Tuesday, October 25, 2022

जिंदगी नोट्स: यूं होता है तो होता क्‍यूं है?


ऐसा क्‍यों होता है कि कुछ लोग बेहद निकट होते है। इतने निकट कि जिनके बिना एक दूसरे के अस्तित्‍व पर शक होता है। वो गाना है न, देखे बिना करार न था, टाइप।

फिर एक दिन वे गुम हो जाते हैं। कपूर जैसे। कभी गंध छूट जाती है पीछे, कभी सोचना पड़ता है उनके बारे में। 

सोचो तो अचरज होता है, अच्‍छा वे भी थे!

लगता है, जिस तरह हम याद करते हैं, साथ के रूप में, सुख-दु:ख के साझेदार के रूप में, गुजरे लम्‍हों के भागीदार के रूप में, याद उन्‍हें भी तो आती होगी? क्‍या वे भी ठिठकते है किसी पल यह सोच कर कि कुछ पीछे छूट तो नहीं गया?

सोचता हूं, किसी रात उनकी भी तो नींद टूटती होगी। यूं ही। तब क्‍या वे भी सोचते होंगे अपनी पोटली में क्‍या रख लाए और क्‍या छोड़ आए?

जैसे, बही खाते मिलाते हैं, जैसे हम जांचते रहते हैं अपने दोषों को, क्‍या वे भी कभी जांचते होंगे?

सोचते होंगे तो क्‍या मिलने को, बतियाने को बेकरार न होते होंगे?  

क्‍या पीछे छूट गई सुवास उन्‍हें बार-बार बाग खिलाने को मजबूर नहीं करती होगी?

जैसा सोचता हूं मैं, जानता हूं, वैसा सोचते हैं कई लोग। फिर वे ही क्‍यों नहीं सोचते वैसा, जैसा दूसरे सोचते हैं उनके बारे में?

ऐसा क्‍यों होता है कि लौट आना हर बार चले जाने से ज्‍यादा मुश्किल होता है? 

जो जाने की हिम्‍मत रखते हैं, वे लौट आने का रास्‍ता क्‍यों नहीं जानते हैं?

लगता था कि जिनके बिना एक कदम भी चल नहीं पाएंगे हम और अब सोचें तो अनुभव होता है कितने मील दूर चले आए हैं। क्‍या वे न सोचते होंगे ऐसा?  

और जब-जब टूटने लगता है ऐसी किसी भी बात से विश्‍वास तब ऐसा क्‍यों होता है कि कोई एक पंक्ति, कोई एक बात, कोई एक घटना, कोई एक व्‍यक्ति फिर से उम्‍मीद का एक दीया जला जाता है। और चुपचाप जली लौ भीतर उजास फैलाने लगती है।

रूकते-रूकते हम फिर चलने लगते हैं। गिरते-गिरते संभलने लगते हैं।

फिर भी लगता है, संभलते-संभलते पुराने सहारे क्‍यों विस्‍मृत होने लगते हैं? एक फोन नंबर डायल करने जितनी दूरी भी तय क्यों नहीं हो पाती है?


Tuesday, October 18, 2022

पहली मुलाकात में अज्ञेय को देख निराला क्‍यों बोले, जरा सीधे खड़े हो जाओ


पग-पग विष पान किया, हारे नहीं बने महाप्राण निराला’ पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के समूचे जीवन वृत को एक वाक्‍य में कहना हो तो यही पंक्ति सूझेगी. छायावादी कविता के एक स्‍तंभ निराला केवल कविताओं के लिए याद किए जाएं तो यह उनके साथ अन्‍याय होगा. उन्‍होंने हिंदी कविता को छंदमुक्‍त करने का ऐतिहासिक कार्य तो किया लेकिन गद्य को पढ़ेंगे तो जानेंगे कि अपने समय को किस तरह उन्‍होंने देखा और किस आशावाद के साथ साहित्‍य में रच दिया. तकलीफें जिनका स्‍वभाव न बदल सकीं. जीवन का विष पान करते रहे मगर दुनिया को देते रहे.


