Wednesday, June 12, 2013

निर्मम सत्ता संघर्ष के सबक

भारतीय जनता पार्टी के  बूजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी भले ही मान गए है लेकिन उनकी नाराजगी और उसके बाद उन्हें मनाने की कवायद ने कई निष्कर्षों को पुनर्स्थापित किया है। भारतीय संस्कृति और आश्रम व्यवस्थ की आलोचना के तमाम कारण हो सकते हैं लेकिन भाजपा के ताजा प्रसंग में आश्रम व्यवस्था एकदम सही जान पड़ती है। यह  सिद्धांत कि जहां आपकी जरूरत न हो वहां टिके रहना आपके सम्मान को कम करता है, जीवन में बार-बार अपनी सार्थकता सिद्ध करता रहा है और इस बार भी इसने अपने सही होने को प्रमाणित किया है। आडवाणी जैसे कुशल नेता से यह आकलन करने में चूक हो गई कि भाजपा को उनकी जरूरत नहीं है और इससे पहले कि पार्टी उन्हें नकारे, वे खुद अपने लिए नई जिम्मेदारी चुन लें। लेकिन ऐसा हो न सका और जो घटा वह इस मायने में बेहद कष्टकारी है कि पार्टी को अपने जीवन रक्त से सिंचने वाले नेता कि ऐसी विदाई हुई। लेकिन सत्ता संघर्ष निर्मम होता है। भाजपा की मजबूरी यह है कि वह केवल आडवाणी के साथ नहीं रह सकती। उसे कांग्रेस से लोहा लेना है और ऐसे नेतृत्व की तलाश में थी जो मिशन 2014 को पूरा कर सके। आडवाणी का भरपूर अवसर मिले लेकिन उनके नेतृत्व में 1999 के बाद कोई चमत्कार हो न सका। यहां  तक कि आडवाणी की अंतिम रथयात्रा भी कोई कमाल नहीं दिखा पाई थी। लेकिन जैसा हर बार होता आया है सत्ता छोड़ना या सत्ता की आस छोड़ना  हर इंसान के लिए मुश्किल होता है, शायद आडवाणी के साथ भी वैसा ही हुआ। बहुत कम नेतृत्वकर्ता होते हैं जो अपनी दूसरी पीढ़ी को अपने से ज्यादा कुशल पा कर सत्ता सूत्र उसके हाथ में सौंप देते हैं। पिछले लगभग आठ वर्षो में आडवाणी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ एक हारी हुई बाजी में उलझे हुए थे। 2005 में आडवाणी की पाकिस्तान यात्रा के बाद से ही संघ ने यह साफ जता दिया था कि आडवाणी उन्हें मंजूर नहीं हैं। 2009 में आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा की चुनावी पराजय ने साफ कर दिया था कि अब पार्टी को किसी नए  नेतृत्व की तलाश है। संभवत: आडवाणी यह बात समझना नहीं चाहते थे। क्या यह कहना गलत होगा कि आडवाणी  बदले हुए समय और इस बदले समय में पार्टी की मांग को समझ नहीं पाए? दरअसल, चूक यही हुई है। आडवाणी और भाजपा का सत्ता पाने का सपना तो एक था लेकिन उसकी राह दोनों के लिए अलग थी। आडवाणी खुद के नेतृत्व में आगे बढ़ने का मोह पाले थे जबकि पार्टी उनका विकल्प खोज रही थी। अमूमन हर संस्था या परिवार में यही होता है। नई पीढ़ी तूफानी घोड़े पर सवार हो कर आती है और अपने पूर्ववर्तियों को उनके सिद्धांतों और नियमों के साथ निर्ममता से बाहर कर देती है। नई पीढ़ी संचालन के सारे सूत्र, सारे सिद्धांत अपने दृष्टिकोण से तय करती है और पुरानी पीढ़ी और उनके समर्थक हाशिए पर ठिठके सब कुछ बदलता और अपना बनाया परिवर्तित होते देखते रहते हैं।
ऐसी स्थिति में यह सवाल हमेशा खड़ा होता है क्या उस व्यक्ति का उस संस्था पर कोई हक नहीं जिसे उसने खून-पसीने से खड़ा किया है? असल में व्यक्ति सपने देखता है और अपने सपने को पूरा करने के लिए समानधर्मा लोगों को एकजूट करता चलता है। इस तरह संस्थाएं खड़ी होती है। धीरे-धीरे संस्थाएं  विराट होती जाती हैं और व्यक्ति बौने। एक समय आता है जब व्यक्ति उस संस्था के  लिए अहम् नहीं रह जाता। उसके होने या न होने के मायने नहीं रह जाते। व्यक्ति का हासिल यही है कि उसने जो सपना देखा था वह पूरा हुआ। पेड़ कोई और लगता है और  फल कोई और खाता है। माली का सुख तो पेड़ लगाने और उसने घना-विस्तारित होता देखने में हैं। लेकिन माली ही अगर अपने बोये पेड़ के फल खाने का ख्वाब देखे तो संघर्ष होना लाजमी है। हमारा इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। जिसने समय को नहीं पढ़ा, वह खारिज कर दिया गया है। दुखद यह है कि यह घटना बेहद निर्मम होती है और जश्न के स्वर में कोने में बिसूरने वालों की कराह सुनाई नहीं देती।

1 comment:

  1. राजनीति और उसके अनुयायी अक्सर क्रूर होते हैं , वे कृतघ्न तो होंगे ही !

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