Thursday, October 31, 2013

बौना हो कर नहीं समझ सकते सरदार की विशालता...

सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती पर कई सियासी बातें हुई हैं। यह अच्छी बात है कि देश अपने नेताओं को याद करे और उनके सिद्धांतों को अपनाने  के लिए प्रेरित हो। नेता अगर अपने पूववर्ती जननायकों को याद रखते हैं तो और भी अच्छी बात है इससे शासन और नेतृत्व क्षमता में सुधार होता है। इनदिनों सरदार पटेल को भी याद किया जा रहा है। बेहतर होता उन्हें उनके कृतित्व और व्यक्त्वि की खूबियों के कारण याद कर उनके दिखाए मार्ग का अनुसरण करने का संकल्प लिया जाता लेकिन गांधी, नेहरू, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, लालबहादुर शास्त्री की ही तरह सरदार पटेल को भी स्वार्थवश याद किया जाता है। इस तरह से याद करना असल में ऐसे महानायकों का निरादर करने के समान है। यह विडंबना ही कही जानी चाहिए कि मनीषियों को लोग प्रतिमाएं बना कर याद रखते हैं लेकिन उनकी बताई शिक्षा को सबसे पहले भूला देते हैं। उनके नाम पर झगड़ते हैं लेकिन अपने आदर्श के क्रिया कलापों का अनुसरण नहीं करते। अगर ऐसा होता तो विचारधारा की जो लड़ाई देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू और देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने जिस शालीनता से लड़ी, बाद में भी उसी गरिमा के साथ लड़ी जाती। दुर्भाग्य है समर्थकों ने अपने हित साधने के लिए उन नेताओं को नीचा दिखाना शुरू कर दिया जिन नेताओं ने जीवित रहते हुए कभी एक-दूसरे का अपमान नहीं किया था।  देश को आजाद करवाने में महात्मा गांधी का सर्वाधिक योगदान था तो नेहरू देश के विकास की ने कल्पना और दृष्टिकोण को विस्तार दिया। देश अगर आज एकजुट है और इसकी रगों में विविधता के बावजूद एकता का लहू दौड़ रहा है तो इसकी यह शक्ति और संपूर्णता सरदार पटेल की कार्यक्षमता का परिणाम है। इतिहास गवाह है कि मतभेदों के बावजूद इन नेताओं ने हमेशा कभी मनभेद नहीं होने दिया। साथ काम करने के दौरान के अनेकों प्रसंग है जब पटेल और नेहरू दोनों ने ही अपनी भूमिकाओं को त्यागने के प्रस्ताव रखे थे लेकिन कभी यह नहीं चाहा कि स्वयं का वर्चस्च स्थापित हो। त्याग, समर्पण और निष्ठा के ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जो उनके व्यक्तित्व की विशालता उजागर करते है लेकिन यह अनुयायियों और समर्थकों का छोटापन है कि वे न तो उस विशालता को समझ पाए और न आत्मसात कर पाए। कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों बड़े दलों ने नेताओं पर अपना अधिकार इस तरह जताया ऐसे वे उनकी पैतृक पूंजी हो लेकिन इस पूंजी के संरक्षण के लिए उनके आदर्शों को अपनाने के उदाहरण यदाकदा ही देखने को मिले। चुनाव के कारण ही सही लेकिन एक बार फिर सरदार पटेल चर्चा में है और उनकी चर्चा होना तभी सार्थक होगा जब युवा पीढ़ी उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जाने और किताबों को पढ़ कर उनके व्यक्तित्व का सही आकलन कर पाए। वे कानों से सूनी उन्हीं बातों को सच न माने जो इनदिनों एक दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे नेता कह रहे हैं। नेताओं के लिए भी क्या यह आवश्यक नहीं कि वे सरदार और नेहरू ने आदर्श राजनीति का पाठ सीखें और यह सीखें कि कैसे तमाम मतभेदों के बावजूद देश को मजबूत और विकसित बनाने के लिए साथ काम किया जाता है। ऐसा  कर पाए तो यह सरदार को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Saturday, October 26, 2013

