Wednesday, November 24, 2010

किताब सी तुम

जिंदगी क्या है? कभी सोचा तुमने? मैं सोचता रहता हूँ अकसर। जब कभी में होता हूँ इश्क में तो गुमान होता है कि मैं इक शायर और जिंदगी मेरी गजल जैसे। कभी-कभी मैं होता अफसानानिगार और ये जिंदगी सुहाना अफसाना जैसे। कभी मिल जाए तो जगमग रोशनी और न मिले तो रूमानी ख्याल जैसे।
'अमां यार, तुम भी क्या जिंदगी को समझाने बैठ गए। यह कोई किताब है कि पन्ने  दो पन्ने पढ़े और जान लिया कि बंद किताब में क्या लिखा है लिखने वाले ने। फिजुल कहते हो कि किताबों की तरह है जिंदगी और इंसान एक-एक पन्ने , एक-एक हर्फ की तरह। जिंदगी को समझने चले हो पहले इंसानों को तो समझ लो।'

मैं गलत नहीं कहता मियाँ। जिंदगी मेरे लिए एक किताब ही है और इंसान इसके किरदार। यकीन न हो तो कुछ नमूना पेश करूँ? कहो तो? रूठ गए लगता है। चलो, मैं ही बताता हूँ। वह एक किरदार था या जाने कोई किताब, पर था बड़ा मनमौजी। वरक देख कर लगता था कि किताब बड़ी रोचक होगी। जब से देखा था उसे लगता था, जब खुलेंगे पन्ने , एक-एक कर तो जाने क्या सितम गुजरेगा। खुदा जाने कहर बरपेगा या कयामत होगी। सुनने वाले बताते हैं, वह जो किरदार था सच में किसी किताब से कम न था। बोले तो तोल कर ऐसे कि अच्छो-अच्छो को चुप कर दे।

साहब, बताते हैं कि हर बात उसकी जैसे सोलह आने सच। ऐसे ही किस्सों के चलते वह किताब मेरी जिंदगी का एक किरदार हो गई भी समझो। सोते, जागते हरदम लगता था कब वह हाथ लगे और पढ़ डालूँ उसे। एक ही रात में एक ही साँस में। पता है, वह उन सारे किरदारों में सबसे जुदा थी जो खुदा ने रखे थे उसके साथ। एक दम सुनहरी जिल्द वाली उस रूहानी किताब की तरह जो शेल्फ में सजी दूसरी किताबों से अलग, साफ दिखाई दे जाती है, अपनी चमक और दमक से। कहते हैं, किताब का वजन उसके आकार को देख कर तय नहीं करना चाहिए। यह किताब भी कुछ ऐसी ही थी। देखो तो बित्ती सी, जानो तो जैसे कभी खत्म ही ना होगी। सोचता था लिखने वाले ने भी क्या कयामत कही होगी। जब भी शेल्फ में रखी इस किताब को देखता तो बस देखता ही रहता। मन करता कि जरा हाथ बढ़ा कर उसे अपने कब्जे में ले लूँ और पढ़ डालूँ  उसके एक-एक हर्फ को। काश! वो मौका जल्दी आ जाए।

' फिर? फिर क्या हुआ? वह किताब तुम्हें मिली? कभी तुमने पढ़ी वो किताब?'

अच्छा मियाँ! मेरी सुन रहे थे? मैं तो समझा तुम खो गए होगे किसी किरदार के सपनों में। अब तुमने पूछा है तो बताता हूँ। हाँ, हाँ, हाँ। वह किताब मेरे हाथ भी लगी और मैंने पढ़ी भी। खूब पढ़ी। हुआ यूँ कि एक दिन मौका पा कर मैंने दुकानदार की नजर बचा उस किताब को कुछ देर के लिए चुरा लिया और ले आया अपने पसंद के कॉफी शॉप पर। तुम उसे रेस्त्रां भी कह सकते हो। समय कम था और मैं हैरां। क्या खोलूँ, क्या जानूँ। कुछ समझ नहीं पा रहा था। जल्दी-जल्दी कुछ पन्नो पलटे। किताब नहीं जैसे जिंदगी की इबारत थी। हर लाइन एक फलसफा। हर हर्फ एक घटना। सबकुछ जाना तो यह पाया कि यह किताब कितनी उजली है! जैसे स्याह रात में चमकता जुगनू।

'फिर?फिर? क्या जाना?'

