अखलाक मुहम्मद खान यानी शहरयार का जन्म 16 जून 1936 को अलोनी जिला बरेली में हुआ था. 1948 में उनके बड़े भाई का तबादला अलीगढ़ हुआ तो वे अलीगढ़ आ गए और वहीं के हो कर रह गए. घर परिवार में कोई शायर नहीं था. पिता पुलिस इंस्पेक्टर थे और जाहिर है वे बेटे को भी पुलिस महकमे में ही देखना चाहते थे. अखलाक खान को पढ़ाई के दौरान हॉकी से जुनून की हद तक लगाव था. मगर जिंदगी में कोई आया और शायरी भी दाखिल हो गई. शहरयार ने ही अपने साक्षात्कारों में बताया है कि अलीगढ़ में उनकी मुलाकात खलीलुल रहमान आजमी से हुई. आजमी की दोस्ती ने उन्हें शायरी से मिलवाया. खलीलुल रहमान के ही कहने पर अखलाक खान ने बतौर शायर ‘शहरयार’ नाम अपनाया.
चुनिंदा मंचों पर अपनी शायरी से मुखर रहने वाले शहरयान निजी जीवन में खामोश इंसान थे. मुशायरों में भी वे कम ही जाते थे. ‘उमराव जान’ जैसी फिल्म के गाने लिख कर रातोंरात चर्चित हुए शहरयार को धुन पर गीत लिखना रास नहीं आया और वे अदब की दुनिया में ही रहे. डॉ. प्रेमकुमार की किताब ‘बातों-मुलाकातों में शहरयार ने अपने जीवन के कुछ राज खोले हैं. लेखन के शुरुआती पर वे बताते हैं कि जब मैंने तय किया कि मुझे थानेदार नहीं बनना है तो घर से अलग होना पड़ा. तब मैं खलीलुर्रहमान के साथ रहने लगा. शुरू में मेरी जो चीजें छपीं, ऐक्चुअली वो मेरी नहीं हैं. बाद में अचानक कोई मेरी जिंदगी में आया…नहीं, यह कांफीडेंशियल है… कहते हुए शहरयार उस व्यक्ति के बारे में अपनी बात को छिपा जाते हैं. उनकी संवेदनशीलता इस कहन में झलकती है कि इस उम्र में मैं कितना ही रुसवा हो जाऊं, किसी और को रुसवा क्यों करूं?
वे इस प्रसंग को छोड़ आगे बढ़ते हैं और बताते हैं कि तब दुनिया मुझे अजीब लगने लगी और फिर मैं शायरी करने लगा. बीए के आखिरी साल में शेर लिखने की रफ्तार तेज हो गई. एमए में साइकोलॉजी में दाखिला लिया और जल्दी ही अहसास हुआ कि फैसला गलत लिया है. दिसंबर में नाम कटा लिया. फिर चार-छह महीने केवल शायरी की – खूब छपवाई. ऊपर वाले की मुझ पर…. हां, यूं मैं मार्क्सिस्ट हूं फिर भी मानता हूं कि कोई शक्ति है; कोई बड़ी ताकत है जो मेरी चीजों को तय करती रही है. उर्दू की बहुत अच्छी मैगजींस में मेरी चीजें छपने लगीं. तेज रफ्तारी से सामने आया. फिर एमए उर्दू में ज्वाइन किया.’
साफगोई देखिए कि शहरयार जोर दे कर स्वीकार करते हैं कि वे मार्क्सवादी हैं मगर एक परम सत्ता पर भरोसा करते हैं. शहरयार निजी जीवन के मामले में कम ही बोले हैं. शहरयार की अपनी बेगम नजमा के साथ मन नहीं मिला था. उनके एकांत और खामोश मिजाजी के पीछे इसे भी एक कारण माना जाता है. पत्नी नजमा के लिए वे क्या सोचा करते थे, उनकी नज्म ‘नजमा के लिए’ में दिखाई देता है. इस नज्म में वे लिखते हैं:
क्या सोचती हो
दीवार-ए-फरामोशी से उधर क्या देखती हो
आईना-ए-ख्वाब में आने वाले लम्हों के मंजर देखो
आंगन में पुराने नीम के पेड़ के साए में
भय्यू के जहाज में बैठी हुई नन्ही चिड़िया
क्यूं उड़ती नहीं
जंगल की तरफ जाने वाली वो एक अकेली पगडंडी
क्यूं मुड़ती नहीं
टूटी जंजीर सदाओं की क्यूं जुड़ती नहीं
इक सुर्ख गुलाब लगा लो अपने जूड़े में
और फिर सोचो.