15 अक्‍टूबर उन्‍हीं निराला की पुण्‍यतिथि है. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में 21 फरवरी 1899 में हुआ था. जीवन का उत्तरार्द्ध इलाहाबाद में बीता. जहां 15 अक्टूबर 1961 को उन्‍होंने देह त्‍यागी. माता ने पुत्र-प्राप्ति की कामना से सूर्य का व्रत किया था और संयोग से उनका जन्म भी रविवार को हुआ था, अतः उनका नाम सूर्यकुमार रखा गया. इनकी मां तीन वर्ष की आयु में ही उन्हें असहाय छोड़कर परलोक सिधार गई. परिस्थितियों के कारण निराला नवीं कक्षा से आगे शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके. स्वाध्याय के बल पर ही उन्होंने बांग्‍ला, संस्कृत और अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया.


तेरह-चौदह वर्ष की आयु में निराला का विवाह मनोहरा देवी से हुआ, परंतु दाम्पत्य सुख का भाग्‍य नहीं था. सन् 1918 में फैली महामारी में पत्‍नी का देहांत हो गया. उस समय उनकी दो संतान थीं. एक पुत्री और दूसरा पुत्र. थोड़े दिनों बाद पुत्र की भी मृत्यु हो गई. बेटी सरोज 19 वर्ष की अवस्था में सन् 1935 में चल बसी. स्वजनों की मृत्यु विशेषतः पुत्री वियोग के आघात ने उन्हें फक्कड़ और दार्शनिक बना दिया. बेटी के निधन पर लिखा गया ‘सरोज स्‍मृति’ हिंदी का सर्वश्रेष्‍ठ शोक गीत माना गया है. यही समय निराला के लेखन में दिशा परिवर्तन का प्रस्‍थान बिंदु भी माना जाता है.


निराला स्वभाव से उन्मुक्त और किसी भी प्रकार का प्रतिबंध न मानने वाले कवि थे. अतः उन्होंने काव्य के लिए छंद को आवश्यक नहीं माना. विरोध सहते हुए भी उन्होंने मुक्त छंद का प्रयोग किया. हिंदी कविता को छंद मुक्त करने का श्रेय निराला को ही है. जिस समय हिंदी लेखक समाज मात्रिक और वर्णिक छंद रच रहे थे तब निराला ने काव्‍य को छंद मुक्‍त्‍ किया. बिना छंद को साधे छंद मुक्ति कहां संभव हो सकती थी भला?

लेकिन निराला महाप्राण क्‍यों हुए यह जानना है तो आपको उनका गद्य भी पढ़ना चाहिए. उन्होंने कविता के अलावा काफी कुछ लिखा है- कहानी, उपन्यास, आत्मकथात्मक गद्य, निबंध. निराला ने गद्य को जीवन संग्राम की भाषा कहा था. और उनके लेखों, संपादकीय टिप्पणियों और उपन्यासों में जाति-व्यवस्था, किसान आंदोलन, स्त्रियों की दशा आदि पर उनके विचारों को पढ़ कर निराला को जाना जा सकता है. टैगोर, गांधी, नेहरू से असहमति जताना हो साहित्‍यकारों की आलोचना निराला का अंदाज ही निराला था.


