Monday, July 27, 2015

आस्था के केन्द्र पर बिखरा हमारी श्रद्धा का कचरा


बिना लागलपेट के कहा जाए तो हम भारतीय जरा धार्मिक भीरू किस्म के लोग है या आस्थावान लोग हैं। कहीं कोई ऐसा चिह्न दिखाई दे जाए जिससे धार्मिक स्थल होने का संकेत मिलता हो तो हम शीश नवाने में जरा देर नहीं करते। हम जान जोखिम में डाल देते हैं लेकिन मंदिर के सामने से गुजरते समय स्टेरिंग छोड़ कर देव प्रतिमा के समक्ष हाथ जोड़ना नहीं छोड़ते। आस्था का आनंद ही कहिए कि हम हर ओर प्रभू भक्ति का मौका खोजते रहते हैं। यहां तक कि पेड़, नदी, पहाड़... प्रकृति के हर अंष में देवत्व खोज कर उसके प्रति श्रद्धान्वत होते हैं। यही कारण है कि पीपल में विष्णु का वास बताते हैं और गंगा, नर्मदा ही नहीं, हर बहती नदी में नहा कर अपने पाप तिरोहित करते हैं और पुण्य कमाते हैं। इतने ऊंचे दर्जें के आस्थावान है कि देव प्रतिमाओं के दर्शनों के लिए कई-कई किलोमीटर पैदल चलते हैं। दुरूह पहाड़ों की चढ़ाई चढ़ते हैं। वन-जंगलों से गुजर कर परिक्रमाएं करते हैं। इस मार्ग में आने वाली मुसीबतों को हंसते-हंसते सहते हैं, यह मानते हुए कि ईश्वर परीक्षा ले रहा है।
हमारा यह रूप और यह विचार, एक बेहद संवेदनशील प्राणी की तस्वीर पेश करता  हैं लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। हमारी आस्था के केन्द्रों को श्रद्धा के कचरे से दुषित करने वाले भी हम ही हैं। जरा अपने आचरण पर गौर तो कीजिए। कैसा नजारा होता है, जब भोलेनाथ का अभिषेक करते हुए अंध भक्ति के शिकार हो जाते हैं और पोलीथीन में पैक दूध से ही अभिषेक करते हैं तथा खाली थैली को वहीं मंदिर परिसर में उड़ा देते हैं जैसे हमारे पाप धोने वाला भगवान ही मंदिर में फैलाए गए कूड़े को भी साफ करवाएगा। मंदिर का कचरा मंदिर प्रबंधन साफ कर भी दे तो जो कचरा नदियों, पहाड़ों, मैदानों, बावडि़यों में डाला जा रहा है, उसकी सफाई कौन करेगा? जो लोग वैष्णो देवी जाते हैं, वे जरा मार्ग में पहाडि़यों की तह में झांक कर तो देखें, क्या दिखाई देता है? पहाड़ों की कोख में खड़े पेड़ों के ऊपर लटकी पाॅलीथीन की थैलियां, आलू चिप्स के पैकेट और साॅफ्ट ड्रिंक्स के पाऊच। ट्रेन यात्रा करते समय आपने भी तो अपने कूड़े-कचरे को चलती गाड़ी से कहीं किसी खेत किनारे, नदी या मैदान में फेंक दिया होगा। कभी सोचा है कि जिस दुरूह पहाड़ी पर चढ़ने में आपके प्राण निकले जा रहे हैं, उस पहाड़ी की खोह में जा कर आपके द्वारा फेंकी गई पन्नियों को कौन हटाएगा? कभी आपने सोचा है कि रेलगाड़ी से जंगलों में उड़ा दी गई पाॅलीथीन की पन्नियों को हटाने के लिए कौन-सा स्वच्छता अभियान कारगर होगा?
क्या आपको इस बात की जानकारी है कि हमारे द्वारा चढ़ा गए दूध, पानी और फूलों के कारण ओंकारेश्वर, महाकालेश्वर और मंदसौर की पशुपतिनाथ मंदिर की मूल प्रतिमाओं का क्षरण हो रहा है। इन प्रतिमाओं को सहेजने के लिए जतन हो रहे हैं लेकिन हमारी श्रद्धा का कचरा यह होने नहीं देता। कल ही की बात है, मैं भोजपुर के शिव मंदिर गया था। ऐतिहासिक महत्व के इस मंदिर का पुरातात्विक महत्व है। यहां फोटो खींचना भी मना है, प्रतिमा पर फूल चढ़ाना तो दूर की बात है। लेकिन यहां सारे नियमों और प्रतिबंधों को धत्ता बताते हुए फूल भी चढ़ाए जा रहे थे, नारियल को भी वहीं फोड़ कर अपनी श्रद्धा को व्यक्त किया जा रहा था। और तो और, अगरबत्तियों के पैकेट भी वहीं गर्भगृह में फेंकें गए थे। यहां, बाकायदा एक पूजारी की चौकी लगी थी और वह दक्षिणा भी वसूल रहा था। इस कचरे को देख कर नाराजगी तो जागती ही है, भीतर एक रोष  भी जागता है कि क्या हम आने वाली पीढ़ी को इस धरोहर को सौंपना नहीं चाहते? अगर चाहते हैं तो इसके संरक्षण का प्रयास करते, न कि ऐसे कार्य करते जो इस विरासत को नष्ट करता है।

