Sunday, March 7, 2010

।। स्त्री ।।

सयानी होते ही

तू समझ गई थी

अपनी हदें और जिम्मेदारियाँ।

किस वक्त चुप रहना है

और कब जागना है

खुद ही सीख लिया था तुमने।

पिता की जेब देख

जाहिर ही नहीं की

अपनी इच्छाएँ

बाहर निकलने पर भाई

का पहरा तुझे अखरा ही नहीं

कई बार छोटे ने सिखाया

तुझे अदब का तरीका

पर तू खामोश रही

भय्या राजा की बेअदबी पर।

तेरे हिस्से आई कभी कोई खास चीज

तो तुझसे पहले झपट लिया उसने

जिस पर तू हर सुख न्यौछावर करती रही।

जिस पति के लिए तू

बिछती रही हरदम

उसने तो कभी जरूरी नहीं समझा

कि पूजा के अलावा

बैठाए कभी अपने पास।

जिसे तुमने अपने संस्कारों से सिरजा था

उस बेटे के ताने तू

भुला देती है मुस्कुराते हुए।

खीर हो या लजीज सब्जी

हर सुख पाने में अन्तिम रही तुम।

कौन जाने अपना दुख छुपाने में

क्या आनन्द मिलता है तुम्हें

जब-जब देखता हूँ तुझे

समझ ही नहीं पाता

तुमने अपने सपनों को क्यों नहीं बुना

वैसा जैसा बनाया था मेरा स्वेटर।

तुमने क्यों नहीं रचा

अपना सुख

गोल-गोल चपाती की तरह।

3 comments:

  1. वाह!! पूरे भाव निचोड़ दिये ...बेहतरीन रचना.

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  2. भाई पंकज, आज पहली बार आया हूँ यहाँ.
    बहुत अच्छे कवितायेँ और पोस्ट!

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