Saturday, August 17, 2013

क्या हार कर जीतने वाला बाजीगर बन पाएंगे मनमोहन सिंह ?

आज अमेरिका में आर्थिक हालात सुधर रहे हैं और फेडरल बैंक द्वारा प्रोत्साहन वापस लेने का खतरा है। इस आशंका में हमारी अर्थव्यवस्था डोल रही है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब अमेरिका की अर्थव्यवस्थ लड़खड़ा रही थी तब भी हम घबराए हुए थे। उस मंदी से हमारी देशी अर्थव्यवस्था के जरिए निपट लिया गया। लेकिन अब शायद ऐसा न हो, क्योंकि विशेषज्ञ मानते हैं कि हमने मालिक  होने की जगह कर्मचारी होने की अर्थनीति को चुना और यही कारण है कि हम आत्मनिर्भर होने की  जगह विश्व बाजार पर  निर्भर हो गए। आज रुपया रसातल में जा रहा है। सरकार खुद कह रही है कि रुपए के गिरने के कारण शेयर बाजार में जबर्दस्त  गिरावट हुई है। यानि हमारे पास अंतरराष्ट्रीय अर्थ जगत में आए भूचाल से निपटने के लिए कोई उपाय नहीं  है। ऐसी बुरी स्थिति में सवाल यही उठता है कि क्या डॉ. मनमोहन सिंह एक असफल अर्थशास्त्री हैं? क्योंकि विशेषज्ञ तो खतरे को भांप कर पहले ‘एंटीबायोटिक्स’ और ‘एंटीडोट’ का इंतजाम करता है लेकिन यहां तो सरकार गाफिल है। भले ही मनमोहन सिंह ने कैम्ब्रिज विवि से पीएचडी की हो और आक्सफोर्ड विवि से डीफिल किया हो और लंबे समय तक अर्थशास्त्र पढ़ाया हो लेकिन देश की आर्थिक दशा में वे किताबी ज्ञान के व्यवहारिक ज्ञान से कमतर होने की हमारी मान्यता को साबित करते लग रहे है।
ऐसा कहने के पीछे का कारण कोई राजनीतिक विद्वेष नहीं बल्कि लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था और गिरते रुपए को संभालने की सरकार की नाकामी है। स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर रिजर्व बैंक ने विदेश में निवेश पर शिकंजा कसा है। अब एक वित्तीय वर्ष में 75 हजार डॉलर से ज्यादा बाहर नहीं भेजा जा सकेगा। पहले यह सीमा 2 लाख डॉलर थी। ऐसे कदमों से वे भारतीय उद्योगपति निराश हैं जो बाहर निवेश कर वहां के उद्योगों का अधिग्रहण करना चाहते हैं। सरकार ने आर्थिक सुधारों के नाम पर विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खोल दिए लेकिन लगभग साल भर होने के बाद भी इसके कोई चमत्कारिक परिणाम सामने नहीं आए हैं। सरकार लोगों से बार-बार  आग्रह कर रही है कि वे सोना न खरीदें। वह यह नहीं समझती कि सोना निवेश के लिए जितना लुभाता है उससे कहीं ज्यादा यह हमारी धार्मिक-सामाजिक परंपराओं का अंश होने के कारण अनिवार्यता हो गया है। दरअसल, यहीं आ कर सरकार से मतभेद प्रारंभ होता है। सरकार विश्व की स्थितियों को देखते हुए जनता से उपभोग में  कटौती का आग्रह करती है। वैश्विक परिदृश्य के हिसाब से पेट्रोलियम पदार्थों को नियंत्रण मुक्त करती है। यानि हरबार जनता से ही उम्मीद करती है कि वह कटौती करे, आर्थिक अनियमितताओं की मार झेले। सरकार क्यों अर्थव्यवस्था को शॉक प्रूफ नहीं बनाती? क्यों वह आर्थिक आपाद से निपटने के इंतजाम पहले से नहीं करती है? नीतियां भी आपकी है और व्यवस्था भी आपकी क्यों भारत की अर्थ नीतियों को भारत के संदर्भ में तैयार नहीं किया जाता? क्या सरकार बाजार के उस सीधे से सिद्धांत को भूला बैठी है कि मांग बनी रहेगी तो आपूर्ति और उत्पादन  की श्रृंखला भी कायम रह सकेगी? क्यों अन्न के लिए तरस रहे भारत में हरित क्रांति के इतिहास को दोहराया नहीं जा सकता?

आज हालात ये हैं कि सोने पर इंपोर्ट ड्यूटी 8 फीसदी से बढ़ाकर 10 फीसदी कर दी गई  है। रुपए में जारी अवमूल्यन को रोकने के लिए और चालू खाता घाटा कम करने के लिए सरकारी कोशिशों के बाद भी शुक्रवार को रुपए ने अपने जीवन का नया निचला स्तर छू लिया। अंतर-बैंक विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार में रुपया डॉलर के मुकाबले 62.03 के स्तर पर चला गया। इससे पिछला निचला ऐतिहासिक स्तर छह अगस्त को 61.80 का था। रुपए में एक मई से अब तक करीब 14 फीसदी गिरावट आ चुकी है। दूसरी तरफ सोने पर आयात शुल्क बढ़ाकर 10 प्रतिशत किए जाने के बाद त्यौहारों से पहले स्टाकिस्टों की ताबड़तोड़ लिवाली के चलते शुक्रवार को सोने की कीमत 1,310 रुपए उछल कर 31,010 रुपए प्रति 10 ग्राम पर पहुंच गयी। स्थानीय सोना बाजार में यह दो साल का सबसे तेज उछाल है।
ये विरोधाभास बताता है कि सरकार के निर्णय  गलत दिशा में जा रहे हैं। पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का यह कहना सही लगता है कि सरकारी सिर्फ लक्षणों का इलाज कर रहे हैं, बीमारी का नहीं। सरकार ने बीमारी को खतरनाक बनने दिया है। राजकषीय घाटा, चालू खाते का घाटा, अर्थव्यवस्था की हालत, रुपए में गिरावट... हर चीज नियंत्रण से बाहर है। सरकार को नीतियों में बुनियादी बदलाव लाना होगा। सरकार को भारत की उस देशी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने पर गौर करना होगा जहां दैनिक उपभोग की वस्तओं के लिए बाजार पर निर्भरता कम थी। आज किसान अपने खाने का अनाज भी बाजार से खरीद रहा है जबकि पहले वे लोगों के खाने के लिए अनाज खुद उपजाता था। क्रेश क्राप के फर में वह अन्नदाता से उपभोक्ता हो गया है। ठीक वैसे  ही शहरों में नौकरी के लिए पलायन को प्रोत्साहन देकर सरकार ने देशी और पैतृक स्वरोजगार को पिट दिया। अब समाधान उन्हीं नीतियों और तरीकों में नजर आ रहा है। नीतियों की समीक्षा पर यू टर्न सरकार को हार कर जीतने वाला बाजीगर बनाएगी।