Friday, April 9, 2010

किताब पढकर रोना

रघुवीर सहाय की कविता-



रोया हूं मैं भी किताब पढकर के

पर अब याद नहीं कौन-सी

शायद वह कोई वृत्तांत था

पात्र जिसके अनेक

बनते थे चारों तरफ से मंडराते हुए आते थे

पढता जाता और रोता जाता था मैं

क्षण भर में सहसा पहचाना

यह पढ्ता कुछ और हूं

रोता कुछ और हूं

दोनों जुड गये हैं पढना किताब का

और रोना मेरे व्यक्ति का



लेकिन मैने जो पढा था

उसे नहीं रोया था

पढने ने तो मुझमें रोने का बल दिया

दुख मैने पाया था बाहर किताब के जीवन से



पढ्ता जाता और रोता जाता था मैं

जो पढ्ता हूं उस पर मैं नही रोता हूं

बाहर किताब के जीवन से पाता हूं

रोने का कारण मैं

पर किताब रोना संभव बनाती है.

2 comments:

  1. बहुत ही बेहतर कविता...
    रघुवीर सहाय की यह कविता कभी पढी नहीं थी...बेहद आनंद...

    बहुत आभार !!!

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  2. बेहतर कविता.

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