मैंने कहा ना, वक्त कम था तो जल्दी से कुछ हर्फ पढ़, रख आया उसे अपने ठिकाने पर ऐसे जैसे कुछ हुआ ही न हो। वो भी अपने रैक में रखी ऐसे मुस्कुरा रही थी जैसे मेरी छुअन के निशान दिखा कर मुँह चिड़ा रही हो मुझको। मियाँ,ऐसे एक-एक दिन, एक-एक लम्हा में पढ़ता गया उसे जैसे वह एक किताब हो। कभी उसकी जुबानी सुनी, कभी मैंने खुद खोले राज जो दफ्न थे उसके भीतर, घटनाएँ बन कर। अब सोचता हूँ उस नन्हीं-सी किताब में जाने कितने जमाने बिखरे पड़े थे। कभी उसकी पंक्तियाँ यूँ चमक उठती जैसे खिलखिला के हँसता है कोई और कभी वो ऐसे झूम के लग जाती गले कि माशूका-सी महसूस होती। कभी उसकी गुत्थियाँ यूँ पीछे पड़ती जैसे दुश्वारियाँ। कभी साथ चल पड़ती ऐसे, जैसे हमारा कोई दूसरा वजूद न हो। क्या जाने वो किताब थी या प्रेमी मेरी?

क्या कहूँ? क्या बताऊँ, क्या छुपाऊँ? उसे पढ़ते-पढ़ते लगा जैसे उसको पहले से जानता हूँ मैं। कभी लगता कि ऐसा होता उसके एक किरदार का नाम मेरा होता। मैं कभी उसके संग समंदर की लहरों में छलांगें लगाता, कभी गोद में उसकी सर रख, सो ही जाता। क्या भरोसा वो सो जाती कभी मेरी तहों में जैसे खो जाते है दो जिस्म चादर की सिलवटों में। क्या जाने, क्या होता। वो मेरी होती, मैं उसका होता।

'मियां, तुम तो कविता कहने लगे। अपना अफसाना ना बताओ। जरा वो सुनाओ जो तुमने पढ़ा था उस किताब में।'

हाँ, हाँ। वही सुनाता हूँ।  एक दिन, दो दिन, तीन दिन। दिन, महीना, साल गुजरते गए। किताब मेरे संग ही रहने लगी। मुँहबोली हो गई मेरी। कभी मेरे संग सो जाती, कभी जी करता तो दूर तक टहल आती और कभी जी करता तो कुतर देती मुझे अपने पैने दाँतों से। दाँत! हाँ, विचार दाँत ही तो होते हैं ना।
 'सच कहते हैं किताबों को गौर से पढ़ो तो वे बिल्कुल अपनी जान पड़ती है, जरा करीब जाओ तो डूब जाओ उसकी खुमारी में।'
खूब जाना मैंने उसे। कभी हाथों के बीच रख कर पढ़ा तो कभी संग लेकर खो गया ख्वाबों में। कुछ रातें जली ऐसे जैसे घी-बाती रोशन कर रही हो सूरज से किया वादा। उजास सी वह किताब जब भी पढ़ी मैंने, हर बार हर्फ ने उसके मुझमें उगाए अर्थ कई नए।

'यह भी खूब कही। मियाँ तुम किताब का किस्सा सुनाते हो या अपनी हाँक लगाते हो? उस किताब के किस्से में अपना दर्द, अपना रंज क्यों मिलाते हो?'

माफ करना मियां। सच कहते हो। वह किताब भी कहती है-'तुम क्या जानों। हर सुख में जीने वाले। तुम्हें क्या पता, कैसे बनती है किस्मत और कैसे बिगड़ती है सूरत अपने इरादों की। कौन है जो तुम्हें बार-बार तोड़ने, मोड़ने की कोशिश करता है? तुम तो अपने मन के राजा हो। जब चाहे जो करते हो? बताओ कभी किसी ने किया तुमसे कोई सवाल?  बोलो?  बोलो कभी किसी ने लगाया तुम्हारा मोल? कभी तुम सजाए गए शेल्फ में? कभी तुमने कुर्बान की बेहतर इंसान से पढ़े जाने की हसरत? तुम किताब कहते हो मुझे। जिंदगी हूँ मैं! भले कितना पढ़ लो, समझ न पाओगे।"