गहरे धुंधलके में डाॅ पाण्डे उम्मीद

प्रतिमाओं, ताजिये, पूजन सामग्री सहित तमाम चीजों को नदियों में बहा कर उन्हें दूषित करते समूचे मानव समाज में डाॅ सुभाष सी पाण्डेय जैसे लोग भी हैं जो घने अंधकार में रोशनी की किरण की तरह हैं। पर्यावरणप्रेमी डाॅ पाण्डे कलियासोत नदी को बचाने का संघर्ष कर रहे हैं तो भोजपुर और भीमबैठिका जैसे पुरातात्विक महत्व के स्थलों के संरक्षण की लड़ाई भी लड़ रहे हैं। यही वह पगडंडी है जो वास्तव में विकास, प्रकृति के साथ विकास का हाई-वे है।

अंत में...

कोलम्बस भी ऊब गया होगा
अपनी मीलों लम्बी यात्रा में ।
तेनजिंग ने भी महसूस की होगी हार
एवरेस्ट फतह के ठीक एक पल पूर्व ।
बापू को भी असम्भव लगी होगी आजादी
मुक्ति के ठीक एक क्षण पहले ।
दुनिया में हर कहीं
जीत के ठीक एक पल पूर्व
सौ टंच प्रबल होती है हार
यह जानते हुए भी कि
किनारे पर बैठ कर
पार नहीं होगी नदी
उम्मीद और नाउम्मीद के बीच
मैं क्यूँ हथियार डाल दूँ ?
लड़े बगैर क्यूँ हार मान लूँ ?

Thursday, July 16, 2015

क्या याकूब मेमन मुसलमानों का रोल माॅडल है?