राहुल गांधी के बयान पर ये सोचिए

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जो कहा उस पर जमकर सियासत हो  रही है। राहुल ने  इंदौर की सभा में मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के लिए सीधे तौर पर भाजपा को जिम्मेदार बताया था। राहुल ने कहा था कि खुफिया विभाग के एक अधिकारी ने बताया है कि भाजपा ने मुजफ्फरनगर में आग लगाई और अब आईएसआई पीड़ित युवकों से संपर्क कर उन्हें भड़का रही है। राहुल गांधी ने सियासी सभा में यह बयान दिया था और यह मानना कि विपक्ष उनके बयाने पर आपत्ति नहीं करेगा नासमझी होगी। फिर अगर यह बयान मुस्लमानों से जुड़ा हो तो उस पर कोहराम मचना तय है। भाजपा के साथ सपा ने भी राहुल को इस बयान के लिए आड़े हाथों लिया है और वे माफी की मांग कर रहे हैं। यह चुनावी मौसम है और सभी दल अपने वोट बैंक को सुरक्षित करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। राहुल गांधी की इस टिप्पणी को केवल चुनावी भाषण मान कर भुलाया नहीं जा सकता क्योंकि उन्होंने एक ऐसे मसले  का जिक्र किया है जो विभाजन के बाद से अब तक करोड़ों लोगों को प्रभावित कर रहा है। राहुल गांधी अपनी पार्टी के महत्वपूर्ण पद पर हैं और  उनकी मंशा के अनुरूप की कांग्रेस की रीतियां-नीतियां निर्धारित की जा रही हैं। उनकी छवि ऐसे नेता कि है जो आम आदमी और युवाओं के बारे में सोचता है। इसलिए अगर वे कुछ कह रहे हैं तो उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। मुजफ्फरनगर के दंगों में आईएसआई कनेक्शन की बात अब तक न तो उत्तर  प्रदेश सरकार ने कही है, न ही केंद्र सरकार या उसकी किसी जांच एजेंसी ने ही ऐसा कोई उल्लेख किया है। ऐसे में राहुल का सार्वजनिक रूप से ऐसा कहना हमारे सुरक्षा तंत्र  की कमजोरी की ओर इशारा करता है। इतनी ही गंभीर बात दंगा पीड़ितों के नजरिए की भी है। आईएसआई के संपर्क में होने के आरोप के कारण मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ितों को अविश्वास की दृष्टि से देखा जा सकता है। यह माना जाएगा कि राष्ट्र विरोधी तत्व उन्हें बहला फुसला कर अपनी साजिशों को पूरा करने में उनका इस्तेमाल कर सकते हैं। दंगा पीड़ितों के मन पहले ही आहत हैं और अगर उन्हें अपने ही देश में संदिग्ध माना जाएगा और पर्याप्त राहत नहीं मिलेगी तो देश में फूट डालने वालों के मंसूबे कामयाब ही होंगे। कांग्रेस का कहना है कि राहुल गांधी के बयान की यही मंशा थी। अगर यह बात सही भी है तो सत्तारूढ़ पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी को बजरिए  सरकार उन खामियों को दूर करने के प्रयास करना चाहिए जिनका लाभ उठा कर विघटनकारी ताकतें अपना हित साध लेती हैं। ऐसी ताकतों को मुंह तोड़ जवाब मिलना जरूरी है। हम जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी ताकतों के घातक इरादों को सफल होता देख चुके हैं। वहां अभी भी हालात सामान्य नहीं हैं। ऐसे में राहुल को मिली सूचना के केवल राजनीतिक पहलुओं को ही न टटोला जाए बल्कि उसके हर आयाम पर समग्रता से ध्यान दिया जाना चाहिए।  इतनी ही बड़ी आवश्यकता इस बात की भी है कि केवल इस कारण मुजफ्फरनगर और पूरे देश के मुसलमानों की निष्ठा पर संदेह न किया जाए और केवल इस बात से उनके साथ व्यवहारगत भेदभाव न हो कि वे आईएसआई के लिए ‘साफ्ट टारगेट’ हैं।  ऐसा होता है तो यह देश की एकता पर खतरा होगा।

Thursday, October 24, 2013

तेरी गायकी की बूंद के प्यासे हम...

जिंदगी  की पहेलियां जब उलझाने लगती हैं तो संगीत हमराही बन जाता है। मन्ना डे की गिनती भी ऐसे ही गायकों में होती है जिनकी गायकी हमें पारलौकिक अनुभव करवाती हैं। ऐसी आवाज का धनी यह मकबूल फनकार  अब हमारे बीच नहीं है। वर्ष 1943 में सुरैया के साथ ‘तमन्ना’ फिल्म से अपनी गायकी की शुरूआत करने वाले मन्ना डे का मूल नाम प्रबोध चंद्र डे था। उनका सफर भी उस युग के तमाम सफल इंसानों की तरह मुश्किलों और संघर्ष से भरा हुआ था। गरीबी और संघर्ष के दिन में काफी संघर्ष करना पड़ा। ‘तमन्ना’ के बाद कई दिनों तक काम नहीं मिला। नाउम्मीदी और मुफलिसी के उस दौर में उन्हें ‘मशाल’ फिल्म मिली और इसमें गाया गीत ‘ऊपर गगन विशाल’ हिट हो गया जिसके बाद उन्हें धीरे-धीरे काम मिलने लगा। बाद का जीवन मन्ना डे की सफलता और हमारे से साथ संगीत के गहरे नाते की कहानी है। उनकी आवाज की तरह उनके व्यक्तित्व की सरलता ही थी कि उन्होंने कभी किसी गीत को गाने से इंकार नहीं किया और हर किस्म के गाने हर किसी के लिए गाए। शुरुआत में उन्हें सहायक कलाकार, हास्य और चरित्र अभिनेता के गीत मिले लेकिन उन्होंने हमेशा पूरे समर्पण से काम किया। यही कारण है कि उनके हर गीत पर उनकी खास मुहर दिखाई दिखाई देती है फिर चाहे वह ‘उपकार’ फिल्म का ‘कस्मे वादे प्यार वफा’ हो  या ‘आनंद’ फिल्म का चर्चित गीत ‘जिंदगी कैसी है पहेली’ हो। हर गीत से उनकी अनूठी छवि का परिचय होता है। जो मन्ना डे को केवल गंभीर गीतों का गायक  मानते रहे वे भी ‘पड़ोसन’ का गीत ‘इक चतुर नार करके सिंगार’ और ‘श्री 420’ का रोमांटिक गाना ‘ये रात भीगी-भीगी’ सुन कर हतप्रभ रह जाते हैं। उनकी रेंज का अनूठा उदाहरण यह है कि वे जहां हल्के-फुल्के गीतों में मस्ती का रंग भरते थे वहीं ‘लागा चुनरी में दाग’ जैसे शास्त्रीय और ‘ऐ मेरे प्यारे वतन के लोगों’ जैसे देशभक्ति के गीतों में गहराई और ओज का संचार कर देते थे। आज मन्ना डे सशरीर हमारे बीच में नहीं है लेकिन उनके गीत ही उनकी मौजूदगी के निशान होंगे। जब-जब दोस्ती का जिक्र होगा तब-तब ‘यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी’ गाया  जाएगा। अपने जीवन साथी को देख प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए ‘ओ मेरी जोहरा जबीं’ गुनगुनाया जाएगा और दर्शन की बात आएगी तो ‘ऐ भाई जरा देख के चलो’ में जिंदगी का मिजाज खोजा जाएगा। ‘सीमा’ में गाया ‘तू प्यारका सागर है तेरी एक बूंद के प्यासे हम’ को कौन भूल सकता है? एक बार संगीतकार अनिल विश्वास ने कहा था कि मन्ना हर वह गीत गा सकते हैं जो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश ने गाए हों। लेकिन इनमें कोई भी मन्ना के हर गीत को नहीं गा सकता। ऐसे थे मन्ना डे। समाज ने उन्हें पद्म श्री और पद्म भूषण तथा दादा साहब फाल्के सम्मान दे कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है लेकिन उनकी गायकी के कर्ज से हम कभी उऋण नहीं हो पाएंगे आखिर वे गायकी के सागर थे और हम इस सागर की एक-एक बूंद के प्यासे हैं। जब जब भारतीय फिल्म संगीत का उल्लेख होगा मन्ना डे का जिक्र किए बगैर बात पूरी नहीं हो पाएगी।

