Tuesday, October 18, 2022

पहली मुलाकात में अज्ञेय को देख निराला क्‍यों बोले, जरा सीधे खड़े हो जाओ


पग-पग विष पान किया, हारे नहीं बने महाप्राण निराला’ पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के समूचे जीवन वृत को एक वाक्‍य में कहना हो तो यही पंक्ति सूझेगी. छायावादी कविता के एक स्‍तंभ निराला केवल कविताओं के लिए याद किए जाएं तो यह उनके साथ अन्‍याय होगा. उन्‍होंने हिंदी कविता को छंदमुक्‍त करने का ऐतिहासिक कार्य तो किया लेकिन गद्य को पढ़ेंगे तो जानेंगे कि अपने समय को किस तरह उन्‍होंने देखा और किस आशावाद के साथ साहित्‍य में रच दिया. तकलीफें जिनका स्‍वभाव न बदल सकीं. जीवन का विष पान करते रहे मगर दुनिया को देते रहे.


15 अक्‍टूबर उन्‍हीं निराला की पुण्‍यतिथि है. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में 21 फरवरी 1899 में हुआ था. जीवन का उत्तरार्द्ध इलाहाबाद में बीता. जहां 15 अक्टूबर 1961 को उन्‍होंने देह त्‍यागी. माता ने पुत्र-प्राप्ति की कामना से सूर्य का व्रत किया था और संयोग से उनका जन्म भी रविवार को हुआ था, अतः उनका नाम सूर्यकुमार रखा गया. इनकी मां तीन वर्ष की आयु में ही उन्हें असहाय छोड़कर परलोक सिधार गई. परिस्थितियों के कारण निराला नवीं कक्षा से आगे शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके. स्वाध्याय के बल पर ही उन्होंने बांग्‍ला, संस्कृत और अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया.


तेरह-चौदह वर्ष की आयु में निराला का विवाह मनोहरा देवी से हुआ, परंतु दाम्पत्य सुख का भाग्‍य नहीं था. सन् 1918 में फैली महामारी में पत्‍नी का देहांत हो गया. उस समय उनकी दो संतान थीं. एक पुत्री और दूसरा पुत्र. थोड़े दिनों बाद पुत्र की भी मृत्यु हो गई. बेटी सरोज 19 वर्ष की अवस्था में सन् 1935 में चल बसी. स्वजनों की मृत्यु विशेषतः पुत्री वियोग के आघात ने उन्हें फक्कड़ और दार्शनिक बना दिया. बेटी के निधन पर लिखा गया ‘सरोज स्‍मृति’ हिंदी का सर्वश्रेष्‍ठ शोक गीत माना गया है. यही समय निराला के लेखन में दिशा परिवर्तन का प्रस्‍थान बिंदु भी माना जाता है.


निराला स्वभाव से उन्मुक्त और किसी भी प्रकार का प्रतिबंध न मानने वाले कवि थे. अतः उन्होंने काव्य के लिए छंद को आवश्यक नहीं माना. विरोध सहते हुए भी उन्होंने मुक्त छंद का प्रयोग किया. हिंदी कविता को छंद मुक्त करने का श्रेय निराला को ही है. जिस समय हिंदी लेखक समाज मात्रिक और वर्णिक छंद रच रहे थे तब निराला ने काव्‍य को छंद मुक्‍त्‍ किया. बिना छंद को साधे छंद मुक्ति कहां संभव हो सकती थी भला?

लेकिन निराला महाप्राण क्‍यों हुए यह जानना है तो आपको उनका गद्य भी पढ़ना चाहिए. उन्होंने कविता के अलावा काफी कुछ लिखा है- कहानी, उपन्यास, आत्मकथात्मक गद्य, निबंध. निराला ने गद्य को जीवन संग्राम की भाषा कहा था. और उनके लेखों, संपादकीय टिप्पणियों और उपन्यासों में जाति-व्यवस्था, किसान आंदोलन, स्त्रियों की दशा आदि पर उनके विचारों को पढ़ कर निराला को जाना जा सकता है. टैगोर, गांधी, नेहरू से असहमति जताना हो साहित्‍यकारों की आलोचना निराला का अंदाज ही निराला था.