1993 के मुंबई बम कांड के आरोपी याकूब मेनन को फांसी देने के बारे में उस विस्फोट में जान गंवाने वाले लोगों के परिवारों की राय की तो खबर नहीं लेकिन राज्यसभा सांसद मजीद मेमन कह रहे हैं कि मुसलमान होने की वजह से याकूब मेमन को फांसी दी जा रही है। मेनन को फांसी दी गई तो मुसलमानों में गलत संदेश जाएगा। उनकी बात से समाजवादी पार्टी के बड़े नेता अबु आसिम आजमी भी सहमत हैं। आजमी भी इस फांसी का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि याकूब की गलती इतनी बड़ी नहीं है कि उसे फांसी दी जाए। प्रश्न है कि क्या वाकई याकूब मेमन मुसलमानों के रोल माॅडल हैं? हमें तो ऐसा नहीं दिखाई देता। तो फिर दोनों नेता यह साबित करने की कोशिशें क्यों कर रहे हैं कि मुसलमानों (दुनिया के किसी भी हिस्से में रह रहे ऐसे मुसलमान जिनका ईमान मुसलसल) का समर्थन याकूब जैसे लोगों के साथ हो सकता है?
क्या आतंकी को सजा देने से ज्यादा यह देखा जाना अहम् है कि उसकी जाति क्या है? यदि इस तरह से एक पक्ष जाति देखेगा तो दूसरे पक्ष को जाति देखने से कैसे रोका जा सकेगा? दोनों ही मामलों में देश का हित नहीं है। आम आदमी, चाहे वह मुसलमान हो या हिन्दू या ईसाई, उसका हित नहीं है। जब आतंक यह नहीं देखता कि उसके हमले में मरने वाले की जाति क्या है तो राजनीति यह क्यों देखती है कि जिसे सजा मिल रही है, उसकी जाति क्या है?
महात्मा गांधी ने कहा था कि अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं। यहां अगर अपराध से घृणा करने की बात होती तो दोनों मुस्लिम नेताओं काजमी और मजीद मेमन की बात का समर्थन किया जा सकता था लेकिन दोनों का अंदाज इस मामले पर संवेदनाओं को क्षति पहुंचाने का ही है। हम भारतीयों की न्याय में बहुत आस्था है, फिर चाहे वह न्याय कानूनी अदालत में हो या ऊपर वाले की अदालत में। कहते भी है, ऊपर वाले के यहां देर है, अंधेर नहीं। हम तो यह भी मानते हैं कि ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती है। हम तो न्याय की आस में पूरी उम्र गुजार देते हैं। फिर, मुंबई बमकांड में मारे गए 257 लोगों के परिवारों को तो दोषियों की सजा का इंतजार करते हुए अभी 22 साल ही हुए हैं। उनके पास इंतजार करने के लिए अलावा और क्या चारा है, लेेकिन इस मामले पर राजनीति चमका रहे नेताओं के पास राजनीति करने के लिए बहुत से मौके हैं। राजनेताओं की हमदर्दी किसी अपराधी के साथ हो सकती है लेकिन आम लोगों की जान ऐसे लोगों के हाथों का खिलौना होती है। बेहतर होगा कि राजनेता कानून को अपना काम करने दें और आंतकियों व नक्सलियों को कड़ा संदेश जाने दें कि बंटवारे का हर कदम माफ करने लायक नहीं है।

याद दिल दूं कि …
शुक्रवार, 12 मार्च 1993 को एक के बाद एक मुंबई की 12 जगहों पर सीरियल ब्लास्ट हुए थे। इन ब्लास्ट से मुंबई के साथ पूरा देश दहल उठा था। इसमें 257 लोगों की मौत हुई थी और 750 से अधिक लोग घायल हुए थे। यह पहला मौका था, जब देश ने सीरियल बम ब्लास्ट की भयानक तस्वीर देखी थी। इसी दिन बॉम्बे स्टॉक एक्सेंज (बीएसई) की 28 मंजिला बिल्डिंग के बेसमेंट में भी ब्लास्ट हुआ था, जिसमें 50 लोगों की मौत हुई थी।

