Wednesday, September 22, 2010

।। घाव ।।

किसने कहा कि

विस्‍फो‍ट के लिए

चाहिए बारूद,

घर जलाने के लिए

चाहिए तीलियां।

घर हो या सपने

पल में ध्‍वस्‍त होते हैं।

क्षण में छिनता है आशियाना

बिना पेट्रोल धधकता है शहर।

कविता में जो मरहम है

आपके मुंह से निकलने

पर वही शब्‍द दे जाते हैं घाव।

नेताजी, आग उगलते

शब्‍‍दों से लाख दर्जा अच्‍‍छे

हैं आपके झूठे आश्वासन।

Saturday, September 18, 2010

।। मसरूफियत ।।

बच्चे अब नहीं दुबकते

माँ के आँचल में।


बच्चे अब नहीं सुनते

कहानी अपनी नानी से।

बच्चे अब नहीं माँगते

गुड़ धानी दादी से।

बच्चे अब नहीं खेलते

कंचे या आँख  मिचौली

बच्चे अब नहीं जानते

चौपाल पर होती थी रामलीला।

बच्चे अब होमवर्क करते हैं

बच्चे अब बच्चे कहाँ रहे ?

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( ‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से अपनी कविता )

Tuesday, September 14, 2010

दीपक सा जलो तुम

---अजय श्रीवास्तव का फोटो और अपनी कविता---

सूरज अस्त हो चला है

झील की गोद में उतरा सूरज

निकल पड़ा है कही ओर फैलाने उजास

दिनकर कल फिर आएगा और

रोशनी से भर देगा दिन...

सूरज के आने तक

अंधेरे से  लड़ो तुम

रोशनी के उगने तक

दीपक सा जलो तुम।

Monday, September 13, 2010

तुम बुला लेती हो झील

आकाश आनंद का चित्र और अपनी कविता


झील,

तुम बुला लेती हो रोज।

तुम्हारे किनारे जमती है

महफिल अपनी

काँटा पकड़े घंटों

तुम्हारे पहलू में बैठा मैं

कब अकेला रहता हूँ?

लहरें तुम्हारी बतियाती हैं

कितना,

जैसे घंटों कहकहे लगाता है

यार अपना।

झील, तुम्हारे होते

कब अकेला रहता हूँ  मैं भला?

Wednesday, September 8, 2010

नमक

~ श्री आरके झारिया के चित्र पर अपनी कविता~


बूढ़ी हड्डियाँ पूरी ताकत लगा

ढोती है जिंदगी।

उम्र के इस पड़ाव पर भी

जवाब नहीं देती उम्मीदें।

हाड़तोड़ मेहनत के बाद

दो पल का आराम और

चाय की चुस्कियों का साथ

भर देता है आँखों में उजास।

तब चाय के नमक और

पसीने के नमक में भेद नहीं रहता।

Monday, September 6, 2010

एक शिक्षक की डायरी के अंश

5 जुलाई
स्कूल शुरू हो गए हैं। अभी मुझे चार क्लास पढ़ाना है। एक साथी शिक्षक जन शिक्षा केन्द्र में रिपोर्ट बनाने में व्यस्त हैं। उन्हें हर दूसरे दिन डाक ले कर जाना पड़ता है। कहने को तो जन शिक्षा केन्द्र में प्रभारी की व्यवस्था है, लेकिन यहाँ प्रभारी का काम भी किसी प्रभारी के भरोसे चल रहा है। एक शिक्षक पूरे महीने तमाम काम करने में जुटा रहता है।

