कम्पनियों के झाँसे में आ कर रसायनों के बेतहाशा इस्तेमाल
भोपाल। काली मिट्टी में `सफेद सोना´(कपास) उगाने वाले झाबुआ जिले के भोले किसान बाजार के लुभावने वादों में आकर कोख को ही बंजर रहे हैं। परम्परागत फसलों से निराश हुए किसानों को कपास, टमाटर, मिर्च जैसी नकद फसल ने सपने दिखाए। अब रसायनों के बेतहाशा इस्तेमाल के कारण उपज तो कम हो ही रहा है, वे अनजाने में समाज को बीमारी दे रहे हैं।
कभी मोटा अनाज, दलहन, तिलहन उगाने वाले झाबुआ जिले के पेटलावद तहसील क्षेत्र में अब हर तरफ सोयाबीन, कपास, टमाटर और मिर्च की फसल नजर आती है। इन फसलों में लाभ तो होता है लेकिन यह लाभ शुरूआती है। ये सभी फसलें ज्यादा खर्च, ज्यादा बीमारी की संभावना वाली तथा ज्यादा पानी पीने वाली है। इनका उत्पादन धीरे-धीरे गिर रहा और उसे बढ़ाने के लिए ज्यादा उर्वरक तथा कीटनाशकों का उपयोग किया जा रहा है।
फसल रसायनों से तरबतर
अध्ययन के दौरान हम यह देख कर दंग रह गए कि किसान तीन इंच का पाइप लगा कर स्प्रे पम्प से फसलों को कीटनाशकों से नहला रहे हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार टमाटर के उन्नत बीज में ब्लाईट नामक संक्रामक रोग लग रहा है। इसे खत्म करने के लिए खेत को कीटनाशकों से तरबतर कर दिया जाता है। खरपतवार खत्म करने के लिए निंदाई-गुड़ाई करने वाले किसान अब चारा घास को नष्ट करने के लिए हबीoसाइड रसायन का वापर रहे हैं। यहाँ के 40 फीसदी किसान इस 1600 रूपए लीटर की कीमत वाले रसायन का उपयोग कर रहे हैं।
आठ गुना बढ़ गया रसायनों को उपयोग
1970 में एक हेक्टेयर में 20 किलो रसायन का उपयोग होता है। 2009 में एक हेक्टेयर खेत में 600 से 800 किलो रासायनिक उर्वरक तथा 5 से 10 किलो कीटनाशक का छिड़काव हो रहा है। कपास, मिर्च, टमाटर जैसी नकद फसलों को लेने के लिए रसायनों का इतना इस्तेमाल राष्ट्रीय औसत 94.4 किलो प्रति हेक्टेयर से छह से आठ गुना ज्यादा है। एक उर्वरक विक्रेता मुकेश चौधरी बताते हैं कि दिल्ली-मुंबई के खरीददार भी कहते हैं कि ज्यादा उर्वरक डालने से टमाटर का छिलका मोटा होगा और वह ले जाने के दौरान खराब नहीं होगा।
गिर गया उत्पादन
झाबुआ में कपास का औसत उत्पादन 151 किलो प्रति हेक्टेयर के नीचले पायदान पर पहुँच गया है। कृषि विभाग के अनुसार 2005-06 में झाबुआ में एक हेक्टेयर में औसतन 442 किलो कपास का उत्पादन होता था। 2006-07 में यह घट कर 370 किलो और 2008-09 में और घट कर 151 किलो पर आ गया। सोयाबीन उत्पादन में भी यह जिला पिछड़ता जा रहा है। मप्र का औसत सोयाबीन उत्पादन 1143 किलो प्रति हेक्टेयर है जबकि झाबुआ में एक हेक्टेयर में औसतन 775 किलो सोयाबीन हो रहा है। कुछ साल पहले टमाटर की खेती प्रारम्भ की गई थी। इसकी उपज भी लगातार घट रही है।
जहरीले हैं टमाटर!
झाबुआ में पैदा होने वाले टमाटर-मिर्च दिल्ली, मुबंई,इंदौर-भोपाल की मंडियों में भेजे जाते हैं। अत्यिध्ाक रसायनों के कारण यह टमाटर-मिर्च जहर में तब्दील हो चुकी है, लेकिन इसे उगाने और खाने वालों को इसकी जानकारी ही नहीं है। झाबुआ जैसे आदिवासी जिले में कीटनाशक और रासायनिक खाद के लिए बढ़िया बाजार मौजूद है। पिछले तीन सालों से यहाँ रसायनों का उपयोग हर वर्ष 60 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से बढ़ रहा है। रसायनों के उपयोग के कारण ग्रामीण भी बीमार हो रहे हैं। नौ गाँवों में हुए सर्वे में 26.23 फीसदी यानि 287 परिवारों में पेट से जुड़ बीमारियाँ मिलीं। इन गाँवों में 73 व्यक्ति अस्थमा के मिले।