Wednesday, July 15, 2015

बंद करो आईपीएल

चार सौ साल पुराने क्रिकेट के उज्जवल इतिहास को कालिख से बचाने के लिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को अब आईपीएल बंद कर देना चाहिए। बंद इसलिए होना चाहिए कि लोगों में क्रिकेट के प्रति फिर विश्वास पैदा हो। यह तय है कि आईपीएल जारी रहा तो लोगों का क्रिकेट में भरोसा नहीं रहेगा। देश की सवा सौ करोड़ जनता क्रिकेट को खेल की इबादत के रूप में सुनती और गुनती है। और  एक तरह से इसे राष्ट्रीय खेल का दर्जा प्राप्त है। यदि आईपीएल चालू रहा तो देश में क्रिकेट के प्रति दीवानगी और कम हो जाएगी क्योंकि ग्लैमर के नाम पर इसमें वो सारे खेल चलते रहेंगे जिसके कारण क्रिकेट बदनाम हुआ है। यह विश्वास  इसलिए गिरा है क्योंकि प्रतिबंधित दोनों टीमों में क्रिकेट के ऐसे दिग्गज खिलाड़ी शामिल हैं जो भारतीय टीम का नेतृत्व कर चुके हैं और जिनके कारण क्रिकेट को जाना जाता है। इन प्रतिष्ठित खिलाड़ियों की मौजूदगी भी यदि क्रिकेट की गरिमा नहीं बचा सकी तो आगे आईपीएल क्रिकेट का सम्मान कैसे बचा कर रख पाएगा, यह बड़ा सवाल है। 
आइपीएल सट्टेबाजी प्रकरण में दोषी पाए गए बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष एन. ,श्रीनिवासन के दामाद गुरुनाथ मयप्पन पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया गया है। उसके साथ साथ राजस्थान रॉयल्स के सह मालिक और अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी के पति राज कुंद्रा पर भी आजीवन प्रतिबंध लगा है। जस्टिस लोढ़ा ने टिप्पणी की है कि मयप्पन चेन्नई सुपर किंग्स का हिस्सा थे। उन्होंने खेल के नियम तोड़े और वे सट्टेबाजी में भी शामिल थे. उनकी कारगुजारियों से बीसीसीआई और आईपीएल की छवि खराब हुई है। असल में यह प्रकरण ’जेंटलमेन गेम’ कहे जाने वाले क्रिकेट में राजनीति, उद्योग और सट्टेबाजी के गठजोड़ के दुष्परिणाम का सटिक उदाहरण हैं। इस ‘करतूत’ से क्रिकेट पर कालिख पुती है और अफसोस है कि इस क्रिकेट पर कालिख मलने में सभी के हाथ रंगे हैं, चाहे वह क्रिकेट संगठनों से जुड़े नेताओं के हाथ हों, खिलाड़ियों के हाथ हो या मैदान के बाहर बैठ कर गेम को संचालित करने वाले माफिया के हाथ हों। इस जुर्म में सभी शरीक हैं लेकिन नुकसान केवल क्रिकेट का हुआ है और दिल क्रिकेटप्रेमियों के टूटे हैं। क्रिकेट की इस बेकद्री के लिए इनमें से किसी को माफ नहीं किया जा सकता है। खेलप्रेमी की दीवानगी के आलम को इसी बात से समझा जा सकता है कि सचिन तेंदुलकर को ‘भगवान’ मानते हैं। वे सुनील गावस्कर, कपिल देव, रवि शस्त्री, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, वीवीएस लक्ष्मण, विराट कोहली जैसे खिलाड़ियों में अपना आदर्श खोजते हैं। खिलाड़ियों और खेल को भगवान और धर्म का दर्जा देने वाली नई पीढ़ी को आईपीएल की सट्टेबाजी और ग्लैमर नष्ट कर रहा है। 
क्रिकेट के चाहने वालों को तो मलाल इस बात का है कि राजनेता, उद्योगपति और सट्टेबाजों की तिकड़ी इस खेल को लील रही थी, अपने काबू में ले रही थी और खिलाड़ियों को मुर्गी मुकाबले की तरह लड़ा रही थी लेकिन सीनियर खिलाड़ी खामोश थे। वे सूबों, धड़ों और नेताओं में बंटे खिलाड़ी धन कुबेेरों की कठपुतलियां बने रहे। खेल संगठनों की कमान खिलाड़ियों के हाथ में होना चाहिए। यह आग्रह और मशविरा दर्जनों बार दिया गया लेकिन किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। कारण साफ है, विश्व का सबसे  धनाढ्य खेल संगठन बीसीसीआई की कमान अपने हाथ में होने का अर्थ है, किसी बड़े  कारपोरेट घराने को संचालित करना। इसी कारण से बीसीसीआई की लगाम खिलाड़ियों के हाथों से निकल कर श्रीनिवासन जैसे पूंजीपति के कब्जे में चली गई।  

