जिसने भी इस समाचार को पढ़ा वह आह से भर गया कि सीहोर की दसवीं कक्षा की एक छात्रा ने छेड़छाड़ से तंग आ कर आत्महत्या कर ली है। छात्रा ने एक दिन पहले ही थाने में शिकायत की थी। इसके पहले कि पुलिस जागती, आरोपी ने छात्रा को धमकाया। आप कल्पना कर सकते हैं कि प्रताड़ना का क्या स्तर रहा होगा कि छात्रा ने खुद को आग के हवाले कर मौत का तकलीफदेह रास्ता चुन लिया। सीहोर के उस पुलिस थाने के स्टॉफ को कोई कैसे और किस भाषा में संवेदनशील होना सीखा सकता है जो कानून की धाराओं में जिंदगी कि मुश्किलों को आंकते हैं?
एक और मामला है इंदौर का। डकाच्या की मनीषा पटेल ने बाल अधिकार संरक्षण आयोग और महिला आयोग को पत्र लिख कर कहा था कि वह नाबालिग है और उसकी शादी करवाई जा रही है। वह पढ़ना चाहती है। भोपाल से बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने कार्रवाई की और प्रशासन को हस्तक्षेप के लिए कहा। प्रशासन ने मनीषा की मार्कशीट और नगर निगम द्वारा जारी जन्म प्रमाण-पत्र में जन्मतिथि में अंतर को देखते हुए भी परिवार के पक्ष में फैसला दिया और मनीषा की शादी करवा दी। अब पता चला है कि दोनों दस्तावेजों में मां के नाम भी अलग-अलग लिखे गए हैं। महिला आयोग प्रशासन के प्रति सख्त है। अब आयोग कुछ भी करता रहे, मनीषा के मर्जी के खिलाफ शादी तो हो गई। महसूस किया जा सकता है कि परिवार के खिलाफ आवाज बुलंद करने की सजा के रूप में मनीषा को कितनी मानसिक प्रताड़ना भोगनी पड़ी होगी? उसे बार-बार अहसास करवाया गया होगा कि परिवार की ताकत के आगे उसकी आवाज कुछ भी नहीं है। मालवा के मध्यमवर्गीय परिवारों में इस तरह का विद्रोह करना बड़े साहस की बात होती है। अपनी लापरवाही से मनीषा को परास्त करने वाले प्रशासन को क्या कभी अहसास होगा कि कैसे मनीषा के इस साहस को तोड़ा और लज्जित किया गया होगा?
हम कड़े कानून बनाने की पैरवी कर रहे हैं लेकिन क्रियान्वयन के स्तर पर इनके पालन का जिम्मा संभालने वालों की संवेदनहीनता और लापरवाह मिजाज चिंता में डालता है। हम निचले स्तर पर कैसे लोगों की मानसिकता को बदलें, यह सवाल ज्यादा जरूरी और मुश्किल नजर आता है। क्या उन्हें इस बात का कभी अहसास हो पाएगा कि समय पर कार्रवाई कर देते तो एक मासूम खुद को जिंदा आग के हवाले नहीं करती? सीहोर और इंदौर जैसा रोज होता है किसी और गांव, कस्बे या शहर में।
क्या हर बार दूसरों के दर्द का अहसास करने के लिए अपने पैरों की बिवाई फटना जरूरी है?
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