कैसा था यह अंदाज यह साहित्‍यकारों के संस्‍मरणों से समझा जा सकता है. अज्ञेय अपने संस्मरण ‘वसंत का अग्रदूत’ में लिखते हैं, ‘मैं निराला के पहले दर्शन के लिए इलाहाबाद में पंडित वाचस्पति पाठक के घर जा रहा था तो देहरी पर ही एक सींकिया पहलवान के दर्शन हो गए जिसने मेरा रास्ता रोकते हुए एक टेढ़ी उंगली मेरी ओर उठाकर पूछा, ”आपने निरालाजी के बारे में ‘विश्वभारती’ पत्रिका में बड़ी अनर्गल बातें लिख दी हैं.” यों ‘रिपोर्टें’ सही थीं. ‘विश्वभारती’ पत्रिका में मेरा एक लंबा लेख छपा था. आज यह मानने में भी मुझे कोई संकोच नहीं है कि उसमें निराला के साथ घोर अन्याय किया गया था. अब यह भी एक रोचक व्यंजना-भरा संयोग ही है कि सींकिया पहलवान से पार पाकर मैं भीतर पहुंचा तो देखा कि एक चौकी के निकट आमने-सामने निराला और ‘उग्र’ बैठे थे.


उग्रजी से मिलना पहले भी हो चुका था; मेरे नमस्कार को सिर हिलाकर स्वीकार करते हुए उन्होंने निराला से कहा, ”यह अज्ञेय है.”


निराला ने एक बार सिर से पैर तक मुझे देखा. मेरे नमस्कार के जवाब में केवल कहा, ”बैठो.”

मैं बैठने ही जा रहा था कि एक बार फिर उन्होंने कहा, ”जरा सीधे खड़े हो जाओ.”

मुझे कुछ आश्चर्य तो हुआ, लेकिन मैं फिर सीधा खड़ा हो गया. निराला भी उठे और मेरे सामने आ खड़े हुए. एक बार फिर उन्होंने सिर से पैर तक मुझे देखा, मानो तौला और फिर बोले, ”ठीक है.” फिर बैठते हुए उन्होंने मुझे भी बैठने को कहा. मैं बैठ गया तो मानो स्वगत-से स्वर में उन्होंने कहा, ”डौल तो रामबिलास जैसा ही है.”


रामविलास (डॉ. रामविलास शर्मा) पर उनके गहरे स्नेह की बात मैं जानता था, इसलिए उनकी बात का अर्थ मैंने यही लगाया कि और किसी क्षेत्र में न सही, एक क्षेत्र में तो निरालाजी का अनुमोदन मुझे मिल गया है. मैंने यह भी अनुमान किया कि मेरे लेख की ‘रिपोर्टें’ अभी उन तक नहीं पहुंची या पहुंचाई नहीं गई हैं.


शिवमंगल सिंह सुमन के साथ निराला से हुई भेंट का जिक्र करते हुए अज्ञेय लिखते हैं कि दोनों के मन में यह ग्‍लानि थी कि निराला अपने लिए जो भोजन बना रहे थे वह सारा का सारा उन्होंने हमारे सामने परोस दिया और अब दिन-भर भूखे रहेंगे. लेकिन में यह भी जानता था कि हमारा कुछ भी कहना व्यर्थ होगा- निराला का आतिथ्य ऐसा ही जालिम आतिथ्य है. सुमन ने कहा, निरालाजी, आप नहीं खाएंगे तो हम भी नहीं खाएंगे.”


निरालाजी ने एक हाथ सुमन की गर्दन की ओर बढ़ाते हुए कहा, “खाओगे कैसे नहीं? हम गुद्दी पकड़कर खिलाएंगे.”

सुमन ने फिर हठ करते हुए कहा, “लेकिन, निरालाजी, यह तो आपका भोजन था. अब आप क्या उपवास करेंगे?’ निराला ने स्थिर दृष्टि से सुमन की ओर देखते हुए कहा, “तो भले आदमी, किसी से मिलने जाओ तो समय असमय का विचार भी तो करना होता है.” और फिर थोड़ा घुड़ककर बोले “अब आए हो तो भुगतो.”


अज्ञेय लिखते हैं, हम दोनों ने कटहल की वह भुजिया किसी तरह गले से नीचे उतारी. बहुत स्वादिष्ट बनी थी, लेकिन उस समय स्वाद का विचार करने की हालत हमारी नहीं थी.जब हम लोग बाहर निकले तो सुमन ने खिन्न स्वर में कहा, “भाई, यह तो बड़ा अन्याय हो गया.”