Tuesday, October 22, 2013

चीन के साथ रिश्ते में चीनी कम है ...

प्रधानमंत्री  मनमोहन सिंह रूस की यात्रा कर लौटे हैं और अब चीन जा रहे हैं। 1992 से विश्व ने  आर्थिक उदारीकरण को स्वीकार किया और बीते दस सालों में चीन के साथ रिश्ते में आर्थिक पक्ष फिर से जुड़ गया।  भारत और चीन का व्यापार साल 2012 तक 66 अरब डॉलर का हो गया जो 2007 के 38.68 अरब डॉलर की तुलना में लगभग दोगुना है। यह कारोबार 2015 तक 100 अरब डॉलर के पार होने की संभावना है। ऐसा नहीं है कि चीन के साथ पहले आर्थिक संबंध नहीं थे। सदियों पहले सिल्क रूट में भारत की अहम् भागीदारी थी। सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के समय में भारत में चीन से और यूरोप से व्यापार हुआ करता था। 1700-1800 में भी भारत मे विदेशी मूल के व्यापारियों से व्यापार होता था। 1947 में आजादी के बाद खुली अर्थव्यवस्था से किनारा कर लिया गया। 1947 से 1990 तक भारत ने आयात और निर्यात पर कई तरह के कर लगाए थे। पिछले 20 सालों में इन देशों के साथ हमारे संबंध राजनयिक और कूटनीतिक स्तर के साथ आर्थिक तौर पर भी मजबूत हुए हैं। पचास के दशक में पंडित जवाहर लाल नेहरू को चीन ने राजकीय भोज का आमंत्रण भेजा था। उसके बाद यह पहला मौका है जब भारतीय प्रधानमंत्री को चीनी राष्ट्रपति की तरफ से राजकीय भोज का न्यौता मिला है। लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है जितनी दिखाई दे रही है। जो चीन व्यापार में मित्र दिखाई देता है वह सीमा पर ताकतवर दुश्मन है जो हमारी  धरती निगलने को बेताब है। सीमा पर अतिक्रमण के विरोध पर आंखें दिखाने वाला चीन धीरे-धीरे अपने सस्ते सामान से हमारे बाजार पर भी कब्जा कर रहा है। पिछले दिनों लद्दाख में दोनों देशों के सैनिक बीस दिनों तक आमने-सामने डटे रहे थे। स्पष्ट है कि रिश्तों की इस उलझन को केवल व्यापार के सहारे सुलझाना संभव नहीं है। सीमा विवाद का कोई संतोषजनक समाधान खोजे बगैर दोनों देशों के बीच बेहतर आर्थिक रिश्ते कायम करना बेहद मुश्किल है। भारत ने चीन पर हमेशा विश्वास जताया है लेकिन हर बार ही चीन ने इस भरोसे पर आघात किया है। ऐसे में लाजमी है कि चीन हमें यह विश्वास दिलाए कि वह सीमा पर दगा नहीं करेगा और लद्दाख जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी। दूसरा मुद्दा आर्थिक है। दोनों देशों के बीच कारोबार का पलड़ा चीन की ओर ही क्यों झुका रहे? वह भारत के सामान की चीन में बिक्री बढ़ाने की राह आसान करे। तभी दोनों देशों के संबंधों में मिठास बढ़ाने के प्रयास सार्थक हो सकेंगे।