कैसा था यह अंदाज यह साहित्‍यकारों के संस्‍मरणों से समझा जा सकता है. अज्ञेय अपने संस्मरण ‘वसंत का अग्रदूत’ में लिखते हैं, ‘मैं निराला के पहले दर्शन के लिए इलाहाबाद में पंडित वाचस्पति पाठक के घर जा रहा था तो देहरी पर ही एक सींकिया पहलवान के दर्शन हो गए जिसने मेरा रास्ता रोकते हुए एक टेढ़ी उंगली मेरी ओर उठाकर पूछा, ”आपने निरालाजी के बारे में ‘विश्वभारती’ पत्रिका में बड़ी अनर्गल बातें लिख दी हैं.” यों ‘रिपोर्टें’ सही थीं. ‘विश्वभारती’ पत्रिका में मेरा एक लंबा लेख छपा था. आज यह मानने में भी मुझे कोई संकोच नहीं है कि उसमें निराला के साथ घोर अन्याय किया गया था. अब यह भी एक रोचक व्यंजना-भरा संयोग ही है कि सींकिया पहलवान से पार पाकर मैं भीतर पहुंचा तो देखा कि एक चौकी के निकट आमने-सामने निराला और ‘उग्र’ बैठे थे.


उग्रजी से मिलना पहले भी हो चुका था; मेरे नमस्कार को सिर हिलाकर स्वीकार करते हुए उन्होंने निराला से कहा, ”यह अज्ञेय है.”


निराला ने एक बार सिर से पैर तक मुझे देखा. मेरे नमस्कार के जवाब में केवल कहा, ”बैठो.”

मैं बैठने ही जा रहा था कि एक बार फिर उन्होंने कहा, ”जरा सीधे खड़े हो जाओ.”

मुझे कुछ आश्चर्य तो हुआ, लेकिन मैं फिर सीधा खड़ा हो गया. निराला भी उठे और मेरे सामने आ खड़े हुए. एक बार फिर उन्होंने सिर से पैर तक मुझे देखा, मानो तौला और फिर बोले, ”ठीक है.” फिर बैठते हुए उन्होंने मुझे भी बैठने को कहा. मैं बैठ गया तो मानो स्वगत-से स्वर में उन्होंने कहा, ”डौल तो रामबिलास जैसा ही है.”


रामविलास (डॉ. रामविलास शर्मा) पर उनके गहरे स्नेह की बात मैं जानता था, इसलिए उनकी बात का अर्थ मैंने यही लगाया कि और किसी क्षेत्र में न सही, एक क्षेत्र में तो निरालाजी का अनुमोदन मुझे मिल गया है. मैंने यह भी अनुमान किया कि मेरे लेख की ‘रिपोर्टें’ अभी उन तक नहीं पहुंची या पहुंचाई नहीं गई हैं.


शिवमंगल सिंह सुमन के साथ निराला से हुई भेंट का जिक्र करते हुए अज्ञेय लिखते हैं कि दोनों के मन में यह ग्‍लानि थी कि निराला अपने लिए जो भोजन बना रहे थे वह सारा का सारा उन्होंने हमारे सामने परोस दिया और अब दिन-भर भूखे रहेंगे. लेकिन में यह भी जानता था कि हमारा कुछ भी कहना व्यर्थ होगा- निराला का आतिथ्य ऐसा ही जालिम आतिथ्य है. सुमन ने कहा, निरालाजी, आप नहीं खाएंगे तो हम भी नहीं खाएंगे.”


निरालाजी ने एक हाथ सुमन की गर्दन की ओर बढ़ाते हुए कहा, “खाओगे कैसे नहीं? हम गुद्दी पकड़कर खिलाएंगे.”

सुमन ने फिर हठ करते हुए कहा, “लेकिन, निरालाजी, यह तो आपका भोजन था. अब आप क्या उपवास करेंगे?’ निराला ने स्थिर दृष्टि से सुमन की ओर देखते हुए कहा, “तो भले आदमी, किसी से मिलने जाओ तो समय असमय का विचार भी तो करना होता है.” और फिर थोड़ा घुड़ककर बोले “अब आए हो तो भुगतो.”


अज्ञेय लिखते हैं, हम दोनों ने कटहल की वह भुजिया किसी तरह गले से नीचे उतारी. बहुत स्वादिष्ट बनी थी, लेकिन उस समय स्वाद का विचार करने की हालत हमारी नहीं थी.जब हम लोग बाहर निकले तो सुमन ने खिन्न स्वर में कहा, “भाई, यह तो बड़ा अन्याय हो गया.”


