने का रिवाज था अब पानी बचाने के लिए धन की कमी को दूर करने रईस समाजसेवियों को आगे आना होगा।इससे सबके साथ व्यक्तिगत जिम्मेदारी कभी खत्म नहीं हो जाती। घर बनाने की पूरी प्लानिंग में अगर रैन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम का उल्लेख नहीं है तो प्लान खारिज हो जाना चाहिए।आमतौर पर हम आग लगने पर ही कुँआ खोदते हैं तो आग लग चुकी है...जल संकट दिन-ब-दिन गहरा रहा है। सवाल यही है कि आप कुँआ कब खोदना शुरू करेंगे?पानी बचाने के लिए सामाजिक चेतना नहीं आती तो इसे कानून की सख्ती से लागू करन होगा। वैसे पिछले दिनों भोपाल से अच्छी खबर आई कि शहर की तमाम मस्जिदों में नमाज से पहले वुजू करने में रोजाना खर्च हो रहे लाखों लीटर पानी को जाया होने से बचाने के लिए मसाजिद कमेटी मस्जिदों में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगवाना चाहती है। कमेटी चाहती है कि यह काम राज्य सरकार व स्वयं सेवी संस्थाओं की आर्थिक मदद से हो। पहल अच्छी है और यह सभी जगह लागू होना चाहिए। सवाल धन जुटाने का है तो सरकार के साथ धनिकों को भी आगे आना होगा। पहले कुँए-बावड़ी-धर्मशाला बनवाने का रिवाज था अब पानी बचाने के लिए धन की कमी को दूर करने रईस समाजसेवियों को आगे आना होगा।इससे सबके साथ व्यक्तिगत जिम्मेदारी कभी खत्म नहीं हो जाती। घर बनाने की पूरी प्लानिंग में अगर रैन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम का उल्लेख नहीं है तो प्लान खारिज हो जाना चाहिए।आमतौर पर हम आग लगने पर ही कुँआ खोदते हैं तो आग लग चुकी है...जल संकट दिन-ब-दिन गहरा रहा है। सवाल यही है कि आप कुँआ कब खोदना शुरू करेंगे?

Saturday, April 20, 2013

बोल खुद के तो ठिकरा मीडिया पर क्यों फूटे?

