Monday, November 10, 2008

'गरीब'(मालवी लोक कथा)

काली, अंधेरी रात । तेज, मूसलाधर बारिश । ऐसी कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही । मानो सारे के सारे बादल आज ही रीत जाने पर तुले हों । पांच झोंपडियों वाले 'फलीए' की, टेकरी के शिखर पर बनी एक झोंपडी । झोंपडी में आदिवासी दम्‍पति । सोना तो दूर रहा, सोने की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं हो रही । झोंपडी के तिनके-तिनके से पानी टपक रहा । बचाव का न तो कोई साधन और न ही कोई रास्‍ता । ले-दे कर एक चटाई । अन्‍तत: दोनों ने चटाई ओढ ली । पानी से बचाव हुआ या नहीं लेकिन दोनों को सन्‍तोष हुआ कि उन्‍होंने बचाव का कोई उपाय तो किया ।चटाई ओढे कुछ ही क्षण हुए कि आदिवासी की पत्‍नी असहज हो गई । पति ने कारण जानना चाहा । पत्‍नी बोली तो मानो चिन्‍ताओं का हिमालय शब्‍दों में उतर आया । उसने कहा - 'हमने तो चटाई ओढ कर बरसात से बचाव कर लिया लेकिन बेचारे गरीब लोग क्‍या करेंगे ?'

3 comments:

  1. अरे वाह । जाल जगत में आपका हार्दिक स्‍वागत है । आपने प्रारम्‍भ मालवी लोक कथा से किया है तो आशा करें कि आप मालवा की चौपाल का आनन्‍द हमें जाल जगत में उपलब्‍ध कराएंगे ।
    पुन: स्‍वागत और हार्दिक शुभ-कामनाए ।

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  2. कितनी दुर्लभ है यह सरल-हृदयता!

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  3. bahut achhi aur maarmik kahaaani hai. halanki mai sirf ek vidyarthi hoon isliye chhota muh badee baat lag sakati hai

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