अज्ञेय ने कहा, “इसीलिए मैं कल से कह रहा था कि सवेरे जल्दी चलना है, लेकिन आपको तो सिंगार-पट्टी से और कोल्ड क्रीम में फुरसत मिले तब तो.”

निराला के निराले आतिथ्‍य के बारे में महादेवी वर्मा ने लिखा है, ऐसे अवसरों की कमी नहीं जब वे अकस्मात् पहुंच कर कहने लगते थे कि इक्के पर कुछ लकड़ियां, थोड़ा घी आदि रखवा दो. अतिथि आए हैं, घर में सामान नहीं है. उनके अतिथि यहां भोजन करने आ जाएं, सुनकर उनकी दृष्टि में बालकों जैसा विस्मय छलक आता है. जो अपना घर समझकर आए हैं, उनसे यह कैसे कह दें कि उन्हें भोजन के लिए दूसरे घर जाना होगा. भोजन बनाने से लेकर जूठे बर्तन मांजने तक का काम वे अपने अतिथि देवता के लिए सहर्ष करते हैं.


संवेदनशीलता ऐसी कि सुमित्रानंदन पंत दिल्ली में टाइफाइड ज्वर से पीड़ित थे. इसी बीच किसी समाचार पत्र ने उनके स्वर्गवास की झूठी खबर छाप डाली. निराला जी यह समाचार जान कर लड़खड़ा कर सोफे पर बैठ गए. महादेवी लिखती हैं, उनकी झुकी पलकों से घुटनों पर चूने वाली आंसू की बूंदें बीच-बीच में ऐसे चमक जाती थीं मानो प्रतिमा से झड़े जूही के फूल हों. यह सुनकर कि मैंने ठीक समाचार जानने के लिए तार दिया है, वे व्यथित प्रतीक्षा की मुद्रा में तब तक बैठे रहे जब तक रात में मेरा फाटक बंद होने का समय न आ गया.


सबेरे चार बजे फाटक खटखटा कर जब उन्होंने तार के उत्तर के संबंध में पूछा तब महादेवी को पता चला कि वे रात भर पार्क में खुले आकाश के नीचे ओस से भीगी दूब पर बैठे सवेरे की प्रतीक्षा करते रहे हैं.


एक बार निराला ने गेरू मंगवाया तो महादेवी कारण पूछ बैठीं. उन्‍होंने जवाब दिया ‘अब हम सन्यास लेंगे.’ महादेवी कहती हैं, इस निर्मम युग ने इस महान कलाकार के पास ऐसा क्या छोड़ा है जिसे स्वयं छोड़कर यह त्याग का आत्मतोष भी प्राप्त कर सके. तभी वसंत ने परिहास की मुद्रा में कहा, ‘तब तो आपको भिक्षा मांगने की आवश्यकता पड़ेगी.’


खेद, अनुताप या पश्चात्ताप की एक भी लहर से रहित विनोद की एक प्रशांत धारा पर तैरता हुआ निराला का उत्तर आया, ‘भिक्षा में मिला तो अब भी खाते हैं.’


धनाभाव निराला के जीवन का विशिष्‍ट कष्‍ट कहा जाना चाहिए. वे फक्‍कड़ स्‍वभाव के थे, जो मिलता था वह औरों को देने में पल का समय न लगाते. क्‍या कोई जान पाएगा कि पैसा कमाने के लिए अनुवाद करने वाले, बिना नाम औरों के लेख सुधारने वाले निराला के मन में जीवन के ये कड़वे अनुभव तिल भर भी कड़वाहट नहीं भर पाए थे. बल्कि उनकी रचनाधर्मिता से साहित्‍य समृद्ध ही हुआ है. तभी तो महादेवी वर्मा ने लिखा है, जिसकी निधियों से साहित्य का कोश समृद्ध है उसने ‘भिक्षाटन’ कर जीवन-निर्वाह किया है, इस कटु सत्य पर, आने वाला युग विश्वास कर सकेगा, यह कहना कठिन है.


