Wednesday, December 10, 2008

।। हकीकत ।।

वे सख्त होते हैं थोड़े बदमिजाज भी छोटे-छोटे प्यारे बच्चों से बेरहमी से पेश आते हैं । स्कूल बस या आटो रिक्‍शा चालकों के बारे में यही धारणा थी मेरी । पर, उस दिन जावरा फाटक की बन्द रेल्वे क्रासिंग पर क्या देखता हूँ- एक स्कूली रिक्‍शा का चालक बच्चों की फरमाइश पूरी कर रहा है । पास बैठी महिला से जाम या बेर खरीद कर बच्चों को खिला रहा है । कई बार अपनी मान्यताओं और सुनी गई बातों के विपरीत हकीकत यूँ आ धमकती है और हमें करना ही होता है यकीं। ------------------------------------------ अपने काव्य संग्रह ‘सपनों के आसपास’ से

।। अवसर ।।

कभी हम परखते उसे अपनी कसौटी पर । कभी लगती मरुभूमि और हम भटकते मुसाफिर से कभी ठण्डे झोंके की तरह और हम महसूसते उसका अस्तित्व पकड़ने की चाहत में हाथ से फिसलती जिन्दगी और हम ठगे से तकते उसे करीब से गुजरते हुए । ------------------------------------------ अपने काव्य संग्रह ‘सपनों के आसपास’ से

