दो घूँट पानी
'पानी पिलाया?" दो शब्दों का यह छोटा सा सवाल अपने भीतर ग्रंथों के बराबर का जवाब समेटे हुए हैं। एक 'हाँ" सुनते ही प्यासे कंठ के तृप्त होने के बाद चेहरे पर उभरे भाव याद हो आते हैं और जब इसका प्रयोग मुहावरे के रूप में हो तो जवाब सुन दूसरे पक्ष की हार सुकून देती है। पानी है ही ऐसी चीज। निर्जीव में प्राणों का संचार कर देने वाला पानी असल आब है। आजकल तो नहीं दिखता लेकिन कुछ बरस पहले तक पानी पिलाने का सुकून हर गली-चौराहे पर दिखाई देता था। लाल कपड़ों से ढँक की करीने से सजे मटके, जमीन में आधी गढ़ी काली नांद ताकि हरदम पानी ठंडा रहे। 9 बजते-बजते जब दिन चढ़ने लगता प्याऊ पर शीतलता बढ़ती जाती। चाहे खरीदी करने निकलो, यात्रा पर या यूँ ही मटरगश्ती करने, प्यास की क्या फिक्र? कहीं दो पल रूक कर मीठा पानी पी लेंगे। कहीं रंग-बिरंगे प्लास्टिक के गिलास, तो कहीं लोहे की सांकल से बँधा स्टील का गिलास। कहीं तो गिलास का सुख केवल कुछ खास लोगों को ही नसीब होता था बाकि तो थोड़ा झुक कर हाथ की ओक से तृप्त होते थे। क्या दृश्य होता था। पतलून या साड़ी को भीगने से बचाने के लिए पैरों में दबा लिया जाता था फिर भी पैर तो भीग ही जाते थे। पानी पी कर गीले हाथों को सिर पर फेर कर आनंद की अभिव्यक्ति होती थी। क्या अद्भुत अनुभव होता था शिख से नख तक शीतलता पाने का।
आज घर से निकलते वक्त पहली चिंता होती है साथ में पानी लेने की। अधिकांश तो यह चिंता नहीं करते। कदम-कदम पर पाऊच, बोतल और शीतल पेय की उपलब्धता है। सीधे मुँह से लगा कर पिए जा रहे पेय में मेरा दिल प्याऊ सी शीतलता खोजता है, नख से शीश को तृप्त करने वाली शीतलता।
चिंता केवल इतनी ही नहीं है कि बाजार शीतलता बेच रहा है, बड़ी चिंता यह है कि हमारे समाज से प्याऊ खत्म हो रहे हैं और खत्म हो रहे हैं पानी पिलाने वाले। सब चलता है कहने वाले लोगों में कहाँ वह साहस जो गलत काम पर किसी को पानी पिला दे या किसी के कंठ को तर करने के लिए 'कमाने के समय" में प्याऊ पर जलसेवा करे?
किस्सा है कि गुरू गोविंद सिंह के भाई घनैयाजी संघर्ष के दिनों में गुरू सेना को पानी पिलाया करते थे। इस दौरान जब विरोधी सेना का प्यासा सिपाही मिल जाता तो वे उसे भी पानी पिला देते थे। गुरू गोविंदसिंह से शिकायत हुई तो भाई घनैयाजी ने जवाब दिया मुझे तो प्यासा दिखाई देता है। अपने या दुश्मन में भेद कैसे करूँ?
1929 में जब महात्मा गाँधी ने जातीय भेदभाव को खत्म करने की ठानी तो कहा कि उच्च वर्ग के लोग हरिजनों को अपने कुएँ की पाल पर बुलाकर पानी पिलाएँ। यह आह्वान जन चेतना का कारक बन गया था। कितना अच्छा हो कि ऐसे ही किरदार बाजार में खड़े हों लेकिन उनके हाथ में लुकाठी नहीं पानी से भरा पात्र हो।
भाई अब तो हालात ऐसे हैं कि कहीं कहीं रोज़ की जरूरत का पानी भी खरीदना पड़ता है...........
ReplyDeleteसीधे मुँह से लगा कर पिए जा रहे पेय में मेरा दिल प्याऊ सी शीतलता खोजता है.....
ReplyDeleteAb bahin milegi.sab bazar ki maya hai.
वाज़िब चिंता मित्र...
ReplyDeleteबाज़ार हमसे पानी का आखिरी घूंट भी छीन लेगा...
फिर यही बचेगा जैसा कि संघ्या जी ने कहा है...
जो कर सकेंगे...प्याऊं सी शीतलता वही पा पाएंगे....
http://www.scribd.com/doc/91194550/National-Water-Policy-2012
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