'कुछ सुरीले बेसुरे गीत मेरे/कुछ अच्छे बुरे किरदार/वो सब मेरे हैं., उन सबमें मैं हूँ/बस भूल न जाना, रखना याद मुझे..जब तक है जान।"
हिन्दी फिल्म जगत के पर्याय बन गए फिल्मकार यश चोपड़ा ने आखिरी बार सार्वजनिक रूप से यही शब्द कहे थे । किसे पता था कि 13 नंवबर को रिलीज हो रही जिस फिल्म 'जब तक है जान" के साथ यशजी अपनी सेवानिवृत्ति की तैयारी कर रहे थे वह फिल्म उनकी आखिरी फिल्म बन जाएगी। इस दीपावली यशजी जैसी शख्सियत के बिना रोशनी कुछ कम होगी, हां उनकी फिल्म उनकी मौजूदगी का अहसास जरूर करवाएगी।
यशजी को प्रेम का चितेरा । इसका कारण यह है कि उनक फिल्मों में जीवन ध्ाड़कता है। कलाकार और उनके संवाद ही नहीं, शूटिंग लोकेशन, गाने, फिल्मांकन का तरीका और नजरिया, उन्हें सबसे अलग खड़ा करता है। साहसी और प्रयोगशील फिल्मकार। 1973 में प्रकाश मेहरा ने 'जंजीर" बनाकर अमिताभ बच्चन को एक गुस्सैल नौजवान की छवि तो प्रदान की लेकिन यशजी ने ही 'दीवार", 'त्रिशूल" और 'काला पत्थर" बना कर अमिताभ की इस छवि को पुख्ता किया था। दूसरी तरफ, अमिताभ को 'कभी-कभी" और 'सिलसिला" जैसी रोमांटिक फिल्में भी यश चौपड़ा ने ही दीं। इन दोनों फिल्मों में भी अमिताभ का गुस्सा और गुरूर था लेकिन उसे यशजी ने अलग सांचे से बुना था।
'चांदनी" भी प्रयोग के लिए जानी जाती है। स्टार जूही चावला को महज ढाई मिनट का रोल दिया तो एक्शन हीरो विनाद खन्ना नए चेहरे के साथ प्रस्तुत हुए। श्रीदेवी को भी हाल ही में आई फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश" से पहले इतना 'परफेक्ट" फिल्म चांदनी में ही माना गया। शाहरुख खान के लिए वे गॉड फादर थे। 'दिल तो पागल है" ने शाहरुख के करियर को नई ऊंचाइयां दी थीं। वही शाहरूख आज जब लड़खड़ाते करियर से परेशान हैं तो फिर यशजी ही साथ हैं 'जब तक हैं जान" ले कर। माना जा रहा है कि 'दिल तो पागल है" ने जिस तरह माधुरी दीक्षित के करियर को नई जिंदगी दी थी, वैसे ही यह फिल्म शाहरुख को संजीवनी देगी।
फिल्म चाहे जो परिणाम दे लेकिन असल बात यह है कि अब के बाद यशजी और उनका काम नजर नहीं आएगा। उनका जाना असल में उस प्रयोगवादी सिनेमा की क्षति है जिसे उन्होंने कमर्शियल होते हुए भी बुना और सफल किया।