सच कहती थी वह। कहाँ मैंने समझा है? कितने ही पन्ने बिना सुलझे रह गए। जवाब खोजते खोजते और भटक गया मैं। जवाब माँगा तो कहने लगी- 'बस, थक गए।  ये प्रेम का दरिया है और डूब कर जाना है। जब तुम्हे लगे कि पार कर गया मैं, तभी समझना कि आगे कोई मुसीबत पेश होने को है। नाउम्मीद मत होना। असल में ये उम्मीद भी तो एक मुसीबत है। अपने पास है तो मुसीबत ना है तो मुसीबत। तुम ही बताओ कौन सी मुसीबत अजीज है।"
 भई, ये किताब क्या कहती है, अपनी तो कुछ समझ ही नहीं आता। जब भी उलझ जाती है जिंदगी, मैं खामोशी का चादर ओढ़ लेता हूँ जैसे बोझिल होने पर किताब बंद कर सो जाते हैं मुसाफिर।

जानते हो मियाँ। जिंदगी को हम ही नहीं पढ़ते वो भी हमें पढ़ती है, आजमाती है। और कभी-कभी हमारी बोलती भी बंद कर देती है। तभी तो हम कहते हैं जिंदगी का कोई जवाब नहीं। कुछ ऐसी ही किताबें भी होती हैं। कितना ही पढ़ो, लगता है, कुछ न जाना हमने। हर बार जब भी खोलो कोई पेज तो लगता है कुछ नया-नया सा है इन हर्फों में। भले दर्जनों बार पढ़ा हो उन पंक्तियों को। बीसियों बार फेर के हाथ देखा हो कुछ उठी, कुछ गिरी बुनावटों को।

एक बार की और बात बताऊँ। शायद सपना था, या सपने सी थी कोई हकीकत मेरी। किताब को हाथ में  ले बैठ गया मैं। कभी वरक के छू कर महसूसता तो कभी पलट कर उसे गालों से लगा लेता अपने। ऐसे महसूस करता मैं उसकी ािग्ध्ाता। कभी सहलाता रहता उसके हर्फों को जैसे जिस्म हो आगोश में और चैन खोज रहा हूँ मैं। वो उलटती-पलटती, कभी झुकती मेरे काँधें पर कभी गिरती मेरी गोद में, कभी हाथों में समा कर मेरे, खुद को भिगो लेती अपने ही वजूद में। किताबों का बातें करने का जरिया कितना अलहदा है, हम इंसानों से! वह भी मुझे उतार लेती भीतर अपने। कभी बेकरार लौट कर जाने न दिया। जब कभी विचारों ने पैदा की गर्मी तो वह ठंडा पानी डालती अपनी ओर से और कहती अभी तुम सही, बाद में सोचोगे तो जान जाओगे किताबें कभी गलत नहीं होती। क्या जिंदगी के किसी फलसफे को तुम गलत साबित कर पाए हो, चाहे जीवन भर कितने ही दफे उसके खिलाफ बका हो तुमने। जब कभी फूलने लगती नसें मेरी, वही तो थी तो इत्मिनान से थामती और बहा ले जाती संग। उसे पढ़ते-पढ़ते कितनी ही बार तटबँध तोड़ बही है धाराएँ , कितने ही मानसून बरसे हैं और कितने ही पतझड़ में पीले पात झरे हैं।

सोचता हूँ जिंदगी और किताब में कुछ अंतर होता है क्या?
या अपनी पसंद की किताब ही अपनी पसंद का किरदार होती है?

Friday, November 19, 2010

यूँ ही साथ चलते-चलते

आज बरबस ही चाँद याद आ रहा है। शरद पूर्णिमा पर चाँद पूरे शबाब पर होता है, अपनी 64 कलाओं के साथ। यूँ देखें तो चाँद केवल एक उपग्रह हैं और भावनात्मक दृष्टिकोण कहता हैं कि चाँद हमारा 'मामा" है। बचपन में परिवार के बाहर अगर किसी से नाता जुड़ता है तो वो चन्दा मामा ही है और युवावस्था में जब किसी से दिल जुड़ता है तो वो भी चाँद ही नजर आता है। चाँद हमारी कल्पनाओं, साहित्य, फिल्मों, विज्ञान शोध् का विषय रहा है और अब तो यहाँ ख्वाब के आशियाने की जमीन है। शायद ही कोई होगा जिसे ये प्रेम में यह जमीन चाँद से बेहतर नजर न आई होगी और माशूक चाँद से खूबसूरत न दिखलाई दी होगी। किसी ने इसमें दाग देखे, किसी ने इसे रोटी माना, कोई इसे फतह करने निकला। शायद ही कोई साहित्यकार होगा जिसने चाँद को देख कर कोई रचना न की होगी या लिखने का ख्याल न किया होगा। साहित्य में चाँद कई बिम्ब और रूपों में मुखरित हुआ है। यह प्रेम, बिछोह, मिलन का प्रतीक ही नहीं बल्कि नौ रसों की अभिव्यक्ति का माध्यम बना है। भले ही चांद साहित्य का सबसे प्राचीन विषय हो लेकिन समकालीन कवियों ने नई कविता में भी चाँद पर खूब लिखा है। नई कविता में चांद को लेकर नए और ताजा बिम्ब गढ़े गए हैं।