Saturday, October 19, 2013

मुंगेरी लाल के हसीन सपने, जमीन में दबे सोने का लालच और कीमत विहीन इंसानी जान


उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में भारतीय पुरातत्व विभाग का दल उस छुपे हुए ‘खजाने’ को खोजने के लिए खुदाई शुरू कर चुका है जिसके बारे में एक साधु को सपना आया है। आश्चर्य तो यह है कि इस सोने के अस्तित्व पर खुद विभाग को भी शक है। यह पहली बार नहीं है कि किसी का सपने में जमीन में गड़े सोने या धन की जानकारी मिली हो और उसने इसे पाने के जतन न किए हों। हमारा आपराधिक इतिहास तफ्सील से इस बारे में बता  सकता है और उन बच्चों के बारे में जानकारी भी दे सकता है जिनकी बलि इस जमीन में गड़े सोने को पाने के लालच में दे दी गई। लेकिन यह पहली बार है जब  दर्जनों पुरातत्वविद और उनके सहायक एक साधु को आए सपने के आधार पर सैकड़ों साल पुराने राजाराव रामबक्श के किले के खंडहर पर खुदाई कर रहा है। हालांकि, कहा जा रहा है कि भूगर्भ सर्वेक्षण की रिपोर्ट में संबंधित इलाके में सोना, चांदी और अन्य अलौह धातु होने की संभावना के संकेत मिले हैं।  इतिहास भी इस इस बात की पुष्टि नहीं करता है कि राजाराव रामबक्श के पास कभी इतनी भारी मात्रा में सोना था। यहां इतना सोने होने का दावा भारत के दूसरे इलाकों के खुदाई के इतिहास से भी मेल नहीं खाता। बावजूद इसके अगर भारतीय पुरातत्व विभाग ने राजाराव रामबक्श के किले पर खुदाई करवाने का फैसला किया है तो इसके दो बड़े कारण हैं पहला आर्थिक और दूसरा राजनीतिक। आर्थिक कारण को समझने के लिए हमारी अर्थव्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था में सोने का महत्व समझना होगा। आज सोना भुगतान संतुलन में अहम स्थान रखता है। आर्थिक तंगी से जूझ रही सरकार इस खामोख्याली में है कि सोना मिल गया तो उसके दिन फिर जाएंगे। इसका कारण भी है। कुल आयात का यह 8.7 प्रतिशत है। हमारी कुल राष्ट्रीय आय में बहुमूल्य वस्तुओं की भागीदारी, जिनमें सोना भी शामिल है, वित्तीय वर्ष 2013-14 की पहली तिमाही में 4.6 फीसदी रही। भारत में सोने की कुल मांग का 75 प्रतिशत आयात आभूषण के लिए ही होता है। 23 प्रतिशत सिक्के व बिस्कुट के रूप में निवेश के लिए तथा बाकी उद्योग-धंधे में। हमारी सामाजिक व्यवस्था में सोने  के  बगैर कोई शुभ कार्य पूरा नहीं होता। यह प्रतिष्ठा का विषय भी है और संपन्नता का प्रतीक भी। सोने न केवल महिला के सौंदर्य से जोड़ कर देखा जाता है बल्कि सोने से लदी महिला उसके पति के रूतबे का द्योतक भी होती है। ऐसे में सोना पाने के लिए अगर जान लेना भी पड़े तो लोग उसमें गुरेज नहीं करते।
सोना पाने के लिए प्रत्यक्ष रूप से हत्या और हत्या के षड्यंत्र तो आम बात है लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि उनके सोने का लालच अप्रत्यक्ष रूप से कई लोगों की जान ले रहा है। जी हां, मैं बात कर रहा हूं सोने की खदानों में काम करने वाले मजदूरों और सोने का परिष्कृत करने वाले कारीगरों की। सोने को जमीन से निकालने में जुटे श्रमिक मिट्टी से सोने के कण खोजने के लिए उसमें पारा मिलाते हैं और पारे के जहर के शिकार होते हैं। यह पारा उनके दिमाग पर असर करता है। लिहाजा कंपकंपी और तालमेल की समस्या से घिरे ये गरीब मजदूर बिना समुचित उपचार प्राण गंवा देते हैं। पारे का शिकार वे कारीगर मजदूरों से ज्यादा होते हैं जो सोने को पारे से अलग करते हैं। पारा उनके दिमाग के उस हिस्से पर असर डालता है जो सही ढंग से चलने में मदद करता है। पारे का असर गुर्दों पर भी पड़ता है लेकिन दिमाग पर ये जो असर डालता है उसे ठीक नहीं किया जा सकता। माना जाता है कि 70 देशों में एक से डेढ़ करोड़ लोग सोना निकालने के काम में जुटे हैं।  यानी इतने लोगों को सोना निकालने  में जान का खतरा उठाना पड़ता है। इतना ही नहीं सोने की खुदाई के लिए इंडोनेशिया में करीब 60 हजार हेक्टेयर जमीन से जंगल काट दिए गए हैं। पहले जहां हरा इलाका था वहां अब हवाई नक्शे में एक सफेद धब्बा दिखाई देता है।
हालांकि, भारतीय पुरातत्व विभाग योजनाबद्ध तरीके से हर साल 100 से 150 साइटों पर खुदाई करवाती है, जिसका उद्देश्य सांस्कृतिक विरासतों को ढूंढ़ना और सहेजना होता है  लेकिन इस बार वह सोने की खुदाई में जुटी है और यह कह कर अपनी कार्रवाई को उचित करार दे रही है कि सोना मिल गया तो बहुत बढ़िया और सोना छोड़ मिट्टी के बर्तन भी मिल गए  तो पुरातत्व महत्व के होंगे। वहां खजाना मिलेगा या नहीं ये तो खुदाई के बाद ही पता चलेगा लेकिन इतना तो तय है कि अब देश भर में कई लोगों को जमीन में धन और सोना गड़ा होने के सपने आएंगे।अगर, उन्नाव की खुदाई में सोना मिल गया तो देश भर में जारी होने वाला सोना पाने का संभावित जुनून कहां जा कर थमेगा कहना मुश्किल है। इसकी शुरुआत हो चुकी है। पुरातत्व विभाग के पास देश के अलग-अलग हिस्सों से उन्हें हर रोज सैकड़ों फोन आ रहे हैं, जिनमें लोग संभावित खजाने की खोज के लिए टीम भेजने का आग्रह कर रहे हैं। जमीन में गड़ा सोना या धन पा कर बिना परिश्रम अमीर बनने के हसीन सपने कितने ही ‘मुंगेरीलालों’ को आएंगे और यह ख्याली पुलाव पकाने के लिए वे अंध विश्वास, जादू टोने का सहारा लेने और मासूम बच्चों की हत्या तक करने से नहीं चूकेंगे। यही कारण है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था में कभी भी बिना परिश्रम कमाए गए धन को तवज्जो नहीं दी गई। हमारी नैतिक कथाएं ऐसे धन के साथ आए पतन के उदाहरणों से भरी पड़ी हैं। उन्नाव से कुछ हासिल होगा या नहीं लेकिन उसके घातक दुष्परिणामों का मिलना तो तय हो चुका है। 

Thursday, October 17, 2013

राहुल, कांग्रेस में आपकी बात सुनी क्यों नहीं जाती?

