प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह रूस की यात्रा कर लौटे हैं और अब चीन जा रहे हैं। 1992 से विश्व ने आर्थिक उदारीकरण को स्वीकार किया और बीते दस सालों में चीन के साथ रिश्ते में आर्थिक पक्ष फिर से जुड़ गया। भारत और चीन का व्यापार साल 2012 तक 66 अरब डॉलर का हो गया जो 2007 के 38.68 अरब डॉलर की तुलना में लगभग दोगुना है। यह कारोबार 2015 तक 100 अरब डॉलर के पार होने की संभावना है। ऐसा नहीं है कि चीन के साथ पहले आर्थिक संबंध नहीं थे। सदियों पहले सिल्क रूट में भारत की अहम् भागीदारी थी। सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के समय में भारत में चीन से और यूरोप से व्यापार हुआ करता था। 1700-1800 में भी भारत मे विदेशी मूल के व्यापारियों से व्यापार होता था। 1947 में आजादी के बाद खुली अर्थव्यवस्था से किनारा कर लिया गया। 1947 से 1990 तक भारत ने आयात और निर्यात पर कई तरह के कर लगाए थे। पिछले 20 सालों में इन देशों के साथ हमारे संबंध राजनयिक और कूटनीतिक स्तर के साथ आर्थिक तौर पर भी मजबूत हुए हैं। पचास के दशक में पंडित जवाहर लाल नेहरू को चीन ने राजकीय भोज का आमंत्रण भेजा था। उसके बाद यह पहला मौका है जब भारतीय प्रधानमंत्री को चीनी राष्ट्रपति की तरफ से राजकीय भोज का न्यौता मिला है। लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है जितनी दिखाई दे रही है। जो चीन व्यापार में मित्र दिखाई देता है वह सीमा पर ताकतवर दुश्मन है जो हमारी धरती निगलने को बेताब है। सीमा पर अतिक्रमण के विरोध पर आंखें दिखाने वाला चीन धीरे-धीरे अपने सस्ते सामान से हमारे बाजार पर भी कब्जा कर रहा है। पिछले दिनों लद्दाख में दोनों देशों के सैनिक बीस दिनों तक आमने-सामने डटे रहे थे। स्पष्ट है कि रिश्तों की इस उलझन को केवल व्यापार के सहारे सुलझाना संभव नहीं है। सीमा विवाद का कोई संतोषजनक समाधान खोजे बगैर दोनों देशों के बीच बेहतर आर्थिक रिश्ते कायम करना बेहद मुश्किल है। भारत ने चीन पर हमेशा विश्वास जताया है लेकिन हर बार ही चीन ने इस भरोसे पर आघात किया है। ऐसे में लाजमी है कि चीन हमें यह विश्वास दिलाए कि वह सीमा पर दगा नहीं करेगा और लद्दाख जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी। दूसरा मुद्दा आर्थिक है। दोनों देशों के बीच कारोबार का पलड़ा चीन की ओर ही क्यों झुका रहे? वह भारत के सामान की चीन में बिक्री बढ़ाने की राह आसान करे। तभी दोनों देशों के संबंधों में मिठास बढ़ाने के प्रयास सार्थक हो सकेंगे।