(न्‍यूज 18 हिंदी ब्‍लॉग में प्रकाशित)

Friday, October 7, 2022

वयं रक्षाम: रावण होने, न होने के बीच


दशहरे पर शुभकामनाएं देते हुए हमें राम और रावण के चरित्र याद आते हैं. प्रतापी बताते हुए रावण के पांडित्‍य और पौरूष के प्रति हम चमत्‍कृत भी होते हैं. श्री राम द्वारा की गई रामेश्‍वर पूजा में बतौर आचार्य स्‍वयं पहुंचने, मृत्‍यु के पूर्व श्री राम के उद्घोष और लक्ष्‍मण द्वारा शिक्षा लेने जाने जैसी विशेषताओं के माध्‍यम से ग्रंथों, श्रुति कथाओं में रावण के व्‍यक्तित्‍व की प्रशंसा भी हुई है. यह मानव स्‍वभाव ही है कि वह बुराई में कुछ अच्‍छाई खोज ही लेता है. या यूं जानिए कि सबकुछ ब्‍लेक एंड व्‍हाइट नहीं होता है. धवल व स्‍याह के बीच धूसर भी होता है. रावण के चरित्र में भी दुर्गुण थे तो विशेषताएं भी. रावण होने न होने के बीच एक महीन सी रेखा है. हम किस बात से मुग्‍ध होते हैं और किस का अनुसरण करते हैं यह हमारे विवेक निर्भर करता है.


रावण के चरित्र निर्माण के पीछे क्‍या पोषण था, कौन सी संस्‍कृति थी यह जानना दिलचस्‍प हो सकता है. तमाम ग्रंथों के अध्‍ययन के अलावा आचार्य चतुरसेन शास्‍त्री द्वारा लिखा गया उपन्‍यास ‘वयं रक्षाम:’ इस कार्य में बड़ी सहायता कर सकता है. यह उपन्‍यास इतिहास नहीं है लेकिन किसी शोध ग्रंथ से कम नहीं है. इसकी भूमिका में आचार्य चतुरसेन शास्‍त्री ने जो लिखा है, वह समझना बेहद महत्‍वपूर्ण है. वे लिखते हैं,

मेरे हृदय और मस्तिष्क में भावों और विचारों की जो आधी शताब्दी की अर्जित प्रज्ञा-पूंजी थी, उस सबको मैंने ‘वयं रक्षामः’ में झोंक दिया है. अब मेरे पास कुछ नहीं है. लुटा-पिटा-सा, ठगा-सा श्रांत-क्लांत बैठा हूं. चाहता हूं, अब विश्राम मिले. चिर न सही, अचिर ही. गत ग्यारह महीनों में दो-तीन घंटों से अधिक नहीं सो पाया. संभवतः नेत्र भी इस ग्रंथ की भेंट हो चुके हैं. शरीर मुर्झा गया है, पर हृदय आनंद के रस में सराबोर है. यह अभी मेरा पैंसठवां ही तो वसंत है. फिर रावण जगदीश्वर मर गया तो क्या? उसका यौवन, तेज़ दर्प, दुस्साहस, भोग और ऐश्वर्य, जो मैं निरंतर इन ग्यारह मासों में रात-दिन देखता रहा हूं, उसके प्रभाव से कुछ-कुछ शीतल होते हुए रक्तबिंदु अभी भी नृत्य कर उठते हैं. गर्म राख तो है.


