Monday, December 10, 2012

कैसा नेतृत्व चाहिए अनुभवी युवा या जवां बुढ़ापा


अमेरिकी राष्ट्रपति बने बराक ओबामा ने पिछले चुनाव प्रचार की तरह इस बार भी खुद को युवा दिखाने की पूरी कोशिश की। स्टेज पर दौड़ कर चढ़ना और चुस्ती-फुर्ती के साथ हर व्यवहार करना इसलिए भी जरूरी था कि अमेरिका अपने राष्ट्रपति या नेता को बुजुर्ग नहीं देखना चाहता। यह कोई आज की भावना नहीं है। अमेरिका के 35 वें राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी को सबसे युवा राष्ट्रपति का दर्जा दिया गया था लेकिन 1961 में बुजुर्गों को पीछे छोड़ राष्ट्रपति बने कैनेडी की मौत के बाद राज खुला कि स्वास्थ्य के लिहाज से वे उतने युवा थे नहीं जितने माने जा रहे थे। उन्हें 13 साल की उम्र में कोलाइटिस हुआ था और राष्ट्रपति बनने के पहले पीठ के दो ऑपरेशन असफल हो चुके थे। दर्द से बचने के लिए उन्हें भारी मात्रा में स्टेराइड लेना पड़ता  था। लेकिन जनता के सामने झूठी छवि बनाए रखने के लिए उन्होंने जीते जी यह सच सामने नहीं आने दिया।

इस भूमिका के साथ इस मुद्दे पर बहस की शुरूआत की जाना चाहिए कि हमारे यहां राजनीति दलों के संगठन और सरकारों का नेतृत्व कैसा हो? यह सवाल इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि गुजरात में चुनाव की प्रक्रिया जारी है और जल्द ही केन्द्र के लिए भी नई सरकार चुनना है। हरबार तत्कालीन नेतृत्व को खारिज करने के लिए गिनाए जाने वालों कारणों में जो एक उभय कारण होता है- उम्र। युवा नेतृत्व की मांग हर समय में की जाती रही है और परिवार से लेकर राजनीति तक पीढ़ियों का यह विवाद खुल कर सामने आता रहा है। दोनों पीढ़ियां एक-दूसरे को कमतर दिखाने और खारिज करने में कोई कसर नहीं छोड़ती।

सवाल यह है कि युवा नेतृत्व के नाम पर क्या दशकों के अनुभव, व्यवस्था से काम करवाने के कौशल, जनता की भावना को समझने और उसके अनुरूप काम करने की कुशलता, पार्टी की विचारधारा की समझ जैसे तमाम गुणों को भूला देना चाहिए? युवा होना क्या उम्र से कम होना ही है? क्या उम्र से छोटा दिखने की जगह विचारों से युवा होना ज्याद जरूरी नहीं है? क्या समय के अनुरूप खुद को और काम करने के ढंग को बदलने की ललक और क्षमता व्यक्ति को हमेशा युवा नहीं बनाए रखती?

विचारों का उम्र से क्या संबंध? अगर यह माना जाए कि उम्र के कारण व्यक्ति की ऊर्जा घट जाती है और मामलों को समझने-हल करने के तरीके में जड़ता आ जाती है तो 'बुजुर्ग" प्रधानमंत्री  मनमोहन सिंह आर्थिक विकास के लिए सुधार जैसे युवा फैसले क्यों ले पा रहे हैं?

ज्यादा दिन नहीं हुए जब भाजपा अपने अधिकांश फैसलों के लिए लालकृष्ण आडवाणी पर निर्भर हुआ करती थी। आज भी उनके बदले पार्टी युवा नेतृत्व खोज रही हैं लेकिन वैसा युवा चेहरा मिल नहीं रहा।

असल में युवा विचारों और क्रियाकलापों से हुआ जाता है, उम्र से नहीं। हमारे बीच में कम उम्र के ऐसे कई साथी मिल जाएंगे जिनमें कुछ नया करने या प्रचलित में बदलाव करने का जरा सामर्थ्य नजर नहीं आता है और ऐसे कई बुजुर्ग मिल जाएंगे जो समय के अनुरूप क्रांतिकारी बदलाव करने की क्षमता रखते हैं। एक छोटा से उदाहरण ही देंखे-अधिकांश बुर्जुग नेताओं ने जरूरत समझते हुए तत्काल मोबाइल और संवाद-संचार की आधुनिक तकनीक को अपनाया और खुद को आत्मनिर्भर भी बना लिया लेकिन जब पूछा जाए कि कितने युवाओं ने खासकर राजनीति में वरिष्ठों-सी परिपक्व सोच का नमूना पेश किया है तो जवाब देने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।

तमाम पार्टियां नेतृत्व की सेकेण्ड और थर्ड लाइन को लेकर संकट में है और यह संकट केवल मुख्य पार्टी का ही नहीं बल्कि विद्यार्थी और युवा जैसे अनुषांगिक संगठनों का भी है। वर्तमान नेतृत्व को हटाने और टिकट पाने के लिए खुद को युवा बताने की होड़ लगती है लेकिन नेतृत्व तय करते समय हमें यह सोचना होगा कि हम विचारों से युवा नेता चुन रहे हैं या युवा दिख रहे नेतृत्व में बुढ़ापा आगे बढ़ा रहे हैं। यह चुनौती दलों के लिए भी है और हमारे लिए भी।

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