शहरयार के मिजाज पर कमलेश्वर ने लिखा है, उन्होंने अपनी शायरी में मानवीय मूल्यों को सबसे आगे रखा. शायरी हो या अफसाना शहरयार बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि जो लिखना है जमकर लिखो और इतना लिखो कि अपने लिखे को भी जी भर के खारिज कर सको, जिससे साहित्य जो सामने आए तो खूबसूरत और असरदार बन सके. इसके साथ ही वह बहसों में न हिस्सा लेते हैं और न शरीक होते हैं क्योंकि वह किसी भी कीमत पर अपना सकून खोना नहीं चाहते.
जब फिल्मों में गाने खास कर ‘उमराव जान’ का जिक्र हुआ तो शहरयार ने डॉ. प्रेमकुमार को दिए अपने इंटरव्यू में बताया था कि मुझे जिंदगी में बहुत सी चीजें फिल्म के गानों की मकबूलियत से मिलीं. वे उदाहरण देते हुए कहते हैं कि वे जब इलाज के लिए ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट जाते थे तो उन्ळें लाइन में खड़ा नहीं होना पड़ता था. वहां डॉक्टर बिना कार्ड ही उनकी जांच कर लेते थे. वे बहुत खुशी से जांच करते थे. ट्रेन या हवाई जहाज में रिजर्वेशन करवाना हो या एएमयू की एक्जिक्यूटिव या कोर्ट के इलेक्शन का मसला हो ‘उमराव जान’ के गानों ने हमेशा मदद की है. मुशायरा चाहे देश का हो या विदेश का शहरयार का सिर्फ एक ही परिचय काफी होता था, ‘उमराव जान’ के गीतकार.
बाद में ‘दामन’, ‘फासले’, ‘द नेमसेक’ आदि फिल्मों के लिए गीत लिखे मगर मन फिल्मी दुनिया में रमा नहीं. इसका कारण शहरयार ने यूं बताया है, मेरा एक उसूल है कि मैं किसी ऐसी फिल्म में गाने नहीं लिख सकता, जिसमें गाना कहानी का पार्ट न हो और जिसमें पोयट्री की गुंजाइश न हो. हम दनादन धुन पर तुरंत नहीं लिख सकते. उन्होंने बताया था कि पिता का कहना था कि यह तो आदमी को मालूम नहीं हो पाता कि वह क्या कर सकता है, लेकिन यह बहुत आसानी से मालूम हो जाता है कि वह क्या नहीं कर सकता. जब यह मालूम हो जाए तो ऐसा काम करने के बाद सिवाय जिल्लत के कुछ नहीं मिलता. शहरयार ने जान लिया था कि वे क्या कर सकते हैं और यह जान कर उन्होंने जो किया उसने उन्हें शायरी का शहरयार (बादशाह) बना दिया. उनके लिखे को पढ़ना हमेशा चैन देता है तो ठिठकने पर मजबूर भी करता है, जैसे आज वे नहीं है तो महसूस होता है कहीं कुछ कम है.
जिंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है
हर घडी होता है अहसास कहीं कुछ कम है.
अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ ज़्यादा है, कहीं कुछ कम है.
वो देख लो वो समंदर खुश्क होने लगा
जिसे था दावा मेरी प्यास को बुझाने का.
हर मुलाकात का अंजाम जुदाई क्यूं है
अब तो हर वक्त यही बात सताती है हमें
सीने में जलन आंखों में तूफ़ान सा क्यूं है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूं है.
शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को
मैं देखता रहा दरिया तिरी रवानी को.
दिल में रखता है न पलकों पे बिठाता है मुझे
फिर भी इक शख़्स में क्या क्या नज़र आता है मुझे.
किस्सा-ए-दर्द में ये बात कहां से आई
मैं बहुत हंसता हूं जब कोई सुनाता है मुझे.
ख़्वाब देखने की हसरत में तन्हाई मेरी
आंखों की बंजर धरती में नींदें बोती है.
खुद को तसल्ली देना कितना मुश्किल होता है
कोई कीमती चीज अचानक जब भी खोती है.
वो बेवफा है हमेशा ही दिल दुखाता है
मगर हमें तो वही एक शख्स भाता है.
अजीब चीज है ये वक्त जिसको कहते हैं
कि आने पाता नहीं और बीत जाता है.
(न्यूज 18 में 13 फरवरी 2023 को प्रकाशित ब्लॉग।)