‘फेयर गेम’ के खिताब बना मजाक

इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि आईपीएल के लगभग हर सीजन में फेयर गेम का खिताब जीतने वाली चैन्नई सुपर किंग और राजस्थान रॉयल्स की टीमें भी सट्टेबाजी में शामिल थीं, इसलिए चेन्नई सुपर किंग्स को आईपीएल से दो साल के लिए निलंबित किया गया। टीम पर दो साल का प्रतिबंध रहेगा। वहीं राजस्थान रॉयल्स की टीम पर भी दो साल का प्रतिबंध लगा दिया गया है। जानकारों ने आईपीएल  के इस हश्र की घोषणा उसके निर्माण के समय ही कर दी थी। कहने को आईपीएल को उभरते हुए खिलाड़ियों  का मंच देने का एक उपक्रम था लेकिन वास्तव में यह उद्योगपतियों और सेलिब्रेटी के लिए पैसे से पैसा बनाने का साधन था। नाइट पार्टीस, चीयर लीडर्स, शराब और सट्टा जैसे आईपीएल की पहचान बन गए हैं। यही कारण है कि क्रिकेटप्रेमियों को बहुत कम आश्चर्य हुआ जब सट्टेबाजी में मयप्पन और कुन्द्रा जैसे बड़े नाम आए। 

Tuesday, July 14, 2015

अमित शाह : ‘शह’ भी होती है और ‘मात’ भी

शहर के राजनीतिक और प्रशासनिक गलियारों में सोमवार को दो वाक्य चर्चा में बने रहे। एक वाक्य भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का है। शाह ने भाजपा पदाधिकारियों की बैठक में कहा कि अपने बिगड़े बच्चे का जिक्र बाहर क्यों करना? दूसरा वाक्य, सीबीआई के जाइंट डायरेक्टर आरपी अग्रवाल का है। व्यापमं मामले की जांच कर रही सीबीआई टीम के प्रमुख अग्रवाल ने कहा कि व्यापमं मामले में सीबीआई देश को निराश नहीं करेगी। अग्रवाल की ख्याति राजस्थान के मशहूर भंवरी देवी केस की जांच को लेकर है। जाहिर है, अमित शाह और सीबीआई के जाइंट डायरेक्टर अग्रवाल के एक-एक वाक्य ने ही चर्चाओं को आकाश दे दिया है।
गुजरात चेस एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष
अमित शाह राजनीति भी शतरंज की ही तरह करते हैं। वे चाहे ‘राजा’ के साथ रहें या ‘प्यादे’ के बीच हों; उनके मनोभावों को आसानी से नहीं पढ़ा जा सकता। ऐसे ही मुहावरों में बात करने के उनके अंदाज को ठीक-ठीक एक ही अर्थ लगा पाना संभव नहीं होता है। उनकी एक ही बात में ‘शह’ भी होती है और ‘मात’ भी। ऐसा ही हुआ जब भोपाल में भाजपा पदाधिकारियों के बीच शाह ने कहा कि बच्चा अगर कमजोर है तो इसका जिक्र बाहर नहीं करना चाहिए। बात तो उन्होंने संगठन के संदर्भ में कही थी लेकिन इसे व्यापमं से जोड़ कर भी देखा गया। इशारों-इशारों में दिल की बात कहने वाले शाह के इस एक वाक्य ने बिना बोले कई संदेश दे दिए। एक तो साफ था कि भाजपा नेताओं को कांग्रेस के ‘दुष्प्रचार’ के खिलाफ जुट जाना चाहिए।
व्यापमं घोटाले के साये में यह संयोग ही था कि भाजपा के राष्ट्रीय मुखिया शाह भी मप्र और छत्तीसगढ़ के महाजनसम्पर्क अभियान की समीक्षा करने के लिए शहर में थे और इसी दिन सीबीआई की टीम भी मामले की जांच के लिए पहली बार भोपाल पहुंची। पूरा मीडिया इस कोशिश में जुटा था व्यापमं मामले पर शाह से चर्चा हो जाए तो दूसरी तरफ नेताओं के मन में भी कई सवाल थे। उन्हें  महाजनसम्पर्क अभियान में जनता के बीच जाना है। स्वाभाविक है, वहां व्यापमं को लेकर सवाल होंगे। शाह इस बात को जानते थे। तभी उन्होंने अपने उद्घाटन वक्तव्य में बगैर व्यापमं का उल्लेख किए साफ कर दिया है कि संगठन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ है। उन्होनें हिदायत दी कि अपनी कमजोरी घर में बताना चाहिए, बाहर चर्चा नहीं करनी चाहिए।  यह संदेश उन नेताओं के लिए था जो अकसर ही सत्ता और संगठन से अपनी नाराजगी सार्वजनिक तौर पर जताते रहते हैं। शाह ने स्पष्ट कर दिया कि सत्ता पक्ष में होने से हमें अपना आचरण और व्यवहार भी उसके अनुरूप रखना चाहिए।

