Tuesday, March 30, 2010

पानी गए न ऊबरे/

...उसने चुराया पानी

मुबंई में हुई एक घटना मन उचाट कर गई। हुआ यूँ कि मुबंई के कुछ संभ्रात (?) परिवारों ने एक महिला को चोरी करते रंगें हाथों पकड़ लिया। फिर जैसा कि खुद ही न्याय कर सजा देने का चलन चल पड़ा है, लोगों ने पहले उसे पीटा फिर मुँह काला कर कॉलोनी में घुमाया। सजा देने का उद्देश्य यह होता कि उसके डर से व्यक्ति अपराध्ा न करे।


उम्मीद की जानी चाहिए वह महिला भी भविष्य में चोरी नहीं करेगी।

इस उम्मीद के पहले यह तो जान लीजिए कि उस महिला का दोष क्या था? पानी का संकट भोग रही मुबंई की वह महिला ध्ानाढ्यों की कॉलोनी में से एक बाल्टी पानी चुरा रही थी ! एक बाल्टी पानी की सजा- पहले पिटाई फिर मुँह काला।

'पानीदार" लोगों जरा यह तो सोचते कि जिस महिला को प्यास बुझाने के लिए पानी चुराना पड़ा, वह अपने मुँह की कालिख ध्ाोने के लिए पानी कहाँ से लाएगी? और समाज के लिए उसके भीतर जो कालिख जमेगी उसे कौन-सा पानी साफ कर पाएगा?

जितना पानी उसने चुराया उससे ज्यादा तो शरीर साफ करने में बह जाएगा। उस 65 करोड़ लीटर पानी का क्या जो रोजाना मुबंई की सड़कों पर व्यर्थ बह रहा है?

... समय आने वाले कल की कहानी आज लिख रहा है। पानी के लिए विश्व युद्ध होगा, कुछ समय पहले तक इस भविष्यवाणी का मखौल उड़ाया जाता था। आज आसपास की घटनाएँ देख कर डर लगता है, भविष्यवाणी सच होने को है। देश तो बाद में लड़ेंगे, पहले प्रदेश टकराएँगे और उसके पहले हम। रोटी-बेटी का नहीं पानी का संबंध्ा मायने रखेगा और...

जब कोई मेजबान पूछ लेगा- पानी पीएँगे, तो बावरा मेहमान अपनी किस्मत पर गुमान करेगा।

शायद दूध्ा की नदियों की तरह हम याद करेंगे...पहले चाय-पानी की सहज आतिथ्य हुआ करता था।

अभी भी मौका है पानी ही इस संकट से ऊबारेगा, इसे बचाइए।

Sunday, March 7, 2010

।। स्त्री ।।

सयानी होते ही

तू समझ गई थी

अपनी हदें और जिम्मेदारियाँ।

किस वक्त चुप रहना है

और कब जागना है

खुद ही सीख लिया था तुमने।

पिता की जेब देख

जाहिर ही नहीं की

अपनी इच्छाएँ

बाहर निकलने पर भाई

का पहरा तुझे अखरा ही नहीं

कई बार छोटे ने सिखाया

तुझे अदब का तरीका

पर तू खामोश रही

भय्या राजा की बेअदबी पर।

तेरे हिस्से आई कभी कोई खास चीज

तो तुझसे पहले झपट लिया उसने

जिस पर तू हर सुख न्यौछावर करती रही।

जिस पति के लिए तू

बिछती रही हरदम

उसने तो कभी जरूरी नहीं समझा

कि पूजा के अलावा

बैठाए कभी अपने पास।

जिसे तुमने अपने संस्कारों से सिरजा था

उस बेटे के ताने तू

भुला देती है मुस्कुराते हुए।

खीर हो या लजीज सब्जी

हर सुख पाने में अन्तिम रही तुम।

कौन जाने अपना दुख छुपाने में

क्या आनन्द मिलता है तुम्हें

जब-जब देखता हूँ तुझे

समझ ही नहीं पाता

तुमने अपने सपनों को क्यों नहीं बुना

वैसा जैसा बनाया था मेरा स्वेटर।

तुमने क्यों नहीं रचा

अपना सुख

गोल-गोल चपाती की तरह।