बकौल, आचार्य चतुरसेन शास्‍त्री, ‘वयं रक्षामः’ में प्राग्वेदकालीन जातियो के संबंध में सर्वथा अकल्पित-अतर्कित नई स्थापनाएं हैं, मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है. सत्य की व्याख्या साहित्य की निष्ठा है. उसी सत्य की प्रतिष्ठा में मुझे प्राग्वेदकालीन नृवंश के जीवन पर प्रकाश डालना पड़ा है. अनहोने, अविश्रुत, सर्वथा अपरिचित तथ्य आप मेरे इस उपन्यास में देखेंगे; जिनकी व्याख्या करने के लिए मुझे उपन्यास पर तीन सौ से अधिक पृष्ठों का भाष्य भी लिखना पड़ा है. फिर भी आप अवश्य ही मुझसे सहमत न होंगे. परंतु आपके ग़ुस्से के भय से तो मैं अपने मन के सत्य को मन में रोक रखूंगा नहीं. अवश्य कहूंगा और सबसे पहल आप ही से.


वे लिखते हैं, ‘वैशाली की नगरवधू’ लिखकर मैंने हिंदी उपन्यासों के संबंध में एक यह नया मोड़ उपस्थित किया था कि अब हमारे उपन्यास केवल मनोरंजन की तथा चरित्र-चित्रण भर की सामग्री न रह जाएंगे. अब यह मेरा नया उपन्यास ‘वयं रक्षामः’ इस दिशा में अगला कदम है. इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्य, दानव, आर्य, अनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्मृत पुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देखकर सारे संसार ने उन्हें अंतरिक्ष का देवता मान लिया था. मैं इस उपन्यास में उन्हें नर-रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूं. ‘वयं रक्षामः’ एक उपन्यास तो अवश्य है; परंतु वास्तव में वह वेद, पुराण, दर्शन और वैदेशिक इतिहास-ग्रंथों का दुस्सह अध्ययन है. संक्षेप में मैंने सब वेद, पुराण, दर्शन, ब्राह्मण और इतिहास के प्राप्तों की एक बड़ी-सी गठरी बांधकर इतिहास-रस में एक डुबकी दे दी है. सबको इतिहास-रस में रँग दिया. फिर भी यह इतिहास-रस का उपन्यास नहीं ‘अतीत-रस’ का उपन्यास है. इतिहास-रस का तो इसमें केवल रंग है, स्वाद है अतीत-रस का.


अब बात उपन्‍यास की. यह कहानी किशोरवय के रावण से शुरू होती है. वह ऋषि पुलस्‍त्‍य का पौत्र और ऋषि विश्रवा का पुत्र था. धनपति कुबेर का मौसेरा भाई. राक्षसों में मातृसत्ता पद्धति चलती थी, इसलिए रावण में उसके नाना और मामा के राक्षस संस्कार थे. वह अपने नाना सुमाली और मामा प्रहस्‍त के कहने और निर्देश पर ही लंका व उसके आसपास के द्वीपों को जीतने के लिए निकला. रावण राक्षस धर्म को मानता था और चाहता था कि पृथ्वी पर जितनी भी जातियां है जैसे वे सब राक्षस धर्म को स्‍वीकार कर ले. राक्षस धर्म को स्वीकार करवाने के लिए रावण का एक ही नारा था- वयं रक्षामः (हम रक्षा करेंगे). जो राक्षस धर्म स्वीकार कर लेते थे, रावण उनकी रक्षा करता था जो उसकी बात नहीं मानते थे वह उनका वध कर देता था.


जैसे, दानेंद्र मकराक्ष पर विजय के बाद रावण खड्ग हवा में ऊंचा उठा कर कहा – “वयं रक्षामः. सब कोई सुनो, आज से यह सुम्बा द्वीप और दानवों के सब द्वीपसमूह रक्ष संस्कृति के अधीन हुए. हम राक्षस इसके अधीश्वर हुए. जो कोई हम से सहमत है उसे अभय, जो सहमत नहीं है, उसका इसी क्षरण शिरच्छेद हो.”