Sunday, December 7, 2008

मेरे देश के लोग भारत जैसे अद्भुत देश को देखने से वंचित रह जायेंगे

मुंबई पर आतंकी हमले के बाद हममें से लगभग सभी ने यही सोचा है कि इस हमले का असर हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा, पर्यटकों का आना घटेगा और आर्थिक विकास की दर कम हो जायेगी। इस डर में डूबे समाज को यह सोचने का समय भी नहीं मिला कि हमले के कुछ खास इतर दुष्परिणाम भी होंगे। आप ही कि तरह मैं भी इन्हीं बिन्दुओं पर सोच रहा था कि एक अमेरिकी चित्रकार ने आँखे खोल दी। बात कुछ ऐसी है कि मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के पास मशहूर बुद्ध तीर्थ स्थल साँची है। यहाँ हर साल की तरह सालाना मेला लगता है। मेले में श्रीलंका, जापान, जर्मनी सहित विदेशों और देश के कई इलाकों से श्रद्धालू शामिल होते हैं। इस बार भी यही हुआ। मेरे फोटोग्राफर साथी प्रवीण दीक्षित ने कहा कि विदेशी सैलानियों से हमले पर प्रतिक्रियाँ लेना चाहिए। मुझे अपने अख़बार के लिए बढ़िया ख़बर नज़र आई। अगली सुबह मैं प्रवीण के साथ साँची जा पहुँचा। वहां कई श्रीलंकाई पर्यटकों से मुलाकात हुई। सभी ने हमले की निंदा करते हुए कहा कि वे तो यह सब देखने के आदी हैं। स्कूल में पढ़ रही संद्लिका ने बताया कि हमले के सूचना के बाद उनके पिता ने लौटने के लिए कहा था लेकिन वह भारत की यात्रा बीच में रोक कर जाना नहीं चाहती थी इसलिए वह नहीं गयी। हम एक दिन देरी से पहुंचे थे , मेला खत्म हो गया था और कई पर्यटक जा चुके थे , इसलिए प्रतिक्रियाँ मिलने के अधिक अवसर नहीं थे। ख़बर लिखने के लिए तो 'मसाला' मिल ही गया था फिर भी मन में संतोष न था। प्रवीण ने ही कहा कि कुछ फोटो स्तूप के भी ले लेना चाहिए। मैं प्रवीण के साथ हो लिया। वह आगे था इसीलिए उन पर उसकी नज़र पहले पड़ी। उन्हें देखते ही उसने मुझे पुकारा। यह यूरेका की तरह की प्रसन्नता भरी आवाज़ थी। लिहाजा मैं भाग कर स्तूप पार्श्व भाग में गया। वहां देखता हूँ कि एक विदेशी केनवास पर कुछ उकेर रहे थे। यह हमारे लिए सुखद था। बड़ी राहत मिली कि एक कलाकार के मन कि बात पता चलेगी परिचय के फौरन बाद मैंने सवाल दागा कि भारत कब आए हैं जवाब मिला कि वे हमले के 2 दिन पहले २४ नवम्बर को वे मुंबई में ही थे। २५ को अजंता एलोरा गए और ३० नवम्बर को भोपाल आ गए। इस दौरान हमला हो चुका था और उनके परिजन व मित्रों ने कई बार फोन कर उन्हें बुलाना चाहा लेकिन वे नहीं गए। स्वाभाविक है मैं सोच रहा था कि एलेक्स स्टेन , हाँ उन्होंने अपना यही नाम बताया था , कहेंगे कि आतंकियों से निपटने के लिए शान्ति कारगर है और वे कलाकार होने के नाते हथियार नहीं डालेंगे। लेकिन जिंदगी आपके सोचे अनुरूप नहीं होती। एलेक्स ने कहा भारत वैसा नहीं है जैसा मैंने किताबों में पढ़ा था। मुझे दुःख है कि हमले के बाद मेरे देश (अमेरिका) के कई लोग भारत आने कि योजना बदल देंगे और वे एक अद्भुत देश को देखने और जानने से वंचित रह जायेंगे। एलेक्स का यह कहना मुझे चौंका रहा था। एक विदेशी कलाकार उस बात को रख रहा था जिस के बारे में हम नहीं सोच रहे थे। एलेक्स ने कहना जारी रखा - 'मैं चित्रकार हूँ इसलिए भारत के बारे में काफी पढ़ा है। बहुत इच्छा थी कि यह देश देखूं । आप पूछ रहे हैं इसलिए बता रहा हूँ कि मुझे दो भारत दिखाई दिए हैं। एक मुंबई का भारत जो चमकीला और सम्पन्न है। दूसरा भारत वह है जो साँची, अजंता एलोरा में मिलता है। सच तो यह है कि भारत को, यहाँ कि कला और सांस्कृतिक विरासत को यहाँ आए बगैर नहीं जाना जा सकता है। किताबें केवल परिचय करवाती हैं। आप चिंता कर रहे हैं कि पर्यटक आयेंगे या नहीं जबकि मैं सोचता हूँ कि अब डरे हुए लोग कई गहरे अनुभवों से अछूते रह जायेगें।' एलेक्स का यह कहना जितना सच उतना ही आतंक के उस असर का हलफनामा भी है जो भारत को , विश्व गुरु भारत को कई लोगों कि पहुँच से दूर कर देगा। एलेक्स का यह कहना साबित करता है कि आतंकियों ने केवल मुंबई पर नहीं हमारे देश और इसकी संस्कृति पर धावा बोला है। हम किन किन चीजों कि भरपाई कर पाएंगे ? शहीदों जैसे जांबाज वीर तो माँ पैदा कर देगी लेकिन कुछ लोगो कि लापरवाही और कुछ लोगों के समर्थन ने आतंकियों को मौका दे दिया। क्या भारत को हुए सांस्कृतिक नुकसान कि भरपाई हो सकेगी? यदि हाँ तो कैसे?आपको बता दूँ कि एलेक्स न्यूयार्क के ब्रुकलिन शहर के निवासी है और २००२ से अब तक उनकी ९ व्यक्तिगत और ३ समूह चित्र प्रदर्शनी में चित्रों का प्रदर्शन कर चुके हैं।

Monday, November 10, 2008

'गरीब'(मालवी लोक कथा)

काली, अंधेरी रात । तेज, मूसलाधर बारिश । ऐसी कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही । मानो सारे के सारे बादल आज ही रीत जाने पर तुले हों । पांच झोंपडियों वाले 'फलीए' की, टेकरी के शिखर पर बनी एक झोंपडी । झोंपडी में आदिवासी दम्‍पति । सोना तो दूर रहा, सोने की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं हो रही । झोंपडी के तिनके-तिनके से पानी टपक रहा । बचाव का न तो कोई साधन और न ही कोई रास्‍ता । ले-दे कर एक चटाई । अन्‍तत: दोनों ने चटाई ओढ ली । पानी से बचाव हुआ या नहीं लेकिन दोनों को सन्‍तोष हुआ कि उन्‍होंने बचाव का कोई उपाय तो किया ।चटाई ओढे कुछ ही क्षण हुए कि आदिवासी की पत्‍नी असहज हो गई । पति ने कारण जानना चाहा । पत्‍नी बोली तो मानो चिन्‍ताओं का हिमालय शब्‍दों में उतर आया । उसने कहा - 'हमने तो चटाई ओढ कर बरसात से बचाव कर लिया लेकिन बेचारे गरीब लोग क्‍या करेंगे ?'