श्रीमान राहुल गांधी, बहुत अच्छा लगता है जब आप बाहें चढ़ा कर कहते हैं कि सच बोलने का कोई वक्त नहीं होता लेकिन यह बताते हुए दुख होता है कि आपका यह सच आपकी पार्टी ही नहीं सुनती है। आपको याद दिलाना चाहता हूं कि आप जब पहली बार इटारसी के आबादीपुरा और झाबुआ आए थे तो राजनीति के एक विद्यार्थी की तरह थे और आपकी बातों को उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया लेकिन फिर जब आप दो साल बाद आए तो एक विजन के साथ प्रस्तुत हुए थे। आपने पैराशूट से उतरे नेता पुत्रों के विपरीत तोहफे  में मिले पद को ठुकरा कर संगठन को खड़ा करने में रूचि दिखाई थी। आपकी बातों पर यकीन होने लगा था। तब तक आपने अपनी खास योजना ‘आम आदमी का सिपाही’ लांच कर दी थी और युवा कांग्रेस के चुनिंदा नेताओं को उसके संचालन की जिम्मेदारी सौंपी थी। यह योजना देश की तरह मध्यप्रदेश में भी फ्लाप हो गई। यहां युवा नेताओं ने इसे चलाने में रूचि नहीं दिखाई।  बीते अप्रैल में जब आप कार्यकर्ताओं से मुखातिब हुए थे, तब आपने कहा था कि नवंबर में होने वाले चुनावों के उम्मीदवारों के नाम तीन माह पहले घोषित कर दिए जाएंगे लेकिन यह बात भी नहीं मानी गई। अब तो 40 दिन शेष हैं और लगता नहीं कि मतदान के 30 दिन पहले तक सभी कांग्रेस प्रत्याशियों के नाम घोषित हो पाएंगे। लगता है कि दागियों को बचाने वाले अध्यादेश को फाड़ने वाले कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अपनी ही पार्टी के नेताओं के आगे बेबस हैं। आपने कहा था कि कांग्रेस को छह बड़े नेताओं के चंगुल से मुक्त करवाएंगे और इसे कार्यकर्ताओं की पार्टी बनाएंगे लेकिन विधानसभा के लिए बनी पैनल में बड़े नेताओं ने अपने बेटे,बेटी,भाई, बहन का अकेला नाम डलवा कर टिकट पक्की कर ली है। कार्यकर्ता पहले इनके बाप दादाओं के झण्डे उठाते रहे, अब नेता पुत्रों के लिए नारे लगाएंगे।
राहुलजी, आपने ही भोपाल यात्रा में कहा था कि कार्यकर्ताओं को अपना हक लेने के लिए संघर्ष करना होगा, बिना इसके कोई भी उन्हें यह हक देने वाला नहीं है। लगता है, आपकी बात सच हो रही है, यहां कार्यकर्ताओं को उनका हक देने वाला कोई नहीं है।

मप्र की चार यात्राओं के दौरान विद्यार्थी से पूर्ण नेता बन गए राहुल


28 अप्रैल 2008
अपनी पहली मप्र यात्रा के दौरान राहुल गांधी इटारसी के आबादीपुरा में प्रमिला कुमरे के घर पहुंचे थे और मैदानी तथ्यों से अवगत होने ग्रामीणों से चर्चा की थी। उन्होंने इस कार्यक्रम से कांग्रेस नेताओं को पूरी तरह अलग रखा था। आलम यह था कि आबादीपुरा में कांग्रेस की तारीफ सुन वे इस पूर्व नियोजित बता कर नाराज हो गए और बिना खाना खाए रेस्ट हाऊस लौट गए। अगले दिन झाबुआ जिले के रायपुरिया में एनजीओ ‘संपर्क’ पहुंचे और वहां दो घंटे से ज्यादा का वक्त बिताया। कांग्रेस नेताओं को यहां भी दूर रखा गया।
6  अक्टूबर 2010
राहुल फिर भोपाल आए। यहां उन्होंने रवींद्र भवन में कॉलेज के विद्यार्थियों से चर्चा कर राजनीति में आने का आह्वान किया। यहां राहुल ने उच्च शिक्षा ले रही युवतियों से पहली बार अलग सत्र में बात की और राजनीति में आने की सलाह दी। इस कार्यक्रम में भी कांग्रेस नेताओं को मोटे तौर पर दूर रखा गया।
25 अप्रैल 2013
इस बार राहुल प्रदेश कांग्रेस की दो दिन की कार्यशाला में शामिल होने पहुंचे। राहुल ने बड़े नेताओं के कब्जे से कांग्रेस को बाहर निकालने की बात करते हुए कहा-‘जैसा कि मुझे लगता है, कांग्रेस न तो राहुल गांधी की है और न ही आप लोगों की है। यह पूरे हिन्दुस्तान की पार्टी है, जो आजादी के संघर्ष से तपकर बनी है।’ साफ है, राहुल भविष्य की अपनी राजनीति का उद्घोष कर रहे थे।
17 अक्टूबर 2013
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल इस प्रवास में चुनावी सभाओं को संबोधित करेंगे और भाजपा सरकार के परिवर्तन के लिए पूर्ण राजनेता के रूप में हुंकार भरेंगे।