15 जुलाई
मैं अध्यापक हूँ और कई सालों की लड़ाई के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हमारी समस्याओं को सुना और पूरा किया। लेकिन ढीले प्रशासनिक कामकाज के कारण वे आदेश अभी तक नहीं मिले हैं। मेरा प्रमोशन होना है, लेकिन सरकार के आदेश के बाद भी यह काम नहीं हो रहा है। जनपद सीईओ के पास जाता हूँ तो वे जिला शिक्षा अधिकारी के पास भेज देते हैं। डीईओ के पास जाता हूँ तो वे कहते हैं ऊपर से मार्गदर्शन माँगा गया है। जब आदेश ही ऊपर वालों ने दिया है तो उनका मार्गदर्शन कब मिलेगा।

23 जुलाई
बिटिया स्कूल जाने लगी है। जब से वह आई है, तभी से सोच रहा था कि उसे कान्वेंट में पढ़ाऊँगा। लेकिन मेरी इतनी तनख्वाह कहाँ कि मोटी फीस भर सकूँ। मैंने उसे पास के ही एक प्रायवेट स्कूल में भर्ती किया है। फीस भी कम है। घर के पास है तो लाने-ले जाने का खर्चा भी बच जाता है। कल पुराना दोस्त मनीष मिल गया था। मुझसे पढ़ने में कमजोर था। लेकिन पिता की दुकान क्या संभाली, आज ठाठ में मुझसे आगे हैं। मुझे मेरी किस्मत पर गुस्सा भी आया। क्या कहूँ, अभी मेरा वेतन 8 हजार रूपए है। बीमा, पेंशन, भत्ता आदि मिलना शुर नहीं हुआ। इतने कम पैसे और इतनी मँहगाई। कैसे घर चले? पिछले महीने माँ बीमार हो गई तो भइया से पैसे ले कर दवाई लाना पड़ी थी। शाम को घर पहुँचा तो बिटिया ड्रेस की मांग करने लगी। कहती है 15 अगस्त पर पहनना जरूरी होगी तब तक ले आना।

5 अगस्त
आज प्रधानाध्यापक महोदय ने नया आदेश दिया है। समग्र स्वच्छता अभियान में काम करने जाना है। अभी-अभी जनगणना की ड्यूटी खत्म हुई है। अब नया काम मिल गया। मुझे बहुत गुस्सा आता है। अध्यापक जैसे गरीब की गाय हो। जो चाहे वहाँ काम पर लगा देता है। जबकि न्यायालय और सरकार भी कई बार कह चुके हैं कि हमें शैक्षणिक कार्य के अलावा किसी और काम पर नहीं लगाना है। पिछली बार का किस्सा सुनाता हूँ। मेरी जनगणना में ड्यूटी थी कि भोपाल के एक साहब दौरे पर आ गए। गाँव वालों ने शिकायत कर दी कि मास्साब नहीं आते हैं। फिर क्या , मुझे सस्पेंड कर दिया। मुझे पता चला तो मैंने कलेक्टर साहब का आदेश दिखाया। तब कहीं जा कर मुझे न्याय मिला। लेकिन तब तक मुझे जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय में दर्जनों चक्कर लगाना पड़े। खर्चा हुआ और टेंशन लिया वो अलग।

11 अगस्त
मैं काम पर लौट आया। लेकिन इस बीच स्वतंत्रता दिवस आ गया। बिटिया की ड्रेस नहीं आई अब तक। बार-बार जिद कर रही थी तो मैंने एक तमाचा मार दिया। कितना रोई थी वह। मुझे भी बहुत बुरा लगा। पहली बार मारा था। क्या करूँ हालात बिगड़ जाते हैं तो कभी-कभी गुस्सा आ जाता है।

