दु:ख की रेखाएं मिट जाएंगी
खुशियों के होंठ मुस्कुराएंगे
सपनों की सतरंगी डोरी पर
मुक्ति के फरहरे लहराएंगे
आएंगे, अच्छे दिन आएंगे …
उम्मीद की ऐसा कविता लिखने वाले जन कवि गोरख पांडेय की आज पुण्यतिथि है. आज से 34 साल पहले दिल्ली के जेएनयू में अपनी मानसिक बीमारी से तंग आ कर इस कवि अपना जीवन खत्म कर लिया था. उम्मीद और हक की बातें करने वाला कवि निराशा की राह चल पड़ा लेकिन आज भी उनकी कविताएं और भोजपुरी गीत हौसला और आस में गाई जा रही हैं.
गोरख पांडेय का जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के मुंडेरवा गांव में सन् 1945 में हुआ था. वे बनारस हिंदु विश्वविद्यालय से होते हुए उच्च शिक्षा के लिए जेएनयू तक पहुंच गए थे. गोरख पांडेय ने 1969 से ही नक्सलवाड़ी आंदोलन के प्रभाव में आ कर जनसंघर्ष के गीत लिखे. ब्राह्मण परिवार में जन्मे गोरख पांडेय ने अपनी जनेऊ उतार दी थी. वे गांव की गरीब बस्तियों में जाते थे. गरीबों के साथ रह कर उनकी पीड़ा को समझते, उनके साथ खाते-पीते और उनकी भाषा में प्रतिरोध का साहित्य रचा करते थे. वे इन विचारों को लिखते और गाते ही नहीं थे बल्कि जीते भी थे. जब वे गांव आते तो अपने खेतों में काम करने आने वाले मजदूरों से कहते थे कि खेत पर कब्जा कर लो. पिता ललित पांडेय जब रोकते तो कहा करते थे कि इतने खेतों का क्या करेंगे? गरीबों में बांट दीजिए.
यह बात वे कविताओं और गीतों में लिखते भी रहे. उनकी कविताएं हर तरह के शोषण से मुक्त दुनिया की चाह की आवाज बनती रही है. जब गोरख पांडेय ने अपना जीवन खत्म किया तब वे जेएनयू में रिसर्च एसोसिएट थे. मृत्यु के बाद उनकी रचनाओं के तीन संग्रह प्रकाशित हुए हैं –स्वर्ग से विदाई (1989), लोहा गरम हो गया है (1990) और समय का पहिया (2004).
उनके लेखन को जन गीत की दिशा किसान आंदोलन से मिली थी. एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि नवगीत आंदोलन के दौर में मैंने पहला गीत ‘आंगन में ठहरा आकाश, धीरे-धीरे धुंधला हो गया, लिखा था. ये गीत रूमानी भावनाओं, अजनबियत और अलगाव के अस्तित्ववादी चिंतन के मेल-जोल से बने थे. सन् 1968 में किसान-आंदोलन से जुड़ा. वहां ऐसे गीतों की क्या आवश्यकता थी? मुझे अपनी रचना अप्रासंगिक और व्यर्थ होती दिखाई पड़ी. तब मैंने ‘नक्सलबाड़ी के तुफनवा जमनवा बदली’ जैसे गीत लिखे. 1976 में दिल्ली आया, उसके बाद के कई साल क्रांतिकारी-लोकप्रिय रचना की तलाश के रहे.
तभी समाजवाद जैसा गीत लिखा गया जो आज भी गाया जा रहा है:
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई
हाथी से आई, घोड़ा से आई
अंगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद…
अपने समय की गरीबी, छुआछूत, भेदभाव के खिलाफ मुखर हुए गोरख पांडेय के जीवन खत्म कर देने का कारण भले ही मानसिक अस्थिरता रही हो मगर वे भावनात्मक रूप से उद्वेलन झेल रहे होंगे तब ही अपनी मानिसक स्थिति के आगे झुक गए. वह भावनात्मक सघनता का पात उनकी इस रचना में देखा जा सकता है जो अपनी प्रिय बुआ के नाम लिखी थी:
‘लेकिन बुआ
तुम अब भी छुआछूत क्यों मानती हो?
