Tuesday, October 27, 2009
दद्दा की दरी दुष्यंत के घर
`जॉय ऑफ गिविंग´ में मिली भोपाल को अनूठी सौगात
एक वो दिन था जब दद्दा माखनलाल चतुर्वेदी के सम्मान समारोह के इंतजाम के लिए शायर-कवि दुष्यंत कुमार खंडवा गए थे। एक शुक्रवार की शाम थी जब दद्दा द्वारा इस्तेमाल की गई दरी भोपाल में दुष्यंत कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय की निधि बनी। यह दरी दद्दा के परिजनों ने राष्ट्रीय स्तर पर चले अभियान `जॉय ऑफ गिविंग´ के तहत संग्रहालय को भेंट की । इस आत्मीय आयोजन में दोनों रचनाकारों के व्यक्तित्व के कई जाने-अनजाने पहलू उजागर हुए। इस मौके पर संग्रहालय परिसर में दादा के भतीजे प्रमोद चतुर्वेदी, जॉय ऑफ गिविंग अभियान के तहत यह दरी पाने वाली संस्था स्पंदन के सीमा-प्रकाश तथा इस अभियान के मीडिया पार्टनर `नवदुनिया´ के स्थानीय संपादक गिरीश उपाध्याय मौजूद थे। प्रकाश ने बताया कि श्री चतुर्वेदी ने दरी यह कहते हुए प्रदान की थी कि इसका बेहतर इस्तेमाल किया जाए। जब संग्रहालय को इसका पता चला तो उसने इसे अपने यहाँ सुरक्षित रखने का निर्णय किया। प्रमोद चतुर्वेदी ने दद्दा के साथ बिताए पलों को याद करते हुए कई अनुभव सुनाए। दद्दा उन्हें मुन्ना बाबू कहते थे और हर कार्यक्रम में साथ ले जाते थे। खंडवा में पोलिटेिक्नक के उद्घाटन के समय तो दद्दा के साथ केन्द्रीय मंत्री हुमायूँ कबीर प्रमोदजी को लेने उनके प्राथमिक स्कूल गए थे। दद्दा से मिलने कई क्रांतिकारी और लेखक खंडवा आते थे। एक दिन राममनोहर लोहिया भी खंडवा पहुंचे और मुलाकात के बाद दद्दा के साथ फोटो खिंचवाने की इच्छा जताई लेकिन दुभाoग्य था कि तमाम प्रयासों के बावजूद उस दिन शहर का कोई फोटोग्राफर इस अविस्मरणीय क्षण को कैमरे में कैद करने के लिए उपलब्ध नहीं हो सका। साहित्यकार राजेन्द्र जोशी ने बताया कि छितगाँव में उनके पैतृक निवास पर ही दद्दा का बचपन गुजरा। श्री जोशी ने वहां के घर आंगन में बीती कई घटनाओं को याद किया। गिरीश उपाध्याय ने कहा कि यह देने का नहीं बल्कि छीन लेने का जमाना है। ऐसे में कोई देने की बात करता है तो सुखकर लगता है। ऐसे स्मृति चिन्ह हमें अपने समृद्ध अतीत से जोड़ते हैं। इन्हीं स्मृतियों के सहारे हम भविष्य को संवार सकते हैं। इसलिए महापु‹षों की स्मृति से जुड़ी जो चीजें सहेजी जा सकती हैं उन्हें सहेजा जाना चाहिए। कार्यक्रम का संचालन करते हुए संग्रहालय के संस्थापक राजुरकर राज ने आग्रह किया कि किसी के पास साहित्य के पुरखों की कोई धरोहर हो तो उसे संग्रहालय को सौंपे। ऐसा कर हम अपना अतीत सहेज पाएँगे। प्रारम्भ में नरेन्द्र दीपक, शिवकुमार अर्चन और विनोद रायसरा ने अतिथियों का स्वागत किया।
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