अशोक वाजपेयी की एक कविता में चाँद अलग प्रतीक बन कर आया है-

 'चांद के तीन टुकड़े हैं/
जिनमें से एक मेरे पास है/
मेरी आंखो में, मेरे दिल में/
और एक तुम्हारे पास है/
चांद का एक टुकड़ा और है/
जिसे मैं तुमसे बचाकर/
किन्हीं और आंखों में/
धीरे से खिसकाया करता हूं।"

जबकि उदयप्रकाश अपनी कविता 'चंद्रमा" में चांद को काव्यात्मक सबजेक्टिविटी के बजाय वैज्ञानिक तथ्यों के जरिए देखा है। चाँद के लिए वे लिखते हैं-

'यह रोशनी भी उसकी नहीं सूर्य की है/
 वह तो है पृथ्वी से छह गुना छोटा मिट्टी का एक अंधा ढेला/
चंद्रमा की मिट्टी में नहीं पैदा होता गेहूं/
चंद्रमा में नहीं रहते किसान वहां नदियां नहीं बहती/
वहां समुद्र का नदियों का ऋतुओं का प्रेम और वीर नायकों का कोई मिथक नहीं।"

युवा कवि पवन करण अपनी कविता में चांद को कुछ यूं बयां करते हैं-

''इस चांद के बारे में तुम कुछ भी नहीं जानते/
एक नंबर का धोखेबाज है/
ये एकदम बिगड़ा नवाब/इसकी संगत ठीक नहीं/
ये तुम्हें कहीं का भी नहीं छोड़ेगा/
कहीं भी फंसा देगा/
इसका काम ही आवारागर्दी करना है।"

चाँद के साथ मैं भी आवारगर्दी करने निकल आया था। यूँ ही साथ चलते-चलते।

Tuesday, November 9, 2010

कश्मीर के युवा बंदूक नहीं पढ़ना चाहते हैं

पत्रकार दिलीप पडगांवकर सहित उनके दो साथी वार्ताकार कश्मीर समस्या का स्थायी हल ढूंढ़ने कश्मीर गए थे। दल ने कहा कि उनका ध्यान युवाओं पर होगा, क्योंकि वे ही यहां की धारा को बदल सकते हैं। इसके पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उससे भी पहले प्रधानमंत्री रहते हुए अटलबिहारी वाजपेयी ने कश्मीर के युवाओं से शांति की अपील की थी। कश्मीरी युवकों की समस्या क्या है और वे इसका समाधान कहाँ खोजते हैं, इस पड़ताल के दौरान मैंने अपने साथी मोहम्मद फैजान खान के साथ भोपाल में पढ़ रहे कश्मीरी युवाओं से चर्चा की। कश्मीरी युवाओं की राय पूरे मसले को समझने के लिए अहम हैं। वे साफ कहते हैं कि हमारी पीड़ा कोई नहीं सुनता। हम पढ़ना चाहते हैं, नौकरी करना चाहते है। भारत से अलग होना नहीं बल्कि वे बेखौफ घूमने की आजादी चाहते हैं।



 जमीन का स्वर्ग कश्मीर 15 जून से लेकर अब तक हड़ताल और कर्फ्यू भोग रहा है। इसबार आंदोलन में युवाओं की भागीदारी ज्यादा हो गई है। कश्मीर के युवाओं पर आरोप लगता है कि वे पाकिस्तान की शह पर आतंकवाद फैला रहे हैं। भोपाल में पढ़ने वाले कश्मीरी युवा इस आरोप से नाराज हैं। वे कहते हैं कि कश्मीर के युवा आतंकवादी होते तो उनके हाथों में पत्थर नहीं बंदूक-बम होते। कश्मीर का युवा पत्थर फैंक रहा है क्योंकि वह व्यवस्था से तंग आ गया है। इसी साल सबसे लंबे समय तक स्कूल-कॉलेज बंद रहे। पढ़ाई होती नहीं हैं, रोजगार कहाँ से मिलेगा? पर्यटन खत्म हो चुका है। रोजगार नहीं है, घर कैसे चलेंगे? इसमें में कोई भटकने से कैसे बचे?