19 अगस्त
मध्याह्न भोजन कितना बड़ा सिरदर्द है। कहने को तो काम करने वाले लोग अलग है। लेकिन कोई गलती हो जाए, खाना खराब हो या कीड़ा निकल जाए तो सस्पेंड होगा मास्टर। पिछले साल पास वाले गाँव के एक सर का इंक्रीमेंट रुक चुका है। नहीं जी, कौन बला मोल ले। मैं तो बच्चों को काम दे कर मध्याह्न भोजन की व्यवस्था संभालता हूँ। पढ़ाई तो बाद में हो जाएगी। कोई लफड़ा हो गया तो क्या जवाब दूँगा। मन में अकसर खुद ही सवाल पूछता हूँ पढ़ाई का क्या होगा? गुणवत्ता ? लेकिन फिर लगता है कि व्यवस्था ही मुझे बेहतर पढ़ाने नहीं देती तो मैं क्या करूँ? वह चाहती है कि मैं मतगणना करूँ, लोगों को गिनूँ, पशु गिनूँ, बच्चों को छोड़ बड़ों को सफाई का पाठ पढ़ाऊँ, डाक लाऊँ, तमाम योजनाओं के लक्ष्य को पूरा करूँ और फिर परिवार का पेट भरने के लिए ज्यादा कमाई का जुगाड़ करूँ तो ठीक है। पढ़ाई का क्या।

28 अगस्त
जन शिक्षा केन्द्र गया था, डाक देने। वहाँ प्रमोशन आदेश का पूछा लेकिन कोई आदेश नहीं आया। इध्ार हाथ तंग है और समस्या हल नहीं हो रही है। बहुत खीज होती है। लौट कर स्कूल आया तो राकेश और केशव मस्ती कर रहे थे। उत्तर याद करने को दिए थे। दो दिन से पूछ रहा हूँ लेकिन दो उत्तर याद नहीं हुए। दोनों को जमा कर दिए दो। चुपचाप बैठ कर पढ़ाई नहीं कर सकते। समझ नहीं सकते सर परेशान है। बाद में समझाया कि कल याद करके आना।

29 अगस्त
कल शाम को घर गया तो मन खराब था। पत्नी ने पूछ लिया। क्या कहता। उस दिन भी बुरा लगा था, जब बिटिया को पीटा था, आज भी बुरा लगा जब दो बच्चों को पीट दिया। ऐसा थोड़े ही है कि मैं रोज पीटता हूँ लेकिन क्या करूँ मेरी बात कोई समझता ही नहीं है।

Thursday, September 2, 2010

वे हाथ सूत कात रहे हैं...

~ श्री शोमित शर्मा के खींचे फोटो पर अपनी कविता ~

वे हाथ सूत कात रहे हैं...

सूत कातने वाले हाथ

घर सँवारते हैं

आँगन बुहारते हैं

रोटियाँ बेलते हैं ...

इन हाथों पर रचती है मेंहदी

इन हाथों पर चूडियाँ फबती है...

ये हैं तो दुनिया हसीं है

ये हैं तो खुशियाँ बची हैं

दुनिया बचाने वाले हाथ

सूत कात रहे हैं।

Wednesday, September 1, 2010

घोर (अ) सामाजिक हम!

आशी मनोहर नहीं रहे।
यह खबर भोपाल की सांस्कृतिक थाती को समझने वाले हर व्यक्ति को प्रभावित कर गई। लेकिन एक शख्स के दुनिया से चले जाने से ज्यादा दुख इसलिए हुआ कि एकमात्र अखबार नवदुनिया को छोड़ शहर के किसी भी अखबार ने इस संस्कृतिकर्मी के निधन पर चार लाइन का समाचार तक प्रकाशित नहीं किया! (ऐसे में श्रृद्धांजलि लेख की उम्मीद तो फिजूल है।)


...और रंज तब हुआ जब हमारे एक वरिष्ठ साथी से पता चला कि सभी अखबारों के कला संवाददाताओं ने आशी की मृत्यु की जानकारी पर उनसे जुड़े तमाम संदर्भ खंगाले थे लेकिन किसी ने भी एक लाइन नहीं लिखी!