गर सवाल पूछा जाए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह, केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद, बेनी प्रसाद और रेणुका चौधरी, कांग्रेस नेता शकील अहमद, महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार, मप्र के पूर्व मंत्री विजय शाह, आध्यात्मिक गुरु आसाराम में क्या समानता है तो जवाब मिलेगा कि इन सभी में विवादास्पद बयान देने की समानता है। विचारधारा और कार्यक्षेत्र भले ही अलग है लेकिन आचरण और नजरिया समान है। इनमें से अधिकांश अपने बयान पर विवाद उठ खड़ा होने के बाद मीडिया को दोष देते हैं और उसे तोड़-मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगाते हैं। क्या इतने ऊंचे स्थान तक पहुंच गए ये लोग अपरिपक्व हैं कि रिकार्डेड बयान को भी तोड़ा-मरोड़ा जा सके या बच निकलने के लिए मीडिया को दोष देने से बेहतर कोई गली नहीं?
कांग्रेस नेता शकील अहमद ने यह कहकर बवाल खड़ा कर दिया कि कर्नाटक में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के दफ्तर के पास हुए बम विस्फोट से अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा को मदद मिलेगी। हालांकि कांग्रेस को तुरंत समझ आ गया कि बोल बवाल पैदा करेंगे सो कांग्रेस महासचिव जर्नादन द्विवेदी ने सफाई दी कि आतंकवाद की कोई भी घटना चिंता की बात है। देश के समक्ष यह एक चुनौती के समान है। इसे किसी तरह के राजनीतिक फायदे के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। कांग्रेस ने हालांकि अहमद के बयान से खुद को अलग बताया और कहा कि यह उनके व्यक्तिगत विचार हैं, इसका पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है।  आतंकी हमले, महिला पर अत्याचार, बढ़ते अपराध, भ्रष्टाचार जैसे मामलों में राजनीति नहीं होना चाहिए लेकिन अफसोस तो यही है कि हर जगह राजनीतिक फायदा ही देखा जाता है। हल्के बोल कह कर मुद्दों को कमजोर कर दिया जाता है। आपको याद हो जब केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे तब एक अन्य केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने कहा था-‘केंद्रीय मंत्री के लिए 71 लाख बहुत छोटी राशि होती है। 71 करोड़ का आंकड़ा होता तो गंभीर मसला होता। सलमान 71 लाख के लिए कोई घपला नहीं कर सकते।’
कमोबेश यही हालत महिला हिंसा के मामले में भी है। हरियाणा में कांग्रेस नेता धर्मवीर गोयत कहते हैं कि हरियाणा में बलात्कार के 90 फीसदी मामलों में लड़कियों की मर्जी होती है।  संघ प्रमुख मोहन भागवत बलात्कार को भारत और इंडिया में बांट कर देखते हैं। आध्यात्मिक गुरु आसाराम तो  सलाह देते हैं कि बलात्कारियों के पैर पकड़ना चाहिए और गिड़गिड़ा कर दया याचना की जाना चाहिए। 
हमारे नेतृत्वकतार्ओं के बयान व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोपों में तो और भी निम्न स्तर पर चले जाते हैं। मसलन, बाबा रामदेव के हमलों से परेशान केंद्रीय मंत्री रेणुका चौधरी कहती हैं -‘रामदेव पागल हो गए हैं। वो एकदम नोनसेंस हैं, जो ऐसा बयान देने में लगे हैं। रामदेव पहले अपनी शक्ल तो ठीक करें, फिर बोलें। ’ या बतौर प्रवक्ता दिया लुधियाना सांसद मनीष तिवारी का बयान जिसमें उन्होंने अण्णा हजारे पर खीज जाहिर करते हुए कहा था- ‘मैं किशन बाबू राव अण्णा हजारे से सवाल पूछता हूं कि जो खुद भ्रष्टाचार में सिर से पैर तक डूबा हुआ है वो कैसे किसी से सवाल कर सकता है। अण्णा हजारे फौज से भागे हुए हैं।’ याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि इस बयान के बाद प्रवक्ता पद से हटाए गए तिवारी कुछ ही समय बाद केंद्रीय मंत्री के रूप में ज्यादा ताकतवर बन कर लौटे। इसका क्या मतलब निकाला जाए?
अधिकांश नेता बयान देने के बाद बेशर्मों की तरह कह देते हैं कि मीडिया ने गलत मतलब निकाला। वे यह भूल जाते हैं कि उनके बोल रिकार्ड किए गए हैं। लगभग हर विवादास्पद बयान के बाद पार्टियां उसे नेता की व्यक्तिगत राय बताते हुए खुद को अलग कर लेती हैं लेकिन क्या हम नहीं जानते कि यह व्यक्तिगत राय ही सामुहिक राय में परिवर्तित हो जाती है। अफसोस तो यही है कि हमारे नेताओं की ऐसी व्यक्तिगत सोच है। जब नेतृत्व ऐसी सोच रखेगा तो क्रियान्वयन भी तो ऐसी ही सोच का होगा। यहां अब कितने अलगू चौधरी रह गए हैं जो निर्णय का वक्त आने पर पंच परमेश्वर हो जाते हैं? यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन जुमलों पर ठहाके लगते हैं वे दिल भी तोड़ते हैं और महाभारत भी रचते हैं। बेहतर है कि नेता विजय शाह जैसे मामलों से सबक लें और अव्वल तो बदजुबानी से बचें। अगर नेताओं की  आदत ही ऐसी हो ही जाएं तो उन्हें माकूल जवाब भी मिले। 66  साल के लोकतंत्र से ऐसी उम्मीद तो की जा सकती है।  

Monday, April 15, 2013

क्या आप अपने नेताओं को सुन रहे हैं ?