पिता के सामंती अभिमान के हमलों से कवच की तरह
हमारी हिफाजत करने के बावजूद
रामधनी चमार को नीच क्यों समझती हो
जो जिंदगी भर हमारे घर हल चलाता रहा
हमेशा गरीब रहा
और पिता का जुल्म सहता रहा? क्यों?
आखिर क्यों सबकी बराबरी में तुम्हें यकीन नहीं होता?
बोलो
चुप मत रहो बुआ।’
‘गोरख पांडेय: संकलित गद्य रचनाएं’ पुस्तक में उनके इंटरव्यू प्रकाशित हुए हैं. ‘गोरख पांडेय से मनोहर नायक की बातचीत’ शीर्षक से प्रकाशित इंटरव्यू में मनोहर नायक के सवाल पर गोरख पांडेय ने कविता को लेकिर अपनी चिंता जाहिर की थी. उन्होंने कहा था कि कविता मनुष्य की भाषिक अभिव्यक्ति का बुनियादी रूप है. इस बीच समस्या यह रही है कि कविता देश के आम जीवन की धारा से कटती चली गयी. गीत को ऐतिहासिक तौर पर अप्रासंगिक बताने की कोशिश की गयी. यह कविता के ढांचे को योरोपीय कविता के ढांचे में ढालने की कोशिश थी. यह स्थिति भारतीय जीवन-हलचल में शामिल होने की भूमिका नहीं निभाती. कविता धीरे-धीरे चंद साहित्यकारों या कुलीन लोगों के बीच की चीज़ होकर रह गई. मेरी चिंता यही है, कि कैसे कविता को फिर से जनता के जीवन और उसकी आजादी के संघर्षों का वाहक बनाया जाए.
जब उनसे पूछा गया कि कविता से आप समाज में किस तरह के काम लेना चाहते हैं? तब गोरख पांडेय ने कहा था कि कविता एक आध्यात्मिक, वेदांत नहीं है. वह रचना होती है. जनता में आवेग और विचार बिखरे होते हैं. चिंतक उन्हें एक सूत्र में बांधता है. कविता भी बिखरी भावनाओं को सौंदर्य-बोध से संगठित दिशा की ओर ले जाने की कोशिश करती है. कविता प्रमाणिक रूप से जनांदोलन की जमीन तैयार कर सकती है. यदि वह परिवर्तन की बजाय यथास्थिति की तरफदार होगी तो समाज में वैसा ही असर पैदा करेगी.
गोरख पांडे के जीवन आचरण को देखना, समझना हो तो उनकी रचनाओं को ही देखना काफी है. उनकी कुछ चर्चित कविताओं पर एक नजर :
ये आंखें हैं तुम्हारी
तकलीफ का उमड़ता हुआ समुंदर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए
उनका डर
वे डरते हैं
किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और ग़रीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे.
कुर्सी
जब तक वह जमीन पर था
कुर्सी बुरी थी
जा बैठा जब कुर्सी पर वह
जमीन बुरी हो गई.
2
उसकी नजर कुर्सी पर लगी थी
कुर्सी लग गई थी
उसकी नजर को
उसको नजरबंद करती है कुर्सी
जो औरों को
नजरबंद करता है।
3
महज ढांचा नहीं है
लोहे या काठ का
कद है कुर्सी
कुर्सी के मुताबिक वह
बड़ा है छोटा है
स्वाधीन है या अधीन है
खुश है या गमगीन है
कुर्सी में जज्ब होता जाता है
एक अदद आदमी.
आशा का गीत
आएंगे, अच्छे दिन आएंगे
गर्दिश के दिन ये कट जाएंगे
सूरज झोपड़ियों में चमकेगा
बच्चे सब दूध में नहाएंगे.
जालिम के पुर्जे उड़ जाएंगे
मिल-जुल के प्यार सभी गाएंगे
मेहनत के फूल उगाने वाले
दुनिया के मालिक बन जाएंगे
दु:ख की रेखाएं मिट जाएंगी
खुशियों के होंठ मुस्कुराएंगे
सपनों की सतरंगी डोरी पर
मुक्ति के फरहरे लहराएंगे.
(29 जनवरी 23 को न्यूज 18 में प्रकाशित ब्लॉग)