Monday, April 2, 2012

...और साँसें बची रह गईं


फिर हटा लेना मिरे माथे से तू भी अपना साथ
मैं भी चुप हो जाऊँगा बुझती हुई शम्ओं के साथ
और कुछ लम्हें ठहर ! ऐ जिंदगी ! ऐ जिंदगी !


मकबूल शायर अहमद फराज की ये पंक्तियाँ अकसर याद आ जाती है जब जिंदगी को जीतते देखता हूँ। वो कहते हैं ना कि मौत तो महबूबा है संग लेकर जाती है। बहुत बार मौत को देखा है मेरे अपनों को संग ले जाते हुए। कभी सीना तान कर तो कभी चकमा दे कर चोरों की तरह...कभी मौत ने बाज की मानिंद ऐसा झपटा मारा कि कोई  संभल तक ना पाया। लेकिन जनाब, जिंदगी तो जिंदगी है। वह जब बचती है तो देखने वाले स्तब्ध रह जाते हैं। समझ ही नहीं पाते कौन ताकतवर है- जिंदगी या मौत? 


बात हाल ही की एक  रात  की है। रात गहराए कुछ  ही वक्त हुआ था। भोपाल की व्यस्त सड़कों पर गाड़ियाँ रोज  ही की भाँति तेज रफ्तार भागी जा  रही थीं, उतनी ही तेज जितनी रफ्तार से दौड़ रही थी जिंदगी। मैं भी  इस कारवाँ का एक हिस्सा था तभी नजर पड़ी सड़क पार  करने की कोशिश कर रहे एक पिल्ले पर। ख्याल आया, ये नादान क्या जाने सड़क पार करने की भी कुछ नियम होते हैं। दूसरे ही पल विचार आया जिन्हें पता है वे भी कहाँ पालन  करते हैं नियमों का। इसी उधेड़बुन में खोया था कि अचानक एक कार से किसी के टकराने की आवाज आई।  पें-पें-पें की कातर आवाज सुनते ही माजरा समझ में आ गया। कार से  वह कुत्ता टकराया था। पूरे वातावरण में टक्कर की आवाज  के बाद उस कुत्ते की कराह भर कायम थी जो वाहनों के हार्न  के शोर में भी रह-रह कर दबी नहीं थी। मेरे साथ कुछ और लोगों ने जगह बना कर सड़क किनारे गाड़ियाँ लगाई बाकी गाड़ियों को दौड़ना था सो वे दौड़ती रही। हादसे की जगह देखने पर पाता हूँ कि टक्कर मारने वाली गाड़ी जा चुकी थी लेकिन बीच सड़क पर प्राणहीन प्राणी दिखाई दे रहा था। मन में ढ़ेरों विचार...कसक... दुख... पीड़ा और मौत की जीत का दर्द।
 कितनी ही बातें याद हो आई, कितने ही अपने चेहरे याद हो  आए जिन्हें मौत यूँ ही ले गई थी अपने साथ झपट कर। कुछ साथी कुत्ते उसके पास गए और कुछ सूँघ कर भाग गए। तभी क्या देखता हूँ उस पिल्ले ने अपनी गर्दन  उठाई। हे भगवान! ये क्या? क्या इसका केवल पिछला हिस्सा कुचला है? ओह!  दारूण रूदन कब  थमेगा? क्या कोई और वाहन इसे कुचलेगा तब तक... ख्याल मेरे कदमों से तेज चल रहे थे। मैं कुछ कदम पीछे रह गया था तभी एक  मिनी बस सड़क पर पड़े कुत्ते के करीब जाती दिखाई दी। अरे! अब तो कोई बचा नहीं सकता। रात के अंधेरे में तो वह मिनी बस इसे जरूर कुचलेगी। तभी जैसे एक देवदूत प्रकट हुआ। मुझ से पहले दौड़ कर एक छात्र उस कुत्ते के पास पहुँच चुका था। उसके वहाँ पहुँचते ही मिनी बस चालक ने गाड़ी काटी और रवाना हो  गया। लगा मौत दूसरी बार हार गई। पर ख्याल आया, क्या पता पहली टक्कर में कितना शरीर बचा होगा। अच्छा होता कुचल ही गया होता तो इतनी पीड़ा तो नहीं होती। इसके कितने ही वंशज ऐसे ही तो गए हैं। यह क्यूँ रह गया? लगा कुछ पल पहले सड़क पर दिखे एक प्राणी से जैसे मुझे लगाव हो गया। 
तभी क्या देखता हूँ उस छात्र ने जैसे ही हाथ बढ़ाया वह पिल्ला तो खड़ा हो गया...एक बार  फिर चौंकने की बारी थी...अरे! यह तो बच गया! चोट लगी होगी, शायद। उसके बच जाने की खुशी के बीच मैं, वह छात्र और कुछ  लोग उसके शरीर पर घाव खोजने लगे। उस सहमे प्राणी को सड़क किनारे ले गए। देखा तो पाया कि मामूली रगड़ के अलावा उसे कोई बाहरी चोट नहीं लगी थी।  पास की ही दुकान से पानी लेकर उसे दिया गया। कुछ मिनटों बाद वह अपने साथी कुत्ते के साथ उछलकूद कर रहा था। 
मैं सुखद आश्चर्य में खो गया...जिंदगी ऐसी ही होती है। जब जीतती है तो पूरी शान से जीतती है। 


एक बात सच है, चाहे मौत जीते या जिंदगी, आँसू दोनों ही बार आते हैं फर्क केवल इतना है कि जिंदगी की जीत के बाद निकले आँसू खारे नहीं होते। 

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