कोई सोच भी नहीं सकता है कि चुनावी सभा में दिया गया कोई भाषण किसी नेता को इतना भारी पड़ेगा और उसकी विधायकी जाती रहेगी। ऐसा अचरज पैदा करने वाला कार्य पिछले हफ्ते हुआ जब इंदौर हाईकोर्ट ने रतलाम विधायक पारस सकलेचा का निर्वाचन रद्द कर दिया क्योंकि सकलेचा अपने प्रतिद्वंद्वी हिम्मत कोठारी पर लगाए भ्रष्टाचार के आरोप साबित नहीं कर पाए। सकलेचा ने ये आरोप एक चुनावी सभा में लगाए थे। ये एक फैसला नजीर है जो बोलने पर नेताओं की जिम्मेदारी तय करता है। कोर्ट ने करीब चार साल लंबी जिरह के बाद ही सही फैसला तो दिया, सवाल तो जनता की अदालत से है जो नेताओं को रोज बोलते सुन रही है। क्या वह कभी कुछ भी बोलने को अपना अधिकार समझने  वाले नेताओं को अपना फैसला सुनाएगी?
कभी कोई नेता किसी सार्वजनिक सभा में किसी महिला अफसर की सुंदरता के गुणगान करने लगता है तो कभी कोई नेता किसी समुदाय विशेष के खिलाफ जहर उगलता है। कुछ बोल पर ठहाके लगते हैं तो कुछ पर तलवारें निकल आती है। जानें चली जाती हैं। कहने वाले इसे राजनीति कहते हैं। साम-दाम-दंड-भेद का पालन कर किसी तरह अपना मतलब निकालने का नाम ही राजनीति नहीं है। शब्दार्थ में राज करने की नीति को राजनीति कहा जाता है। वैदिक काल से लेकर आज तक देख लीजिए अपने शासन को नीतिपूर्वक चलाने वाले शासक भी हुए हैं और राज के लिए नीतियों का चौपट करने वाले शासक भी। तब भी जनता सब देखती-समझती थी। आज भी जनता सब देखती-समझती है। अंतर इतना है कि तब शासक  मजबूरी था और आज हमारा अपना चुनाव। तो फिर अगर शासन में अनीति है तो उसके दोषी हम हुए क्योंकि हमने कभी राजनीति को गंभीरता से लिया ही नहीं। तभी तो नेता ऐसे बोल बोलते हैं और जनता ठहाके लगा कर चुप रह जाती है। 
अमेरिका हास्य अभिनेता विली रोजर्स ने कहा था कि कैसा वक्त आ गया है जब हास्य अभिनेताओं को गंभीरता से लिया जाने लगा है और नेताओं को मजाक में। यह व्यंग्य जनता पर था। हिम्मत कोठारी ने अदालती लड़ाई लड़ी तो यह फैसला हुआ। हजारों मामलों में कोई अदालत के पास नहीं जाता तो फैसला नहीं हो पाता लेकिन जनता तो खुद पक्ष भी है और अदालत भी। उसकी अदालत में सुनवाई के लिए कौन अपील करे? जनता को खुद ही सोचना होगा। अपने नेताओं के बोलों को याद रखना होगा। वे कोई कॉमेडियन नहीं है जो हमें हंसाने के लिए रूप-स्वांग करें। असल में जो मसखरे से दिखते हैं वे नेता ज्यादा चालक होते हैं। वे जनता को बहला कर अपना घर भर रहे होते हैं। अच्छा लगता है जब अदालतें ऐसे फैसले देती हैं। कभी आप-हम भी तो अपने जागृत होने का परिचय दें। नहीं तो प्लेटो बरसों पहले कह गए थे कि राजनीति में हिस्सा नहीं लेने का यह खामियाजा होगा कि घटिया लोग हम पर शासन करेंगे।