अज्ञेय ने कहा, “इसीलिए मैं कल से कह रहा था कि सवेरे जल्दी चलना है, लेकिन आपको तो सिंगार-पट्टी से और कोल्ड क्रीम में फुरसत मिले तब तो.”

निराला के निराले आतिथ्‍य के बारे में महादेवी वर्मा ने लिखा है, ऐसे अवसरों की कमी नहीं जब वे अकस्मात् पहुंच कर कहने लगते थे कि इक्के पर कुछ लकड़ियां, थोड़ा घी आदि रखवा दो. अतिथि आए हैं, घर में सामान नहीं है. उनके अतिथि यहां भोजन करने आ जाएं, सुनकर उनकी दृष्टि में बालकों जैसा विस्मय छलक आता है. जो अपना घर समझकर आए हैं, उनसे यह कैसे कह दें कि उन्हें भोजन के लिए दूसरे घर जाना होगा. भोजन बनाने से लेकर जूठे बर्तन मांजने तक का काम वे अपने अतिथि देवता के लिए सहर्ष करते हैं.


संवेदनशीलता ऐसी कि सुमित्रानंदन पंत दिल्ली में टाइफाइड ज्वर से पीड़ित थे. इसी बीच किसी समाचार पत्र ने उनके स्वर्गवास की झूठी खबर छाप डाली. निराला जी यह समाचार जान कर लड़खड़ा कर सोफे पर बैठ गए. महादेवी लिखती हैं, उनकी झुकी पलकों से घुटनों पर चूने वाली आंसू की बूंदें बीच-बीच में ऐसे चमक जाती थीं मानो प्रतिमा से झड़े जूही के फूल हों. यह सुनकर कि मैंने ठीक समाचार जानने के लिए तार दिया है, वे व्यथित प्रतीक्षा की मुद्रा में तब तक बैठे रहे जब तक रात में मेरा फाटक बंद होने का समय न आ गया.


सबेरे चार बजे फाटक खटखटा कर जब उन्होंने तार के उत्तर के संबंध में पूछा तब महादेवी को पता चला कि वे रात भर पार्क में खुले आकाश के नीचे ओस से भीगी दूब पर बैठे सवेरे की प्रतीक्षा करते रहे हैं.


एक बार निराला ने गेरू मंगवाया तो महादेवी कारण पूछ बैठीं. उन्‍होंने जवाब दिया ‘अब हम सन्यास लेंगे.’ महादेवी कहती हैं, इस निर्मम युग ने इस महान कलाकार के पास ऐसा क्या छोड़ा है जिसे स्वयं छोड़कर यह त्याग का आत्मतोष भी प्राप्त कर सके. तभी वसंत ने परिहास की मुद्रा में कहा, ‘तब तो आपको भिक्षा मांगने की आवश्यकता पड़ेगी.’


खेद, अनुताप या पश्चात्ताप की एक भी लहर से रहित विनोद की एक प्रशांत धारा पर तैरता हुआ निराला का उत्तर आया, ‘भिक्षा में मिला तो अब भी खाते हैं.’


धनाभाव निराला के जीवन का विशिष्‍ट कष्‍ट कहा जाना चाहिए. वे फक्‍कड़ स्‍वभाव के थे, जो मिलता था वह औरों को देने में पल का समय न लगाते. क्‍या कोई जान पाएगा कि पैसा कमाने के लिए अनुवाद करने वाले, बिना नाम औरों के लेख सुधारने वाले निराला के मन में जीवन के ये कड़वे अनुभव तिल भर भी कड़वाहट नहीं भर पाए थे. बल्कि उनकी रचनाधर्मिता से साहित्‍य समृद्ध ही हुआ है. तभी तो महादेवी वर्मा ने लिखा है, जिसकी निधियों से साहित्य का कोश समृद्ध है उसने ‘भिक्षाटन’ कर जीवन-निर्वाह किया है, इस कटु सत्य पर, आने वाला युग विश्वास कर सकेगा, यह कहना कठिन है.


(न्‍यूज 18 हिंदी ब्‍लॉग में प्रकाशित)