Monday, December 31, 2012

बेटी को तो बेटा खूब कहा, कभी बेटे को लाड़ से बेटी कह कर तो देखिए...


हमारे देश में गर्भ से ही लड़कियों के साथ भेदभाव शुरू हो जाता है। हम कहते जरूर हैं कि बच्चियां देवी का रूप  होती है लेकिन जब वह हमारे घर में आने वाली होती है तो उसकी राह रोक देते हैं। डॉक्टर गर्भ परीक्षण करते हैं और कन्या भ्रूण होने पर उसे गिरा देते हैं। वे कहते हैं कि उनका यह काम नहीं है लेकिन वे तो ऐसा समाज की मांग को पूरा करने के लिए करते हैं! वही, अर्थशास्त्र का मांग और पूर्ति का नियम। खास बात तो यह है कि यह काम पढ़े लिखे तबके में शहरी इलाकों में सबसे ज्यादा होता है। जहां जांच के लिए सोनोग्राफी मशीन जितनी ज्यादा है, उस इलाके में लिंगानुपात का अंतर उतना ज्यादा है। जन्म से लेकर मौत तक कन्या के साथ भेदभाव की मूल वजह हमारी सोच और यहां जमी पुरुषवादी सोच ही है। हम कहते भले ही हैं कि महिला ही महिला की दुश्मन है, जबकि महिला में यह सोच पुरुष अहम् को पूरा करने प्रतिस्पर्धा  और अपना महत्व कम होने के डर की वजह से पनपती है। सास केवल इसलिए बहू की राह में कांटे बिछाने लगती है कि उसे बेटे और घर पर अपना अधिकार  खोने का डर लगने लगता है। बहू का अपडेट होने भी इसलिए अखरता है और उसे कमतर व नीचा दिखाने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं। 
कितनी बड़ी विडंबना है कि पढ़े लिखे पति के लिए कई सालों के रिश्ते के बाद भी पत्नी की गाइनिक प्राब्लम 'लेडिस की बीमारी' रहती है जिसके बारे में वह कुछ नहीं जानता। यह अंतर वैसा ही जैसे लाड़ से बेटी को बेटा कहने वाला समाज कभी बेटे को प्यार से बेटी नहीं पुकारता क्योंकि यह पुरुषवादी सोच को चोट है। 
दिल्ली में गैंगरेप के बाद देश में ऐसे ही कई सवाल उठ खड़े हुए हैं और अलग-अलग स्तर पर इनके जवाब खोजे जा रहे  हैं। बड़ वर्ग है जो यह मानता है कि बलात्कार के बाद फांसी या कोई सख्त सजा एकदम से ऐसी घटनाओं को रोक नहीं देगी। इन घटनाओं खासकर छेड़छाड़ से लेकर रोजाना के भेदभाव को रोकने लिए समाज की सोच में परिवर्तन जरूरी है। इन्हीं बातों को लेकर  भोपाल में संस्था सरोकार और पापुलेशन फर्स्ट ने दो दिन की कार्यशाला में समाज में जेंडर के मसलों पर बात की। महिला एवं बाल विकास विभाग आयुक्त डॉ मनोहर अगनानी ने यहां इस बात को रेखांकित किया कि हम गरीबों और निरक्षरों को पिछड़ा मानते हैं लेकिन असल में लिंग भेदभाव करने में वे पिछड़े हैं और पढ़ा लिखा समाज आगे। उन्होंने कहा कि जब हम  यह कहते हैं कि बेटी को जन्म नहीं लेने दोगे तो बहू कहां से लाओगे तो भी हम लड़कियों का अधिकार छिन रहे होते हैं। उन्हें बेटा या किसी भूमिका का पर्याय ही माना जाता है। कभी स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में नहीं देखा जाता। तभी तो अच्छा काम करने पर शाबाशी में कहा जाता है कि तू तो मेरा बेटा है। कभी किसी लड़के के घर में अच्छा काम करने पर कह कर देखिए कि तू तो मेरी बेटी है। बखेड़ा खड़ा हो जाएगा। यह कैसा पैमाना है कि बेटी को बेटा कहना उसका पारितोषिक माना जाता है और  पुरूष को स्त्री संबोधन देना उसकी मर्दानगी पर चोट?
यह सोच हमारे भीतर कितनी गहरी जमी है, इसका उदाहरण वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीवान ने दिया। उन्होंने बताया कि उनके एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र अस्पताल में मिले। पूछने पर बताया कि उनकी श्रीमती को कोई 'लेडिज की बीमारी' है इसलिए वह भर्ती हैं। सवाल यह है कि जिसे बेटर हाफ कहा जाता है और जिसके साथ 15-20 सालों का नाता रहा, पति उसी पत्नी की बीमारी से अनजान है। उसने कभी यह जानने की कोशिश ही नहीं कि पत्नी को समस्या क्या है। सवाल यह भी है कि पत्नी के मन की बात भले मत जानो लेकिन जिस शरीर की जरूरत महसूस होती है कभी उसकी तकलीफों को भी तो समझो। 
महिलाओं का स्तर जब तक हमारी सोच में नहीं बदलेगा तब तक समाज में उनकी स्थिति नहीं बदलेगी। न किसी कानून से और न किसी सख्त सजा से। कहां-कहां और किस-किस को हम सजा देंगे? जब लड़कियां अपने साथ हो रहे अपराधों  को गिनाना शुरू कर देंगी तो हममें से कोई नहीं बचेगा। 

1 comment:

  1. कोई बात कार-बार, लगतार कहते रहने से ही उसका असर होता है।

    ऐसी बातें हमें कहते रहना होगी। बार-बार। लगातार।

    ReplyDelete