Wednesday, July 8, 2015

शिवराज अनमने थे, केन्द्र के आगे झुके...

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अब तक व्यापमं मामले में सीबीआई जांच से इंकार कर रहे थे लेकिन वे एक रात में ही जांच की पहल करने के लिए कैसे तैयार हुए? राजनीतिक गलियारों के साथ जन सामान्य में यह सवाल चर्चा में हैं। ऐसा क्या हुआ कि उन्हें यह घोषणा करना पड़ी जबकि सार्वजनिक तौर पर केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह उनकी बात का समर्थन कर चुके थे शिवराज मान रहे थे कि गरोठ चुनाव जीते हैं इसका अर्थ है जनता उनसे नाराज नहीं है। कोर्ट पहले ही जांच को सही ठहरा चुकी है। इसलिए सीबीआई जांच की जरूरत नहीं है। लेकिन राजनीतिक हलकों का कहना है कि पिछले दिनों के घटनाक्रम के बाद भाजपा का एक महत्वपूर्ण वर्ग ये मानने लगा था कि व्यापमं घोटाले की जांच का सिलसिला राज्य सरकार की पकड़ से बाहर होता जा रहा है। जांच के तौर तरीके विवादास्पद हो चुके हैं। ऐसे में केन्द्र ने दबाव बनाया और सभी संदर्भों को देख कर लगता है कि यह राजनीतिक फैसला लेते समय शिवराज अलग-थलग पड़ गए। 
व्यापमं मामले में मप्र से ज्यादा बाहर के प्रदेशों में इसे लेकर शंका का माहौल बनने लगा था। यहां तक कि अप्रवासी भारतीय भी इसे देश की छवि पर आघात मानने लगे थे। सम्भवतः इसी कारण केन्द्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी नरम शब्दों में इशारा कर दिया था कि जांच पर सबका विश्वास होना चाहिए। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश  विजयवर्गीय भी मौतों के सिलसिले में जेटली से मिलता जुलता ही बयान दिया था। केन्द्रीय मंत्री उमा भारती सीबीआई जांच को लेकर पहले से ही आक्रामक थी। संगठन में भी दबे सुरों में जांच की विश्वसनीयता को लेकर निरंतर कानाफूसी होती रहती थी। आजतक के पत्रकार अक्षय सिंह की मृत्यु के बाद घटनाक्रम ने जो करवट ली उसके आगे भाजपा नेतृत्व बेबस नजर आ रहा था। टीवी चैनलों पर पानी पी-पी कर कांग्रेस और अपने विरोधियों को कोसने वाले भाजपाई प्रवक्ता ज्यादातर सवालों पर बगले झांकते नजर आ रहे थे। दिल्ली को महसूस हुआ कि मप्र सरकार की किरकिरी कर रहा यह घोटाला उसकी छवि को भी धूमिल करेगा। 
बताया गया है कि पत्रकार अक्षय सिंह की मृत्यु के बाद मुख्यमंत्री चौहान ने केन्द्रीय नेतृत्व से भी इस मसले पर परामर्श किया था। उन्हें इस बात के साफ संकेत दे दिए गए थे कि जो भी करना पड़े इस मसले का समाधान कारक हल उन्हें निकालना चाहिए। जन धारणा उनके खिलाफ है और भाजपा को लांछित कर रही है। इसको धोने के लिए यदि जरूरी हो तो सीबीआई की जांच करवाने में उन्हें कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। मुख्यमंत्री इन तर्कों से सहमत नहीं थे। वे सीबीआई की जांच को फिलहाल टालना चाहते थे। केन्द्रीय नेतृत्व ने यह इशारा भी किया था कि 13 जुलाई को राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की बैठक के पहले आरोपों की आंधी से उठी धूल बैठ जाना चाहिए। अन्यथा, व्यापमं घपलों की आंच मप्र-छग की सदस्यता अभियान की समीक्षा की इस बैठक पर भी आएगी। इन सारे संदर्भों में केन्द्रीय नेतृत्व ने सीबीआई जांच करवाने की पहल को ही मुफीद रास्ता मान रहा था। इसके साथ ही मुख्यमंत्री को बताया गया कि इससे 9 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय में मामले की सुनवाई के दौरान प्रदेश  सरकार अधिक दृढ़ता से खड़ी हो सकेगी।