राहुल गांधी की मप्र की ये चार यात्राएं राजनीति के एक विद्यार्थी के सुघड़ राजनेता में तब्दील होने की समानांतर यात्राएं हैं। पहली यात्रा में वे भारतीय राजनीति और कांग्रेस का चरित्र समझने के लिए निकले थे। राजनीति की इस बारहखड़ी को पढ़ते समय विद्यार्थी राहुल ने वरिष्ठ नेताओं की उंगली नहीं पकड़ी बल्कि खुद इबारत पढ़ने-समझने की कोशिश की। दूसरी बार वे आए तो युवाओं से मिले और उनके बीच अपना राजनीतिक एजेंडा रखा। यहां वे युवाओं के बीच ‘फ्यूचर लीडर’ के रूप में दिखाई दिए। तीसरी यात्रा में राहुल ने परिपक्व होते नेता के रूप दिखलाए। उन्होंने वरिष्ठ नेताओं को खरी-खरी सुनाई तो कार्यकर्ताओं के मन की बात को अपनी आवाज दी। कार्यकर्ताओं को लगा कि वे ‘कठपुतली नेता’ नहीं, अपनी स्वतंत्र राय रखने वाले कांग्रेस के कर्ताधर्ता से मुखातिब हैं। अब इस चौथी यात्रा में राहुल का रूप पूरी तरह एक राजनेता का जो है जो शिवराज सरकार को आरोपों के कठघरे में खड़ा कर रहा है और कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए अपना ‘मास्टर स्ट्रोक’ खेल रहा है।

Saturday, October 12, 2013

नेता क्या गमले में उगेंगे?

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उप्र के दौरे के दौरान एक ऐसे मुद्दे को छेड़ दिया है जिस पर आमतौर पर राजनेता बात तो करते हैं लेकिन काम नहीं करते। राहुल ने सवाल उठाया कि देश में दलित नेतृत्व क्यों तैयार नहीं हो सका? दलित समुदायों के बीच से नेतृत्व खड़ा करने की राहुल गांधी की चिंता उतनी ही आवश्यक है जितनी युवा नेतृत्व तैयार करने की फिक्र। युवा नेतृत्व तैयार करने की चिंता में राहुल ने अपने कीमती साल संगठन को दिए हैं। यहां राहुल से ही प्रतिप्रश्न हो सकता है कि उन्होंने या उनकी पार्टी ने दलित नेतृत्व खड़ा करने के लिए क्या किया? समाजवादी पार्टी के आजम खान ने यह सवाल किया भी लेकिन यह सवाल केवल राहुल गांधी, कांग्रेस से ही नहीं भाजपा, सपा, बसपा सहित सभी राजनीतिक दलों से होना चाहिए। राजनीतिज्ञों की चिंता का विषय केवल दलित नेतृत्व खड़ा करना ही नहीं बल्कि सभी वर्गों और समुदायों का बेहतर नेतृत्व तैयार करना भी होना चाहिए। देश की राजधानी दिल्ली सहित पांच राज्यों में अगले दो माहों में विधानसभा चुनाव होना है और अगले साल आम चुनाव होंगे। इसलिए नेतृत्व के विकल्पों की बात करने के लिए यह एकदम उपयुक्त समय है। हालांकि चुनावी मौसम में नेतृत्व की बात होती है और फिर मौसमी बातों की तरह राजनेताओं चिंतन की प्रक्रिया से गायब हो जाती है। बेहतर नेतृत्व वह समझा जाता है जो अपनी दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेता तैयार करे और समय आने पर उनके अधिकार सौंप दे। आज लगभग सभी राजनीतिक दल अपने भीतर कॉडर की समस्या से जूझ रहे है। पैराशूट से उतरे नेता बरसों से मैदानी सेवा कर रहे कार्यकर्ताओं पर भारी पड़ते जा रहे हैं और राजनीतिक विरासत को संभालने को लालायित नेता पुत्र अपने क्षेत्र में अन्य नेतृत्व के विकसित होने की संभावनओं को लील रहे हैं। हर बार यह बात की जाती है कि राजनीति करने की कोई योग्यता नहीं होती लेकिन राजनीति में जगह बनाने के लिए सारी अनिवार्यताओं पर पारिवारिक पृष्ठभूमि भारी पड़ती है। ऐसे में स्वाभाविक नेतृत्व विकसित होने की संभावनाएं और क्षीण होती जाती है। यही बात दलित नेतृत्व पर भी लागू होती है और उन तबकों के नेतृत्व पर भी जिनके हित की बात तो सभी करते हैं लेकिन आजादी के बाद से अब तक वे वंचित ही रहे। आरक्षण के जरिए जगह पक्की की जा सकती है लेकिन सफलता तो व्यक्तिगत कौशल पर भी ही निर्भर करती है। कोई किसी को कुर्सी उपहार में दे सकता है लेकिन उसके दायित्वों का निर्वहन तो व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर है। ऐसे में सभी राजनीतिक दलों को अपने भीतर हर तरह के नेतृत्व को विकसित होने की संभावनाओं को बरकरार रखना चाहिए। खासकर कमजोर और वंचित वर्गों की नेतृत्व में भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए ताकि उनके बात सही मंच पर सही तरीके से पहुंच चुके। वे केवल संसाधनों और अवसरों की कमी के कारण पीछे न रह जाएं। राहुल स्वयं यह पहल करे तो सभी दलों के लिए यह कदम उठाना मजबूरी बन जाएगी।
(फोटो साभार) 