कश्मीर के युवा पढ़ना चाहते हैं। लेकिन वहाँ कॉलेज कम हैं और विद्यार्थी ज्यादा। 20 सीटों के लिए 2 हजार आवेदन आते हैं। पढ़ाई के लिए बाहर जाओ तो अपने ही देश में सौतेला व्यवहार झेलना पड़ता है। भोपाल में पढ़ने आए तो यहाँ कश्मीरी कह कर संदेह से देखा जाता है। कई बार भाषाई समस्या हुई और किसी ने सहायता की तो उसे भी संदिग्ध् मान लिया जाता है। तकलीफ होती है जब हमें अपने ही प्रदेश में बार-बार पहचान बताना पड़ती है। एक चेकिंग पाइंट पर घंटों खड़े हो कर जाँच से गुजरना पड़ता है। हमें जलील किया जाता है।

पाकिस्तान है जिम्मेदार
कश्मीरी युवा घाटी की बदतर स्थिति के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका कहना है कि अगर पाकिस्तान ने चंद कश्मीरी नौजवानों को हथियार न थमाए होते तो कश्मीर में न तो इतनी बर्बादी होती और न ही उन्हें स्पेशल पावर एक्ट का सामना करना पड़ता।

अलगाववादियों से अलग है राय
नवदुनिया से बातचीत में कश्मीरी युवाओं ने कहा कि अलगाववादी भारत से आजादी चाहते हैं। जबकि कश्मीर का आम युवा ऐसा नहीं सोचता। उन्होंने कहा-'हमारी बात नहीं सुन जा रही। हम हिन्दुस्तान से आजादी नहीं चाहते बल्कि घाटी में बेखौफ घूमने फिरने की आजादी चाहते हैं।"

विशेष कानून समस्या
कश्मीरी युवा घाटी की सबसे बड़ी समस्या आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट को मानते हैं। उनका कहना है कि इस एक्ट का सबसे ज्यादा शिकार युवा ही हो रहे हैं। हम सिर्फ इतना चाहते हैं कि घाटी से लागू आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट हटा लिया जाए।

'राहुल, हमारी भी तो सुनो"
युवाओं की तकलीफ यह है कि कोई उनकी सुन नहीं रहा है। वे कहते हैं कि राहुल गाँधी युवाओं से संवाद करने देशभर में घूम रहे हैं, लेकिन कश्मीर के युवाओं की नहीं सुन रहे। उन्हें कश्मीर के युवाओं से संवाद करना चाहिए। चाहे वे कश्मीर जाएँ या कश्मीर के युवाओं को अपने पास बुलवाएँ। बात सुनी जाएगी तो पीड़ा भी कम होगी।



*हमें भारत से आजादी नहीं चाहिए। लेकिन हमें वैसी ही आजादी चाहिए जो भारत के अन्य राज्यों के लोगों को मिली हुई है। हम जब घर से बाहर निकलते हैं तो कदम-कदम पर हमसे पहचान पत्र दिखाने को कहा जाता है। चेक पाइंट पर एक-एक घंटे खड़े होकर अपनी पहचान सिद्ध करना होती है।
आबिद हुसैन, शासकीय बेनजीर कालेज

*हम पर इल्जाम लगाया जाता है कि हम पाकिस्तान के साथ मिलना चाहते हैं। जबकि यह सरासर गलत है। कश्मीरी पाकिस्तान से नफरत करते हैं। पाकिस्तान ने आतंकवादियों को भेजकर कश्मीर को जहन्नुम बना दिया है। कश्मीर घाटी में शिक्षा के नाम पर केवल एक विश्वविद्यालय है जिसमें आम कोर्सेस में भी 20 सीटों के लिए 2 हजार लोगों के बीच काम्पटीशन होता है। केन्द्र सरकार कश्मीर के विकास के लिए जो पैसा भेजती है वह राज्य सरकार के मंत्री हड़प जाते हैं। भ्रष्टाचार के कारण भी कश्मीर के हालात खराब हैं।
बिलाल अहमद लोन, शासकीय हमीदिया कॉलेज

*न तो अलगाववादियों को कश्मीरी जनता की फिक्र है और न ही राज्य सरकार को उनका ख्याल है। आम कश्मीरी उस गुनाह की सजा भुगत रहा है जो उसने किया ही नहीं। अब जबकि घाटी से आतंकवाद समाप्त हो गया है,वहां से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट जैसा काला कानून हटा लेना चाहिए।
अराफात अहमद बट्ट, हमीदिया कालेज