हो सकता है पत्रकार मित्रों ने लिखी हो और डेस्क ने हर बार की तरह अपनी कैंची चला दी हो लेकिन कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि शहर के एक रचनात्मक व्यक्ति के निधन पर उसे सार समाचार में भी एक सूचना की तरह स्थान नहीं मिला।

यहाँ मुझे माँ पर लिखी एक कविता याद आ रही है जिसमें माँ की मृत्यु तो चार दिन पहले हो जाती है लेकिन बेटे की स्मृतियों में या यूँ कह लें बेटे के लिए वह तब तक जीवित रहती हैं जब तक उसे मौत का समाचार नहीं मिल जाता। यानि आशी अपने कई प्रशंसकों के लिए तब तक जीवित हैं जब तक की किसी माध्यम से उन तक निधन की सूचना नहीं पहुँच जाती। (क्योंकि सूचना पहुँचाने के आम माध्यम अखबारों ने अपनी यह भूमिका भी नहीं निभाई।)

यह सब सोचते वक्त एक बात बार-बार अखर रही है कि हमारी संवेदना और चयन का स्तर किस कदर गिरा है कि हम सामाजिक हो कर भी घोर असामाजिक प्राणी है। ठीक उस प्रतिक्रिया की तरह जब दुर्घटना की खबर बता रहे पत्रकार से सीनियर पूछ लेता है कि कोई मरा या नहीं? जितनी जाने गई होंगी, उतनी 'बड़ी" खबर होगी।

वैसे यहाँ यह बताना मौजूँ होगा कि अपनी संस्था के माध्यम से बच्चों के लिए पहला बाल समारोह प्रारम्भ करने आशी उम्र मे अंतिम चरण में भी नई पौध को संस्कारवान बनाने के प्रयत्न में जुटे रहे। उन्होंने विवाह की बाहरी नहीं आंतरिक तैयारियों के लिए कोचिंग संस्थान प्रारम्भ किया। यह अनूठा संस्थान परिवार जैसी संस्था को टूटने से बचाने का प्रयत्न था।

मूल रूप से उदयपुर के निवासी आशी का परिवार 1954 में भोपाल आया था। उन्होंने 'प्रेक्षक" रंग समूह बनाया था जिसने सत्तर-अस्सी के दशक में काफी रंग-गतिविधियां की थीं। किसी निजी संस्था की ओर से प्रदेश का ही नहीं बल्कि पूरे देश का पहला बाल समारोह 'बखत राम उत्सव" का कई सालों तक सफल आयोजन किया। वे 'रंग संधान" नामक पत्रिका निकालते थे। विरासत को सहेजने के लिए वे इसमें बड़ी दुर्लभ कालजयी कृतियों का नए कलेवर में प्रस्तुत करते थे। श्री आशी ने इस पत्रिका के नाम पर 'रंग संधान फाउंडेशन" की भी स्थापना की थी। उन्होंने 'दिगन्त" नामक अखबार भी निकाला।

वे अभिनय रंगनिर्देशन, रंग शिविर का आयोजन, रंग संस्था का संचालन आदि बहुआयामी कार्यों में सक्रिय थे। उनकी बनाई फिल्मों में 'सूरज का अंश" शामिल है। पण्डवानी तीजन बाई पर बनने वाली इकलौती फिल्म का निर्माण उन्होंने किया।

पिछले साल उन्होंने कोचिंग की बेहद नई परिभाषा गढ़ी थी और 'सर्वोत्तम संस्थान" प्रारंभ किया इसमें विवाह पूर्व तैयारियां, पर्सनालिटी डेवलपमेंट, अंग्रेजी बोलने का प्रशिक्षण आदि दिया जाता है। उनका सबसे आखिरी प्रोजेक्ट था लैण्ड मार्क जिसमें प्रापर्टी डीलिंग के लिए काउंसलिगि, प्रोमोशन आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है। आशी ने अपने जीवन के कैनवास पर इतने रंग बिखराएँ कि जीवन का कोई मोड़ हो, मित्रों और प्रशंसकों को वे बहुत याद आएँगे।