Friday, October 11, 2013

खत्म हो जाएगा क्रिकेट का ‘सचिन वाला’ रोमांच

क्रिकेट  के भगवान, महानतम क्रिकेटर, रन मशीन, मास्टर ब्लास्टर, शतकवीर, बल्ले का बाजीगर व दूसरा डॉन ब्रेडमैन। ये वे उपमाएं हैं जो क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर का पर्याय बन चुकी हैं। अब जबकि सचिन ने टेस्ट क्रिकेट से संन्यास का ऐलान
कर दिया है, उनकी पारियां इतिहास और हमारी यादों का हिस्सा होंगी। वेस्टइंडीज के खिलाफ टेस्ट सीरीज में अपना 200 वां टेस्ट मैच खेलकर सचिन संन्यास लेंगे। यह टेस्ट मैच 14 नवंबर से  मुंबई में खेला जाना है। असल अपने दो दशक से भी  ज्यादा लंबे क्रिकेट कॅरियर के दौरान सचिन क्रिकेट का पर्याय बन गए हैं। 1989 में 16 साल की उम्र में जब सचिन तेंदुलकर ने पाकिस्तान के खिलाफ अपने क्रिकेट कॅरियर की शुरूआत की थी तब बहुत कम लोगों को यह अहसास होगा कि जब यह खिलाड़ी अपना बल्ला रखेगा तो रिकार्ड्स की एक पूरी बुक उसके नाम होगी।  इस आरोपों पर बहस हो सकती है कि सचिन केवल 200 मैचों का आंकड़ा पूरा करने के लिए टीम पर भार बने रहे और वे केवल रिकार्ड्स के लिए खेले लेकिन यह निर्विवाद तथ्य है कि सचिन का क्रिकेट देखते हुए एक पीढ़ी जवान हुई है और लाखों लोगों का क्रिकेट प्रेम केवल और केवल सचिन तक सीमित रहा है। सचिन उस दौर में मैदान में उतरे थे जब टीवी घर-घर में पहुंच रहा था और उन्होंने अपने करोड़ों प्रशंसकों को क्रिकेट मैच देखने की वजह दी। उनके लिए सचिन की पारी खत्म होने के बाद क्रिकेट का महत्व घट जाता था। सचिन आउट तो जैसे क्रिकेट उनके दिमाग से आउट। तभी तो सचिन को कई बार अपने प्रशंसकों की नाराजी झेलना पड़ी। उनके लंबे कॅरियर में कई ऐसे पल आए, जब  वे वांछित प्रदर्शन नहीं कर सके लेकिन इस निराशा से उबर कर जब वे मैदान पर आए तो एक नया रिकार्ड बना कर ही पैवेलियन लौटे। यह सचिन के  व्यक्तित्व की विशेषता रही कि उन्होंने अपनी या टीम की आलोचना का जवाब बोल कर नहीं हमेशा बल्ले और अपने
खेल से दिया। सचिन ने जितनी प्रशंसा पाई उतनी ही आलोचना भी झेली लेकिन उन्होंने हर बार अपने खेल से सोच बदलने को मजबूर किया। यह सुखद विरोधाभास है कि सचिन निजी जीवन में जितने अंर्तमुखी है, मैदान पर उनका बल्ला उतना ही जोर से बोलता है। वे जितने नाटे कद के हैं उनका खेल उतना ही ऊंचा है। जितने आसान वे दिखाई देते हैं उतना ही भारी उनका बल्ला है और उन्होंने अपने खेल के जरिए क्रिकेट के मैदान पर जो करिश्मा 24 सालों में रचा है उसे दोबारा रचने में दूसरे क्रिकेटर को पता नहीं ऐसे कितने ही 24 सालों की जरूरत होगी।  अब जबकि सचिन दो मैचों के बाद मैदान से रूखसत हो जाएंगे तो उनकी पारियां ही हमारी यादों में होंगी। जब भी कोई नया खिलाड़ी किसी करिश्मे को रचेगा या किसी रिकार्ड की तरफ बढ़ेगा तो उसकी तुलना सचिन से ही होगी। टीवी पर सचिन की यादगार पारियों के क्लिप्स दिखाए जाएंगे और उनकी पारियां देख कर ही क्रिकेटरों की नई पीढ़ियां तैयार होंगी। एक क्रिकेटर के रूप में ही नहीं बेहतर और सुलझे हुए इंसान के रूप में सचिन मैदान के बाहर भी जीवन प्रबंधन का पाठ पढ़ाएंगे। लेकिन अब उनके जैसा किसी दूसरे को होने में बरसों लगेंगे, उनका स्थान भरना तो नामुमकिन है। सचिन न होंगे तो क्रिकेट तो वही रहेगा लेकिन उसका ‘सचिन वाला’ रोमांच खत्म हो जाएगा।