प्रदेश के मंत्रियों ने भी कसर नहीं छोड़ी....

एक तरफ जहां केन्द्रीय मंत्री उमा भारती ने शिवराज के खिलाफ मोर्चा खोल दिया वहीं अपनी कैबिनेट के मंत्रियों ने भी मुख्यमंत्री को फंसाने का काम ही किया। प्रदेश के गृहमंत्री बाबूलाल गौर एक के बाद एक ऐसे बयान दे रहे थे जिनके कारण मामला शांत होना तो दूर विवाद और गर्माता गया। गौर ने तो यहां तक कह दिया कि इस मामले में उन्हें कोई जानकारी नहीं दी जाती। यहां तक कि कांग्रेस के आरोपों के जवाब देने के लिए बुलाई पत्रकार वार्ता में सरकार के प्रवक्ता नरोत्तम मिश्रा ने तो कह दिया कि कांग्रेस के अलावा सीबीआई जांच की मांग और कौन कर रहा है। मानो वे संकेत दे रहे थे कि और लोगों को भी मांग करना चाहिए। इन सारे संदर्भों को देखते हुए लग रहा है कि सीबीआई जांच करवाने का निर्णय लेते हुए शिवराज अलग-थलग पड़ गए थे। इस बात का आभास पत्रकारों से चर्चा में उनके यह कहने से भी हुआ कि वे रातभर सो नहीं सके। और, ‘इस मामले में मप्र से ज्यादा बाहर की जनता अधिक सवाल कर रही थी। जनमत के आगे मैं शीश झुकता हूं।’ यह जनमत असल में पार्टी का मत था जिसके आगे शिवराज  झुके।

साख बचाने का जतन...

भले ही व्यापमं मामले में सीबीआई जांच कर पहल कर शिवराज  को नुकसान दिखाई दे रहा है लेकिन इसका राजनीतिक लाभ भी होगा और यह संदेश जाएगा कि स्वयं को बिल्कुल पाक साफ साबित करने के लिए वे हर जांच करवा सकते हैं। उन्हें किसी का भय नहीं है। अपनी राजनीतिक साख को बेदाग रखने के लिए उन्होंने राजनीतिक चतुराई का परिचय देते हुए बड़ी सफाई से उच्च न्यायालय के पाले में गेंद डाल दी है। वरिष्ठ प्रशासकों का कहना है कि जरूरी नहीं है कि चिट्ठी मिलते ही कोर्ट सीबीआई जांच के लिए तैयार हो जाए। एक मत यह भी है कि जांच से संतोष जताते हुए कोर्ट सीबीआई जांच से इंकार कर दे। इसके अलावा, संभव है कि 9 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान सरकार को राहत मिल जाए।

मामला थमा नहीं...

केवल सीबीआई जांच की पहल करने से ही विवाद थमने वाला नहीं है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में जांच की मांग कर दी है तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री के त्यागपत्र की मांग को लेकर 16 जुलाई को मप्र बंद की अपील की है। उसका साथ वामपंथी संगठन दे रहे हैं। साफ है कि शिवराज  की राह आसान नहीं है।