*अगर कश्मीरी युवा सेना पर पत्थर फैंक रहा है तो यह उनका फ्रस्ट्रेशन है। लेकिन इससे यह बात भी सिद्ध होती है कि वह आतंकवादी नहीं है। अगर वह आतंकवादी होते तो उनके हाथ में पत्थर नहीं एके 47 होती।
मुश्ताक अहमद, आईपीसी कालेज

Tuesday, November 2, 2010

लौटा लाओ कि हमेशा के लिए न चले जाएँ वे


श्मशान में सचेत करती अनिल गोयल की पंक्तियाँ
 'क्रूरता से विदा किया तुमने/
वे सहजता से चले गए/
चाहो तो लौटा लाओ/
लौटा लाओ कि/
चले जाएँ ना इतनी दूर/
जहाँ से नहीं लौटता कोई।"

सुभाष नगर विश्राम घाट की दीवारों पर चित्रों के साथ टंगी ऐसी ही पंक्तियाँ बरबस रोक लेती है और सोचने को मजबूर करती हैं। कहते हैं श्मशान अस्थाई वैराग्य करवाता है। कुछ पलों के लिए ही सही लेकिन यहीं आकर व्यक्ति को अपनी ताकत और क्षणभंगुरता का अहसास होता है। यही वह पल होते हैं जब वह खालिस अपने कर्म और अपने जीवन के बारे में खरा चिंतन करता है। चिंतन के इन्हीं पलों को अनिल गोयल ने और गहरा, और भावपूर्ण, और असरकारी बना दिया है। विश्राम घाट की दीवारों, पीलर्स पर दो दर्जन से ज्यादा फ्रेम टंगी हैं। हर एक में बुजुर्गों के श्वेत-श्याम चित्रों के साथ काव्य पंक्तियाँ हैं। चिंतन के क्षणों में ये पंक्तियाँ आपको सोचने पर मजबूर करती हैं। बुजुर्गों के साथ अपने व्यवहार का आकलन करने को विवश करती हैं। शायद ही कोई होगा जिसे इन पंक्तियों ने आकृष्ट न किया हो और बिरला ही होगा जिसने इन्हें पढ़ने के बाद भी अपने बुरे बर्ताव में सुधार न किया हो।

मसलन, एक फ्रेम में लिखा है-
'प्रतिबंध था जिसके बोलने पर 
 उसके बारे में बोला गया
मृदुभाषी शोकसभा में।"
ये पंक्तियाँ किसी विवरण की माँग नहीं करती। सीधे दिल में उतरती हैं और दिमाग पर असर करती हैं। इन कविताओं में बेटों के बाद भी बुजुर्गों के अकेले छूट जाने की पीड़ा को देखा-समझा और महसूसा जा सकता है।

अनिलजी का जन्म 6 नवंबर 1961 को विदिशा में हुआ था। छह साल की उम्र में हुआ पोलियो 70 फीसदी विकलांगता दे गया। शरीर ने कष्ट सहे लेकिन इरादे मुरझाए नहीं, वेदना पा कर संवेदना गहरी होती गई। अनिलजी ने संघर्ष किया, खुद को कभी लेखक, कभी अभिनेता, कभी नाटकों में व्यक्त किया। बुजुर्गों खास कर माँ पर अनिलजी की अभिव्यक्ति लाजवाब है। इस अभिव्यक्ति की शुरूआत भी उन्होंने भोपाल से ही की। वैलेंटाइन डे पर जब युवा पीढ़ी अपने इश्क के इजहार में व्यस्त थी, अनिलजी ने होटल सरल में माँ के प्रति अनुराग दर्शाती फोटो-कविता प्रदर्शनी का आयोजन किया। यहाँ काफी तारीफ मिली। वे कहते हैं कि बुजुर्गों के प्रति यवाओं का व्यवहार उन्हें कष्ट पहुँचाता है। यही वजह है कि उन्होंने श्मशान घाट में चित्र-कविताएँ लगवाई। यदि इससे सबक ले कर बेटों ने माँ-बाप की सुध ले ली तो समझो मकसद पूरा हो गया। अनिलजी इसीबात को एक पोस्टर में कुछ यूँ कहते हैं-
'माँ के कर्ज की किश्त/
समय पर चुकाइये/
सुख समृद्धि और वैभव का बोनस पाइए।"