पुनर्वास विभाग को नहीं पता कितने हुए विस्थापित
मप्र के पुनर्वास विभाग को नहीं पता है कि प्रदेश में विभिन्न योजनाओं के तहत कितने लोगों को विस्थापित किया गया और कितने लोगों का पुनर्वास किया गया। विभाग से जब 2006 में सूचना के अधिकार के तहत जानकारी माँगी गई तो जवाब मिला-'हम बांग्लादेशी और पाकिस्तान के विस्थापितों का काम देखते हैं। प्रदेश के विस्थापन की जानकारी नहीं है।" जब राज्य सूचना आयोग ने सूचना जुटा कर देने को कहा तो पुनर्वास विभाग ने 13 विभागों से जानकारी माँगी। तब से जानकारी ही जुटाई जा रही है।
यह एक उदाहरण सूचना के अधिकार की ताकत और जरूरत बताने के लिए काफी है। 12 अक्टूबर 2007 में लगाए गए इस आवेदन के जवाब में विभाग ने जानकारी न होने बात कह दी। प्रथम अपील में भी प्रकरण खारिज कर दिया गया तो राज्य सूचना आयोग में अपील की गई। सुनवाई के बाद आयोग ने कहा कि पुनर्वास विभाग को जानकारी देना चाहिए। आयोग ने कहा कि विभाग के पास जानकारी नहीं है तो वह अन्य विभागों से जुटा कर जानकारी दे। इस आदेश के बाद पुनर्वास विभाग ने विस्थापन करने वाले राजस्व, नगरीय प्रशासन, वन एवं पर्यावरण, जल संसाधन सहित 13 विभागों से विस्थापन और पुनर्वास की जानकारी माँगी। तीन साल बाद अब तक विभागों ने जानकारी नहीं भेजी है।
आकलन है कि प्रदेश में हुए 60 से 80 प्रतिशत विस्थापन के बारे में विभागों को पता नहीं है कि विस्थापित कहाँ और किस हालत में हैं। इस आवेदन ने व्यवस्था की पोल खोलते हुए साबित कर दिया कि दफ्तरों में कामों और जानकारियों को अपडेट नहीं किया जाता। यहाँ केवल तात्कालिक जानकारियाँ ही मौजूद होती हैं। असल में यह इस कानून के अस्तित्व से जुड़ा मुद्दा है। गौरतलब है कि सूचना के अधिकार कानून में अधिकांश आवेदनों को सूचना न होने की वजह से खारिज कर दिया जाता है। सामाजिक कार्यकर्ता सचिन जैन कहते हैं कि सरकारी विभागों में सूचना को एकत्रित करने और संग्रह कर रखने की कोई व्यवस्था नहीं है। योजनाएँ प्रारम्भ कर दी गई लेकिन उसके प्रभावितों, नुकसान और लाभ के आकलन के लिए जानकारियाँ ही नहीं है तो कैसे सफलता-असफलता जाँची जा सकेगी? आँकड़ों के बिना गरीब विस्थापितों के लिए कोई योजना कैसे चलाई जा सकेगी? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि सही तथ्य, जानकारियाँ और आँकड़ों के अभाव में सही योजना का निर्माण कैसे होगा?
एक साल बाद भी नहीं मिली कॉपियाँ
एक तरफ जहाँ विभागों के पास जानकारियाँ नहीं हैं वहीं दूसरी ओर अपील करने के बाद निर्णय और सूचना देने में इतनी देर हो जाती है कि फिर सूचना का मकसद खत्म हो जाता है। पिपरिया की सुगंधा और खुशबू माहेश्वरी का प्रकरण इसका उदाहरण है।
सुगंधा और खुशबू माहेश्वरी ने माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय से दिसंबर 2008 में एमएससी कम्प्यूटर साइंस की परीक्षा दी थी। मार्च 2009 में जब परिणाम आया तो सुगंधा को दो विषय में 35-35 और दो में 45-45 नंबर मिले थे। खुशबू को दो में 45-45 और दो में 55-55 नंबर मिले। सुगंधा जहाँ दो विषयों मंे फेल होने से सकते में थीं वहीं समान नंबर मिलने से खुशबू अचरज में। उन्होंने कॉपियों की फोटोकॉपी माँगने के लिए 3 जून 2009 को आवेदन दिया। आवेदन खारिज होने पर अगस्त 2009 में राज्य सूचना आयोग में अपील की गई। आयोग में उनके प्रकरण पर सुनवाई का नंबर साल भर बाद अक्टूबर 2010 में आया। अब साल भर पास या फेल का निर्णय हो भी जाए तो समय गुजरने के बाद मिली सूचना किस काम आएगी?
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