अशोक वाटिका का एक संवाद जरूर पढ़ना चाहिए. मिलने आए रावण से सीता कहती हैं, आप त्रिलोक के स्वामी और सब विद्याओं के भंडार हैं. आपको ज्ञात है कि मैं वरिष्ठ कुल की कन्या और वधू हूं. मैं आर्य कुलवधू हूं. फिर भला मैं, लोकनिन्दित आचरण कैसे कर सकती हूं? आप सद्धर्म का विचार कीजिए और सज्जनों के मार्ग का अनुसरण कीजिए. आप रक्षपति हैं. ‘वयं रक्षाम:’ आपका व्रत है. आपको स्त्रियों की सर्वप्रथमा रक्षा करनी चाहिए.


सीता की बात सुन कर रावण ने कहा, “भद्रे, सीते, मैंने तेरे साथ कोई अधर्माचरण नहीं किया है. राक्षस धर्म को मर्यादा के अनुसार ही तेरा हरण किया है, क्योंकि तेरा पति मेरा बैरी है. उसने अकारण मेरी बहिन सूर्पनखा का अंगभंग किया और उसकी रतियाचना की अवज्ञा की. इसलिए मैंने उसकी स्त्री का हरण कर लिया. इसमें दोष कहां है? फिर तो तुम पर अधिक सह्रदय हूं. मैंने तुमसे बलात्कार नहीं किया. तुमसे दासीकर्म नहीं कराया. तेरा वध भी नहीं किया, न तुझे विक्रय किया अपितु सादर सयत्न रानी की भांति रखा है.


सीता ने कहा, “क्या आपने मेरे पति को युद्ध में जीत कर मेरा हरण किया है? आपने तो छल करके, भिक्षु वनकर, चोर की भांति मुझे चुराया है. आपने पुरुष-सिंह राम और लक्ष्मण की अनुपस्थिति मे मेरा हरण किया, आपका यह कार्य कितना कलंकित था. आपका यह कार्य न धर्म-सम्मत है, न वीरोचित. फिर मैं तो आपको स्वीकार करती नहीं. मेरे यशस्वी पति राज्य-भ्रष्ट नहीं हैं. उन्होने तो स्वेच्छा से राज्य त्यागा है, अभी भी वे ही अवध के स्वामी हैं. अभी भी वे सात अक्षोहिणी सेना के अधिनायक हैं. परंतु इससे भी क्या? आर्यपुत्र का बल उनकी सेना में नहीं; उनकी भुजा में है.


है न बारीक सी बात. अपने धर्म के प्रति निष्‍ठ रावण का आचरण धर्म सम्‍मत नहीं था. यहां निष्‍ठा से बड़ी बात आचरण की है. उसे अपनी रक्ष संस्‍कृति से अलग कोई और धर्म, कोई और संस्‍कृति पसंद नहीं थी. यह भाव ही दानव और देव के मध्‍य संघर्ष का मूल था.


सहज जिज्ञासा होती है, रावण के बाद लंका का क्‍या हुआ? वैसा ही हाल हुआ जैसा राम के बाद अयोध्‍या का हुआ था. लंका विजय के बाद विभीषण राजा बने और लंका में केवल विधवाएं, बच्चे और बूढ़े ही बचे. वे विभीषण को तिरस्कार की दृष्टी से देखने लगे. मंदोदरी ने विभीषण की पत्नी बनना स्वीकार किया लेकिन विभीषण अधिक दिन जी नहीं पाए. उनके वंशज कमजोर निकले. लंका विस्‍तार सिमट गया.


कथा का अंत हुआ. नायकों, खलनायकों का अंत हुआ. जय-पराजय के किस्‍से लिखे गए. सुने गए. काल की गति ज्‍यों कि त्‍यों हैं. गाथाएं भी वैसी ही रची, लिखी जा रही हैं. जब भी नीर क्षीर विवेक वांच्छित था, आज भी यही विवेक प्रणम्‍य है. विजयादशमी पर शुभकामनाएं.

(न्‍यूज 18 हिंदी ब्‍लॉग में प्रकाशित)