Monday, July 27, 2015

आस्था के केन्द्र पर बिखरा हमारी श्रद्धा का कचरा


बिना लागलपेट के कहा जाए तो हम भारतीय जरा धार्मिक भीरू किस्म के लोग है या आस्थावान लोग हैं। कहीं कोई ऐसा चिह्न दिखाई दे जाए जिससे धार्मिक स्थल होने का संकेत मिलता हो तो हम शीश नवाने में जरा देर नहीं करते। हम जान जोखिम में डाल देते हैं लेकिन मंदिर के सामने से गुजरते समय स्टेरिंग छोड़ कर देव प्रतिमा के समक्ष हाथ जोड़ना नहीं छोड़ते। आस्था का आनंद ही कहिए कि हम हर ओर प्रभू भक्ति का मौका खोजते रहते हैं। यहां तक कि पेड़, नदी, पहाड़... प्रकृति के हर अंष में देवत्व खोज कर उसके प्रति श्रद्धान्वत होते हैं। यही कारण है कि पीपल में विष्णु का वास बताते हैं और गंगा, नर्मदा ही नहीं, हर बहती नदी में नहा कर अपने पाप तिरोहित करते हैं और पुण्य कमाते हैं। इतने ऊंचे दर्जें के आस्थावान है कि देव प्रतिमाओं के दर्शनों के लिए कई-कई किलोमीटर पैदल चलते हैं। दुरूह पहाड़ों की चढ़ाई चढ़ते हैं। वन-जंगलों से गुजर कर परिक्रमाएं करते हैं। इस मार्ग में आने वाली मुसीबतों को हंसते-हंसते सहते हैं, यह मानते हुए कि ईश्वर परीक्षा ले रहा है।
हमारा यह रूप और यह विचार, एक बेहद संवेदनशील प्राणी की तस्वीर पेश करता  हैं लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। हमारी आस्था के केन्द्रों को श्रद्धा के कचरे से दुषित करने वाले भी हम ही हैं। जरा अपने आचरण पर गौर तो कीजिए। कैसा नजारा होता है, जब भोलेनाथ का अभिषेक करते हुए अंध भक्ति के शिकार हो जाते हैं और पोलीथीन में पैक दूध से ही अभिषेक करते हैं तथा खाली थैली को वहीं मंदिर परिसर में उड़ा देते हैं जैसे हमारे पाप धोने वाला भगवान ही मंदिर में फैलाए गए कूड़े को भी साफ करवाएगा। मंदिर का कचरा मंदिर प्रबंधन साफ कर भी दे तो जो कचरा नदियों, पहाड़ों, मैदानों, बावडि़यों में डाला जा रहा है, उसकी सफाई कौन करेगा? जो लोग वैष्णो देवी जाते हैं, वे जरा मार्ग में पहाडि़यों की तह में झांक कर तो देखें, क्या दिखाई देता है? पहाड़ों की कोख में खड़े पेड़ों के ऊपर लटकी पाॅलीथीन की थैलियां, आलू चिप्स के पैकेट और साॅफ्ट ड्रिंक्स के पाऊच। ट्रेन यात्रा करते समय आपने भी तो अपने कूड़े-कचरे को चलती गाड़ी से कहीं किसी खेत किनारे, नदी या मैदान में फेंक दिया होगा। कभी सोचा है कि जिस दुरूह पहाड़ी पर चढ़ने में आपके प्राण निकले जा रहे हैं, उस पहाड़ी की खोह में जा कर आपके द्वारा फेंकी गई पन्नियों को कौन हटाएगा? कभी आपने सोचा है कि रेलगाड़ी से जंगलों में उड़ा दी गई पाॅलीथीन की पन्नियों को हटाने के लिए कौन-सा स्वच्छता अभियान कारगर होगा?
क्या आपको इस बात की जानकारी है कि हमारे द्वारा चढ़ा गए दूध, पानी और फूलों के कारण ओंकारेश्वर, महाकालेश्वर और मंदसौर की पशुपतिनाथ मंदिर की मूल प्रतिमाओं का क्षरण हो रहा है। इन प्रतिमाओं को सहेजने के लिए जतन हो रहे हैं लेकिन हमारी श्रद्धा का कचरा यह होने नहीं देता। कल ही की बात है, मैं भोजपुर के शिव मंदिर गया था। ऐतिहासिक महत्व के इस मंदिर का पुरातात्विक महत्व है। यहां फोटो खींचना भी मना है, प्रतिमा पर फूल चढ़ाना तो दूर की बात है। लेकिन यहां सारे नियमों और प्रतिबंधों को धत्ता बताते हुए फूल भी चढ़ाए जा रहे थे, नारियल को भी वहीं फोड़ कर अपनी श्रद्धा को व्यक्त किया जा रहा था। और तो और, अगरबत्तियों के पैकेट भी वहीं गर्भगृह में फेंकें गए थे। यहां, बाकायदा एक पूजारी की चौकी लगी थी और वह दक्षिणा भी वसूल रहा था। इस कचरे को देख कर नाराजगी तो जागती ही है, भीतर एक रोष  भी जागता है कि क्या हम आने वाली पीढ़ी को इस धरोहर को सौंपना नहीं चाहते? अगर चाहते हैं तो इसके संरक्षण का प्रयास करते, न कि ऐसे कार्य करते जो इस विरासत को नष्ट करता है।

गहरे धुंधलके में डाॅ पाण्डे उम्मीद

प्रतिमाओं, ताजिये, पूजन सामग्री सहित तमाम चीजों को नदियों में बहा कर उन्हें दूषित करते समूचे मानव समाज में डाॅ सुभाष सी पाण्डेय जैसे लोग भी हैं जो घने अंधकार में रोशनी की किरण की तरह हैं। पर्यावरणप्रेमी डाॅ पाण्डे कलियासोत नदी को बचाने का संघर्ष कर रहे हैं तो भोजपुर और भीमबैठिका जैसे पुरातात्विक महत्व के स्थलों के संरक्षण की लड़ाई भी लड़ रहे हैं। यही वह पगडंडी है जो वास्तव में विकास, प्रकृति के साथ विकास का हाई-वे है।

अंत में...

कोलम्बस भी ऊब गया होगा
अपनी मीलों लम्बी यात्रा में ।
तेनजिंग ने भी महसूस की होगी हार
एवरेस्ट फतह के ठीक एक पल पूर्व ।
बापू को भी असम्भव लगी होगी आजादी
मुक्ति के ठीक एक क्षण पहले ।
दुनिया में हर कहीं
जीत के ठीक एक पल पूर्व
सौ टंच प्रबल होती है हार
यह जानते हुए भी कि
किनारे पर बैठ कर
पार नहीं होगी नदी
उम्मीद और नाउम्मीद के बीच
मैं क्यूँ हथियार डाल दूँ ?
लड़े बगैर क्यूँ हार मान लूँ ?