Tuesday, October 8, 2013

नैना जैसे मामलों में देरी से मिला न्याय भी अन्याय जैसा

आखिरकार, नैना साहनी के हत्यारे सुशील शर्मा को सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी के बदले उम्र कैद की सजा सुना ही दी। सुशील ने जुलाई, 1995 में अवैध संबंधों के शक में नैना की गोली मारकर हत्या कर दी थी। इसके बाद उसने नैना के शव को दिल्ली के एक रेस्तरां में तंदूर में जलाने की कोशिश की थी। इस दौरान मामला खुल गया और पुलिस ने तंदूर से नैना का अधजला शव बरामद किया था। रेस्तरां मैनेजर केशव कुमार को मौके पर ही गिरफ्तार कर लिया गया था, जबकि शर्मा की गिरफ्तारी कुछ दिन बाद हुई थी। सत्र अदालत और दिल्ली हाई कोर्ट ने शर्मा को मौत की सजा सुनाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने 7 मई, 2007 को शर्मा की अपील विचारार्थ स्वीकार करते हुए उसकी सजा पर अंतरिम रोक लगा दी थी। शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट से मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने की गुहार लगाई थी। बहस के दौरान शर्मा की सजा उम्रकैद में बदलने की गुहार लगाते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता जसपाल सिंह ने दलील दी थी कि यह मामला दुर्लभतम अपराध (रेयरेस्ट आॅफ रेयर) की श्रेणी में नहीं आता, इसलिए शर्मा को मौत की सजा देना न्याय संगत नहीं है। उनका कहना था कि पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है इसलिए इसमें मौत की सजा नहीं दी जा सकती। युवा कांग्रेस के पूर्व नेता सुशील शर्मा को साल 2007 में दिल्ली हाईकोर्ट ने फांसी की सजा सुनाते समय कहा था कि सुशील शर्मा का गुनाह माफ करने लायक नहीं है। रहम की कोई गुंजाइश भी नहीं है, ऐसे गुनाहगारों के लिए एक ही सजा है, सजा-ए-मौत। कोर्ट ने कहा कि सबूतों और गवाहों से ये साबित होता है कि सुशील शर्मा ने ही नैना साहनी की हत्या की और फिर उसकी लाश को तंदूर में जलाने की कोशिश की। कोर्ट का यह कहना सही है कि इस तरह का घृणित अपराध करने वाले अपराधी के सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं है। लोग दिल दहलाने वाले इस हत्याकांड को अब तक भूले नहीं होंगे लेकिन साल-दर-साल जख्मों पर वक्त की परत चढ़ती गई। नैना के दोषी को फांसी मिले या उम्रकैद इसका फैसला करने में 18 वर्षों का समय लग गया। निश्चित रूप से एक बार फिर यह बात पुख्ता होगी कि देर से मिला न्याय भी अन्याय के समान है और यह मांग बलवती होगी कि न्यायिक प्रक्रिया को शीघ्र पूरा करने में आने वाली बाधाओं को दूर किया जाना  चाहिए। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय न्याय प्रक्रिया में देरी पर सवाल उठा चुका है। न्यायालय कई बार सरकार को बता चुका है कि कोर्ट के सामने मुकदमों की जो स्थिति है उसको देखते हुए त्वरित न्याय की उम्मीद करना व्यर्थ है लेकिन इस दिशा में उठाए गए कदम नाकाफी है। देरी से मिला न्याय जहां पीड़ित पक्ष के लिए पीड़ादायक होता है वहीं समाज में भी इसका सही संदेश नहीं जा पाता और अपराधियों के हौंसले बुलंद होते हैं। दिल्ली गैंगरेप के बाद ऐसे मामलों में शीघ्र न्याय की चाह बढ़ी है ताकि आरोपी पक्ष गवाह और पीड़ित पक्ष पर दबाव बना कर केस को कमजोर न कर सके। यह तभी संभव होगा जब त्वरित न्याय के मार्ग की सारी बाधाएं दूर की जाएंगी।

Wednesday, October 2, 2013

सजायाफ्ता नेताओं को क्यों मिले सहानुभूति?

दो दिनों में दो बड़े फैसले आए हैं। बहुचर्चित चारा घोटाले में फैसला 17 साल लंबी कानूनी लड़ाई के बाद आया है। इसी तरह 23 साल पुराने मेडिकल एडमिशन फर्जीवाड़ा मामले में कांग्रेस सांसद रशीद मसूद को दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने चार साल कैद की सजा सुनाई है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश के मुताबिक, अगर किसी सांसद को दो साल कैद से ज्यादा की सजा सुनाई जाती है तो उसकी संसद सदस्यता रद्द हो जाएगी और वह जेल से चुनाव भी नहीं लड़ सकेगा। इस फैसले की जद में लालू के पहले रशीद मसूद आएंगे। दोनों ही मामलों में कानूनी प्रक्रिया करीब 2 दशकों तक चली है। इतने वक्त की लड़ाई में कई मोड़ ऐसे भी आए जब न्याय की आस टूटने लगी थी। हालांकि यह राहत की बात है कि देरी से ही सही लेकिन दोषियों को सजा मिल रही है। ऐसे में कई सवाल भी उठते हैं कि क्या इतनी देरी से मिलने वाली सजा का समाज में कोई संदेश जा पाएगा? क्या ये  फैसले न्याय में देर है अंधेर नहीं की कहावत के अलावा भ्रष्टाचार या अपराधों को रोकने में भय का वातावरण तैयार कर पाएंगे? बहुत  विश्वास से नहीं कहा जा सकता कि इससे भ्रष्टाचारियों को सबक मिलेगा और वे भविष्य में सत्ता का दुरुपयोग करने के पहले सोचेंगे। अभी तो इन फैसलों राजनीतिक महत्व ज्यादा है। लालू यादव की गिरफ्तारी 2014 के आम चुनाव को लेकर बनाए जा रहे समीकरणों को प्रभावित करेगी। ये फैसले राजनीतिक दृष्टि से इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि सजायाफ्ता नेताओं को चुनाव के अयोग्य करार देनेवाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ठोस राजनीतिक राय कायम होगी और उस फैसले की काट में केंद्र सरकार द्वारा लाया गया राहतकारी अध्यादेश को खत्म करने की राह पुख्ता हो जाएगी। यह हमारे देश की राजनीति की विडंबना ही कही जानी चाहिए कि आने वाले चुनावों में  इन सजायाफ्ता नेताओं की पार्टियां व समर्थक उनके नाम पर सहानुभूति मतों की उम्मीद करेंगे और बहुत हद तक उन्हें सहानुभूति मत मिल भी जाएंगे। यह भी संभव है कि लालू और राशिद के समर्थक जनता के बीच यह संदेश देने में कामयाब हो जाएं कि लालू और राशिद राजनीति का शिकार हुए हैं और इस आधार पर दोनों नेताओं का न केवल गुनाह कमतर कर दिया जाएगा बल्कि भ्रष्टाचार के खिलाफ संदेश भी उतना असरकारक नहीं रह पाएगा जितना इन दोनों को मिली सजा के बाद पहुंचना चाहिए था। इस बात की भी संभावना है कि जयललिता और जगन की तरह लालू भी सजा के बाद या सजा के दौरान ज्यादा जन समर्थन हासिल कर लें। यह भ्रष्टाचार  पर मिली सजा को साबित करने की लड़ाई का दूसरे चरण है। कानूनी लड़ाई पूरी हो चुकी अब भ्रष्टाचार और अपराध पर मिली सजा को नैतिक रूप से कमतर करने की कोशिशों को बेअसर करने की चुनौती है। आप ही सोचिए क्या सजायाफ्ता नेताओं को सहानुभूति मिलना चाहिए?